गुज़रा हुआ अतीत
जब से भारत स्वतंत्र हुआ तभी से रूस के साथ भारत के रिश्ते मधुर रहे हैं. हालांकि, दोनों देशों के बीच द्विपक्षीय कारोबार में काफी बदलाव हुआ है. 1980 से ही भारत और रूस में हुए घरेलू बदलावों का असर दोनों देश के कारोबारी रिश्ते पर हुआ है. ज़्यादातर विरासत में आए कारोबार अपने आख़िरी दौर में हैं हालांकि, अभी भी उम्मीद की किरण बाकी है. जब तक रूस में कम्युनिस्ट शासन रहा, रूस ने भारत की ढांचागत सुविधाओं को विकसित करने में बढ़-चढ़ कर मदद की – हाइड्रो पावर स्टेशन से लेकर स्टील प्लान्ट, रक्षा कारखाने बनाए और एक से ज़्यादा क्षेत्रों में कई भारतीयों को विश्व स्तर की शिक्षा और ज्ञान का आदान-प्रदान करने का मौका उपलब्ध करवाया. दोनों ही देशों में इस दोस्ती की गहरी छाप वहां की सांस्कृतिक विरासत में नज़र आती है.
पूर्व के यूएसएसआर ने भारत की स्वतंत्रता के बाद जिस भी एजेंडे को आगे बढ़ाया, वह यूएसएसआर के विखंडन के बाद समाप्त होता गया. पिछले 30 सालों में सिर्फ़ कुछ ही कामयाब द्विपक्षीय कारोबारी रास्ते और प्रोजेक्ट बच गए हैं जिनका विकास अब तक जारी है. हालांकि, भारत और रूस के सबसे बड़े व्यापारिक साझेदारों, अमेरिका और चीन के बीच आर्थिक संबंधों के मुकाबले में यह बहुत कुछ नहीं है. लेकिन इसके बाद क्या? आखिर क्यों द्विपक्षीय कारोबार अभी तक 10 बिलियन अमेरिकी डॉलर से आगे नहीं बढ़ सका है? क्यों द्विपक्षीय निवेश अपनी क्षमता से नीचे है? दरअसल, इसके कई कारण हैं – राष्ट्रीय और वैश्विक हित, घरेलू एजेंडा, सरकारों द्वारा समस्याओं के समाधान को लेकर फोकस में कमी, प्राथमिकताएं, नियामक, समझ, दोस्त और साझेदार का चुनाव, अदूरदर्शिता, और मुक्त बाज़ार.
पूर्व के यूएसएसआर ने भारत की स्वतंत्रता के बाद जिस भी एजेंडे को आगे बढ़ाया, वह यूएसएसआर के विखंडन के बाद समाप्त होता गया. पिछले 30 सालों में सिर्फ़ कुछ ही कामयाब द्विपक्षीय कारोबारी रास्ते और प्रोजेक्ट बच गए हैं जिनका विकास अब तक जारी है.
तमाम समानताओं के बाद भी दोनों देश आबादी, विकास के कारकों, मिला जुला आयात/निर्यात या प्रति व्यक्ति आय को लेकर बहुत अधिक अलग नहीं हो सकते थे. रूस और रूसी नागरिकों द्वारा भारत के लिए सामान्य रूप से ख़ारिज कर दिए जाने वाले विचारों के बावजूद अचानक ही भारत कई मानकों में रूस से ख़ुद को आगे पाने लगा. आज भारत ना सिर्फ अपने मजबूत फार्मास्युटिकल सेक्टर के लिए जाना जाता है, बल्कि बिजनेस प्रोसेस आउटसोर्सिंग (बीपीओ) उद्योग और तकनीकी क्षेत्र में नेतृत्व के लिए भी अपनी पहचान रखता है.
मौजूदा अमेरिकी डॉलर के हिसाब से रूस के मुकाबले भारत साल 2001 से 5.4 से लेकर 4.8 गुना आगे बढ़ चुका है, जब जिम ओ निल ने ‘ब्रिक्स’ जैसी शब्दावली को जन्म दिया. यह बहुत ज्यादा नहीं लग सकता है लेकिन ग्राफिक्स में विचलन की रेखा को आप देख कर इसका अंदाजा लगा सकते हैं. 2011 तक भारत के मुकाबले रूस की जीडीपी ज़्यादा थी लेकिन साल 2020 में भारत के मुकाबले रूस की जीडीपी करीब आधी है.
विकसित पूंजी बाज़ार के मामले में रूस ने जो भी प्रगति की है, इसके बाज़ार पूंजीकरण की गति अभी भी रुकी हुई है. हालांकि, अभी भी व्यक्तिगत निवेश को लेकर उम्मीद बंधी हुई है जैसे एप्पल और इंटल जैसी तमाम विदेशी कंपनियों के अकाउंट्स और शेयरों की ख़रीद/बिक्री से ज़ाहिर होती है.
