Author : Prateek Tripathi

Expert Speak Space Tracker
Published on May 10, 2024 Updated 0 Hours ago

दुनियाभर में जिस तरह हाइपरसोनिक हथियारों का प्रसार हो रहा है और इनका प्रभाव बढ़ रहा है, उसे देखते हुए भारत को भी अपने हाइपरसोनिक प्रोग्राम को तेज़ करने की ज़रूरत है. इसके साथ ही भारत को हाइपरसोनिक हथियारों के खिलाफ़ अपनी प्रतिरोधक क्षमता को भी बढ़ाना होगा.

हाइपरसोनिक हथियार और युद्ध के सिद्धांत: परिवर्तन की राह पर?

तकनीकी सेक्टर में लगातार हो रही नई खोज की वजह से युद्ध के क्षेत्र में भी बदलाव हो रहे हैं. आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (AI)और ड्रोन जैसी उभरती तकनीक युद्ध नीति तय करने में अहम भूमिका निभा रही है. रूस-यूक्रेन युद्ध, इज़रायल-हमास जंग और लाल सागर का संकट इस बात का सबूत है कि युद्ध के मैदान में तकनीक का प्रभाव बढ़ता जा रहा है. इसका एक दिलचस्प उदाहरण हाइपरसोनिक हथियारों का बढ़ता प्रसार है. यूक्रेन युद्ध में रूस ने कम से कम तीन मौकों पर इनका इस्तेमाल किया है. यमन के हूती विद्रोहियों और उत्तर कोरिया ने भी इन हाइपरसोनिक हथियारों का सफलतापूर्वक परीक्षण करने का दावा किया है. ऐसे में ये कहा जाने लगा है कि भविष्य के युद्धों में हाइपरसोनिक हथियार महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं.


हाइपरसोनिक हथियार क्या हैं?


हाइपरसोनिक हथियार उन्हें कहा जाता है जो मैक 5 से तेज़ गति यानी आवाज़ की रफ्तार से पांच गुना तेज़ (330 मीटर/सेकेंड की स्पीड) जा सकते हैं. ये दो तरह के होते हैं: हाइपरसोनिक ग्लाइड व्हीकल्स (HGVs), इन्हें सामान्य बैलिस्टिक मिसाइल्स की तरह रॉकेट से ही दागा जा सकता है. दूसरे होते हैं हाइपरसोनिक क्रूज़ मिसाइल्स, ये मिसाइल्स अपना लक्ष्य हासिल करने के बाद अपनी पूरी उड़ान के दौरान एयर ब्रीथिंग इंजनजिसे स्क्रैमजेट कहा जाता है, उससे संचालित होती है.

हाइपरसोनिक हथियार बीसवीं सदी के मध्य से ही मौजूद हैं. बैलिस्टिक मिसाइल्स की भी यही गति, यानी आवाज़ से पांच गुना तेज़ स्पीड होती है. 


हाइपरसोनिक हथियार बीसवीं सदी के मध्य से ही मौजूद हैं. बैलिस्टिक मिसाइल्स की भी यही गति, यानी आवाज़ से पांच गुना तेज़ स्पीड होती है. लेकिन जो चीज हाइपरसोनिक हथियारों को दूसरों से अलग करती है, वो ये है कि बैलिस्टिक मिसाइल्स की तुलना में हाइपरसोनिक ग्लाइड व्हीकल्स अपने टारगेट तक मार करने के लिए पैराबॉलिक ट्रैजेक्टरी 

