Author : Antara Sengupta

Published on Dec 15, 2017 Updated 0 Hours ago

हमारे शिक्षण संस्थानों में डिग्री देने जैसे मूलभूत कामों तक में भी संपूर्ण स्वायत्तता नहीं है। अगर आर्थिक स्वतंत्रता की बात करें तो ऐसा माना जाता है कि ये संस्थान अपनी जरूरतों को पूरा करने में भी असमर्थ हैं और लगभग पूरी तरह राज्य सरकार तथा उसके दयनीय बजट पर निर्भर हैं।

क्यों नहीं हैं हमारे पास अच्छे शिक्षण संस्थान?

हाल ही में मुम्बई विश्वविद्यालय में ऑन स्क्रीन मार्किंग सिस्टम (ओएसएम) पर आए संकट ने प्रगतिशील परिवर्तनों को लागू करने में हमारे राज्य स्तरीय सावर्जनिक विश्वविद्यालयों की असमर्थता को सबके सामने लाकर रख दिया है। ऑन स्क्रीन मार्किंग सिस्टम (ओएसएम) सभी विभागों तथा उप केन्द्रों के प्रश्न-पत्रों का मूल्यांकन करने की एक डिजीटल प्रक्रिया है।

ओएसएम की असफलता ने करीब 5 लाख विद्यार्थियों के भविष्य को खतरे में डाल दिया है। साथ ही इस प्रक्रिया में कुल 4 हजार 565 प्रश्न-पत्र गुम हो गए, जिनमें से करीब 2 हजार प्रश्न-पत्रों का अभी तक कोई पता नहीं है। इन विद्यार्थियों को औसतन उत्तीर्ण अंक दे दिए गए, जिससे इनकी आगे की पढ़ाई के लिए राष्ट्रीय और विदेशी संस्थानों में एडमिशन भी प्रभावित हुए। आगामी सेमेस्टर शुरू होने के एक दिन पहले तक भी लगभग 20 हजार विद्यार्थियों के रिवेल्युएशन के परिणाम नहीं घोषित हुए, जिससे अगले सत्र की पढ़ाई भी बाधित हो रही है।

इस समस्या की मूल जड़ है इन विश्वविद्यालयों का अक्षम प्रबंधन और विशाल संख्या में इन विश्वविद्यालयों से अनुबंधित कालेजों के प्रबंधन और समन्वय का बोझ। मानव संसाधन विकास मंत्रालय की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत के 268 मान्यता प्राप्त विश्वविद्यालयों में से 17 विश्वविद्यालयों के अनुबंधित कॉलेजों की संख्या 500 से ज्यादा है। उदाहरण के तौर पर, महाराष्ट्र में मुंबई विश्वविद्यालय से 774 कॉलेज जुड़े हुए हैं जबकि पुणे के सावित्री बाई फुले विश्वविद्यालय से जुड़े हुए कॉलेजों की संख्या 700 के करीब है। आगरा के डॉ. भीमराव अंबेडकर विश्वविद्यालय से 900 से ज्यादा कॉलेज अनुबंधित हैं जबकि कानपुर का छत्रपति साहुजी महाराज कानपुर विश्वविद्यालय इसे उत्तर प्रदेश में कड़ी टक्कर दे रहा है, जिससे करीब 1,177 कॉलेज जुड़े हुए हैं।

इस समस्या की मूल जड़ है इन विश्वविद्यालयों का अक्षम प्रबंधन और विशाल संख्या में इन विश्वविद्यालयों से अनुबंधित कालेजों के प्रबंधन और समन्वय का बोझ। मानव संसाधन विकास मंत्रालय की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत के 268 मान्यता प्राप्त विश्वविद्यालयों में से 17 विश्वविद्यालयों के अनुबंधित कॉलेजों की संख्या 500 से ज्यादा है।

अत्यंत दयनीय बजट पर चल रहे इन विश्वविद्यालयों में कई आंतरिक और बाहरी कारक हैं जो इनकी प्रगति में बाधक हैं।

