आर्थिक वृद्धि और विकास का जो पारंपरिक नज़रिया है, उसमें दूर की चीज़ें स्पष्ट रूप से नहीं दिखाई देती हैं. इस दृष्टिकोण के तमाम पहलू हैं. विकास के इन स्थापित तौर-तरीक़ों पर नज़र डालें तो इनमें सीमित मात्रा में उपलब्ध संसाधनों को इस प्रकार से आवंटित किया जाता है कि जीडीपी की वृद्धि को बरक़रार रखते हुए आर्थिक विकास की गति क़ायम रखी जा सके. जिस प्रकार से प्राकृतिक संसाधनों का अंधाधुंध दोहन किया जा रहा है और पर्यावरण को नुक़सान पहुंचाया जा रहा है, लोगों के बीच आर्थिक असमानता लगातार बढ़ रही है, हर स्तर पर ग़रीबी बढ़ रही है और सामाजिक समावेशन को चोट पहुंचाई जा रही है, आर्थिक एवं सामाजिक प्रगति में गतिरोध पैदा हो रहे हैं, लोगों को अच्छे और सम्मानजनक कार्य मिलने में कमी आ रही है, लोग असंगत आय से जूझ रहे हैं और कामकाज के ख़तरनाक हालात बने हुए हैं, इन सारी बातों से यह महसूस होता है कि आज हर हालत में विकास को हासिल करना ही एकमात्र मकसद बन चुका है और बाक़ी किसी बात से कोई सरोकार नहीं रह गया है. इससे साफ ज़ाहिर होता है कि विकास का पारंपरिक दृष्टिकोण सीमित मात्रा में उपलब्ध संसाधनों के आवंटन को सुधारने में नाक़ाम रहा है. पारंपरिक आर्थिक वृद्धि और विकास का यह नज़रिया इतना ख़तरनाक है कि इसने प्राकृतिक संसाधनों के मौज़ूदा संकट को और बदतर करने का काम किया है. इतना ही नहीं, जिन संसाधनों की स्थिरता और लचीलेपन को बरक़रार रखना ज़रूरी है, अंधाधुंध विकास के इस दृष्टिकोण ने उनके अस्तित्व को ही ख़तरे में डाल दिया है.
उल्लेखनीय है कि प्रकृति और समाज से संबंधित इन नकारात्मक नतीज़ों के असर को ज़ल्द से ज़ल्द कम करना आज की सबसे बड़ी ज़रूरत है और यही वजह है कि पूरी दुनिया सतत विकास और हरित विकास जैसे विचारों की दिशा में क़दम बढ़ा रही है.
ज़ाहिर है कि दुनिया को अब पर्यावरणीय ऋण यानी प्राकृतिक संसाधनों की कमी और पर्यावरणीय क्षरण से होने वाले प्रभावों, जो कि काफ़ी अरसे से एकत्र हो रहे हैं, का मुक़ाबला करना होगा, साथ ही सामाजिक-आर्थिक लिहाज़ के पैदा हुई अव्यवस्थाओं से भी निपटना होगा. ये चीज़ें कहीं न कहीं वैश्विक व्यवस्था के लिए एक गंभीर ख़तरा हैं. उल्लेखनीय है कि प्रकृति और समाज से संबंधित इन नकारात्मक नतीज़ों के असर को ज़ल्द से ज़ल्द कम करना आज की सबसे बड़ी ज़रूरत है और यही वजह है कि पूरी दुनिया सतत विकास और हरित विकास जैसे विचारों की दिशा में क़दम बढ़ा रही है. वैश्विक अर्थव्यवस्था भी टिकाऊ विकास और हरित परिवर्तन की ओर तेज़ी से आगे बढ़ रही है. उल्लेखनीय है कि वर्ष 2015 में दुनिया के तमाम देशों ने कार्बन उत्सर्जन कम करने के लिए पेरिस समझौते पर रज़ामंदी जताई थी, साथ ही सतत विकास के लिए 2030 एजेंडा को भी अपनाया था.