वित्तीय राजकोषीय घाटा (जीडीपी का प्रतिशत) मौजूदा वित्तीय वर्ष में रूस और भारत के लिए क्रमश: 2.4 फ़ीसदी और 6.8 फ़ीसदी है. रूस की रूढ़िवादी नीतियां इतने बेहतर तरीके से काम कर रही हैं कि वहां के वित्त मंत्री ने हाल ही में कहा है कि इस साल के अंत तक राजकोषीय घाटा महज़ 1 फ़ीसदी रहने का अनुमान है. दूसरी ओर भारत में वित्तीय राजकोषीय घाटा लगातार बढ़ता जा रहा है. टैक्स वसूली को लेकर रूस ज़्यादा प्रभावी नज़र आता है. लेकिन अगस्त में दोनों सरकारी आंकड़ों के मुताबिक अर्थव्यवस्था के कोर सेक्टर में विकास की गुणवत्ता अलग-अलग है. 2021 के अप्रैल-जून तिमाही में आए आर्थिक नतीजे इस बात की इशारा करते हैं कि दोनों ही देशों की अलग अलग दिशा है:
Indicator |
Russia |
India |
GDP Growth, percent |
10.3% |
20.1% |
Construction sector growth |
10.7% |
68.3% |
Manufacturing sector growth |
11.4% |
49.6% |
Mining sector growth |
7.8% |
18.6% |
तमाम मतभेदों के बावजूद, रूस और भारत की ज़रूरतें और हित एक समान हैं : मानव विकास, इंफ्रास्ट्रक्चर और पूंजी निर्माण. ये अभिसरण (कन्वर्जेंट) के वो क्षेत्र हैं जहां द्विपक्षीय रिश्तों को लेकर फिर पुनर्विचार किया जाना चाहिए. सोवियत गणराज्य के विखंडन के बाद से पिछले 30 वर्षों में हमने काफी ज़मीन खो दी है. यह वो वक़्त है जब सामान्य हितों को फिर से तलाशा जाना चाहिए और उस पर काम करना चाहिए.
द ब्रिक एंड मोर्टार प्रेज़ेंट
परिवर्तन ताइगा की तरह है (अवशेष, अछूते जंगल, जो साइबेरियन रूस को कवर करता है ), हवा की ताजा झोंकों के साथ चीड़ की कुछ पत्तियां नीचे गिरेंगी, (मसलन नौकरशाही) और ताइगा अपनी शाश्वत शुद्धता के लिए वापस चला जाता है. एमओयू भी इसी तरह की हैं. वे सिर्फ़ कुछ पत्तियों की सरसराहट से ज़्यादा कुछ नहीं होतीं. ये ऐसे अवास्तविक विकल्प हैं जो बिना इस्तेमाल के ही समाप्त हो जाते हैं जिससे उनके मूल्य और अच्छे इरादे भी ख़त्म हो जाते हैं. इसका बेहतर उदाहरण हाल में हुए द्विपक्षीय निवेश फंड है जो रूस डायरेक्ट इन्वेस्टमेंट फंड (आरडीआईएफ) और स्टेट बैंक ऑफ इंडिया (एसबीआई) के बीच हुआ – लेकिन इसके प्रत्यक्ष रूप से पूरा होने से पहले ही यह ख़त्म हो गया.
इसे लेकर ज़्यादा कुछ कहने को नहीं है कि रक्षा, फार्मा और उर्वरक के क्षेत्र में कोई टिकाई लिंक नहीं है. इंजीनियरिंग भी चेन्नई में एटमस्ट्रॉय एक्सपोर्ट के कुडनकुलम परमाणु बिजलीघर तक ही बहुत हद तक सीमित है. कई मुद्दों की वजह से ज्वाइंट वेंचर्स (संयुक्त उद्यम) पूरे नहीं हो पाते, और इस बावत प्रोजेक्ट या तो देर हो जाते हैं या फिर अधर में लटक जाते हैं, मसलन, एमटीएस इंडिया बीच में ही लटक गया. ब्रह्मोस ही ऐसा ज्वाइंट वेंचर है जो कामयाब रहा. भारत को कमोबेश नियमित रूप से उर्वरक रूस द्वारा निर्यात किया जाता है और बदले में भारत से रूस नियमित फर्मास्यूटिकल्स का आयात करता है. इनमें से कई दवाईयां तब रजिस्टर्ड की गई हैं जबकि सोवियत संघ गणराज्य अस्तित्व में हुआ करता था. हाल में इस सूची में शामिल होने वाली कंपनी सिर्फ़ हिमालया है लेकिन यह कॉस्मेटिक्स और खाने के सपलीमेंट ही निर्यात करता है, ना कि किसी तरह की दवाईयां. सिर्फ़ दो रूसी तकनीक से जुड़ी कंपनियां जो भारत के साथ सफ़लतापूर्वक व्यापार कर रही हैं वो हैं कासपर्सिकी लैब्स (आईटी सुरक्षा) और कुछ हद तक जायफ्रा (औद्योगिक ऑटोमेशन और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस). भारतीय आईटी कंपनियां रूस से बाहर ख़ास कर बीपीओ के क्षेत्र में उनके लिए काम करती हैं . भारत से बहुत समय पहले ही रूसी इन्फ्रास्ट्रक्चर और इंजीनियरिंग कंपनियां जा चुकी हैं, जो भी काम रह गया है – वो ज़्यादातर सेल के साथ बचा है जिसे सोवियत रूस की मदद से बनाया गया था. भारतीय कंपनियों ने शायद ही कभी रूस में पैर पसारने की कोशिश की है.