सबसे पहले तो इन कॉलेजों के अनुबंध को खत्म करने की जरूरत है। इस मुद्दे को कई बार उच्च स्तरीय बैठको में उठाया भी गया है और एक बार फिर संस्थानों को इन समस्याओं से निकालने के लिए यहां दोहरा रही हूं। उदाहरण के लिए, प्रोफेसर यशपाल ने सन् 1993 में अपनी एक रिपोर्ट में कहा, “उच्च शिक्षा के क्षेत्र से जुड़ी समस्याओं का हल निकालने के लिए संस्थानों के प्रारंभिक कार्यों और वर्तमान में मौजूद अनुंबध प्रक्रिया को हटाने हेतु शीर्ष निकाय को व्यापक तौर पर चर्चा करनी चाहिए।” 12वीं पंचवर्षीय योजना (2012-17) में सरकार ने अनुबंध प्रक्रिया में सुधार लाने के लिए कई विकल्पों का इजाद किया। हालांकि वो सिर्फ उन रिपोर्ट्स और आधी-अधूरी योजनाओं में ही सिमट कर रह गए, जो कभी पूरे नहीं हो पाए। इस प्रकार यह कतई आश्चर्यजनक नहीं है कि भारतीय विश्वविद्यालय ‘फिलीप जी ऑल्टबैच’ की किताब में वर्णित “क्राइसिस एन्ड स्टेटस क्यू” का बेहतरीन उदाहरण हैं।

भारत में सन् 1986 में शिक्षा में राष्ट्रीय नीति तय की गई और इसका क्रियान्वयन सन् 1992 में किया गया। इस नीति में यह प्रस्तावित किया गया कि अनुबंध व्यवस्था को खत्म किया जाए और स्वायत्त कॉलेजों को विकसित किया जाए। असल में, तब से विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) लगातार अच्छा प्रदर्शन कर रहे कॉलेजों को स्वशासित अथवा स्वतंत्र करने के लिए कुछ गाइडलाइन भी लाया। यशपाल कमिटी की रिपोर्ट के अनुसार भारत में इनकी संख्या कम से कम 1,500 है। यह केवल एक स्पष्ट सलाह है जबकि इस प्रक्रिया को कई फेज में लागू करना होगा। सरकार को अच्छे संस्थानों को पूरी छूट दे देनी चाहिए जिससे मध्यम श्रेणी के कॉलेजों को शीर्ष पर आने के लिए प्रेरणा मिलेगी।

यह अत्यंत हैरान कर देने वाली बात है कि इस मुद्दे पर अगर किसी ने कुछ बोला भी है तो हमें इस बारे में जानकारी ही नहीं है। इसके साथ ही कुछ सरकारें यह भी दावा करेंगी कि वो इस पर कई दशकों से अमल भी कर रही हैं। तो फिर हम कहां पीछे हैं? पश्चिमी देशों के शिक्षण संस्थानों की नकल करने के बावजूद भी क्यों हम आज तक इनके जैसे अच्छे संस्थान खड़े कर पाने में असमर्थ हैं?

अगर पुनरावलोकन करें तो यह सामने आता है कि वर्तमान समय में भारत में हम जिस स्वायत्तता पर काम कर रहे हैं उसके अंदर ही दोष है। अपने औपनिवेशिक इतिहास से खासा प्रभावित होने के कारण भारत, शिक्षा और शासन की पुरानी शैली पर ही काम कर रहा है। हमारे शिक्षण संस्थानों में डिग्री देने जैसे मूलभूत कामों तक में भी संपूर्ण स्वायत्तता नहीं है। अगर आर्थिक स्वतंत्रता की बात करें तो ऐसा माना जाता है कि ये संस्थान अपनी जरूरतों को पूरा करने में भी असमर्थ हैं और लगभग पूरी तरह राज्य सरकार तथा उसके दयनीय बजट पर निर्भर हैं। विनियामक इकाइयों और अच्छा प्रदर्शन करने वाले संस्थानों को एक समय के बाद प्रतिस्पर्धात्मक बाजार में खुला छोड़ देना चाहिए।

वर्तमान समय में भारत में हम जिस स्वायत्तता पर काम कर रहे हैं उसके अंदर ही दोष है। अपने औपनिवेशिक इतिहास से खासा प्रभावित होने के कारण भारत, शिक्षा और शासन की पुरानी शैली पर ही काम कर रहा है।