सस्टेनेबल फाइनेंस बॉन्ड का बढ़ता महत्व
वित्तीय पूंजी का वितरण संसाधनों के बंटवारे का सबसे अहम पहलू है. फाइनेंस अर्थव्यवस्था की जीवन रेखा है यानी यह न सिर्फ़ अर्थव्यवस्था को संचालित करता है, बल्कि उसे आगे भी बढ़ाता है. इस लिहाज़ से देखा जाए, तो वित्तीय प्रणाली को नियंत्रित करने वाले नियम रियल इकोनॉमी यानी वास्तविक अर्थव्यवस्था का प्रबंधन करने वाले सिद्धांतों के ही अनुरूप होते हैं. उपभोग और उत्पादन को लेकर केवल अपने हित को बारे में सोचना और तात्कालिक फायदे को तवज्जो देना परंपरागत आर्थिक दृष्टिकोण की ख़ासियत है और वित्तीय पूंजी के आवंटन में भी यही नज़रिया देखा गया है. ऐसे में आर्थिक वृद्धि एवं विकास की पारंपरिक धारणाओं की जगह अब सतत विकास और ग्रीन ग्रोथ ले रहे हैं, जबकि परंपरागत वित्त को सस्टेनेबल फाइनेंस द्वारा बदला जा रहा है.
वित्त का बंटवारा देखा जाए तो ‘जितना जोख़िम उतना लाभ’ के विचार पर आधारित है, यानी अगर निवेशक अधिक घाटा झेलने को तैयार है, तो निवेश से अधिक लाभ हासिल हो सकता है. परंपरागत वित्त के हिसाब-किताब को दो तरीक़ों से बदला जाए, तो सतत वित्त हासिल होता है, यानी जोख़िम के विचार को विस्तारित करना और जितना जोख़िम-उतना लाभ के विचार के मुताबिक़ वित्त के प्रभाव का लेखा-जोखा रखना. जहां तक सतत वित्त की बात है, तो इसमें संसाधनों के आवंटन में पर्यावरण, सामाजिक और गवर्नेंस (ESG) के विभिन्न पहलुओं पर पड़ने वाले प्रभाव की पूरी छानबीन की जाती है. इन पहलुओं में अधिक कार्बन उत्सर्जन करने वाले उत्पादन, प्रदूषण, पानी की ज़्यादा खपत एवं जंगलों, जैव विविधता और कुदरती पारिस्थितिकी तंत्र की बर्बादी से जुड़े ख़तरे शामिल हैं. इसके अलावा स्वास्थ्य, शिक्षा, साफ-सफाई और आवास जैसी ज़रूरी सेवाओं की उपलब्धता और उन तक पहुंच को लेकर बढ़ती असमानताओं से जुड़े जोख़िम भी इसमें शामिल हैं. साथ ही इसमें समुदायों के लिए साझा मूल्य सृजित करने में नाक़ामी, अनुपयुक्त रोज़गार और अपर्याप्त कमाई से जुड़े ख़तरे एवं गवर्नेंस में पारदर्शिता की कमी और काम करने के प्रतिकूल हालातों से संबंधित जोख़िम भी शामिल हैं. एक वैकल्पिक और दूसरे नज़रिए में रिटर्न को उस प्रभाव से निर्धारित किया जाता है, जो आवंटित वित्त के उपयोग से पैदा होता है. यानी इसका निर्धारण इससे किया जाता है कि सतत वित्त का उपयोग करने से किस प्रकार का सकारात्मक बदलाव हो रहा है. जैसे कि अगर सतत वित्त का उपयोग करने से नवीकरणीय ऊर्जा के उत्पादन में तेज़ी आती है, हरित प्रौद्योगिकियों को बढ़ावा मिलता है, शिक्षित और प्रशिक्षित लोगों की संख्या में बढ़ोतरी होती है, पानी के बेहतर प्रबंधन में निवेश बढ़ता है, किफायती आवास का निर्माण किया जाता है और बुनियादी सुविधाओं तक सभी की पहुंच सुनिश्चित होती है, शेयर होल्डर यानी हिस्सेदारों के लाभ के बजाए हितधारकों के लाभ को तवज्जो दी जाती है एवं रोज़गार, कर्मचारी कल्याण और कामकाजी परिस्थितियों के वैश्विक मानकों का पालन किया जाता है, तो निश्चित तौर पर ये सब सतत वित्त का सकारात्मक प्रभाव है.
