जनवरी में ट्विटर ने अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के ट्विटर हैंडल (@realDonaldTrump) को हमेशा के लिए प्रतिबंधित कर दिया था. ट्रंप के चार साल के कार्यकाल के दौरान हमने ट्विटर पर टाइपिंग की ग़लतियों की लंबी फ़ेहरिस्त देखी. उनके नस्लवादी रिट्वीट भी देखे और एटमी हमले की धमकियों वाले बयान भी ट्विटर पर देखे. आख़िर में बग़ावत को भड़काने वाले ट्रंप के ट्वीट के बाद, ट्विटर ने उन पर उम्र भर के लिए पाबंदी लगा दी. इसमें कोई दो राय नहीं है कि कैपिटॉल हिल के दंगों को ट्रंप ने जिस तरह से हवा दी, उससे साफ़ हो गया कि उन्होंने सोशल मीडिया के इस्तेमाल की लक्ष्मण रेखा पार की थी. इसके बाद सोशल मीडिया के कई दूसरे प्लेटफ़ॉर्म जैसे कि रेडिट, फेसबुक, इंस्टाग्राम, स्नैपचैट, यू-ट्यूब और टिकटॉक ने अपने उग्र दक्षिणपंथी यूज़र्स और उनके भड़काऊ हैशटैग पर इसलिए सख़्त क़दम उठाए क्योंकि इससे और हिंसा भड़कने का डर था. हालांकि, सोशल मीडिया के तमाम मंचों द्वारा ट्रंप पर पाबंदी लगाने से इन प्लेटफॉर्म की शक्ति को लेकर बहस छिड़ गई है. इनमें ये सवाल भी शामिल है कि वो अपनी सेवाओं की शर्तें कब और किस आधार पर लागू करने का फ़ैसला करते हैं.
ट्रंप के अकाउंट पर पाबंदी लगाने से जो सवाल फौरी तौर पर उभरा वो ये था कि आख़िर कोई भी मंच इस तरह के प्रतिबंध लगाने का निर्णय कैसे लेता है.
कोई भी सोशल मीडिया मंच किसी खाते को निलंबित करने का फ़ैसला कैसे लेता है? प्रतिबंध लगाने के उसके पैमाने कितने नियमित रूप से लागू किए जाते हैं?
डोनाल्ड ट्रंप के खाते पर प्रतिबंध लगाने के बारे में अपने एक ब्लॉग में ट्विटर ने अपने फ़ैसले के पीछे के तर्क को विस्तार से बताया. इसमें कहा गया कि, ट्रंप हिंसक घटनाओं के महिमामंडन’ संबंधी उनकी नीति का लगातार उल्लंघन कर रहे थे. इसके अलावा ट्रंप के ट्वीट से अमेरिका में सत्ता के शांतिपूर्ण हस्तांतरण और 20 जनवरी को नए राष्ट्रपति के शपथ ग्रहण को लेकर भी चिंताएं बढ़ रही थीं. फेसबुक के सीईओ मार्क ज़करबर्ग ने भी अपने बयान में यही चिंताएं ज़ाहिर कीं.
सोशल मीडिया के तमाम मंचों द्वारा ट्रंप पर पाबंदी लगाने से इन प्लेटफॉर्म की शक्ति को लेकर बहस छिड़ गई है. इनमें ये सवाल भी शामिल है कि वो अपनी सेवाओं की शर्तें कब और किस आधार पर लागू करने का फ़ैसला करते हैं.
सोशल मीडिया द्वारा ट्रंप पर लगाई गई पाबंदी इसलिए उल्लेखनीय है, क्योंकि ये किसी भी मौजूदा विश्व नेता पर लगे पहले स्थायी प्रतिबंध [1] हैं. हालांकि, ट्रंप पर प्रतिबंध को सोशल मीडिया के किसी औसत यूज़र के अनुभवों का प्रतीक नहीं कहा जा सकता है.
