Published on Nov 27, 2021 Updated 0 Hours ago

हमारे हरित भविष्य के लिए वित्तीय निवेश हासिल करने और नई तकनीक को अपनाने में सार्वजनिक-निजी सहयोग पहला क़दम है.

हरित परिवर्तन के लिए वित्त व्यवस्था

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ये लेख निबंध श्रृंखला हमारे हरित भविष्य को आकार देना: नेट-ज़ीरो बदलाव के लिए रास्ते और नीतियां का हिस्सा है.


परिचय

दुनिया चरम मौसम की घटनाओं में बढ़ोतरी देख रही है. इसकी वजह से पर्यावरणीय और मानवीय तबाही (Environmental disaster) हो रही है जो जलवायु परिवर्तन (Climate change) के कारण मानवता के सामने आने वाली चुनौतियों की भयावहता पर ज़ोर देती है. अंतरराष्ट्रीय समुदाय (International Community) इसका समाधान तलाशने के दबाव में जकड़ा हुआ है और हरित परिवर्तन (green change) के लिए प्राथमिक चुनौती हरित वित्त व्यवस्था (green finance/eco-investing) है. ये लेख मौजूदा वैश्विक हरित वित्त व्यवस्था के परिदृश्य, आवश्यक निवेश जुटाने में सरकार और बाज़ार की भूमिका और इस परिवर्तन को व्यावसायिक और सामाजिक रूप से सफल बनाने में सही साधनों और संस्थानों की रूप-रेखा के बारे में बताता है.

मौजूदा हरित वित्त व्यवस्था का परिदृश्य 

2009 में मेक्सिको के कानकुन में एक महत्वपूर्ण दूरदर्शिता दिखाते हुए विकसित देशों ने विकासशील दुनिया को प्रति वर्ष 100 अरब अमेरिकी डॉलर की जलवायु वित्त व्यवस्था प्रदान करने का वादा किया. प्रतिबद्धता इस तरह थी: “कानकुन में वित्तीय, तकनीकी और क्षमता निर्माण को लेकर जिस समर्थन पर सहमति हुई वो विकासशील देशों द्वारा राहत और अनुकूलन- दोनों तरह की कार्यवाही पर लागू होता है. दीर्घकालीन वित्तीय समर्थन के व्यापक संदर्भ में औद्योगीकृत देश 2020 तक प्रति वर्ष 100 अरब अमेरिकी डॉलर तक का फंड प्रदान करने के लिए प्रतिबद्ध हैं जिससे विकासशील देशों के द्वारा ठोस राहत कार्यवाही का समर्थन किया जा सके और इसे पारदर्शी तरीक़े से लागू किया जाए. ये फंड सार्वजनिक और निजी स्रोतों से इकट्ठा किया जाएगा.”

 कम प्रति व्यक्ति आमदनी और कार्बन उत्सर्जन को देखते हुए भारत अपने नागरिकों के आर्थिक विकास को लेकर प्रतिबद्धता और वैश्विक समुदाय के प्रति अपनी जलवायु ज़िम्मेदारी के बीच एक संतुलन हासिल करना चाहता है. 

इसमें क्रियात्मक शब्द “प्रदान” है. कई विकासशील देशों ने उम्मीद लगाई कि इसका मतलब ये है कि औद्योगीकृत देशों के द्वारा ये उन्हें फंड हस्तांतरित करने की एक प्रतिबद्धता है. ऐसी उम्मीद की गई कि प्रति वर्ष 100 अरब अमेरिकी डॉलर का एक महत्वपूर्ण हिस्सा हरित जलवायु फंड (जीसीएफ) जैसे फंड में जाएगा. यहां से विकासशील विश्व की राहत और अनुकूलन रणनीति के लिए वित्त की व्यवस्था की जाएगी.

