Author : Aditi Ratho

Published on Nov 29, 2018 Updated 0 Hours ago

काम करने की जगह पर हाइजीन (साफ़-सफ़ाई) का अधिकार और स्‍वच्‍छता सुनिश्चित की जानी चाहिए, चाहे वो काम करने की जगह डिलिवरी हब हो या फि‍र किसी कार्पोरेट कंपनी का हेड क्‍वार्टर। ऐसा करने में वर्ग और लैंगिक भेदभाव को ख़त्‍म करना चाहिए।

शहरी कामकाजी लोगों में टॉयलेट को लेकर लैंगिक असमानता के अंतर को पाटना होगा

कई अध्‍ययन हुए हैं, कई ख़बरें आई हैं कि‍ कि‍शोर उम्र में लड़कियां साफ़-सुथरे टॉयलेट की कमी और मार्सिक धर्म से जुड़े इंतज़ामों की कमी के चलते स्‍कूल छोड़ देती हैं। ऐसी ही लेकिन कम जानी पहचानी घटना शहरों में काम करने वाली लड़कियों में होती है, इसे पहचानने और इसमें तुरंत सुधार करने की ज़रूरत है।

निचले से लेकर मध्‍यम आमदनी के लिए काम करने वाली जगहों — रिटेल डेलिवेरी हब, छोटे रेस्‍टोरेंट, यहां तक कि‍ आपके नज़दीकी कि‍नारा स्‍टोर में आपको काम करने वाली लड़कि‍यां नज़र नहीं आएंगी।

गांवों की तुलना में शहरों में काम करने वाली महिलाएं कम हैं, नेशनल सैम्‍पल सर्वे ऑर्गेनाइजेशन (NSSO) के आंकड़े के मुताबिक जहां गांवों में 24.8% महिलाएं काम करती हैं वहीं शहरो में ये आंकड़ा महज़ 14.7% है। शहरों में बेरोज़गारी महज़ पढ़ाई, वर्ग या आमदनी में अंतर के चलते नहीं है।

महिलाएं नौकरी में तेज़ी से आगे निकलने में असमर्थ हैं

भारत में ई-कॉमर्स सेक्‍टर बेहद तेज़ी से आगे बढ़ रहा है और अमेज़ॉन इस क्षेत्र में सबसे बड़ा प्‍लेयर है। वो विकसित देशों में रोबोट, ड्रोन और मशीनों की मदद से सामान पहुंचाने का दावा करता है लेकिन विकासशील देशों में उसके तौर तरीके अभी पुराने हैं। सामान निर्माण करने वालों और थोक विक्रताओं से लिया जाता है उसके बाद क्रिकेट के मैदान जितने बड़े फुलफि‍लमेंट एरिया में असेंबल (एक ही सामान के अलग-अलग हिस्‍सों को जोड़ना) किया जाता है। उसके बाद उसे स्थानीय गोदामों और हब में भेजते हैं और आखिर में इंसान ही इसे सामान खरीदने वालों तक पहुंचाते हैं।

हब में सामान को छांटने, संभालकर रखने और फि‍र भेजने का काम होता है और ये काम स्‍टेशन मैनेजर की देखरेख में होता है, इसके अंदर एक हाइरार्की (पदक्रम) होती है। ध्‍यान देने वाली बात ये है‍ कि अमेज़ॉन, फ़ि‍ल्‍पकार्ट और दूसरी कंपनियां खरीदारों तक सामान पहुंचाने का काम बाहरी वेंडर्स को सौंप देती हैं।

ऐसा करने से जहां कंपनियों का झंझट कम हो जाता है वहीं ऐसा करने वाले व्‍यवसायियों को मौका भी मिल जाता है।

लिस्‍ट बनाने वाला, सामान को अलग-अलग श्रेणी में बांटने वाला, भेजने के लिए सामान निकालने वाला, ड्राइवर, पैकेज करने वाला, डिलिवरी एजेंट सबके पास एक ही लक्ष्‍य होता है समय से सामान को मंज़‍लि‍ तक पहुंचाना। इस पूरी प्रक्रिया को देखना दिलचस्‍प होता है और इसके चलते इस सेक्‍टर में बड़ी संख्‍या में नौकरियां पैदा होती हैं।

