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भारत में एक समान नागरिक संहिता कानून की कमी के चलते भारतीय समाज के समग्र विकास की संभावनाएं बाधित हो रही हैं.
हाल ही में इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले के मुताबिक, देश में समान नागरिक संहिता (यूसीसी) ज़रूरी और अनिवार्य रूप से आवश्यक है, इस टिप्पणी के बाद भारत में समान नागरिक संहिता की घटना को समझने की ज़रूरत बढ़ गई है. सवाल यह उठता है कि यूसीसी की अवधारणा कैसे अस्तित्व में आई? स्वतंत्रता के बाद के दौर में यूनिफॉर्म सिविल कोड को लाने के लिए क्या कदम उठाए गए थे? इस मुद्दे पर कानूनों का न्यायशास्त्र क्या है? वर्तमान सरकार इसे लागू करने में क्यों विफल रही है, और इसे लेकर आगे बढ़ने का संभावित तरीका क्या है? यह संविधान के अनुच्छेद 44 के तहत शामिल है जो यह घोषणा करता है कि राज्य नागरिकों को एक समान नागरिक संहिता सुनिश्चित करने की कोशिश करेगा. यह लेख संविधान के भाग IV में है जो राज्य के नीति निदेशक सिद्धांतों से संबंधित है, जो किसी भी अदालत में लागू नहीं होते हैं, लेकिन इसमें निर्धारित सिद्धांत देश के शासन में मौलिक अधिकार का दर्ज़ा पाते हैं, और यह राज्य का कर्तव्य होगा कि इन सिद्धान्तों को कानून में शामिल किया जा सके. निदेशक सिद्धांतों से जुड़े महत्व को मिनर्वा मिल्स बनाम यूनियन ऑफ़ इंडिया मामले में मान्यता दी गई थी, जहां सर्वोच्च न्यायालय ने टिप्पणी की थी कि मौलिक अधिकारों को निदेशक सिद्धांतों के साथ सामंजस्य स्थापित करना चाहिेए और इस तरह का सामंजस्य संविधान की बुनियादी विशेषताओं में से एक है.
1857 में भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम ने ब्रिटेन को एक सख़्त संदेश दिया कि वो भारतीय समाज के ताने बाने को नहीं छेड़े और शादियां, तलाक, मेनटेनेंस, गोद लेने और और उत्तराधिकार जैसे मामलों से संबंधित कोड में कोई बदलाव लाने की कोशिश नहीं करे.
ऐतिहासिक रूप से यूनिफॉर्म सिविल कोड का विचार 19वीं और 20वीं शताब्दी की शुरुआत में यूरोपीय देशों में तैयार किए गए इसी तरह के कानून से प्रभावित था और विशेष रूप से 1804 के फ्रांसीसी संहिता ने उस समय प्रचलित सभी प्रकार के परंपरागत या वैधानिक कानूनों को ख़त्म कर दिया था और इसे समान संहिता से बदल दिया था. बड़े स्तर पर, यह पश्चिम के बाद एक बड़ी औपनिवेशिक परियोजना के हिस्से के रूप में राष्ट्र को ‘सभ्य बनाने’ की कोशिश थी. हालांकि, 1857 में भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम ने ब्रिटेन को एक सख़्त संदेश दिया कि वो भारतीय समाज के ताने बाने को नहीं छेड़े और शादियां, तलाक, मेनटेनेंस, गोद लेने और और उत्तराधिकार जैसे मामलों से संबंधित कोड में कोई बदलाव लाने की कोशिश नहीं करे.
स्वतंत्रता के बाद, विभाजन की पृष्ठभूमि के विरूद्ध, नतीजे के तौर पर सांप्रदायिक वैमनस्यता और व्यक्तिगत कानूनों को हटाने के प्रतिरोध में यूसीसी को एक डायरेक्टिव प्रिसिंपल के रूप में समायोजित किया गया जैसा कि ऊपर चर्चा की गई है. हालांकि, संविधान के लेखकों ने संसद में एक हिंदू कोड बिल लाने का प्रयास किया जिसमें महिलाओं के उत्तराधिकार के समान अधिकार जैसे प्रगतिशील उपाय भी शामिल थे, लेकिन दुर्भाग्य से, इसे हक़ीक़त में नहीं बदला जा सका. 5 सितंबर 2005 को जब हिंदू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम, 2005, भारत के राष्ट्रपति की सहमति से पारित हुआ तब कहीं जाकर हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 में संपत्ति के अधिकारों के बारे में भेदभावपूर्ण प्रावधान हटाया जा सका. इस संदर्भ में, न्यायिक दृष्टिकोण से, सर्वोच्च न्यायालय ने कई मामलों में देश में एक यूसीसी होने के महत्व पर ज़ोर दिया है, जिसका विश्लेषण करने की आज ज़रूरत है. शाह बानो बेगम मामले से लेकर हाल ही में शायरा बानो बनाम भारत संघ के मामले में, जिसने तलाक-ए-बिद्दत (तीन तलाक़) की प्रथा की वैधता पर सवाल उठाए और इसे असंवैधानिक घोषित कर दिया .