लेकिन अमीर देशों ने “प्रदान” शब्द की अलग ही व्याख्या की थी. मिसाल के तौर पर कुछ ने दलील दी कि सिर्फ़ सार्वजनिक वित्त को ही 100 अरब अमेरिकी डॉलर की तरफ़ गिना जाना चाहिए. वहीं कुछ ने इस बात की तरफ़ ध्यान दिलाया कि सिर्फ़ अनुदानों पर विचार किया जाना चाहिए. भारत का वित्त मंत्रालय इस दृष्टिकोण को मानता है. सितंबर 2021 में आर्थिक सहयोग और विकास संगठन (ओईसीडी) की तरफ़ से जारी बयान में आंकड़े इस तरह बताए गए हैं: 2019 में विकसित देशों के द्वारा विकासशील देशों के लिए प्रदान जलवायु वित्त कुल मिलाकर 79.6 अरब अमेरिकी डॉलर है. ये 2018 के 78.3 अरब अमेरिकी डॉलर से 2 प्रतिशत ज़्यादा है. ये बढ़ोतरी सार्वजनिक जलवायु वित्त में बढ़ोतरी की वजह से दर्ज की गई जबकि निजी और द्विपक्षीय जलवायु वित्त में कमी आई.

नई तकनीकों में कुशलता के लिए सामाजिक और व्यक्तिगत निवेश की ज़रूरत होगी. इसका मतलब ये है कि नये हरित विश्व की ओर बदलाव के लिए नीति निर्माताओं के महत्वपूर्ण समर्थन की ज़रूरत पड़ेगी जिससे कि ये “न्यायसंगत बदलाव” बन सके.

ओईसीडी की एक रिपोर्ट बताती है कि ज़्यादातर वित्त हस्तांतरण कर्ज़ के रूप में किया गया. वित्तीय लेखपत्र के मामले में जो विकसित देशों के द्वारा सार्वजनिक जलवायु वित्त प्रदान करने को सहारा देते हैं (द्विपक्षीय और बहुपक्षीय- दोनों संस्थानों के द्वारा), कर्ज़ 2013 के 19.8 अरब अमेरिकी डॉलर से दोगुने से ज़्यादा बढ़कर 2019 में 44.5 अरब अमेरिकी डॉलर हो गया. इस बीच अनुदान 2013-15 के क़रीब 10 अरब अमेरिकी डॉलर प्रति वर्ष और 2016-19 के क़रीब 16.7 अरब अमेरिकी डॉलर के इर्द-गिर्द घटता-बढ़ता रहा. 2019 में प्रदान किए गए कुल सार्वजनिक जलवायु वित्त में कर्ज़ और अनुदान का हिस्सा क्रमश: 71 प्रतिशत और 27 प्रतिशत था. इक्विटी निवेश 2013 के 0.7 अरब अमेरिकी डॉलर से बढ़कर 2019 में 1.7 अरब अमेरिकी डॉलर हो गया जो सिर्फ़ 2 प्रतिशत हिस्सा है. जलवायु परिवर्तन पर बढ़ी हुई राजनीतिक इच्छाशक्ति के साथ विकसित देशों के द्वारा विकासशील देशों को वित्त हस्तांतरण का स्वरूप दो महत्वपूर्ण पहलुओं के साथ बदलना चाहिए: (ए) कम लागत फंड या अनुदान और (बी) कम लागत पर तकनीक का हस्तांतरण जो राहत और अनुकूलन को आसान बनाता है.

हरित निवेश के लिए नीतियां, तकनीक और सामाजिक समर्थन

हरित बदलाव में निवेश तीन बलों के द्वारा प्रेरित होगा: (1) सरकारी नीतियां; (2) तकनीकी व्यावहारिकता और (3) सामाजिक स्वीकार्यता.