ई-कॉमर्स सेक्‍टर तेज़ी से बढ़ रहा है इसका मतलब है कि पहले से बेरोज़गारी का सामना कर रहे लोगों में प्रतिस्‍पर्धा, इसमें मर्द और औरत दोनों इसमें शामिल हैं। इनमें से कई कंपनियां खरीददार के पास सामान पहुंचाने के लिए लड़कियों को भी नौकरी पर रख रही हैं। अमेज़ॉन, ब्‍लू डार्ट, फ़्लि‍पकार्ट, केएफ़सी और डॉमिनोज़ भी लड़कियों को इस काम के लिए नौकरी पर रख रहे हैं। नौकरी पर रखने वालों के लिए ज़ि‍म्‍मेदारी और निर्भरता की भावना और ग्राहकों के लिए सुरक्षा की भावना को देखते हुए और “फीमेल क्‍वालिटी” के चलते कंपनियां महिलओं को नौकरी पर रखती हैं।

मंज़ि‍ल तक सामान पहुंचाने के मामले में कई ई-कॉमर्स रिटेलर्स के यहां महिला कर्मचारियों की संख्‍या में तेज़ी से बढ़त देखी गई है लेकिन असेंबलिंग हब में एक भी लड़की काम करती नहीं दिखेगी। ऐसा मुंबई, बेंगलुरु और पुणे में प्रत्‍यक्ष तौर पर देखा गया है। एक लड़की ने हाल ही में मुंबई के ताड़देव में एक खाने-पीने का सामान पहुंचाने वाली स्‍टार्टअप कंपनी में डिलिवरी एजेंट के तौर पर काम शुरू किया लेकिन वो ज़्यादा दिनों तक नौकरी जारी नहीं रख पाई, वजह थी टॉयलेट, जो दूसरे फ़्लोर पर था और वो कम्‍युनिटी टॉयलेट सभी के लिए था यानी महिलाओं के लिए अगल से कोई टॉयलेट नहीं था। वो वहां जाने से डरती थी क्‍यों कि वहां उसकी प्राइवेसी को ख़तरा था और वहां साफ़-सफ़ाई भी नहीं थी। यही समस्‍या मुंबई के कई फास्‍ट-फूड रेस्‍टोरेंट के आउटलेट में आम है। उनमें काम करने वाली महिलाएं इन टॉयलेट को इस्‍तेमाल करने में सहज महसूस नहीं करतीं। इनमें से जिनके घर काम की जगह से नज़दीक होते हैं वो काम जारी रख पाती हैं या फि‍र वो नौकरी छोड़कर घर के पास काम की तलाश करती हैं। जब लड़कियां स्‍कूटर चलाती हैं, भारी बैग उठाती हैं और अनजान लोगों घर में सामान पहुंचाती हैं तो वो उसके मुक़ाबले नाज़ुक माने जाने वाले पैकेजिंग और चीज़ों को अलग-अलग करने के डिपार्टमेंट में क्‍यों नज़र नहीं आतीं?। पुराने ज़माने से ये दलील दी जाती रही है कि पुरुष प्रधान क्षेत्रों में शारिरिक ताक़त की ज़रूरत होती है, जो औरतों में नहीं होती, यह बात यहां पर प्रासंगिक नहीं है। शहरों में काम के मौके बढ़ रहे हैं लेकिन जन सुविधाओं और ट्रांसपोर्ट इंफ़्रास्‍ट्रक्‍चर की कमी, मर्द और औरतों दोनों को लंबी दूरी तय कर काम करने से रोकते हैं।

हाइजीन (साफ़-सफ़ाई) का अधिकार

शहरों के बुनियादी ढांचे में लैंगिक संवेदनशीलता की कमी कोई नई बात नहीं है। मुंबई डेवलपमेंट प्‍लान रिव्‍यू कमेटी के चेयरमैन और ORF के प्रतिष्ठित फेलो रामनाथ झा, नीतियों में उन बदलावों के बारे में बताते हैं, जिससे शहरी ढांचे को वीमेन फ्रेंडली (महिलाओं के लिहाज से बेहतर) बनाया जा सके। जैसे कि ख़ासतौर से महिलाओं के लिए सार्वजनिक सुविधा ब्‍लॉक (पब्लिक कंवीनियंस ब्‍लॉक) बनाना, जिसमें सैनेटरी पैड्स के वैज्ञानिक निपटारे का भी इंतज़ाम हो।