(परवलयिक प्रक्षेप पथ) का पालन नहीं करते. इससे होता ये है कि ये धरती के वायुमंडल में दोबारा प्रवेश बहुत तेज़ी से और बहुत कम ऊंचाई से करते हैं. चूंकि इनकी उड़ान गाइडेड यानी निर्देशित होती है. इसलिए वो अपने प्रक्षेप पथ में पूरे दांवपेंच दिखाते हुए भी अपने लक्ष्य तक मार कर सकते हैं. इतना ही नहीं HGVs की मारक क्षमता कई हज़ार किलोमीटर तक होती है. जो इन्हें अंतरमहाद्वीपीय बैलिस्टिक मिसाइल (ICBMs) जितना ही घातक और प्रभावी बनाते हैं. हाइपरसोनिक क्रूज़ मिसाइल कम ऊंचाई, आम तौर पर 200 फीट, पर उड़ सकती हैं. इनमें अपनी गति बढ़ाने और परिवर्तनशीलता बढ़ाने की क्षमता भी होती है. इसका नतीजा ये होता है कि ज़्यादातर पारंपरिक सुरक्षा प्रणालियों को ये हाइपरसोनिक हथियार चकमा दे सकते हैं. इनका पता लगा पाना काफी मुश्किल होता है. उदाहरण के लिए जो रडार एक ही जगह स्थापित हैं, वो हाइपरसोनिक हथियारों को इनकी पूरी उड़ान के दौरान नहीं पकड़ पाते. ख़तरा इसलिए और भी बढ़ जाता है कि क्योंकि ये पारंपरिक और परमाणु दोनों तरह के हथियारों ले जाने में सक्षम हैं.


 स्रोत : इकोनॉमिस्ट

वैश्विक पहल और कितनी प्रगति?

हालांकि,ऑस्ट्रेलिया, भारत, फ्रांस, जर्मनी, दक्षिण कोरिया, उत्तरी कोरिया और जापान समेत कई देश हाइपरसोनिक हथियार तकनीक के विकास पर काम कर रहे हैं लेकिन इस क्षेत्र में अब तक सबसे ज़्यादा प्रगति अमेरिका, चीन और रूस ने की है. इसकी सबसे बड़ी वजह ये है कि अमेरिका ने 2001 में खुद को एंटी बैलिस्टिक मिसाइल संधि से अलग कर लिया था. इससे चीन और रूस की चिंता बढ़ गई. चीन और रूस इस बात को लेकर चिंतित हैं कि अमेरिकी उन पर छोड़ी गई किसी भी मिसाइल को बीच में रोक सकता है.

 

अमेरिका

प्रोग्राम 

 विभाग  

  विस्तृत जानकारी

कन्वेंशनल प्रॉप्ट स्ट्राइक (CPS)      

  अमेरिकी  नौसेना 

हाइपरसोनिक हथियारों को लेकर अमेरिका नौसेना का कन्वेंशनल प्रॉप्ट स्ट्राइक (CPS) सबसे पहला और सबसे ज़्यादा फंड वाला प्रोग्राम है. पहला परीक्षण जून 2022 में किया गया तब ये नाकाम रहा. 2023 में भी दो टेस्ट होने थे लेकिन परीक्षण के पहले की उड़ानों के विफल होने की वजह से ये टेस्ट नहीं किए गए. हालांकि अमेरिकी नौसेना 2025 की शुरूआत में कुछ पनडुब्बियों और डिस्ट्रॉयर्स में CPS को तैनात करना चाहती है.

हाइपरसोनिक एयर लॉन्च्ड ऑफेंसिव एंटी सरफेस वॉरफेयर (HALO)

अमेरिकी  नौसेना

अमेरिकी नौसेना ने 2023 में HALO प्रोग्राम भी शुरू किया. इसे अमेरिका के F/A-18 फाइटर जेट्स के मुताबिक बनाया जाएगा.

एजीएम-183 एयर लॉन्च्ड रैपिड रिस्पॉन्स वेपन (ARRW)

अमेरिकी वायुसेना

अमेरिकी वायुसेना अपने ARRW प्रोग्राम के ज़रिए हाइपरसोनिक तकनीकी पर काम कर रही है. हालांकि दिसंबर 2022 में पूरी तरह ऑपरेशनल ARRW  प्रोटोटाइप का परीक्षण सफल रहा था लेकिन उसके बाद से इसके उड़ान के परीक्षण के रिकॉर्ड मिले-जुले रहे हैं. 2023 में अमेरिका ने इस प्रोग्राम को बंद करने की इच्छा जताई थी लेकिन मार्च 2024 में गुआम में अमेरिकी वायुसेना ने इसका टेस्ट किया. इससे लगता है कि इस पर काम दोबारा शुरू हो सकता है.

