वैज्ञानिकपृष्ठभूमि
जलवायु परिवर्तन से बड़े ख़तरे का मानवता ने अभी तक सामना नहीं किया होगा. इंसान के बनाए ग्रीन हाउस गैस के वातावरण में उत्सर्जन से क्षोभमंडल के गर्म होने का अनुमान 1896 में ही किया गया था.
हवाई के मौना लाओ ऑब्ज़र्वेटरी में 1958 से वातावरण में कार्बन डाइऑक्साइड (सीओ2) के स्तर को लगातार मापा जा रहा है. कार्बन डाइऑक्साइड उद्योगों से पहले के स्तर 280 पार्ट्स प्रति मिलियन (पीपीएम) से बढ़कर 415 पीपीएम (2021) पर पहुंच गया है. मीथेन दूसरा सबसे महत्वपूर्ण ग्रीन हाउस गैस है और ये उद्योगों से पहले के स्तर 722 पार्ट्स प्रति बिलियन से बढ़कर 1,866 (2019) तक पहुंच गया है. मीथेन का स्तर 90 के दशक में स्थिर हो गया था लेकिन न्यूज़ीलैंड के बैरिंग हेड की ऑब्ज़र्वेटरी के मुताबिक 2008 के बाद फिर से बढ़ने लगा है.
ग्रीन हाउस गैस की बढ़ती मात्रा ने वैज्ञानिकों को डरा दिया है. अभी तक वो इसके कारणों को लेकर सुनिश्चित नहीं हैं. नेशनल एरोनॉटिक्स एंड स्पेस एडमिनिस्ट्रेशन (नासा) का अध्ययन जीवाश्म ईंधन को इसकी जड़ बताता है और ये सही भी है कि ग्रीन हाउस गैस में बढ़ोतरी दुनिया भर में गैस निकालने में बढ़ोतरी के साथ हुई है. दूसरी सरकारों ने उष्ण कटिबंधीय दलदली ज़मीन से जोड़ा है लेकिन इसको दूसरे कृषि स्रोतों जैसे धान के खेत में चावल उत्पादन या जुगाली करने वाले पशुओं जैसे भेड़, गाय–बैल और बकरियों के द्वारा निकाली गई मीथेन गैस से अलग करना मुश्किल है. लंदन में पहले मई डे सी4 कॉन्फ्रेंस (1-3 मई 2021) में हिनरिच सेफर द्वारा पेश ताज़ा आंकड़े संकेत देते हैं कि मीथेन गैस में बढ़ोतरी में कृषि का बड़ा योगदान है. इस पृष्ठभूमि में एक और निश्चित डर ये है कि बर्फ़ के पिघलने से बड़ी मात्रा में मीथेन गैस का उत्सर्जन होगा क्योंकि आर्कटिक का तापमान लगातार बढ़ रहा है. इससे भी विनाशकारी हालात उस वक़्त बनेंगे जब आर्कटिक के समुद्र तल से मीथेन गैस निकलेगी जहां क़रीब 500 अरब टन क्लैथरेट के रूप में जमा है. 2013 में कैंब्रिज यूनिवर्सिटी के पीटर वैडहैम्स और उनके सहयोगियों ने भविष्यवाणी की थी कि पूर्वी साइबेरिया के बर्फ़ की चट्टानों से सिर्फ़ 50 अरब टन गैस निकलने से दुनिया का तापमान 0.6 डिग्री सेंटीग्रेड बढ़ जाएगा. अक्टूबर 2020 में वैज्ञानिकों ने बताया कि आर्कटिक महासागर के जिस इलाक़े में धरातल से सिर्फ़ 30 मीटर नीचे महाद्वीपीय जलसीमा है वहां से बड़ी मात्रा में मीथेन गैस निकल रही है. वैज्ञानिक इस बात को लेकर अनिश्चित हैं कि ये नई घटना है या ऐसी चीज़ है जो पिछले कई वर्षों से हो रही है. दूसरे समीक्षक इस घटना को कभी न ठीक होने वाले जलवायु परिवर्तन की शुरुआत का संकेत बता रहे हैं.
लंदन में पहले मई डे सी4 कॉन्फ्रेंस (1-3 मई 2021) में हिनरिच सेफर द्वारा पेश ताज़ा आंकड़े संकेत देते हैं कि मीथेन गैस में बढ़ोतरी में कृषि का बड़ा योगदान है.
इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेंट चेंज (आईपीसीसी) जलवायु को लेकर अपने अनुमान में आर्कटिक के समुद्र तल से मीथेन निकलने को शामिल नहीं करता क्योंकि वो इसे “ज़्यादा प्रभाव, कम संभावना की घटना” मानता है. इस नज़रिए पर फिर से विचार करने की ज़रूरत है.
70 के दशक के आख़िर में अमेरिका की सरकार ने जैसन समिति को ग्लोबल वार्मिंग पर सलाह देने को कहा. समिति इस नतीजे पर पहुंची कि वातावरण में कार्बन डाइऑक्साइड की सघनता के दोगुना होने से तापमान में 2-3 डिग्री सेंटीग्रेड की बढ़ोतरी होगी. लेकिन समिति ने कोई नीतिगत सिफ़ारिश नहीं की और इस बात को लेकर काफ़ी विवाद है कि उस वक़्त इस चीज़ को लेकर ज़्यादा कुछ क्यों नहीं किया गया.
वैश्विक तापमान पर निगरानी और मापने का काम कई संगठनों के द्वारा किया जाता है और इन संगठनों ने कई तरह के आंकड़े पेश किए हैं जो काफ़ी हद तक एक–दूसरे से सहमति रखते हैं. ताज़ा निष्कर्ष बताते हैं कि तापमान में बढ़ोतरी दुनिया भर में एक समान नहीं है. पानी के मुक़ाबले हवा तेज़ी से गर्म होती है. इस तरह ज़मीन के ऊपर हवा का तापमान समुद्र के ऊपरी तल के तापमान से तेज़ी से बढ़ रहा है. चूंकि पृथ्वी की ज़्यादातर ज़मीन उत्तरी गोलार्ध में है, इसलिए दक्षिणी गोलार्ध के मुक़ाबले उत्तरी गोलार्ध का तापमान ज़्यादा है. तापमान में सबसे ज़्यादा बदलाव ध्रुवों में देखा जा रहा है क्योंकि समुद्री बर्फ़ के पिघलने से महासागरों के द्वारा ज़्यादा गर्मी को सोखना संभव हो पाता है. इस तरह दुनिया भर में 1850 से औसत वैश्विक तापमान में जहां सिर्फ़ 1.2 डिग्री सेंटीग्रेड की बढ़ोतरी हुई है वहीं यूरोप में तापमान 2 डिग्री सेंटीग्रेड बढ़ा है जबकि आर्कटिक में 1900 से 3 डिग्री तापमान में बढ़ोतरी हुई है.
पहले नहीं देखी जाने वाली अन्य घटनाएं आर्कटिक क्षेत्र को मुसीबत में डाल रही हैं जिनमें समुद्री बर्फ़ का धीरे–धीरे पतला होना, गर्मी के मौसम में समुद्री बर्फ़ में रिकॉर्ड तोड़ने वाली कमी, मौसम के औसत से ऊपर 30 डिग्री सेंटीग्रेड तक तापमान में उतार–चढ़ाव, और आर्कटिक क्षेत्र में जंगल में आग शामिल हैं. ये घटनाएं न सिर्फ़ वातावरण में कार्बन डाइऑक्साइड और मीथेन छोड़ती हैं बल्कि इनकी वजह से हिमपात में भी कमी आती हैं जिससे बाहरी वायुमंडल को नुक़सान होता है और आगे गर्मी सोखना भी.
आईपीसीसी की काफ़ी सतर्क करने वाली एक और भविष्यवाणी है उत्तरी और दक्षिणी ध्रुवों में स्थायी रूप से जमी बर्फ़ का पिघलना. 1990 से ग्रीनलैंड में चार ट्रिलियन टन बर्फ़ पिघल चुकी है, पिछले चार वर्षों में ही एक ट्रिलियन टन बर्फ़ पिघली है. वर्तमान में हर सेकेंड 8,500 मीट्रिक टन बर्फ़ पिघल रही है. आईपीसीसी के मुताबिक़ बर्फ़ पिघलने की ये दर 2040 से पहले नहीं होनी थी. समुद्र तल में अभी तक हुई ज़्यादातर बढ़ोतरी के पीछे महासागर की गर्मी में वृद्धि है लेकिन ये साफ़ है कि उत्तरी और दक्षिणी ध्रुवों में स्थायी रूप से जमी बर्फ़ के पिघलने से समुद्र तल में बढ़ोतरी तेज़ होगी. नीचे एक वास्तविक ग्राफ है जो 1750 से वर्तमान समय तक का आंकड़ा बताता है. इस ग्राफ को लिवरपूल स्थित राष्ट्रीय समुद्र विज्ञान केंद्र के प्रोफेसर फिलिप वुडवर्थ ने तैयार किया है.
