Published on Feb 15, 2022 Updated 0 Hours ago

केंद्र प्रायोजित योजनाओं (सीएसएस) में बदलाव की ज़रूरत है ताकि अलग-अलग कमियों का समाधान किया जा सके और इस तरह न्यायिक आधारभूत ढांचे को मज़बूत किया जा सके. 

न्यायिक आधारभूत ढांचे के लिए केंद्रीय योजना में तुरंत बदलाव की ज़रूरत क्यों है?

जब से न्यायमूर्ति एन.वी. रमना ने देश के मुख्य न्यायाधीश की बागडोर संभाली है, तब से उन्होंने भारत के कमज़ोर न्यायिक आधारभूत ढांचे को मज़बूत करने के लिए एक लड़ाई शुरू कर रखी है. इस संबंध में न्यायमूर्ति रमना राष्ट्रीय न्यायिक आधारभूत ढांचा निगम स्थापित करने का एक प्रस्ताव लेकर आए हैं ताकि निचली अदालतों (ज़िला न्यायालयों) में आधारभूत ढांचे की परियोजनाओं को लागू करने की रफ़्तार तेज़ की जा सके. उनकी मुख्य दलील ये है कि ज़िला और अधीनस्थ न्यायपालिका के लिए आधारभूत ढांचे की सुविधा के विकास में केंद्र प्रायोजित योजना (सीएसएस) केंद्र के द्वारा वित्तीय आवंटन में बढ़ोतरी के बावजूद उम्मीदों पर खरा नहीं उतर पाई है. ये छोटा लेख इस बात को समझने की कोशिश है कि न्यायिक आधारभूत ढांचे को मज़बूत करने के मक़सद से बनाई गई एक ईमानदार प्रमुख योजना क्यों नाकाम रही. 

 विधि और न्याय मंत्रालय के द्वारा नियोजित और संचालित ये योजना ज़िला और अधीनस्थ न्यायालयों में न्यायालय का भवन और न्यायिक अधिकारियों एवं न्यायाधीशों के लिए रिहायशी इमारत बनाने में राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को केंद्र के द्वारा वित्तीय मदद प्रदान करना ज़रूरी बनाती है. 

योजना के पीछे औचित्य

ज़िला और अधीनस्थ न्यायपालिका के लिए केंद्र प्रायोजित योजना (सीएसएस) 1993-1994 से लागू है. केंद्र की योजना 1991 में भारत के आर्थिक उदारीकरण के बाद की स्थिति में लोगों तक न्याय पहुंचाने की आवश्यकता का समाधान करने के लिए बनाई गई. विधि और न्याय मंत्रालय के द्वारा नियोजित और संचालित ये योजना ज़िला और अधीनस्थ न्यायालयों में न्यायालय का भवन और न्यायिक अधिकारियों एवं न्यायाधीशों के लिए रिहायशी इमारत बनाने में राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को केंद्र के द्वारा वित्तीय मदद प्रदान करना ज़रूरी बनाती है. इस योजना के तहत वर्तमान में केंद्र और राज्य के बीच 60:40 के अनुपात में फंड का बंटवारा होता है. वहीं पूर्वोत्तर और पहाड़ी राज्यों में 90:10 के अनुपात में केंद्र और राज्य फंड देते हैं जबकि केंद्र शासित प्रदेशों में 100 प्रतिशत फंड केंद्र के द्वारा दिया जाता है. 

11वीं पंचवर्षीय योजना के दौरान केवल 701.08 करोड़ रुपये का आवंटन किया गया जो कि 35 राज्यों/केंद्र शासित प्रदेशों के हिसाब से पांच वर्षों के लिए महज़ 20 करोड़ रुपये (लगभग) है. अधीनस्थ न्यायालयों के लिए आधारभूत ढांचे की आवश्यकता के एक नये आकलन से उजागर हुआ कि इस दौरान 7,346 करोड़ के फंड की आवश्यकता थी.”

1993 से 2020 के बीच केंद्र ने राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को 7,460 करोड़ रुपये की रक़म जारी की. हाल में केंद्रीय कैबिनेट ने निर्णय लिया कि 5,357 करोड़ की वित्तीय प्रतिबद्धता के साथ इस योजना का विस्तार पांच और वर्षों के लिए किया जाए. लेकिन फंड की पर्याप्त उपलब्धता के बावजूद ज़िला स्तर पर ख़राब आधारभूत ढांचा बेहद चिंता का विषय बना हुआ है. ज़्यादातर ज़िला न्यायालयों में कोर्ट रूम की कमी है. इस बात को हाल में मुख्य न्यायाधीश रमना के द्वारा ध्यान में लाया गया था. फिलहाल न्यायिक अधिकारियों के स्वीकृत पद 24,991 हैं और वर्तमान में उपलब्ध कोर्ट रूम 20,115 हैं. बुनियादी सुविधाओं जैसे वकीलों की बैठक का कमरा, महिला शौचालयों और दूसरी सुविधाओं का भी बुरा हाल है. 