हाइपरसोनिक अटैक क्रूज़ मिसाइल (HCAM)

अमेरिकी वायुसेना

अमेरिकी वायुसेना ने ये प्रोग्राम 2022 में शुरू किया

लॉन्ग रेंज हाइपरसोनिक वेपन (LHRW) या डार्क ईगल

अमेरिकी थलसेना

 

टेक्टिकल बूस्ट गाइड (TBG)

DARPA

 

हाइपरसोनिक एयर ब्रीथिंग वेपन कॉन्सेप्ट (HAWC)

DARPA

 

चीन

प्रोग्राम

जानकारी

DF-17

चीन DF-17 के कई सफल परीक्षण कर चुका है. ये मध्यम रेंज की बैलिस्टिक मिसाइल है. इसे खास तौर पर हाइपरसोनिक ग्लाइड व्हीकल्स के लिए डिज़ाइन किया गया है. इसकी मारक क्षमता 1,000 से 1,500 मील तक है.

DF-41

DF-41 एक इंटरकॉन्टिनेंटल बैलिस्टिक मिसाइल है. इसमें सुधार कर इसे परंपरागत और परमाणु दोनों तरह के हथियारों को ले जाने में सक्षम बनाया जा सकता है.

DF-ZF

DF-ZF एक हाइपरसोनिक ग्लाइड व्हीकल्स है. इसकी रेंज 1,200 मील है. 2014 से इसका कम से कम 9 बार परीक्षण किया गया. 2020 में इसे सेना में शामिल किया गया.

स्टारी स्काई-2 (या ज़िंग कॉन्ग-2)

अमेरिकी रक्षा अधिकारियों के मुताबिक चीन ने अगस्त 2018 में स्टारी स्काई-2 का सफल परीक्षण कर लिया है. ये परमाणु हथियार ले जाने में सक्षम हाइपरसोनिक मिसाइल का प्रोटोटाइप था. लेकिन DF-ZF से स्टारी स्काई-2 इस लिहाज़ से अलग है कि ये एक "वेवराइडर" है. ये लॉन्च के बाद संचालन के लिए उड़ान का इस्तेमाल करता है. अपनी ही शॉकवेव्स से ये लिफ्ट हासिल करता है. कुछ रिपोर्ट्स के मुताबिक 2025 तक स्टारी स्काई-2 ऑपरेशनल हो जाएगी.


रूस

प्रोग्राम

जानकारी

एवांगार्ड

एवांगार्ड ICBM से लॉन्च किया गया एक हाइपरसोनिक ग्लाइड व्हीकल है. इस तरह से देखा जाए तो इसकी "प्रभावी मारक क्षमता असीमित" है. कहा जाता है कि ये परमाणु हथियार ले जाने में सक्षम है. 2019 में ही इसे युद्धक ड्यूटी में शामिल कर लिया गया

3M22 जिरकॉन

रूस 3M22 जिरकॉन मिसाइल पर भी काम कर रहा है. ये पानी के जहाज से लॉन्च की जा सकने वाली हाइपरसोनिक क्रूज़ मिसाइल है. इसकी अधिकतम मारक क्षमता 625 मील है. कहा जा रहा है कि इसे जनवरी 2023 में सोवियत संघ गोर्शकोव बेड़े के प्रोजेक्ट प्रोजेक्ट 22350 एडमिरल में तैनात किया गया.

किंजल

रूस ने किंजल मिसाइल को यूक्रेन में पहले ही तैनात कर दिया है. ये हवा से लॉन्च की जा सकने वाली बैलिस्टिग मिसाइल है, जिसे इस्कंदर मिसाइल को संशोधित करके बनाया गया है. रूसी मीडिया का दावा है कि किंजल मैक 10 स्पीड हासिल कर सकती है. इसकी रेंज 1,200 मील है और इसमें परमाणु हथियार ले जाने की क्षमता है.


भारत की प्रगति?