स्‍वच्‍छ भारत मुहिम के तहत सफ़ाई के कई प्रयास हुए हैं। स्‍वच्‍छ भारत मिशन-ग्रामीण (SBM-G) के तहत स्‍वच्‍छता मंत्रालय का दावा है कि 89 फीसदी ग्रामीण भारत खुले में शौच से मुक्‍त हो चुका है लेकिन गांवों और शहरों में स्‍वच्‍छता पर ध्‍यान देने के मामले में असंतुलन है। गांवों में जागरूकता की कमी, टॉयलेट की कमी, पारंपरिक मानदंड़ों पर ध्‍यान दिया जाता है वहीं शहरों की अपनी समस्‍याएं हैं, जैसे टॉयलेट के प्रबंधन में साफ़-सफ़ाई का ख़याल रखना और सीवेज का निपटारा। सरकार का दावा है कि स्‍वच्‍छ भारत मिशन-अर्बन (SBM-U) के तहत 2,700 शहर खुले में शौच से मुक्‍त हो चुके हैं। स्‍वच्‍छ भारत मिशन के लिए भारत सरकार ने 17,843 करोड़ रुपये दिए हैं इनमें से 15,343 करोड़ रुपये तो बस स्‍वच्‍छ भारत मिशन-ग्रामीण को दिए गए हैं। निश्चित तौर पर गांवों में टॉयलेट बनाने के लिए बड़े बजट की ज़रूरत है, गांवो में ज़्यादातर लोग घर से ही काम करते हैं या फि‍र खेती का काम करते हैं, ऐसे में शहरों के मुक़ाबले गांवों में पब्लिक (सार्वजनिक) टॉयलेट और काम की जगह पर बनने वाले टॉयलेट की बेहद कम ज़रूरत है। ये बात बजट बनाने और पैसे देने के समय ध्‍यान में रखनी चाहिए।

स्‍वच्‍छ भारत मिशन-ग्रामीण की गाइडलाइन में अच्‍छी तरह रिसर्च के बाद तैयार की गई गाइडलाइंस भी शामिल हैं। जिसका पालन ग्रामीण स्‍वच्‍छता के प्रभारी मुख्‍य सचिव को कराना है। प्राइवेसी (निजता) की कमी, सुरक्षा, यौन उत्‍पीड़न और लैंगिक आधार पर होने वाली हिंसा के मद्देनज़र इन गाइडलाइन्‍स में स्‍वच्‍छ भारत मिशन को जेंडर सेन्सिटिव (महिलाओं के लिए संवेदनशील) तरीके से लागू करने की बात है। इन सबकी सूची बनाकर गांवों में चल रहे स्‍वच्‍छता मिशन का भार कम करना चाहिए। इन मुद्दों पर काम करने के लिए साफ़तौर पर ज़ि‍म्‍मेदारियां तय करनी चाहिए। गाइडलाइन में खासतौर पर यह बात है कि टॉयलेट्स को फीमेल हाइजीन (मासिक धर्म से जुड़ी साफ-सफाई) के हिसाब से अपग्रेड करने की ज़रूरत है।

ये गाइडलाइन्‍स बस स्‍वच्‍छ भारत मिशन-ग्रामीण तक की सीमित है इसका मतलब है कि महिलाओं की ज़रूरतों को ध्‍यान में रखकर स्‍वछता के इस काम को शहरों को नज़रंदाज़ किया गया है।

शहरी स्‍वच्‍छता मिशन में इस बारे में एक ही ज़ि‍क्र है, एक लाइन में लिखा गया है कि “यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि‍ मर्द, औरतों और विकलांगों के लिए अलग-अलग टॉयलेट और नहाने की सुविधाएं हों” शहरों के लिए नीति बनाने वालों और स्‍वच्‍छ भारत मिशन को लीड करने वालों को मिशन और उसके बजट में ज़रूरत के हिसाब से बदलाव कर इसे और जेंडर सेंसिटिव (महिलाओं के लिए संवेदनशील) बनाना चाहिए। यह बदलाव न सिर्फ़ घरों और ग्रामीण स्‍वच्‍छता के लिहाज़ से ही नहीं होना चाहिए बल्कि सार्वजनिक और काम की जगहों में जनसुविधाओं पर भी होना चाहिए।