अगर स्वायत्तता के वर्तमान रूप को देखा जाए तो इसमें असुविधाओं का भंडार है और इसे कई कॉलेजों द्वारा नकारा भी गया है। 2017 में यूजीसी द्वारा स्वायत्त संस्थानों को जारी की गई गाइडलाइन अपने आप में पिछड़ी हुई लगती है। इसके अनुसार संस्थानों को अपनी प्रबंधन निकाय (गवर्निंग बॉडी) में मौजूद 12 सदस्यों में से तीन सदस्य सरकार द्वारा मनोनित किए जाना अनिवार्य है जिसमें राज्य सरकार, राज्य विश्वविद्यालय और यूजीसी के प्रतिनिधि होंगे। इन नियमों ने संस्थानों में राजनैतिक हस्तक्षेप को और भी बढ़ा दिया है। इसके अलावा कुछ संस्थान सशक्त आर्थिक स्वायत्तता की आलोचना करते हैं। जबकि कुछ व्यवस्था में नौकरशाही संबंधी बाधाओं को लेकर भी चिंतित हैं। रोचक रूप से सन् 2005 में केन्द्रीय शिक्षा सलाहकार बोर्ड की उच्च शिक्षण संस्थानों की स्वायत्तता पर आई रिपोर्ट के अनुसार यह अवलोकन किया गया कि कुलपति स्वायत्तता के लिए लड़ते हैं लेकिन निम्न स्तर यानी विभागों और कॉलेजों को इसकी जानकारी नहीं देते हैं।

हालांकि इनमें से कोई भी मुद्दा अवैध नहीं है, किसी भी पार्टी पर आरोप लगाने से पहले स्वायत्तता के सही तथ्यों को समझने की जरूरत है। असल रूप में स्वायत्तता का आशय अकादमिक, प्रशासनिक और आर्थिक स्वतंत्रता से है। इस प्रकार जो खुद को स्वायत्त घोषित कर देता है तो उस संस्थान का कर्तव्य है कि वो केवल सरकार के फंड पर ही निर्भर न रहें बल्कि अपनी पूंजी से भी धन अर्जित करे, अपना स्वंय का अकादमिक ढांचा निर्मित करे और खुद की शासकीय कमिटी बनाए।

सीएबीई कमिटी की एक रिपोर्ट में स्टेकहॉल्डर के पर किए गए सर्वे से यह निष्कर्ष निकाला गया कि शिक्षा की लागत सरकार और विद्यार्थी दोनों द्वारा सम्मिलित रूप से वहन करनी चाहिए। असल में इसका मतलब है, “यदि कोई संस्थान पूरी तरह स्वायत्त होना चाहता है तो उसे पूरी तरह सरकारी फंड पर निर्भर नहीं रहना चाहिए।”

अकादमिक रिसर्चर ‘फिलीप ऑल्टबैच’ ने यह अवलोकन किया कि विश्वविद्यालय फंड का बड़ा हिस्सा सरकार से प्राप्त होता है और इस प्रकार यह सामान्य बात है कि सरकारी अधिकारी विश्वविद्यालय के मामलों में दखल देते हैं। फिर हम क्यों अपने कुलाधिपति और कुलपतियों को राजनैतिक नियुक्तियों के लिए दोष न दें?

ऐसे राजनैतिक हस्तक्षेप को कम करने के लिए सीएबीई कमिटी ने यह भी सलाह दी कि “संस्थानों को अपने संसाधनों का निर्माण स्वयं से करना होगा, आत्मनिर्भरता में वृद्धि के लिए और ज्ञान के इस युग के अनुरूप संसाधनों की बढ़ती मांगों के अनुसार आधारभूत सुविधाओें को विकसित करना होगा।” ऐसे संस्थान जो सरकार से मदद लेने के बाद भी खुद के संसाधन निर्मित कर रहे हैं, उन्हें कुछ लुभावने पैकेज देकर प्रेरित करना चाहिए। कमिटी ने अपनी सलाह में यह भी कहा कि सभी तरह की नियमावली संस्थान के अंदर ही बननी चाहिए। हालांकि ये सभी सलाह केवल कागजों में ही सिमट कर रह गई।

इसके एक दशक बाद भी हमारे किसी भी संस्थान का इस पर ध्यान नहीं दिया और न ही सरकार ने ऐसा वातावरण बनाने की कोशिश की। परोपकार की भावना के इतर भारतीय शिक्षण संस्थान अक्सर अपनी जरूरतों को पूरा करने जितना धन भी खुद से अर्जित नहीं कर पाते हैं। इसके साथ ही वर्तमान स्थितियों से खुश अधिकतर संस्थान, उद्योग-आधारित शोध करके धन अर्जित करने की कोशिश नहीं करते हैं।

परोपकार की भावना के इतर भारतीय शिक्षण संस्थान अक्सर अपनी जरूरतों को पूरा करने जितना धन भी खुद से अर्जित नहीं कर पाते हैं।