अनियमित फंडिंग

वैसे तो पिछले कुछ वर्षों के दौरान फंड के आवंटन में बढ़ोतरी हुई है लेकिन केंद्रीय योजना अनियमित फंडिंग में फंसी हुई है. 1993-94 से 1996-97 तक इस योजना के लिए केंद्रीय आवंटन महज़ 180 करोड़ था (आठवीं पंचवर्षीय योजना के तहत). बाद के वर्षों में आवंटन में थोड़ी बढ़ोतरी हुई लेकिन 2011 तक इस योजना के लिए केवल 1,245 करोड़ का आवंटन हुआ. सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों के लिए वार्षिक आवंटन का औसत 69.18 करोड़ रहा. इसकी वजह से 2011 तक न्यायिक आधारभूत ढांचे का अपेक्षाकृत धीमा विकास हुआ. फंड को लेकर 12वीं पंचवर्षीय योजना के कार्यकारी समूह की रिपोर्ट में कहा गया: “अभी तक सीएसएस के तहत मुहैया कराया गया आवंटन बेहद अपर्याप्त और न्यायपालिका की आवश्यकता के हिसाब से कम रहा है. इस बात को इस उदाहरण से समझा जा सकता है कि 11वीं पंचवर्षीय योजना के दौरान केवल 701.08 करोड़ रुपये का आवंटन किया गया जो कि 35 राज्यों/केंद्र शासित प्रदेशों के हिसाब से पांच वर्षों के लिए महज़ 20 करोड़ रुपये (लगभग) है. अधीनस्थ न्यायालयों के लिए आधारभूत ढांचे की आवश्यकता के एक नये आकलन से उजागर हुआ कि इस दौरान 7,346 करोड़ के फंड की आवश्यकता थी.”

इस न्यायिक योजना का भी वही हाल हुआ जो ज़्यादातर केंद्र प्रायोजित योजनाओं का हुआ है. इस नाकामी की बड़ी वजह योजना की रूप-रेखा में खोट, अनियमित फंड, केंद्र-राज्य समन्वय में कमी, राज्य स्तर पर स्वामित्व की अनुपस्थिति, पारदर्शिता एवं उत्तरदायित्व की कमी और परिणाम पर अपर्याप्त ध्यान दिया जाना है

कांग्रेस के नेतृत्व वाले संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) की सरकार के दौरान 2011-12 में केंद्रीय योजना के आवंटन में संतोषजनक बढ़ोतरी हुई. फंडिंग बढ़ाकर 595.74 करोड़ कर दी गई. 2011 से 12वीं पंचवर्षीय योजना में न्यायिक आधारभूत ढांचे के लिए बजट बढ़ाने के निर्णय के परिणामस्वरूप केंद्र सरकार के द्वारा इस योजना के तहत जारी किए गए फंड का औसत हर साल लगभग 693 करोड़ रुपये हो गया. बीजेपी के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) की सरकार के द्वारा हाल में 9,000 करोड़ रुपये (जिसमें राज्यों का 40 प्रतिशत योगदान शामिल है) के आवंटन से इस योजना को न्यायिक आधारभूत ढांचे के विकास को तेज़ करने के लिए आवश्यक फंड की मदद मिल सकती है. इस बात पर ध्यान देना महत्वपूर्ण है कि जब केंद्र की तरफ़ से फंडिंग में संतोषजनक बढ़ोतरी हुई तब भी राज्यों के मामले में ऐसा नहीं था. अलग-अलग कारणों से ज़्यादातर राज्य इस केंद्रीय योजना में अपनी तरफ़ से 40 प्रतिशत योगदान देने में नाकाम रहे हैं. 

स्वामित्व की कमी 

वैसे न्यायिक आधारभूत ढांचे में प्रगति की धीमी रफ़्तार के लिए पैसा एकमात्र बाधा नहीं है. वास्तव में पिछले एक दशक के दौरान अलग-अलग सरकारों से संतोषजनक फंड मिले. वास्तविक चुनौती राज्यों की तरफ़ से उत्साह की सामान्य कमी है जिसकी वजह से काफ़ी हद तक न्यायिक परियोजनाओं के लिए आवंटित फंड का धीमा इस्तेमाल हुआ है. राज्यों की तरफ़ से पहली समस्या ये है कि राज्य नियमित तौर पर अपने हिस्से का योगदान देने में नाकाम रहते हैं. इसका ये परिणाम होता है कि इस योजना के तहत आवंटित फंड या तो खर्च नहीं होता या उनको खर्च करने का समय ख़त्म हो जाता है. राज्यों की तरफ़ से दूसरी समस्या ये है कि राज्य न्यायिक परियोजनाओं के लिए मिले फंड का इस्तेमाल दूसरी प्राथमिकताओं पर करते हैं. राज्यों की तरफ़ से तीसरी और सबसे बड़ी रुकावट अलग-अलग विभागों के बीच ख़राब समन्वय है. स्वतंत्र थिंक टैंक विधि की रिपोर्ट में कहा गया है कि प्रमुख विभागों विशेष तौर पर वित्त, क़ानून, गृह, जिला अधिकारी, लोक निर्माण विभाग (पीडब्ल्यूडी) के बीच ज़िला न्यायालय के लिए आवंटित पैसे के इस्तेमाल में ख़राब तालमेल है. संक्षेप में कहें तो क़रीब-क़रीब तीन दशक से अस्तित्व में होने के बावजूद केंद्रीय योजना अपने घोषित उद्देश्य को पूरा करने में सफल नहीं हो रही है क्योंकि राज्यों ने इस काम को बेहद कम प्राथमिकता दी है. 