विश्वसनीयता, दृढ़ता, पारदर्शिता और क्षमता बढ़ाने के लिहाज से देखा जाए तो इन बॉन्ड्स का बाज़ार लगातार विकसित हो रहा है.
सतत वित्त की व्यवस्था करने में एक सबसे बड़ी चुनौती कहीं न कहीं नए प्रकार के वित्तीय उपकरणों लाना रही है, यानी ऐसे वित्तीय उपकरण, जो वित्तीय और गैर-वित्तीय रिटर्न दोनों ही लिहाज़ से अत्यधिक तरल और व्यावहारिक हों. देखा जाए तो हाल के दिनों में ऐसे तमाम वित्तीय बॉन्ड्स सामने आए हैं, जिनमें ये विशेषताओं मौज़ूद हैं. इन बॉन्ड्स ने ऋण प्रतिभूतियों के रूप में अपनी क्षमता और भविष्य की संभावनाओं को प्रकट किया है. यानी इन बॉन्ड्स ने दिखाया है कि वे सतत वित्त को बेहतर तरीक़े से जुटा सकते हैं. विश्वसनीयता, दृढ़ता, पारदर्शिता और क्षमता बढ़ाने के लिहाज से देखा जाए तो इन बॉन्ड्स का बाज़ार लगातार विकसित हो रहा है. सतत वित्त जुटाने वाले बांड्स में ग्रीन बॉन्ड, सोशल बॉन्ड, सस्टेनेबिलिटी बॉन्ड यानी स्थिरता बॉन्ड, ट्रांजिशन बॉन्ड यानी परिवर्तन बॉन्ड और स्थिरता से संबंधित दूसरे बांड्स शामिल हैं.
उल्लेखनीय है कि परंपरागत बॉन्डसे होने वाला लाभ परिवर्तनीय होता है यानी यह कम और ज़्यादा हो सकता है, लेकिन इसके उलट ऊपर उल्लेख किए गए ग्रीन बॉन्ड, सोशल बॉन्ड आदि बॉन्ड किसी ख़ास विषय पर आधारित होते हैं और इन्हें इनसे होने वाली आय के उपयोग से परिभाषित किया जाता है. जैसे कि ग्रीन बॉन्ड ख़ास तौर पर जलवायु परिवर्तन एवं पर्यावरण से जुड़ी परियोजनाओं के वित्तपोषण के लिए होते हैं. ग्रीन बॉन्ड से एकत्र धनराशि को हरित परियोजनाओं में उपयोग के आधार पर अलग-अलग श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है. जैसे कि क्लाइमेट बॉन्ड, जलवायु परिवर्तन से होने वाले दुष्प्रभावों को कम करने और उनके मुताबिक़ ढलने से जुड़ी परियोजनाओं का वित्तपोषण करते हैं. इसी प्रकार से ब्लू बॉन्ड टिकाऊ जल प्रबंधन और समुद्री इकोसिस्टम के संरक्षण से जुड़ी परियोजनाओं का वित्तपोषण करते हैं. येलो बॉन्ड्स सोलर एनर्जी से संबंधित परियोजनाओं का वित्तपोषण कर उन्हें प्रोत्साहित करते हैं. इसी तरह से सोशल बॉन्ड्स बुनियादी इंफ्रास्ट्रक्चर और ज़रूरी सेवाओं तक सभी की पहुंच सुनिश्चित करने और कम लागत में बुनियादी सुविधाएं उपलब्ध कराने से जुड़ी परियोजनाओं के वित्तपोषण पर केंद्रित होते हैं. जहां तक सस्टेनेबिलिटी बॉन्ड यानी स्थिरता बॉन्ड्स की बात है, तो इनसे प्राप्त धनराशि का उपयोग सामाजिक और पर्यावरणीय परियोजनाओं के वित्तपोषण हेतु किया जाता है. ज़ाहिर है कि ग्रीन, सोशल, सस्टेनेबिलिटी (GSS) बॉन्ड्स से होने वाली आय का इस्तेमाल पहले से ही सुनिश्चित होता है, लेकिन इसके विपरीत स्थिरता बॉन्ड्स से