उदाहरण के लिए, अमेरिका में स्वायत्त संस्थान नए कोर्स की ईजाद करते हैं, अकादमिक चक्र को सुधारते हैं और ज्यादा तथा अच्छे विद्यार्थियों (मुख्य रूप से ऐसे विद्यार्थी जो ज्यादा फीस चुका सकते हैं) को आकर्षित करने के लिए वैकल्पिक आर्थिक नीतियों का निर्माण करते हैं। वहां के संस्थान भारी खर्च वाले रिसर्च प्रोग्राम को पार्टनरशिप एग्रीमेंट की सहायता से संचालित करते हैं। ये संस्थान अपना संस्थागत ढांचा भी बदल रहे हैं जैसे कि बाहर से वित्तीय सहायता को विकसित करने वाली नई इकाइयों को जोड़ना और कॉन्फ्रेंस केन्द्र तथा लाभ कमाने वाले नए सहायक संस्थाओं का निर्माण करना आदि।

यूरोपियन कमीशन ने 2010 में अपनी एक रिपोर्ट में कहा, ‘ब्रिटेन में सुघड़ शिक्षा तंत्र से आशय है स्टाफ भर्ती में उत्तरदायी नीतियां, वित्तीय स्वायत्तता और अकादमिक बोर्ड का गठन करना’। इस रिपोर्ट में कुछ अच्छे वित्तीय प्रोत्साहनों को भी दर्शाया गया है ताकि दक्ष कर्मचारियों को आकर्षित कर सकें और उन्हें काम पर रख सकें और साथ ही आवश्यक संसाधनों (सार्वजनिक और निजी दोनों तरह के) की मांग को पूरा करने की क्षमता रख सकें। इस प्रकार संस्थानों की अकादमिक गुणवत्ता और शोध उत्पादकता बनी रहती है।

ब्रिटेन के उच्च शिक्षण संस्थान अपनी स्वायत्तता का प्रखर रूप से बचाव करते हैं, हायर एज्यूकेशन एंड रिसर्च बिल जिसे अप्रैल 2017 में कानून के रूप में दर्जा मिल चुका है, इसका बात का गवाह है। इस कानून में स्वतंत्रता को जमकर बढ़ावा दिया गया है। पहले संस्थानों में शिक्षा के कई निर्णय सरकार के सचिव के हाथ में होते थे और शिक्षा की गुणवत्ता और मानक संबंधी कई समस्याएं थी। बिल में लगातार संशोधन कर इन्हें धीरे-धीरे खत्म कर दिया गया।

ऑक्सफोर्ड इकॉनोमिक एनेलिसिस द्वारा ब्रिटिश विश्वविद्यालयों पर किए गए अध्ययन के अनुसार, ब्रिटेन में विश्वविद्यालय ब्रिटिश अर्थव्यवस्था के लिए हर साल लगभग 95 अरब पाउंड का धन अर्जित करते हैं, राष्ट्र के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में 1.2 प्रतिशत का योगदान देते हैं और 94 लाख से भी ज्यादा लोगों को नौकरी देते हैं। उच्च शिक्षण नीतियों में फंड की नई व्यवस्थाओं जैसे स्पर्धा और प्रदर्शन आधारित फंडिंग, ज्यादा से ज्यादा निजी योगदान तथा विद्यार्थियों के हितकर तंत्र तेजी से विकसित किया जा रहा है।

अक्सर यह उलझन होती है कि स्वायत्तता किस प्रकार लाभदायक है। स्वायत्तता बढ़ने से शिक्षा की लागत भी बढ़ती है इस प्रकार विद्यार्थियों पर भार पड़ता है। इसलिए निधि, कोष, अनुदान, पूर्व छात्र कोष, विशिष्ट कोर्स, प्रोजेक्ट या औद्योगिक सलाहकार सेवाएं, दान और फंडिंग एजेन्सियों के निर्माण जैसे वैकल्पिक तरीकों (इनका जिक्र सीबीएसई कमेटी ने भी किया है) को भारतीय संस्थानों में त्वरित रूप से लाने की जरूरत है। इसके साथ ही अच्छा प्रदर्शन करने वाले संस्थानों को अपनी डिग्री देने के लिए हस्तमुक्त कर देना चाहिए, इससे इन्हें वैश्विक पहचान भी मिलेगी।

यह सही समय है कि सार्वजनिक विश्वविद्यालयों को अपने अनुबंधित कॉलेजों की संख्या को कम करना चाहिए और उन्हें अपने स्तर पर प्रगति करने के लिए छोड़ देना चाहिए।

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