ब्रह्मोस एयरोस्पेस इस वक्त ब्रह्मोस-II मिसाइल पर काम कर रहा है. इसे रूस की 3M22 जिरकॉन मिसाइल की तर्ज पर बनाया जा रहा है. लेकिन इस प्रोजेक्ट में कई बार देरी हो चुकी है. अब इसे 2028 तक सेना में शामिल करने का लक्ष्य रखा गया है. इसी के समानांतर रक्षा अनुसंधान और विकास संगठन (DRDO) भी 2008 से हाइपरसोनिक टेक्नोलॉजी डेमोंस्ट्रेटर व्हीकल (HSTDV) के विकास पर काम कर रहा है. ये 20 किमी की उंचाई तक पहुंचने के लिए स्क्रैमजेट का इस्तेमाल करता है और इसकी रफ्तार मैक 6 तक हो सकती है. HSTDV का पहला सफल परीक्षण जून 2019 में किया गया. इसके बाद सितंबर 2020 में 30 किमी की ऊंचाई और मैक 6 स्पीड में इसका सफल डेमोंस्ट्रेशन किया गया. इसका आखिरी परीक्षण 27 जनवरी 2023 में किया गया. रूस, अमेरिका और चीन के बाद भारत चौथा देश है, जिसने अपनी हाइपरसोनिक क्षमता का परीक्षण किया है.

हालांकि, कुछ रिपोर्ट्स में ये दावा किया गया कि अग्नि-5 मिसाइल हाइपरसोनिक ग्लाइड व्हीकल्स (HGV) हो सकती है लेकिन डीआरडीओ ने इसका खंडन किया है. इसके अलावा शौर्य और सागरिका मिसाइल भी हाइपरसोनिक स्पीड तक जा सकती हैं लेकिन इनकी बाकी विशेषताएं बैलिस्टिक मिसाइल जैसी ही हैं. इन्हें हाइपरसोनिक हथियारों की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता.

फरवरी 2024 में आईआईटी कानपुर ने भारत की पहली हाइपरसोनिक परीक्षण सुविधा की शुरूआत की. इस टेस्टिंग प्लेटफ़ॉर्म पर क्रूज़ मिसाइल्स को 10 किमी/सेकेंड की रफ्तार पर टेस्ट किया जा सकता है.


फरवरी 2024 में आईआईटी कानपुर ने भारत की पहली हाइपरसोनिक परीक्षण सुविधा की शुरूआत की. इस टेस्टिंग प्लेटफ़ॉर्म पर क्रूज़ मिसाइल्स को 10 किमी/सेकेंड की रफ्तार पर टेस्ट किया जा सकता है. इस परीक्षण प्लेटफ़ॉर्म की स्थापना के लिए आर्थिक मदद डीआरडीओ के तहत आने वाले विज्ञान एवं तकनीकी और एरोनॉटिकल विभाग ने कीये प्लेटफ़ॉर्म ब्रह्मोस-2 कार्यक्रम जैसे आगामी अंतरिक्ष और रक्षा परियोजनाओं के लिए हाइपरसोनिक स्थितियों के सिम्युलेशन में समक्ष होगा.



हाइपरसोनिक प्रतिरोधक क्षमता क्यों ज़रूरी है?



जैसा कि पहले बताया जा चुका है कि पारंपरिक सुरक्षा प्रणालियों से हाइपरसोनिक हथियारों का पता लगा पाना, उन्हें पकड़ पाना बहुत मुश्किल होता है. हाइपरसोनिक हथियारों की यही खासियत इन्हें सबसे ख़तरनाक शस्त्र बनाती है. अमेरिका ने समुद्र आधारित टर्निमल (SBT) क्षमता से लैस एजिस पोतों का निर्माण किया है. इनके अंदर काफी हद तक हाइपरसोनिक हथियारों का पता लगाने की क्षमता है. ये हाइपरसोनिक हथियारों के ख़तरों को मिसाइल के प्रक्षेपण पथ के आखिरी हिस्से में डिकोड कर सकती है. हाइपरसोनिक मिसाइल के प्रक्षेपण पथ के आखिरी हिस्से को ही टर्मिनल फेज़ कहा जाता है. इस वक्त एजिस एसबीटी ही इकलौती ऐसी सुरक्षा प्रणाली है, जो हाइपरसोनिक हथियार के ख़तरे को काफी कम कर सकती है.