राष्ट्रीय जलवायु नीतियां तय करने, कार्बन के लिए आंतरिक बाज़ार (या कर) बनाने और कार्बन शुल्क पर वैश्विक समझौते तक पहुंचने में सरकारें महत्वपूर्ण भूमिका अदा करेंगी. भारत ने अलग-अलग मंचों पर “जलवायु निष्पक्षता” को लेकर अपना रुख़ स्पष्ट कर दिया है. कम प्रति व्यक्ति आमदनी और कार्बन उत्सर्जन को देखते हुए भारत अपने नागरिकों के आर्थिक विकास को लेकर प्रतिबद्धता और वैश्विक समुदाय के प्रति अपनी जलवायु ज़िम्मेदारी के बीच एक संतुलन हासिल करना चाहता है. भारत जीवाश्म ईंधन पर भारी कर लगाता रहा है और नवीकरणीय ऊर्जा के प्रसार को प्रोत्साहन देता है. चूंकि बड़े आर्थिक समूहों ने अपनी कार्बन लागत को समझना शुरू किया है (जैसे ईयू और चीन ने इस मामले में पहला क़दम उठाया है), वैसे में ये क़दम कार्बन शुल्क पर वैश्विक चर्चा को बढ़ा सकते हैं. साथ ही अलग-अलग देशों को सावधानी से आगे बढ़ना होगा ताकि कार्बन सीमा कर के रूप में इसे एक व्यापारिक रुकावट नहीं बनाया जाए.

महंगी और जोखिम भरी तकनीक को सिर्फ़ बाज़ार के बलों पर छोड़ना कार्बन उत्सर्जन कम करने के अपेक्षित लक्ष्य में काम नहीं कर सकता है. सरकारों, बहुपक्षीय संस्थानों और जलवायु निवेश फंड को बाज़ार के साथ मिलकर लागत कम करने और उद्योग को चालू करने के लिए काम करना होगा. 

नवीकरणीय ऊर्जा जैसी हरित तकनीक तेज़ी से आर्थिक तौर पर ज़्यादा व्यावहारिक बन रही है. दूसरे क्षेत्रों में आइडिया और तकनीकें विकास और इस्तेमाल करने वालों की स्वीकार्यता के अलग-अलग चरण में हैं जिनमें वनस्पति आधारित मांस, बैट्री वॉल, ऑफशोर विंड एनर्जी और ग्रीन हाइड्रोजन शामिल हैं. इन कल्पनाओं को विकसित करने की ज़रूरत है ताकि उनकी व्यावसायिक व्यावहारिकता को साबित किया जा सके.

हरित अनिवार्यता के बारे में भले ही राजनीतिक नेता ज़्यादा जागरुक हो चुके हैं लेकिन ये परिवर्तन न तो तेज़ होगा, न ही बिना दर्द के. कई ग़ैर-हरित संपत्तियों का आर्थिक जीवन बहुत लंबा है (जैसे कोयला पावर प्लांट) और कई नौकरियां उनके साथ जुड़ी हुई हैं (जैसे इंटरनल कम्बस्टन इंजन या आईसीई वाहन का पूरा सर्विस वैल्यू चेन). बदलाव से जुड़ी चुनौतियां भी हैं जैसे सितंबर, अक्टूबर 2021 में उत्तरी सागर के ऑफशोर विंड प्रोजेक्ट से बिजली सप्लाई में अचानक कमी के कारण पूरे एनर्जी वैल्यू चेन में क़ीमत तेज़ी से बढ़ी. ऐसी चुनौतियों का समाधान पूर्वानुमान में महत्वपूर्ण निवेश, ग्रिड संतुलन, मांग में कमी और अगर बिजली की सप्लाई में कमी है तो कमज़ोर के लिए नीतिगत समर्थन के ज़रिए करने की ज़रूरत है. नई तकनीकों में कुशलता के लिए सामाजिक और व्यक्तिगत निवेश की ज़रूरत होगी. इसका मतलब ये है कि नये हरित विश्व की ओर बदलाव के लिए नीति निर्माताओं के महत्वपूर्ण समर्थन की ज़रूरत पड़ेगी जिससे कि ये “न्यायसंगत बदलाव” बन सके.

 अंतर्राष्ट्रीय ऊर्जा संघ (आईईए) के पूर्वानुमान के मुताबिक़ भारत को अगले दो दशकों में सिर्फ़ हरित ऊर्जा तकनीक में 1.4 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर के निवेश की ज़रूरत है. इसे संदर्भ में देखें तो वित्त वर्ष 2021 में भारत की जीडीपी 2.7 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर है. 