पारदर्शिता और उत्तरदायित्व की कमी

योजना में पारदर्शिता और उत्तरदायित्व पर ध्यान नहीं होने की वजह से भी समस्या आ रही है. वैसे तो ये योजना 1993 से लागू है लेकिन इस योजना के तहत पैसे के इस्तेमाल पर निगरानी के लिए शायद ही सार्वजनिक रूप से कोई उपलब्ध आंकड़ा होगा. विधि की एक समीक्षा के अनुसार इस बात की कोई सूचना नहीं है कि केंद्रीय योजना के माध्यम से कितने कोर्ट रूम बनाए गए हैं. इसके अलावा, भले ही योजना में ज़िला, राज्य और केंद्रीय स्तर पर नज़र रखने के लिए निगरानी समिति जैसी व्यवस्था है लेकिन उनके प्रदर्शन की समीक्षा के लिए सार्वजनिक रूप से शायद ही कोई सूचना उपलब्ध है. कई दशकों के बाद न्याय विभाग ने योजना की समीक्षा के लिए एक एजेंसी को काम सौंपा जिसने अपनी कमियों पर ध्यान देने के बदले काफ़ी हद तक राज्यों पर आरोप लगाया है. महत्वपूर्ण बात ये है कि अलग-अलग राज्यों को फंड देने में पारदर्शिता की कमी है क्योंकि इस बात का कोई निश्चित जवाब नहीं है कि क्यों कुछ राज्यों को दूसरे राज्यों के मुक़ाबले ज़्यादा फंड मिलता है.   

निष्कर्ष

1993 में न्यायपालिका के आधारभूत ढांचे की ज़रूरत का समाधान करने के लिए एक विशेष योजना बनाने का केंद्र का फ़ैसला एक दूरदर्शी क़दम था. इस योजना का इरादा भारत की बढ़ती अर्थव्यवस्था के साथ न्याय देने के बढ़ते दबाव का समाधान करना था. लेकिन इस न्यायिक योजना का भी वही हाल हुआ जो ज़्यादातर केंद्र प्रायोजित योजनाओं का हुआ है. इस नाकामी की बड़ी वजह योजना की रूप-रेखा में खोट, अनियमित फंड, केंद्र-राज्य समन्वय में कमी, राज्य स्तर पर स्वामित्व की अनुपस्थिति, पारदर्शिता एवं उत्तरदायित्व की कमी और परिणाम पर अपर्याप्त ध्यान दिया जाना है. इस बात को फिर से कहने की आवश्यकता है कि ये योजना निचली अदालतों में लंबित मामलों की बढ़ती संख्या को कम करने और न्याय प्रणाली में सामान्य लोगों का विश्वास बहाल करने के लिए महत्वपूर्ण है. 

राज्यों की तरफ़ से पहली समस्या ये है कि राज्य नियमित तौर पर अपने हिस्से का योगदान देने में नाकाम रहते हैं. इसका ये परिणाम होता है कि इस योजना के तहत आवंटित फंड या तो खर्च नहीं होता या उनको खर्च करने का समय ख़त्म हो जाता है. 

देश में न्याय देने की व्यवस्था को सुधारने में इस योजना की प्रासंगिकता पर सही टिप्पणी देते हए मुख्य न्यायाधीश रमना बार-बार इसकी संरचनात्मक कमियों को दूर करने पर तुरंत ध्यान देने की आवश्यकता बता रहे हैं और इसके लिए राष्ट्रीय न्यायिक आधारभूत ढांचा निगम (एनजेआईसी) के रूप में एक विशेष उद्देश्य का संगठन बनाने का उनका विचार है. इस पर बहस हो सकती है क्योंकि मुख्य न्यायाधीश के विचार को राज्यों की स्वायत्तता में अतिक्रमण के रूप में देखा जाएगा लेकिन न्याय विभाग कम-से-कम योजना की रूप-रेखा पर तुरंत फिर से चर्चा कर सकता है (इसमें राज्यों पर वित्तीय बोझ घटाना भी शामिल है) और प्रतिदिन के आधार पर उन्हें लागू करने पर ध्यान दे सकता है. सिर्फ़ योजना का फंड बढ़ाने से कोई प्रगति नहीं होने वाली है.


जिबरान ए. ख़ान ओआरएफ में रिसर्च इंटर्न हैं. 

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