पहली बात तो ये है कि फ़ेसबुक और ट्विटर, विश्व नेताओं पर अपनी नीतियों को ज़रा अलग तरह से लागू करते हैं. इसके लिए वो ‘सार्वजनिक हित’ पैमाने का इस्तेमाल करते हैं, जो अपवाद स्वरूप लागू होता है. कोई ऐसा कंटेंट जो ट्विटर के नियमों का उल्लंघन करता है, उसे तब रियायत मिल सकती है, जब ये माना जाए कि इससे जनहित होता है. फ़ेसबुक ने भी अपने सामुदायिक पैमानों में सार्वजनिक हित या ख़बरों की अहमियत जैसे अपवादों की गुंजाइश छोड़ रखी है. अब सार्वजनिक हित का मतलब क्या है, ये बात ज़रा अस्पष्ट है. इन नियमों से किसी आम यूज़र की अभिव्यक्ति को संरक्षण हासिल नहीं है. ट्विटर और फ़ेसबुक के यूज़र अपना खाता निलंबित करने के ख़िलाफ़ अपील का अधिकार तो रखते हैं, लेकिन ये ऐसी प्रक्रिया है जिसमें 24 घंटे से लेकर कई महीनों और रेडिट के यूज़र्स के थ्रेड पढ़ें तो, कई बार तो इससे भी अधिक समय लग सकता है.
दूसरी बात ये है कि इन अमेरिकी सोशल मीडिया कंपनियों के प्रतिबंध लगाने या दंडित करने का मक़सद अक्सर उनके अपने देश की राजनीतिक प्रक्रिया और नैतिक मानदंडों के अनुरूप होता है; 2016 के अमेरिकी चुनाव और फिर 2020 के अमेरिकी चुनाव का, इन प्लेटफ़ॉर्म के नीतिगत परिवर्तन पर गहरा असर पड़ा है. उदाहरण के लिए इन सोशल मीडिया मंचों ने अमेरिका के कट्टर दक्षिणपंथी और वामपंथी खातों के ख़िलाफ़ हिंसा फैलाने या मंच के संभावित दुरुपयोग की आशंका के चलते सघन कार्रवाइयां की हैं. इन कंपनियों ने ट्रंप के खाते निलंबित करने का निर्णय भी ख़ुद अपने अमेरिकी कर्मचारियों और उपभोक्ताओं के दबाव में लिया. सवाल ये है कि क्या फ़ेसबुक और ट्विटर जैसे मंच, अन्य देशों के संबंध में भी ऐसा ही क़दम उठाते हैं.
सोशल मीडिया द्वारा ट्रंप पर लगाई गई पाबंदी को लेकर दुनिया भर से मिली-जुली प्रतिक्रियाएं आई थीं. जहां एक ओर कई लोगों ने इस फ़ैसले की तारीफ़ की. वहीं, एक वर्ग ऐसा भी था, जिसने ये आशंका जताई कि दुनिया के अन्य नेताओं के ख़िलाफ़ भी ऐसी कार्रवाई हो सकती है. इस तबक़े के बीच जो सवाल उठ रहा था वो ये था कि, ‘अगर इन सोशल मीडिया कंपनियों ने अन्य नेताओं पर भी ऐसे प्रतिबंध लगाने चाहे, तो उन्हें कोई रोक सकेगा क्या?’
हालांकि, छोटी-मोटी ग़लतियों के चलते अन्य वैश्विक नेताओं के ख़िलाफ़ सोशल मीडिया कंपनियों द्वारा ऐसी ही कार्रवाई करने की आशंका जताना जल्दबाज़ी होगी. ख़ास तौर से तब और जब कई नेताओं के आपत्तिजनक ट्वीट को लेकर इन कंपनियों द्वारा कार्रवाई न करने की अक्सर आलोचना होती रही है. लेकिन, इस आशंका से एक महत्वपूर्ण प्रश्न ज़रूर खड़ा होता है: क्या इन सोशल मीडिया मंचों को अमेरिका के अलावा अन्य देशों की मांग को भी गंभीरता से लेने की ज़रूरत है? या, दूसरे शब्दों में कहें तो, कया सोशल मीडिया कंपनियां अन्य देशों के क़ानून से ऊपर हैं?
अगर इन सोशल मीडिया कंपनियों ने अन्य नेताओं पर भी ऐसे प्रतिबंध लगाने चाहे, तो उन्हें कोई रोक सकेगा क्या?