होने वाले लाभ के मामले में ऐसा नहीं है. यानी स्थिरता बॉन्ड्स से होने वाली आय का उपयोग पूर्वनिर्धारित नहीं होता है, साथ ही यह भी तय नहीं होता है कि इस आय को विशेष प्रकार की परियोजनाओं में ही इस्तेमाल किया जाएगा. कहने का मतलब है कि स्थिरता बॉन्ड्स को जारी करते समय निर्धारित किए गए लक्ष्यों को हासिल करने बाद ही ऐसा किया जा सकता है, यानी लक्ष्य प्राप्ति के बाद ही उनसे प्राप्त आय को अन्य परियोजनाओं में इस्तेमाल किया जा सकता है. जहां तक ट्रांजिशन बॉन्ड्स या परिवर्तन बॉन्ड्स का मसला है, तो इन्हें जीएसएस बॉन्ड्स की श्रेणी में रखा जा सकता है या फिर इन्हें स्थिरता से जुड़े बॉन्ड्स के समूह में शामिल किया जा सकता है. ट्रांजिशन बॉन्ड से होने वाले लाभ का इस्तेमाल कार्बन उत्सर्जन कम करने से जुड़ी परियोजनाओं के वित्तपोषण के लिए किया जाता है, इसके साथ ही इनसे होने वाली आय का उपयोग हरित पहलों या फिर न्यायसंगत परिवर्तन (जस्ट ट्रांजिशन) से संबंधित पहलों को प्रोत्साहित करने के लिए किया जाता है.
अन्य बॉन्ड्स की भूमिका
ऊपर उल्लेख किए गए परंपरागत और विषय आधारित बॉन्ड्स के बारे में दी गई जानकारी से यह स्पष्ट हो जाता है कि इनके बीच बुनियादी अंतर है और इससे इनमें कई और विषमताएं भी सामने आती हैं. इसकी वजह से विषय आधारित बॉड्स को संचालित करने एवं इनकी ख़रीद-बिक्री की लागत बढ़ जाती है. इतना ही नहीं, ग्रीन बॉन्ड, सोशल बॉन्ड जैसे तमाम दूसरे बॉन्ड से जुटी धनराशि का इस्तेमाल करने के लिए योग्य और उपयुक्त परियोजनाओं की पहचान करना भी ज़रूरी होता है. परियोजनाओं को संचालित करने का मकसद क्या है और उनके नतीज़े कैसे हैं, इससे उनकी पात्रता निर्धारित की जाती है. इसके अलावा, इन बॉन्ड्स को जारी करते वक़्त स्पष्ट रूप से इस बात का उल्लेख किया जाता है कि जो भी परियोजनाएं सतत वित्त का लाभ हासिल करने के लिए पात्र होंगी, उनके लिए स्थिरता के मापदंड क्या होंगे और उनके परिणाम क्या होने चाहिए. इसके साथ ही यह भी बता दिया जाता है कि पात्रता को निर्धारित करने वाले मानक क्या होंगे और पात्रता को तय करने वाली पूरी प्रक्रिया कैसी होगी. लेकिन, इन विषय आधारित बॉन्ड्स को जारी करने के दौरान यह भी साफ तौर पर बताए जाने की ज़रूरत है कि पात्र परियोजना के समक्ष कौन-कौन से बड़े ख़तरे हैं और उन्हें दूर करने के उपाय क्या हैं. सतत वित्त के आवंटन की सफलता के लिए यह भी ज़रूरी है कि किसी परियोजना के अंतर्गत आर्थिक संसाधनों का उपयोग किस प्रकार किया जा रहा है, इसकी समुचित निगरानी की जाए और हर स्तर पर इसकी जांच भी की जाए, ताकि पूरी प्रक्रिया में पारदर्शिता बनी रहे और किसी गड़बड़ी को तत्काल चिन्हित किया जा सके.