सरकार और बाज़ार को एक साथ लाना

 

जीवाश्म ईंधन पर कार्बन टैक्स के बिना भी नवीकरणीय ऊर्जा अब कोयले से बनने वाली बिजली से सस्ती है. नवीकरणीय स्रोतों में परिवर्तन, चाहे वो सौर फार्म के मामले में उपयोगिता के स्तर पर हो या रूफटॉप सोलर के रिटेल स्तर पर हो, इस्तेमाल करने वालों के लिए आर्थिक तौर पर ज़्यादा व्यावहारिक बन गया है जबकि निवेशकों के लिए पूंजी पर पर्याप्त मुनाफ़े का ज़रिया. उदाहरण के लिए बैट्री की क़ीमतों में गिरावट और चार्जिंग का इंफ्रास्ट्रक्चर बढ़ने के साथ इलेक्ट्रिक वाहन आईसीई वाहनों की तुलना में उपभोक्ताओं के लिए स्वामित्व की कुल लागत (टीसीओ) को पार करने वाले हैं. वनस्पति आधारित प्रोटीन के स्रोत अब लागत के मामले में प्रतिस्पर्धी हैं. इस प्रकार बड़ी मात्रा में मीथेन का उत्सर्जन करने वाले बड़े पशुओं के झुंड को रखने की ज़रूरत कम हो गई है. जैसे-जैसे ये तकनीकें परिपक्व होंगी, वैसे-वैसे उनका विस्तार उचित मुनाफ़ा चाहने वाले व्यावसायिक निवेशकों के द्वारा प्रेरित होगा. इसी तरह इन उद्योगों में सरकार की भूमिका काफ़ी हद तक बाज़ार के बलों को खड़ा करने और विकास को रोकने वाली बाधाओं को दूर करने की होगी.

दूसरी हरित तकनीकें विकास और इस्तेमाल करने वाले की स्वीकार्यता के भरोसा देने वाले चरण में हैं. इनमें ऑफशोर विंड, बैट्री स्टोरेज, ग्रीन हाइड्रोजन और कार्बन कैप्चर शामिल हैं. ये नये आइडिया और तकनीकें व्यावसायिक स्तर पर प्रसार के मामले में ज़्यादा खर्चीले हो सकते हैं या कुछ क्षेत्रों में इनसे ज़्यादा और अज्ञात जोखिम हो सकता है. अगर ये अंत में व्यावसायिक तौर पर व्यावहारिक हो जाते हैं तो ये साधन कार्बन उत्सर्जन कम करने में महत्वपूर्ण योगदान दे सकते हैं.

इस तरह उभरते बाज़ारों में जीजीईएफ विश्व का सबसे बड़ा एक देश पर केंद्रित जलवायु फंड बन रहा है. अगले दशक में जीजीईएफ द्वारा समर्थित कारोबार बढ़ने और भारत में जलवायु कार्यवाही पर इसके ज़्यादा असर डालने की उम्मीद है. 

लेकिन इसके साथ-साथ महंगी और जोखिम भरी तकनीक को सिर्फ़ बाज़ार के बलों पर छोड़ना कार्बन उत्सर्जन कम करने के अपेक्षित लक्ष्य में काम नहीं कर सकता है. सरकारों, बहुपक्षीय संस्थानों और जलवायु निवेश फंड को बाज़ार के साथ मिलकर लागत कम करने और उद्योग को चालू करने के लिए काम करना होगा. जिन मामलों में किसी आइडिया में संभावना हो (लेकिन जोखिम हो सकता है) या आइडिया के प्रसार की लागत ज़्यादा (महंगी) हो, वहां एक पायलट प्रोजेक्ट को अंजाम देकर प्राइवेट एंटरप्राइज़ को सीख दी जा सकती है और नियामकों एवं नीति निर्माताओं के लिए क़ीमती नीतिगत सबक़ पेश किया जा सकता है.