ये महत्वपूर्ण है कि 1900 से औसत समुद्र तल में बढ़ोतरी 1.7 मिलीमीटर प्रति वर्ष (एमएमपीए) रही है जबकि 1993 से ये बढ़कर 3.2 एमएमपीए हो गई है. ये प्रक्रिया तटीय शहरों और निचले क्षेत्रों जैसे बांग्लादेश, वियतनाम और नील नदी के डेल्टा में बसे इलाक़ों की मुसीबत बढ़ाएगी. पैसिफिक द्वीपों में तो हालात और भी बिगड़ सकते हैं क्योंकि वहां समुद्र तल से औसत ऊंचाई 2 मीटर से भी कम है. इस बात को समझ लेना चाहिए कि ये ज़रूरी नहीं है कि शहरों को लोग उसी वक़्त छोड़कर जाएंगे जब वहां बाढ़ आ जाएगी. चक्रवात में बढ़ोतरी और बार–बार या तेज़ तूफ़ान लोगों को इस बात के लिए मजबूर करेगा कि समुद्र के उनके दरवाज़े तक पहुंचने से पहले ही वो वहां से दूर चले जाएं. इस बात को न्यू ऑर्लियंस और न्यूयॉर्क में कटरीना और सैंडी तूफ़ान ने दिखाया है.
आईपीसीसी के मुताबिक़ बर्फ़ पिघलने की ये दर 2040 से पहले नहीं होनी थी. समुद्र तल में अभी तक हुई ज़्यादातर बढ़ोतरी के पीछे महासागर की गर्मी में वृद्धि है लेकिन ये साफ़ है कि उत्तरी और दक्षिणी ध्रुवों में स्थायी रूप से जमी बर्फ़ के पिघलने से समुद्र तल में बढ़ोतरी तेज़ होगी.
दुनिया की क़रीब 10 प्रतिशत आबादी तटीय इलाक़ों में रहती है. ये वो इलाक़े हैं जो समुद्र तल के स्तर से 10 मीटर से भी कम ऊंचाई पर हैं. इस तरह विस्थापित होने वाले लोगों की संख्या 1 अरब तक हो सकती है.
राजनीतिक पृष्ठभूमि
इस साल यूनाइटेड किंगडम सरकार 1-12 नवंबर तक ग्लासगो में 26वें जलवायु परिवर्तन सम्मेलन, जिसे कॉप26 के नाम से जाना जाता है, की मेज़बानी करेगी. इसके अध्यक्ष आलोक शर्मा है जो वहां के कारोबार, ऊर्जा और औद्योगिक रणनीति के राज्य मंत्री हैं लेकिन कॉप26 की एक कैबिनेट समिति भी है जिसकी अध्यक्षता प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन कर रहे हैं. इस समिति का मक़सद “कॉप 26 के लिए इंतज़ाम की देखरेख” करना है. अगर ज़िम्मेदारी के क्षेत्र को स्पष्ट तौर पर निर्धारित नहीं किया गया तो ज़िम्मेदारी का विभाजन दिक़्क़त पैदा कर सकता है.
स्पष्ट तौर पर निर्धारित संरचना के बिना एक और संगठन एक्सटिंक्शन रिबेलियन (एक्सआर) है जो 2018 में सेंट्रल लंदन और दूसरे शहरों में अनूठे प्रदर्शन के ज़रिए सुर्खियों में आया. उसी वक़्त ग्रेटा थनबर्ग ने स्वीडन में अपने स्कूल के बाहर प्रदर्शन शुरू किया. इन दोनों ने ग्लोबल वार्मिंग को राजनीतिक एजेंडा बना दिया. इस तरह एक साल में इन्होंने वो सफलता हासिल की जो 30 वर्षों की लॉबिंग नहीं कर सकी और दूसरे पर्यावरणीय समूह जिसे करने में साफ़ तौर पर नाकाम रहे.
एक्सआर पर आतंकी संगठन होने का ग़लत आरोप लगाया जाता है. वास्तव में ये एक वैश्विक आंदोलन है जो अहिंसक सीधी कार्यवाही और सविनय अवज्ञा में विश्वास करता है और उस पर अमल करता है. नेल्सन मंडेला, महात्मा गांधी और मार्टिन लूथर किंग जैसे नागरिक अधिकार आंदोलन की हस्तियों ने भी इन तरीक़ों का समर्थन किया था. यहां तक कि मौजूदा गृह मंत्री भी एक्सआर को आतंकी संगठन नहीं मानते.