इन बॉन्ड्स को जारी करते वक़्त स्पष्ट रूप से इस बात का उल्लेख किया जाता है कि जो भी परियोजनाएं सतत वित्त का लाभ हासिल करने के लिए पात्र होंगी, उनके लिए स्थिरता के मापदंड क्या होंगे और उनके परिणाम क्या होने चाहिए.
ग्रीन, सोशल, सस्टेनेबिलिटी बॉन्ड्स यानी जीएसएस बॉन्ड्स की मांग बहुत तेज़ी से बढ़ रही है और आने वाले दिनों में भी यह सिलसिला जारी रहेगा. जिस प्रकार से बॉन्ड्स मार्केट में इनकी ज़बरदस्त वृद्धि हुई है, उससे भी यह स्पष्ट हो जाता है. वैश्विक स्तर पर आंकड़ों पर नज़र डालें तो वर्ष 2023 में 980 बिलियन अमेरिकी डॉलर के जीएसएस बॉन्ड्स जारी किए गए थे. भारत के आंकड़ों को देखें, तो दिसंबर 2021 के आख़िर तक भारत में 19.5 बिलियन अमेरिकी डॉलर के जीएसएस बॉन्ड्स जारी किए गए थे. इनमें से 18.3 बिलियन अमेरिकी डॉलर में ग्रीन बॉन्ड्स शामिल थे, जबकि 500 मिलियन अमेरिकी डॉलर के सामाजिक और स्थिरता बॉन्ड्स जारी किए गए थे और 200 मिलियन अमेरिकी डॉलर के स्थिरता से संबंधित बांन्ड्स जारी हुए थे.
ज़ाहिर है कि ऐसे बॉन्ड्स को जारी करते समय जो नियम-क़ानून, मापदंड और दिशा निर्देश निर्धारित किए जाते हैं और उनकी निगरानी करने, जांच करने और कार्रवाई करने पर ध्यान नहीं दिया जाता है, या कहा जाए कि पारदर्शिता सुनिश्चित करने के लिए समुचित क़दम नहीं उठाए जाते हैं. इसी वजह से ग्रीनवाशिंग का सामना करना पड़ता है, यानी पर्याप्त निगरानी नहीं होने के घातक नतीज़े कंपनियों या उद्योगों द्वारा पर्यावरण लाभों को लेकर भ्रामक दावों के रूप में सामने आते हैं. उल्लेखनीय है कि जब पर्यावरण से जुड़े इन भ्रामक और झूठे दावों की भरमार हो जाती है, तो इसका इन तमाम बॉन्ड्स में होने वाले निवेश पर नकारात्मक असर पड़ता है. ग्रीनवाशिंग की घटनाओं पर लगाम लगाने और इसके लिए सख़्त दिशा निर्देश बनाने एवं एक नियम-क़ानून पर आधारित व्यवस्था स्थापित करने के लिए वैश्विक वित्तीय प्रणाली द्वारा ख़ास ध्यान दिया जा रहा है. भारत भी इस तरह के उपायों की दिशा में जुटा हुआ है.