शाह बानो बेगम मामले से लेकर हाल ही में शायरा बानो बनाम भारत संघ के मामले में, जिसने तलाक-ए-बिद्दत (तीन तलाक़) की प्रथा की वैधता पर सवाल उठाए और इसे असंवैधानिक घोषित कर दिया .
शुरुआत मो. अहमद खान बनाम शाह बानो बेगम और अन्य मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने शाह बानो के पति द्वारा उनके ख़िलाफ़ तलाक़ की घोषणा करने के बाद, दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 125 के तहत रखरखाव के मुद्दे पर अपना फैसला सुनाया. इस मामले पर फैसला सुनाते हुए, मुख्य न्यायाधीश वाई वी चंद्रचूड़ ने कहा कि संसद को एक सामान्य नागरिक संहिता की रूपरेखा तैयार करनी चाहिए क्योंकि यह एक ऐसा साधन है जो कानून के समक्ष राष्ट्रीय सद्भाव और समानता की सुविधा प्रदान करता है. इसके बावजूद, सरकार ने इस मुद्दे के समाधान में अपनी सक्रियता नहीं दिखाई और 1986 में तलाक़ पर मुस्लिम महिला अधिकारों का संरक्षण अधिनियम ले आई.
पूर्व के मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने उत्तराधिकार के संदर्भ में यूसीसी के महत्व पर ज़ोर दिया, और बाद के मामले में यह माना गया कि गार्ज़ियन एंड वॉर्ड्स एक्ट 1890 के तहत ईसाई धर्म की सिंगल मदर, बच्चे के कुदरती बाप की सहमति के बिना भी अपने बच्चे की एकमात्र गार्ज़ियनशिप के लिए आवेदन कर सकती है.
अगले दशक तक, इस मुद्दे पर चुप्पी छाई रही लेकिन फिर सरला मुद्गल, अध्यक्ष, कल्याणी और अन्य बनाम भारत संघ और अन्य का मामला आया, जहां सुप्रीम कोर्ट ने सरकार से समान नागरिक संहिता को एक हिंदू मॉडल के रूप में देश की रक्षा और राष्ट्रीय एकता को सुनिश्चित करने के लिए इसे अमल में लाने का आग्रह किया. इसी तरह, लिली थॉमस बनाम यूनियन ऑफ इंडिया और एबीसी बनाम द स्टेट (एनसीटी ऑफ दिल्ली) के मामलों का भी निपटारा किया गया. पूर्व के मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने उत्तराधिकार के संदर्भ में यूसीसी के महत्व पर ज़ोर दिया, और बाद के मामले में यह माना गया कि गार्ज़ियन एंड वॉर्ड्स एक्ट 1890 के तहत ईसाई धर्म की सिंगल मदर, बच्चे के कुदरती बाप की सहमति के बिना भी अपने बच्चे की एकमात्र गार्ज़ियनशिप के लिए आवेदन कर सकती है. इस संदर्भ में, अदालत ने समान नागरिक संहिता की कमी के चलते होने वाली समस्याओं की ओर इशारा किया था.
वर्तमान में, भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी), जो 2014 से सत्ता में है, ने अपने आम चुनावी घोषणापत्र में कहा था कि, “बीजेपी का मानना है कि जब तक भारत एक समान नागरिक संहिता को नहीं अपनाता है, तब तक देश में लैंगिक समानता नहीं आ सकती है, यह देश की सभी महिलाओं के अधिकारों की रक्षा करता है और भाजपा एक समान नागरिक संहिता का मसौदा तैयार करने के लिए प्रतिबद्ध है, जो सर्वोत्तम परंपराओं पर आधारित है और उन्हें आधुनिक समय के साथ सामंजस्य स्थापित करने का मौका देती है.”
हाल ही में वर्तमान सरकार ने विवाह के लिए बालिकाओं की आयु बढ़ाकर 21 वर्ष करने जैसे उपाय किये हैं, जो लैंगिक समानता सुनिश्चित करने के लिए एक सराहनीय कदम कहा जा सकता है.
वास्तविकता में, ऐसा नहीं हुआ है और हाल ही में वर्तमान सरकार ने विवाह के लिए बालिकाओं की आयु बढ़ाकर 21 वर्ष करने जैसे उपाय किये हैं, जो लैंगिक समानता सुनिश्चित करने के लिए एक सराहनीय कदम कहा जा सकता है. यह सोचने की ज़रूरत है कि यूसीसी लाकर महिलाओं सहित समाज के समग्र विकास को कैसे सुनिश्चित किया जा सकता है और संविधान के अनुच्छेद 51 ए (एफ) और अनुच्छेद 51 ए (ई) के उद्देश्यों को कैसे संतुलित किया जा सकता है, जो मूल्य निर्धारण के पहलुओं से संबंधित है, और जो मिली-जुली संस्कृति और त्याग की समृद्ध विरासत को संरक्षित करता है और जो उन परंपराओं को ख़त्म करता है जो महिलाओं की गरिमा के लिए अपमानजनक हैं.
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Abhinav Mehrotra is an Assistant Professor at O.P. Jindal Global University and holds an LL.M. in International Human Rights Law from the University of Leeds. ...
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