कोविड-19 महामारी की वजह से एक्सआर हताश हुआ है लेकिन इसकी वजह से उसे सोचने-विचारने का भी समय मिला है कि कॉप26 से पहले क्या रणनीति सबसे कारगर होगी. 2019 में चैनिंग टाउन अंडरग्राउंड स्टेशन की घटना, जहां एक प्रदर्शनकारी को ट्यूब ट्रेन की छत से खींचकर ले जाया गया था, ने एक्सआर के लिए चेतावनी का काम किया है. उसे एहसास हो गया है कि लोगों को काम तक पहुंचने में रुकावट डालने की चाल या कोविड के बाद अपने जीवन को पीछे डालना बुरी तरह नुक़सान पहुंचा सकता है.
कोविड-19 महामारी की वजह से एक्सआर हताश हुआ है लेकिन इसकी वजह से उसे सोचने-विचारने का भी समय मिला है कि कॉप26 से पहले क्या रणनीति सबसे कारगर होगी
एक्सआर के प्रदर्शनकारियों और क़ानून–व्यवस्था के काम में लगे बलों के बीच बार–बार के मुक़ाबले की संभावना साफ़ है और ये एक्सआर के मुख्य उद्देश– ग्लोबल वार्मिंग का समाधान तलाशना और जलवायु अस्थिरता एवं सामाजिक विध्वंस को रोकना– को परास्त कर देगा. इन लक्ष्यों को पाने का सर्वश्रेष्ठ तरीक़ा है कॉप26 को ज़बरदस्त सफल बनाना क्योंकि अभी तक हर कॉप आयोजन नाकाम रहा है. अगर हमें ख़ुद और ज़्यादातर दूसरी प्रजातियों को विलुप्त होने से बचाने का कोई मौक़ा चाहिए तो हमें कॉप26 को अलग बनाने की ज़रूरत है.
ग्रीनहाउस गैस का उत्सर्जन
नीचे का ग्राफ 40 साल की अवधि, 1970-2010 तक, के दौरान ग्रीन हाउस गैस के उत्सर्जन को दिखाता है. क्योटो के लिए आधार–रेखा 1990 में पूरी दुनिया में ग्रीन हाउस गैस का कुल उत्सर्जन 38 अरब टन कार्बन डाइऑक्साइड के बराबर था. 2010 तक ये बढ़कर 49 अरब कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन के बराबर हो गया जिसमें से सिर्फ़ 65 प्रतिशत (31.6 अरब टन) ऊर्जा उत्पादन और दूसरी औद्योगिक गतिविधियों जैसे सीमेंट उत्पादन के कारण कार्बन डाइऑक्साइड के उत्सर्जन की वजह से था. कृषि, वानिकी और ज़मीन के दूसरे इस्तेमाल का कार्बन डाइऑक्साइड के उत्सर्जन में 11 प्रतिशत योगदान था. दूसरी ग्रीन हाउस गैस जैसे मीथेन (16 प्रतिशत), नाइट्रस ऑक्साइड (6 प्रतिशत) और हैलो कार्बन (2 प्रतिशत) को मिलाकर बाक़ी 24 प्रतिशत उत्सर्जन था. 2019 में उद्योगों से कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन 36.6 अरब टन पर पहुंच गया जो संकेत देता है कि कुल ग्रीन हाउस गैस का उत्सर्जन 56 अरब टन कार्बन डाइऑक्साइड के बराबर था. ये आंकड़ा शायद ही कभी राजनेताओं या मीडिया के द्वारा चर्चा का विषय बनता है क्योंकि इन्हें सालाना प्रकाशित नहीं किया जाता है.
2020 में उद्योगों से कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन 2.4 अरब टन कम हुआ है जिसकी वजह कोविड महामारी है लेकिन ये सिर्फ़ 7 प्रतिशत की कमी है. ग्लोबल वार्मिंग को 2015 के पेरिस समझौते में तय 1.5 डिग्री सेंटीग्रेड तक सीमित करने के लिए आईपीसीसी के अनुमान के मुताबिक़ आने वाले दशक में हर साल 7.7 प्रतिशत कमी करने की ज़रूरत है. इस ज़रूरत को समझने वाली एकमात्र सरकार स्कॉटलैंड की है जिसने 1990 के मुक़ाबले 2030 तक कार्बन उत्सर्जन में 75 प्रतिशत कमी करने के इरादे का एलान किया है. जो बाइडेन ने 2030 तक सिर्फ़ 50 प्रतिशत कमी करने की पेशकश की है और वो भी 2005 के मुक़ाबले. इससे लक्ष्य को हासिल करना आसान हो गया है.