इस विकट स्थिति की वजह क्या है? इसकी तीन वजहें हो सकती हैं: भू-आर्थिक, भू-राजनीतिक और प्रतिस्पर्द्धा की वजह, दृष्टिकोण की कमी, प्रेरणा और रचनात्मक समेत मानव निर्मित बाधाएं. भारत एक जबर्दस्त प्रतिस्पर्द्धा और भू-राजनीतिक संघर्ष का क्षेत्र है – ख़ासकर उन देशों, वैश्विक और घरेलू कंपनियों के लिए जो भारत की बड़ी अर्थव्यवस्था और इसकी आबादी का फायदा उठाना चाहते हैं. यहां प्रतिस्पर्द्धा तो ज़बर्दस्त है लेकिन हर किसी के लिए जगह है. यह बेहतर स्थिति है, भारत इस प्रतिस्पर्द्धा को प्रेरक के तौर पर इस्तेमाल कर सकता है. रूस को दूसरों के साथ प्रतियोगिता करना पड़ेगा और ख़ुद के दृष्टिकोण में बदलाव लाना होगा, क्योंकि द्विपक्षीय रिश्तों को लेकर परंपरागत तरीके अब मान्य नहीं होंगे. इसके अतिरिक्त भारत को सामरिक ताकत के तौर पर ना देखने और इसकी बढ़ती ताकत को नज़रअंदाज़ करना (चीन के मुकाबले) भी इसके लिए ज़िम्मेदार है और इस दरार को पाटने की आवश्यकता है.
भारतीय आईटी कंपनियां रूस से बाहर ख़ास कर बीपीओ के क्षेत्र में उनके लिए काम करती हैं . भारत से बहुत समय पहले ही रूसी इन्फ्रास्ट्रक्चर और इंजीनियरिंग कंपनियां जा चुकी हैं, जो भी काम रह गया है – वो ज़्यादातर सेल के साथ बचा है जिसे सोवियत रूस की मदद से बनाया गया था.
भारतीय कूटनीति ने संवाद को बहुत सावधानीपूर्वक आगे बढ़ाया है, लेकिन ज़्यादातर लोगों का मानना है कि ईयू, उत्तरी अमेरिका, अफ्रीका और जीसीसी के मुकाबले अब रूस और उसके सहयोगियों से अब ज़्यादा फायदे की गुंजाइश नहीं रह गई है. कॉरपोरेट और व्यक्तिगत लोगों पर ईयू, अमेरिका के साथ रूस के केंद्रीय पार्टनर बेलारूस द्वारा रूस पर प्रतिबंध लगाया गया. भारत और यूरेशियन इकोनॉमिक यूनियन ( जिसमें रूस, कजाकिस्तान, अर्मीनिया, बेलारूस, किर्गीस्तान और तजाकिस्तान शामिल हैं ) के बीच मुक्त व्यापार समझौता (एफटीए) भी ठंडे बस्ते में चला गया है, और उसकी जगह भारत कनाडा, ईयू,जीसीसी और ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों के साथ मुक्त व्यापार समझौता(एफटीए) करने में जुटा है.
भारतीय कूटनीति ने संवाद को बहुत सावधानीपूर्वक आगे बढ़ाया है, लेकिन ज़्यादातर लोगों का मानना है कि ईयू, उत्तरी अमेरिका, अफ्रीका और जीसीसी के मुकाबले अब रूस और उसके सहयोगियों से अब ज़्यादा फायदे की गुंजाइश नहीं रह गई है.
इसके अलावा मानव निर्मित अवरोध भी हैं: दोनों तरफ कई क्षेत्रों में नौकरशाही प्रक्रियाएं और खरीद/कॉन्ट्रैक्ट की प्रक्रियाएं, जी2जी संवाद का प्रभाव, वित्तीय ढांचे की कमी और सहयोग, कॉरपोरेट गवर्नेंस, सूचना के आदान प्रदान की पुरानी तकनीक जैसी बाधाएं हैं. भारतीय बैंकों को रूस और उसके पड़ोसी देशों के आकार और सीमितताओं के लिहाज़ से उनपर ज़्यादा भरोसा नहीं है. हालांकि, रूसी बैंक ज़्यादा खुले हुए हैं लेकिन वो जिन कारोबारों को सहयोग देते हैं वो ज़्यादा रूढ़िवादी हैं. इन सभी कारणों की वजह से सोवियत गणराज्य के बाद के दिनों में भारत और रूस के बीच कारोबारी रिश्तों में गिरावट दर्ज़ की गई.
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