अमेरिकी अंतरिक्ष विकास एजेंसी (SDA) एक ट्रैकिंग लेयर तारामंडल पर काम रही है. इसे सेंसर के एक वैश्विक नेटवर्क के तौर पर विकसित किया जा रहा है. ये बैलिस्टिक और हाइपरसोनिक मिसाइलों के ख़िलाफ रक्षा कवच का काम करेगा. मिसाइल डिफेंस एजेंसी (MDA) के राष्ट्रीय सुरक्षा मिशन में हाइपरसोनिक मिसाइलों को ट्रैक करने के लिए छह सैटेलाइट को शामिल किया गया है. इसे यूएसएसएफ-124 नाम दिया गया है. इन छह में से 4 सैटेलाइट को एसडीए के ट्रैकिंग लेयर प्रोग्राम में इस्तेमाल किया जा रहा है जबकि दो सैटेलाइट एमडीए के हाइपरसोनिक और बैलिस्टिक ट्रैकिंग स्पेस सेंसर (HBTSS) प्रोग्राम में शामिल किए गए हैं. ये प्रोग्राम हाल ही में शुरू किया गया है. HBTSS सेंसर्स को खास तौर पर हाइपरसोनिक हथियारों के ख़तरों को ट्रैक करने के लिए डिज़ाइन किया गया है. ये सेंसर पहले इंटरसेप्टर मिसाइलों को डेटा मुहैया कराएंगे और फिर ये इंटरसेप्टर मिसाइल उन हाइपरसोनिक मिसाइलों को नष्ट करने की कोशिश करेंगी. ट्रैकिंग लेयर और HBTSS ये दोनों ही मिसाइल रक्षा प्रणाली के बहुस्तरीय सुरक्षा योजना के हिस्से हैं. HBTSS जिस फायर कंट्रोल तकनीकी को दिखाना चाहती है वो हाइपरसोनिक हथियारों पर काबू पाने के लिए ज़रूरी हैं.

जहां तक भारत की बात है तो हाइपरसोनिक हथियारों की क्षमता विकसित करने के लिए ब्रह्मोस-2 और HSTDV प्रोजेक्ट पर चल रहे काम की तारीफ करनी चाहिए लेकिन हाइपरसोनिक हथियारों से सुरक्षा को लेकर भारत ने अभी तक खास गंभीरता नहीं दिखाई है. डीआरडीओ ने ज़मीन आधारित बैलिस्टिक मिसाइल सुरक्षा (BMD) प्रोग्राम का पहला चरण पूरा कर लिया है. अभी दूसरे चरण पर काम चल रहा है. अप्रैल 2023 में डीआरडीओ और नौसेना ने समुद्र आधारित इंटरसेप्टर मिसाइल का भी सफल परीक्षण किया था.

चीन की तरफ से जिस तरह ख़तरा बढ़ता जा रहा है और चीन जिस तरह हाइपरसोनिक हथियारों के मामले में प्रगति करता जा रहा है, उसे देखते हुए भारत के लिए भी ये ज़रूरी है कि वो ना सिर्फ हाइपरसोनिक हथियार बनाए बल्कि इन हथियारों के ख़िलाफ अपनी प्रतिरोधक क्षमता को भी बढ़ाए.


भविष्य में होने वाले युद्धों में हाइपरसोनिक हथियार अहम भूमिका निभा सकते हैं. अपनी रफ्तार और परिवर्तनशीलता की वजह से इनका पता लगना मुश्किल होता है. परमाणु हथियार ले जाने की इनकी क्षमता को भी याद रखना चाहिए. चीन की तरफ से जिस तरह ख़तरा बढ़ता जा रहा है और चीन जिस तरह हाइपरसोनिक हथियारों के मामले में प्रगति करता जा रहा है, उसे देखते हुए भारत के लिए भी ये ज़रूरी है कि वो ना सिर्फ हाइपरसोनिक हथियार बनाए बल्कि इन हथियारों के ख़िलाफ अपनी प्रतिरोधक क्षमता को भी बढ़ाए. ऐसे में डीआरडीओ को अपने बैलिस्टिक मिसाइल डिफेंस प्रोग्राम में हाइपरसोनिक हथियारों से सुरक्षा को भी शामिल करना चाहिए. अमेरिका स्पेस डिफेंस एजेंसी की ही तर्ज़ पर भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (ISRO) को भी अंतरिक्ष पर आधारित सेंसर का विकास करना चाहिए. ऐसे सेंसर जिन्हें हाइपरसोनिक हथियारों के ख़िलाफ व्यावहारिक इस्तेमाल में लाया जा सके.


प्रतीक त्रिपाठी ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन के सेंटर फॉर सिक्योरिटी स्ट्रैटजी और टेक्नोलॉजी में रिसर्च असिस्टेंट हैं.

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