इसके अलावा दो और चिंताएं है जो वैज्ञानिकों को परेशान कर रही हैं. पहली, महासागरों के उष्मीय जड़त्व के कारण हम पहले से ही 1.5 डिग्री सेंटीग्रेड के लक्ष्य से आगे हैं क्योंकि अगर ग्रीन हाउस गैस मौजूदा स्तर पर बरकरार रहे तो 0.6 डिग्री सेंटीग्रेड की “तय वार्मिंग” वातावरण में होगी. ताज़ा अनुमान बताते हैं कि अगर ग्रीन हाउस गैस का उत्सर्जन कल रुक जाए (एक बेहद बेतुका परिदृश्य) या हम वातावरण से कार्बन को ग्रहण करने का एक कार्यकुशल तरीक़ा हासिल कर लेते हैं तो ये संभव हो सकता है कि तापमान में बढ़ोतरी को 1.5 डिग्री सेंटीग्रेड से नीचे रखा जाए.
दूसरी बड़ी चिंता ये है कि अनुमान के मुक़ाबले ज़्यादा तेज़ी से तापमान में बढ़ोतरी हो रही है. नेचर पत्रिका में प्रकाशित एक रिसर्च पेपर में संभावना जताई गई है कि आईपीसीसी के 2040 के अनुमान के मुक़ाबले हम 2030 तक ही 1.5 डिग्री की वार्मिंग तक पहुंच जाएंगे.
आईपीसीसी के पूर्वानुमान में अंतर की आंशिक वजह तेज़ी से मीथेन गैस में बढ़ोतरी और बिजली स्टेशन और शिपिंग से सल्फर उत्सर्जन में संभावित कमी है. कम सल्फर उत्सर्जन के कारण वातारवरण में सल्फेट एरोसॉल की सघनता में तेज़ी से कमी आती है जो सामान्य तौर पर ठंडा करने के असर को कम करती है. इसे साबित करना मुश्किल है क्योंकि अमेरिका की वेज़ एंड मीन्स कमेटी के रिपब्लिकन नेता ने 1990 के दशक में नासा के लिए फंड देने से मना कर दिया जिससे कि नासा सल्फेट की निगरानी करने वाले उपकरण को अपने सैटेलाइट में नहीं लगा सकी.
ग्लोबल वार्मिंग को 2015 के पेरिस समझौते में तय 1.5 डिग्री सेंटीग्रेड तक सीमित करने के लिए आईपीसीसी के अनुमान के मुताबिक़ आने वाले दशक में हर साल 7.7 प्रतिशत कमी करने की ज़रूरत है
लेकिन तापमान ने इस रिसर्च पेपर के लेखकों को भी हैरान कर दिया है. 2020 में हम 1.2 डिग्री सेंटीग्रेड की वार्मिंग पर पहुंच गए. विश्व मौसम विज्ञान संगठन का पूर्वानुमान है कि 2026 से पहले जून 2021 में 1.5 डिग्री सेंटीग्रेड की वार्मिंग के उल्लंघन की 90 प्रतिशत आशंका है.
निष्कर्ष
ये स्पष्ट है कि क्योटो प्रोटोकॉल राजनीतिक तौर पर नाकाम साबित हुआ है. 1990 से सालाना कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन में 60 प्रतिशत तक बढ़ोतरी हुई है. साथ ही औद्योगिक क्रांति की शुरुआत से लेकर 90 के दशक तक जितना उत्सर्जन हुआ है उससे ज़्यादा ख़तरनाक कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन 1990 से हुआ है. जब तक कार्बन पर नियंत्रण का उपाय नहीं निकलेगा तब तक विश्व समुदाय इस हालत पर काबू पाने की उम्मीद नहीं कर सकता. ये हालात हमें अगले चरण तक लेकर जाता है जो कि वैश्विक कार्बन प्रोत्साहन फंड है. इस बीच हमें कॉप26 को सफल बनाने के लिए हर वो चीज़ करनी चाहिए जो हमारे नियंत्रण में है. इसका मतलब ये है कि दुनिया के हर देश को जलवायु की परिस्थिति की गंभीरता को समझना चाहिए. जैसा कि मैंने अप्रैल 1989 में प्रकाशित लैंसेट के संपादकीय में लिखा: “क़ीमत काफ़ी हो सकती है लेकिन कुछ नहीं करने की क़ीमत बेहिसाब है.”
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