हरित उद्योग को शुरू करने के लिए सरकारों के पास व्यापक नीतियां हैं. वो निम्नलिखित चीज़ें कर सकती हैं: (ए) पायलट प्रोजेक्ट के शुरुआती पूंजीगत खर्च को समाहित करना; (बी) पूंजी या संचालन लागत के हिस्से के लिए सब्सिडी की पेशकश; (सी) अंतिम उत्पाद की कुल ख़रीद को प्रोत्साहित करना; (डी) अलग-अलग देशों के बीच तकनीक हस्तांतरण की पहल की कोशिश या निर्माण में मदद; और (ई) नई तकनीकों के लिए संयोजक बुनियादी ढांचे या वितरण की पेशकश. दूसरी तरफ़ अगर तकनीक व्यावसायिक रूप से विधिमान्य है तो प्राइवेट एंटरप्राइज़ ज़्यादा बड़े इनाम की उम्मीद में प्रदर्शन वाले प्रोजेक्ट के साथ प्रयोग करना चाहते होंगे.

इस चीज़ के काम करने के लिए अलग-अलग तरह के पूंजी प्रदाताओं को साथ आने की ज़रूरत है ताकि सरकार और बाज़ार द्वारा अदा की जाने वाली भूमिका को बढ़ाया जा सके. सार्वजनिक पूंजी को इन जगहों से आने की ज़रूरत है: (ए) वैश्विक बहुपक्षीय योगदानकर्ता जैसे हरित जलवायु फंड; (बी) दो (या छोटे समूहों के) देशों के बीच द्विपक्षीय फंड; (सी) मौजूदा बहुपक्षीय विकासात्मक संस्थान जो अपना ध्यान हरित निवेश पर लगा रहे हैं; और (डी) राष्ट्रीय और स्थानीय सरकार का बजट. 2019 में विकसित देशों से सार्वजनिक जलवायु वित्त 62.9 अरब अमेरिकी डॉलर पर पहुंच गया. निजी निवेश इन जगहों से आएंगे: (ए) प्राइवेट इक्विटी और वेंचर कैपिटल फंड; (बी) परोपकारी पूंजी; और (सी) ग़ैर-हरित नकद प्रवाह वाली कंपनियों के द्वारा अब हरित उद्योगों में लगाया गया अपना निवेश. 2019 में विकासशील देशों के द्वारा इकट्ठा निजी जलवायु वित्त 14 अरब अमेरिकी डॉलर  दर्ज किया गया.

 

जोख़िम और मुनाफ़ा साझा करने के लिए साधन

 

पूंजी मुहैया कराने वालों के लिए उचित साधन बनाने की ज़रूरत है ताकि: (ए) जो विश्व से जलवायु कर्ज़ लेने वाले हैं उनसे पूंजी जमा की जा सके; (बी) इसे पारदर्शी तरीक़े से उन देशों और समाज को हस्तांतरित किया जा सके जिन्हें न्यायसंगत परिवर्तन के लिए नई तकनीकों के प्रसार में पूंजीगत समर्थन की ज़रूरत है; (सी) उभरती तकनीकों पर जोखिम ले सकें- इनमें से कुछ सफल नहीं हो सकते हैं; और (डी) जब परिवर्तन हो रहे हैं तो लंबे वक़्त के लिए धैर्य बनाए रखना. उपर्युक्त परिदृश्य के लिए वित्त मुहैया कराने वाले निम्नलिखित विकल्पों पर विचार कर सकते हैं:

  • फर्स्ट-लॉस कैपिटल: जो फंड पहला नुक़सान उठाने के लिए तैयार हैं वो दूसरी जोखिम उठाने वाली पूंजी का महत्वपूर्ण हिस्सा ला सकते हैं. अलग-अलग फंड का एक पूल जहां मान लीजिए कि 10 प्रतिशत पूंजी को “फर्स्ट लॉस” के रूप में रखा गया है, वहां बाक़ी 90 प्रतिशत फंड में योगदान देने वालों को जोखिम के बदले बेहतर मुनाफ़े की पेशकश की जा सकती है. इसका एक विकल्प ये भी हो सकता है कि ऐसी पूंजी को भुगतान सिर्फ़ उसी वक़्त हो जब नतीजे उम्मीद के मुताबिक़ हो.
  • गारंटी:ये एक बल बढ़ाने वाला साधन है. फर्स्ट लॉस कैपिटल में जहां वास्तविक रूप में फंड लगाना पड़ता है, वहीं गारंटी एक ऐसा तरीक़ा है जिसके ज़रिए उस वक़्त भुगतान रोका जाता है जब इसकी ज़रूरत पड़ती है. अगर ये गारंटी विश्वसनीय पक्षों जैसे बहुपक्षीय विकास संस्थानों द्वारा दी जाती है तो ये पूंजी को सीधे लगाने की ज़रूरत कम कर सकती है. जब भी निवेश से किसी नुक़सान को खपाने के लिए गारंटी की ज़रूरत होती है तो इस तरह की गारंटी का सम्मान किया जा सकता है.
  • हमेशा के लिए फंड:एक पहलू जो आजकल निवेश के लिए मजबूरी है वो है निजी या सरकारी फंड के लिए सीमित समय (सात से 15 साल के बीच). आख़िर में फंड और उनके मुनाफ़े को हर हाल में योगदान देने वालों को लौटा देना चाहिए. जो फंड पूरी रक़म (या उनमें से ज़्यादा) हरित परिवर्तन को बढ़ावा देने में फिर से निवेश करने का वादा करते हैं वो परियोजना के तैयार होने के लिए ज़्यादा लंबे समय की पेशकश कर सकते हैं. फंड की मियाद को लेकर विशेष हस्तक्षेप अलग-अलग हो सकते हैं लेकिन जब उन्हें लौटाने की ज़रूरत नहीं होगी तो ऐसे फंड को परिवर्तन की प्रक्रिया के बारे में ज़्यादा लंबे दृष्टिकोण अपनाने की मंज़ूरी दी जा सकती है.

पूंजी के स्रोतों और विशेष साधनों को एक-दूसरे से मिलाने से हरित परिवर्तन के लिए वित्त की व्यवस्था में व्यापक साधन का निर्माण किया जा सकता है.

केस स्टडी: हरित विकास इक्विटी फंड

उम्मीद जताई जा रही है कि भारत 2005 की अपनी जीडीपी का 33-35 प्रतिशत उत्सर्जन तीव्रता कम करने का लक्ष्य 2030 से काफ़ी पहले पूरा कर लेगा. ये एक व्यावहारिक लक्ष्य है जो भारत की कॉप 21 पेरिस 2015 की प्रतिबद्धता से उत्पन्न होता है. ये प्रतिबद्धता भारत को कम कार्बन विकास के रास्ते की ओर ले जाता है. अंतर्राष्ट्रीय ऊर्जा संघ (आईईए) के पूर्वानुमान के मुताबिक़ भारत को अगले दो दशकों में सिर्फ़ हरित ऊर्जा तकनीक में 1.4 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर के निवेश की ज़रूरत है. इसे संदर्भ में देखें तो वित्त वर्ष 2021 में भारत की जीडीपी 2.7 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर है. इस तरह ये हरित निवेश अगले कुछ वर्षों के दौरान भारत के निवेश का एक महत्वपूर्ण हिस्सा होने की उम्मीद की जाती है.

अप्रैल 2018 में नेशनल इन्वेस्टमेंट एंड इंफ्रास्ट्रक्चर फंड (एनआईआईएफ) के फंड ऑफ फंड्स ने यूके के विदेश, राष्ट्रमंडल और विकास कार्यालय (एफसीडीओ) के साथ मिलकर एक ऐसा फंड बनाने के बारे में सोचा जो व्यावसायिक शर्तों पर भारत में हरित इंफ्रास्ट्रक्चर में निवेश करेगा. इस फंड का उद्देश्य कई क्षेत्रों जैसे नवीकरणीय ऊर्जा, ऊर्जा ट्रांसमिशन, स्वच्छ परिवहन, वॉटर ट्रीटमेंट, वेस्ट मैनेजमेंट और स्वच्छ ऊर्जा/पर्यावरण के क्षेत्र में दूसरे उभरते कारोबार जैसे ऊर्जा भंडारण/फ्यूल सेल को प्रोत्साहन देना था.