सोशल मीडिया कंपनियां इस सवाल से जिस तरह से निपटती हैं, उससे ये ज़ाहिर होता है कि वो इसका फ़ैसला किसी देश की सरकार को देखकर करती हैं. ट्विटर तो वर्ष 2018 से ही सरकार समर्थित सूचना अभियानों के दस्तावेज़ तैयार करता आया है-ट्विटर की नीति में ये बदलाव 2016 के अमेरिकी चुनाव में रूस की दख़लंदाज़ी के बाद आया था. 2019 के बाद से ट्विटर ने किसी देश की राजनीतिक प्रक्रिया में दख़लंदाज़ी का दायरा बढ़ाकर अप्रमाणिक बर्ताव को भी इसमें शामिल कर लिया है. इसमें सकारात्मक और नकारात्मक प्रचार, दोनों शामिल हैं. [2] हाल ही में ट्विटर ने युगांडा में चुनाव से पहले इंटरनेट बंद करने को लेकर वहां की सरकार की आलोचना की थी.
इन सब क़दमों का अर्थ ये है कि ट्विटर की टीम ऐसे संप्रभु निर्णय ले रही है, जो किसी देश की क़ानूनी और राजनीतिक प्रक्रिया के दायरे से बाहर आते हैं. इन क़दमों से खीझे कई उपभोक्ता, अमेरिकी सोशल मीडिया कंपनियों के जवाब में अपने देश में स्थित, ‘स्वदेशी सोशल नेटवर्क’ की वकालत भी करते हैं. टूटर और ‘मेड इन इंडिया’ मित्रों जैसे मंच अपने स्वदेशी होने का दावा करते हैं. लेकिन, इन स्वदेशी सोशल मीडिया मंचों का छोटा और विवादित इतिहास इस बात की सटीक मिसाल है कि ऐसे ‘स्वदेशी विकल्पों’ को अपनाने से कौन सी चुनौतियां उठ खड़ी होती हैं: इन मंचों पर कंटेंट की निगरानी की कमज़ोर नीतियां (जो किसी उपभोक्ता के लिए विषाक्त अनुभव होती हैं), ग़लत जानकारी के भयंकर प्रसार और निजता व सुरक्षा संबधी उपायों की ख़ामियों की शिकायत अक्सर की जाती है.
अमेरिका की कानूनी व्यवस्था
अमेरिका स्थित सोशल मीडिया मंच अमेरिकी संविधान और वहां की क़ानूनी व्यवस्था के प्रति जवाबदेह हैं. अमेरिका के संविधान के पहले संशोधन के तहत मिली अभिव्यक्ति की आज़ादी का दायरा दुनिया में सबसे व्यापक माना जाता है. अमेरिका के सुप्रीम कोर्ट ने फ़ैसला दिया था कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को प्रतिबंधित करने वाले क़ानूनों को ‘कम से कम सख़्त’ रखा जाना चाहिए. उदाहरण के लिए, अमेरिका के सुप्रीम कोर्ट ने कई बार ऐसे क़ानूनों को ख़ारिज कर दिया है, जो बच्चों को ऑनलाइन पोर्नोग्राफी से बचाने के लिए बनाए गए थे. इसके पीछे सुप्रीम कोर्ट का तर्क ये था कि तय लक्ष्य प्राप्त करने के लिए बने ये क़ानून अभिव्यक्ति की आज़ादी को संकुचित करने के सबसे सीमित विकल्प नहीं थे. दुनिया भर में बोलने की आज़ादी के क़ानून संबंधित देश के अपने विशिष्ट इतिहास और संदर्भ के अनुसार बनाए जाते हैं. यहां तक कि तमाम लोकतांत्रिक देशों के ऐसे क़ानूनों में अक्सर अंतर देखा जाता है. दक्षिण कोरिया के सार्वजनिक आधिकारिक चुनाव अधिनियम 1994 (공직선거법) में चुनाव के ऑनलाइन कवरेज के कई सख़्त दिशा-निर्देश हैं. ये क़ानून ऐसे कंटेंट के प्रकाशन पर रोक लगाता है, जिससे चुनाव के नतीजे प्रभावित हो सकते हैं. ये प्रतिबंध मौजूदा सार्वजनिक अधिकारियों पर भी लागू होते हैं. दक्षिण कोरिया का सुप्रीम कोर्ट भी ऐसे कई बयानों और कंटेंट को परोसना अपराध मानता है, जो भ्रमित करने या ठेस पहुंचाने वाले हों. जर्मनी की अपराध संहिता (धारा 130 (3)) के अंतर्गत, नाज़ी शासन से रज़ामंदी, इससे इनकार या इसे कम करके आंकने को दंडनीय अपराध मानती है.