भारत में हरिण ऋण प्रतिभूतियों या ग्रीन बॉन्ड्स को जारी करने और उनका संचालन करने को लेकर भारतीय प्रतिभूति और विनिमय बोर्ड (SEBI) ने कई प्रोटोकॉल्स यानी नियम-क़ानून बनाए हैं. सेबी के इन दिशानिर्देशों में इसका साफ उल्लेख किया गया है कि पर्यावरण से जुड़े भ्रामक दावों पर लगाम लगाने के लिए क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए. इनमें यह भी बताया गया है कि वित्तपोषण के लिए पात्र परियोजनाओं के मूल्यांकन हेतु और ग्रीन बॉन्ड्स को जारी करने के दौरान किस प्रकार की समीक्षा प्रक्रिया को अमल में लाया जाए. सेबी के यह दिशा निर्देश देखा जाए तो बिजनेस रिस्पॉन्सबिलिटी एंड सस्टेनेबिलिटी रिपोर्टिंग यानी व्यवसाय उत्तरदायित्व और स्थिरता रिपोर्टिंग (BRSR) के मकसद को पूरा करने का काम करते हैं. उल्लेखनीय है कि शेयर मार्केट में सूचीबद्ध चोटी की 1,000 कंपनियों के लिए BRSR को एक ज़रूरी और वैधानिक प्रक्रिया बना दिया गया है.
निष्कर्ष
ज़ाहिर है कि सरकार द्वारा ये जो भी क़दम उठाए गए हैं, वो देखा जाए तो न केवल कंपनियों को अपनी उत्पादन प्रक्रिया को पर्यावरण अनुकूल बनाने यानी हरित मानकों को अपनाने के लिए प्रोत्साहित कर सकते हैं, बल्कि साझा मूल्यों के सृजन यानी सामाजिक और आर्थिक प्रगति के बीच संबंधों को पहचानने और विस्तारित करने के लिए भी प्रोत्साहित कर सकते हैं. उल्लेखनीय है कि सरकार के इन उपायों में पर्यावरण, सामाजिक और गवर्नेंस लक्ष्यों को हासिल करने वाले मापदंड और नियम शामिल हैं, जिनके बारे में सरकार द्वारा साफ-साफ उल्लेख किया गया है. इनमें टिकाऊ व्यावसायिक प्रथाओं को बढ़ावा देने वाले नीतिगत क़दम भी शामिल हैं, साथ ही ऐसे प्रक्रियागत तंत्र भी शामिल हैं, जो कंपनियों को पर्यावरण संरक्षण के प्रति उनकी ज़िम्मेदारियों के लिए जबावदेह बनाते हैं और इन्हें नहीं मानने पर उनके विरुद्ध कार्रवाई भी करते हैं. जीएसएस बॉन्ड्स को और ज़्यादा आकर्षक बनाने एवं देश में इनकी मांग को बढ़ाने के लिए तमाम नीतिगत और नियामक उपायों को अमल में लाया जा सकता है. जैसे कि इन बॉन्ड्स में निवेश करने पर टैक्स में छूट का प्रावधान किया जा सकता है. इसके साथ ही, स्थिरता से संबंधित परियोजनाओं के बारे पहले से ही विस्तृत जानकारी उपलब्ध कराकर या कहा जाए कि उनके उद्देश्य और संभावित फायदों के बारे में प्रचारित करके न केवल जीएसएस बॉन्ड्स मार्केट में निवेश को बढ़ाया जा सकता है, बल्कि निवेशकों में भी भरोसा पैदा किया जा सकता है. इसके लिए नए-नए वित्तीय साधन सृजित किए जा सकते हैं, साथ ही मौज़ूदा संस्थानों की विशेषज्ञता का फायदा उठाया जा सकता है. इसके अलावा, सतत वित्त जुटाने में तेज़ी लाने के लिए विस्तृत जानकारी को एक जगह एकत्र किया जा सकता है और उसे पारस्परिक उपयोग के लिए उपलब्ध कराया सकता है. इतना ही नहीं, इस दिशा में कैपेसिटी बिल्डिंग यानी कौशल और क्षमताओं को विकसित व सशक्त करने के लिए निवेश करने की भी ज़रूरत है, ताकि सतत वित्त जुटाने के लिए आवश्यक ढांचे का निर्माण किया जा सके और उसे बढ़ावा दिया जा सके.
रेनिता डिसूजा ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन में फेलो रह चुकी हैं.
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