हरित विकास इक्विटी फंड (जीजीईएफ) नाम के इस फंड की शुरुआत एनआईआईएफ और एफसीडीओ की तरफ़ से 170-170 मिलियन अमेरिकी डॉलर की प्रतिबद्धता के साथ की गई और 2018 में भारत के पहले जलवायु फंड के रूप में इसका संचालन शुरू हुआ. सिर्फ़ एक योजना से आगे बढ़कर इस फंड ने नवीकरणीय ऊर्जा (उपयोगिता पैमाना के साथ-साथ ‘व्यावसायिक और औद्योगिक’ भी), वेस्ट मैनेजमेंट, इलेक्ट्रिक वाहन, पानी और वेस्ट वॉटर मैनेजमेंट के पांच क्षेत्रों में निवेश किया है.

मौजूदा फंड का आकार 410 मिलियन अमेरिकी डॉलर है. इसके अलावा निजी और बहुपक्षीय निवेश, जिनमें वैश्विक जलवायु पर ध्यान देने वाले निवेशक शामिल हैं, से भी 200-300 मिलियन अमेरिकी डॉलर की नई प्रतिबद्धता की उम्मीद है. इस तरह उभरते बाज़ारों में जीजीईएफ विश्व का सबसे बड़ा एक देश पर केंद्रित जलवायु फंड बन रहा है. अगले दशक में जीजीईएफ द्वारा समर्थित कारोबार बढ़ने और भारत में जलवायु कार्यवाही पर इसके ज़्यादा असर डालने की उम्मीद है. जीजीईएफ की सफलता विश्वसनीय व्यावसायिक अवसर का प्रदर्शन करती है जो व्यावसायिक तौर पर टिकाऊ ढंग से हरित अर्थव्यवस्था और जलवायु परिवर्तन के असर को कम करने में समर्थ है.

सही संस्थानों का निर्माण

हरित बदलाव को प्रेरणा देने वाले किरदारों- सरकारें, प्राइवेट एंटरप्राइजेज़ और वित्त दाता- को नई तकनीकों को लेकर बाज़ार में व्यावहारिकता को तेज़ करने के लिए सही संस्थानों की ज़रूरत है. ऐसे संस्थानों में विशिष्ट वेंचर कैपिटल और प्राइवेट इक्विटी फंड, विकास वित्त संस्थान और भुगतान गारंटी संस्था (जैसे सोलर एनर्जी कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया) शामिल हैं. नई तकनीकों के द्वारा कार्बन कम करने के असर को निर्धारित करना इन संस्थानों के लिए महत्वपूर्ण होगा.

अब समय इस प्रतिबद्धता को कार्रवाई में बदलने का है. बड़े पैमाने पर विकासशील देशों के लिए वित्त आकर्षित करने में अभूतपूर्व लहर की ज़रूरत होगी. इसमें सार्वजनिक और निजी सहयोग चाहिए जो हरित परिवर्तन को हरित क्रांति में बदलेगा.

नियामकों के लिए विशिष्ट कसौटी और पारदर्शी मानक निर्धारित करने की ज़रूरत होगी जिसका पालन वित्तीय संस्थानों को करना चाहिए ताकि वो हर श्रेणी के तहत वित्तीय साधनों का वर्गीकरण कर सकें. इसके लिए अच्छी तरह निर्धारित पैमाने के निर्माण की ज़रूरत होगी जिससे कि भागीदारों को हस्तक्षेप की गुणवत्ता का मूल्यांकन करने में मदद मिले (और ग़लत जानकारी से बचा जा सकें).

हरित वित्त के विषय ने महत्वाकांक्षी लक्ष्यों के साथ लगातार वैश्विक मंचों पर प्रतिबद्धता देखी है. अब समय इस प्रतिबद्धता को कार्रवाई में बदलने का है. बड़े पैमाने पर विकासशील देशों के लिए वित्त आकर्षित करने में अभूतपूर्व लहर की ज़रूरत होगी. इसमें सार्वजनिक और निजी सहयोग चाहिए जो हरित परिवर्तन को हरित क्रांति में बदलेगा.

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