शहरी भारत में इंफ्रास्‍ट्रक्‍चर में ख़ामियां हैं, कई जगह इंतज़ाम नहीं हैं या जनसुविधाएं बेहद पुरानी और जर्जर अवस्‍था में हैं, इसके अलावा साफ़-सफ़ाई की कमी भी है, जो शहरों में काम करने वाली महिलाओं के लिए मददगार साबित नहीं होतीं। महिलाएं काम करने के लिए बाहर निकल रही हैं, ई-कॉमर्स जैसे सेक्‍टर में बड़ी संख्‍या में नौकरियां हैं लेकिन वो उन मौकों का फायदा नहीं उठा पा रही हैं। अच्‍छी नीयत से शुरू किए गए टॉयलेट मिशन को बेहतर करने की ज़रूरत है ताकि हाइजीन और लैंगिक संवेदनशीलता का ध्‍यान रखा जा सके।

बड़ी संख्‍या में निर्माण की जगह यूज़र फ़्रेंडली (इस्‍तेमाल करने वालों के लिए आसान हो) निर्माण की ज़रूरत है, ख़ासकर के इसमें महिलाओं की सुविधाओं का ख़याल रखा जाना चाहिए।

भारत की बिजनेस बिरादरी, व्‍यापार के साथ ज़रूरी सामाजिक मूल्‍यों को विकसित करने में मामले में अभी शुरुआती अवस्‍था में ही है हांलाकि ऊंचे स्‍तर पर कॉर्पोरेट सोशल रिस्‍पांसबिलिटी और कॉर्पोरेट गर्वनेंस देखने को मिलता है।

भारतीय बिजनेस चाहे वो बड़ा और हलचल पैदा करने वाला हो या फि‍र छोटा और संघर्ष करने वाला, हर जगह लागत कम करने के लिए जुगाड़ का इस्‍तेमाल होता है, जिसकी वजह से काम की जगह को नौकरी करने वालों के लिहाज़ से बेहतर बनाने की सजग कोशिशों को रोक दिया जाता है, ख़ासतौर से महिलाओं से जुड़ी सुविधाओं को।

दुकान बनाने से लेकर फ़ैक्‍टरी के लाइसेंस देने तक महिलाओं की ज़रूरतों का ध्‍यान रखते हुए तैयार किए गए टॉयलेट की शर्त को अनिवार्य कर देना चाहिए, चाहे वहां महिला कर्मचारी हो या न हों। इससे महिलाओं को नौकरी पर न रखने की प्रवृत्ति पर भी रोक लगेगी, नौकरी देने वालों को लगता है कि इससे अतिरिक्‍त लागत आएगी। महिलाओं को नौकरी में रखने में हिचकने का ट्रेंड मातृत्‍व लाभ (संशोधन) अधिनियम, 2017 की प्रतिक्रिया में देखने को मिला। जिसके तहत महिलाओं को नौकरी पर नहीं रखा जाता क्‍यों कि कंपनी को बोझिल माने जाने वाले नियमों (लंबी पेड लीव देने) का पालन करना पड़ता है।

काम करने की जगह पर हाइजीन (साफ़-सफ़ाई) का अधिकार और स्‍वच्‍छता सुनिश्चित की जानी चाहिए, चाहे वो काम करने की जगह डिलिवरी हब हो या फि‍र किसी कार्पोरेट कंपनी का हेड क्‍वार्टर। ऐसा करने में वर्ग और लैंगिक भेदभाव को ख़त्‍म करना चाहिए। व्‍यवसाय के लिए बनाए गए इस तरह के इंफ्रास्‍ट्रक्‍चर की सरकार की तरफ़ से नियमित निगरानी होनी चाहिए।

वक़्त है कि सरकार इस बात को समझे कि महिलाएं खामियाजा भुगत रही हैं और नौकरियां छोड़ रही हैं और ऐसा करने की वजह उनकी क्षमता या दिलचस्‍पी में कमी होना नहीं है बल्कि स्‍वच्‍छता के बुनियादी ढांचे में कमी है।

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