इसके साथ ही साथ, बहुत से उपभोक्ताओं के लिए ये सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म, ऐसे राजनीतिक विचारों की अभिव्यक्ति का इकलौता माध्यम हैं, जो उनके अपने देश की सरकार की आलोचना करते हों. फिलीपींस के नागरिकों ने जुलाई 2020 में बड़ी संख्या में ट्विटर पर #junterrorbill हैशटैग के साथ राष्ट्रपति दुतर्ते की सरकार के ख़िलाफ़ तब आवाज़ उठाई थी, जब उसने विवादास्पद आतंकवाद निरोधक अधिनियम 2020 पारित किया था. हॉन्ग कॉन्ग के लोकतंत्र समर्थक आंदोलन में भी सोशल मीडिया मंचों ने बहुत अहम भूमिका निभाई थी.
सोशल मीडिया आज दुनिया भर में करोड़ों लोगों की ज़िंदगी से बड़ी गहराई से जुड़ गया है. सरकारें सोशल मीडिया के ज़रिए अपनी नीतियां सामने रखती हैं, अपने नागरिकों के संवाद करती हैं और कूटनीतिक प्रक्रिया का संचालन भी करती हैं. ये सोशल मीडिया मंच आज जो फ़ैसले ले रहे हैं, उनके प्रभाव बहुत व्यापक हैं. सोशल मीडिया मंचों के ये निर्णय लोगों की रोज़ी रोटी, राजनीतिक प्रक्रिया और सार्वजनिक नीति निर्माण से जुड़े बड़े क़दमों पर डाल सकते हैं. सोशल मीडिया के प्रभाव का ये दायरा उसकी क़ानूनी हदों से कहीं ज़्यादा व्यापक है.
इन सब क़दमों का अर्थ ये है कि ट्विटर की टीम ऐसे संप्रभु निर्णय ले रही है, जो किसी देश की क़ानूनी और राजनीतिक प्रक्रिया के दायरे से बाहर आते हैं. इन क़दमों से खीझे कई उपभोक्ता, अमेरिकी सोशल मीडिया कंपनियों के जवाब में अपने देश में स्थित, ‘स्वदेशी सोशल नेटवर्क’ की वकालत भी करते हैं.
उपभोक्ता, सरकार और सोशल मीडिया मंच के बीच के इस टकराव से हमारे सामने जो अंतिम और सबसे महत्वपूर्ण सवाल हमारे सवाल खड़ा होता है, वो है:
ये सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म किस तरह से अधिक जवाबदेह और पारदर्शी हो सकते हैं? आज अगर इनके पास सरकारों से अधिक नहीं तो उनके बराबर ताक़त है. ऐसे में क्या इनके बोर्ड का चुनाव होना चाहिए?
सरकारों के पास क़ानून का भारी हथौड़ा होता है. लेकिन, उपभोक्ता अधर में लटकते छोड़ दिए जाते हैं. इसी वजह से सोशल मीडिया कंपनियों को अपने निर्णय लेने की प्रक्रिया में यूज़र्स को भी शामिल करना चाहिए. इस समय, सोशल मीडिया के नियमित उपभोक्ता के पास दो ही विकल्प हैं. या तो वो उन नीतिगत बदलावों को स्वीकार कर लें, जो उनकी राय के बिना किए गए हैं या फिर उस मंच से हट जाएं. बहुत से लोगों के लिए सोशल मीडिया से हटने का विकल्प उचित नहीं है. सोशल मीडिया कंपनियां तभी प्रतिक्रिया देती हैं, जब उनके इसके साझेदार जवाबदेह बनाएं. सोशल मीडिया यूज़र्स के वास्तविक रूप से साझेदार बनने के लिए, उन्हें पास बड़ी कंपनियों के मुख्यालय में लिए जाने वाले फ़ैसलों को प्रभावित करने का अधिकार पाने की आवश्यकता है.
[1] सोशल मीडिया से निलंबित किए गए पहले विश्व नेता ईरान के सर्वोच्च लीडर अली ख़मेनेई थे. हालांकि उन्हें अस्थायी तौर पर ही निलंबित किया गया था.
[2] सकारात्मक प्रचार किसी विषय, गतिविधि या सरकार के बारे में सकारात्मक सोच को बढ़ावा देने के लिए किया जाता है. वहीं, नकारात्मक दुष्प्रचार का लक्ष्य इसके उलट होता है.
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