Published on Dec 24, 2018 Updated 0 Hours ago

आतंरिक सुरक्षा बहुत हद तक पुलिस का विशेषाधिकार है और खतरों से निबटने के लिए प्रभावी पुलिस व्यवस्था की जरूरत है। लेकिन इसके लिए पुलिस तंत्र को कुशल, प्रभावी और तकनीकी तौर पर सक्षम बनाने की आवश्यकता है।

क्यों भारत को तत्काल पुलिस सुधारों की जरूरत है?

“…..सुरक्षा संबंधी गंभीर आंतरिक चुनौतियां बरकरार हैं। हमारे देश में आतंकवाद, वामपंथी रूझान से प्रभावित उग्रवाद, धार्मिक कट्टरता और जातीय हिंसा के खतरे कायम हैं। ये चुनौतियां अपनी ओर से निरंतर सतर्कता की मांग करती हैं। इनसे सख्ती से निबटने की जरूरत है लेकिन संवेदनशीलता के साथ।” [1]

ये शब्द हैं भारत के पूर्व प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह के जो उन्होंने छह साल पहले आंतरिक सुरक्षा के मसले पर आयोजित मुख्यमंत्रियों के एक सम्मेलन में व्यक्त किये थे। उस बात को कई वर्ष बीत गये हैं और अब एक नयी सरकार सत्ता में है लेकिन देश की आंतरिक सुरक्षा के समक्ष कई खतरे अभी भी बने हुए हैं। तकनीक में प्रगति के साथ-साथ नये प्रकार के खतरे सामने आ रहे हैं। सायबर हमला, बैंक धोखाधड़ी और संगठित अपराध सहित कई चुनौतियां हैं, जिनसे ज्यादा विशिष्ट तरीके से निबटने की जरूरत है। मौजूदा राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल ने इस युद्ध को ‘चौथी पीढ़ी का युद्ध’ करार दिया जो एक अदृश्य सेना के खिलाफ है। उन्होंने पुलिस अधिकारियों को चेतावनी देते हुए कहा “इस युद्ध को सेना के सहारे नहीं जीता जा सकता। ये एक पुलिसकर्मी का युद्ध है और अगर आप इसमें विजयी होते हैं तो देश जीतता है और अगर आप हारते हैं तो ये देश की हार होती है।” [2]

इस तरह की परिस्थितियों में एक पुलिसकर्मी की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण हो जाती है। इस तरह की सुरक्षा संबंधी चुनौतियों के खिलाफ बचाव की पहली पंक्ति पुलिस तंत्र ही है। आतंरिक सुरक्षा बहुत कुछ पुलिस का विशेषाधिकार है और खतरों से निबटने के लिए प्रभावी पुलिस व्यवस्था की जरूरत है। लेकिन इसके लिए पुलिस तंत्र को कुशल, प्रभावी और तकनीकी तौर पर सक्षम बनाने की आवश्यकता है।

पुलिस बल इस समय संगठन, बुनियादी ढांचे और परिवेश से लेकर बेकार हथियार और पुरानी खुफिया सूचना संग्रहण तकनीक के साथ साथ पुलिसकर्मियों की कमी और भ्रष्टाचार जैसी समस्याओं से जूझ रहे हैं। कहा जा सकता है कि देश का पुलिस बल अभी सही स्थिति में नहीं है।

मौजूदा पुलिस तंत्र में अनगिनत कमियां हैं। पुलिस बल इस समय संगठन, बुनियादी ढांचे और परिवेश से लेकर बेकार हथियार और पुरानी खुफिया सूचना संग्रहण तकनीक के साथ साथ पुलिसकर्मियों की कमी और भ्रष्टाचार जैसी समस्याओं से जूझ रहा है। कहा जा सकता है कि देश का पुलिस बल अभी सही स्थिति में नहीं है।

पुलिस पर निगरानी और नियंत्रण एक बहस का विषय है। पुलिस कानून के मुताबिक केन्द्रीय और प्रांतीय पुलिस बल पर निगरानी और नियंत्रण का अधिकार राजनीतिक सत्ताधारियों के पास है। इसका परिणाम ये हुआ कि पुलिस बल में लोकतांत्रिक व्यवस्था और उपयुक्त दिशा का अभाव है। पुलिस की प्राथमिकताएं राजनीतिक सत्ताधीशों की मर्जी के मुताबिक तेजी से बदलती रहती हैं। [3] ऐसा लगता है कि पुलिस बल राजनीतिक आकाओं के हाथ की कठपुतली बन गया है। गलती करने वाले पुलिस अधिकारियों के खिलाफ शिकायत दर्ज करने की कोई व्यवस्था नहीं है। दूसरे प्रशासनिक सुधार आयोग और सर्वोच्च न्यायालय दोनो ने पुलिस कदाचार के मामलों की जांच के लिए एक स्वतंत्र शिकायत प्राधिकार की जरूरत स्वीकार की है। [4]

पुलिस का मौजूदा बुनियादी ढांचा भी पुलिस बल की जरूरतों को पूरा करने के लिए पर्याप्त नहीं है। पुलिस विभाग में कर्मियों की भारी कमी है। भारत में जनसंख्या और पुलिस का अनुपात प्रति एक लाख जनसंख्या पर 192 पुलिसकर्मी है जो संयुक्त राष्ट्र द्वारा प्रस्तावित स्तर प्रति एक लाख जनसंख्या पर 222 पुलिसकर्मी से काफी कम है। [5] इसका परिणाम ये हुआ है कि पुलिस बल पर काम का बोझ काफी ज्यादा है जो उसके लिए एक बड़ी चुनौती है। काम के ज्यादा बोझ से पुलिसकर्मी की ना सिर्फ कुशलता और दक्षता घटती है बल्कि इससे उनके मनोवैज्ञानिक तनाव का शिकार होने की आशंका भी बढ़ती है जिसका परिणाम कई प्रकार के अपराधों में पुलिसकर्मियों की संलिप्तता के रूप में नजर आता है।

पुलिस विभाग में कर्मियों की भारी कमी है। भारत में जनसंख्या और पुलिस का अनुपात प्रति एक लाख जनसंख्या पर 192 पुलिसकर्मी है जो संयुक्त राष्ट्र द्वारा प्रस्तावित स्तर प्रति एक लाख जनसंख्या पर 222 पुलिसकर्मी से काफी कम है।

इसी प्रकार जब हथियारों की बात करें तो ये नजर आता है कि पुलिस बल अभी भी बेकार हो चुके और पुराने हथियारों का उपयोग कर रहा है। नियंत्रक और महालेखापरीक्षक (सीएजी) ने भी अपनी रिपोर्ट में इस बात का उल्लेख किया है कि पुलिस बल पुराने और अनुपयोगी हथियारों पर ही निर्भर है। सीएजी रिपोर्ट में इसके लिए हथियार के कारखानों से हथियारों की धीमी आपूर्ति को जिम्मेदार ठहराया गया है। [6]

पुलिस के लिए आवागमन के साधनों की उपलब्धता भी एक मुद्दा है और पुलिसवालों को वाहनों की कमी का सामना करना पड़ रहा है। सीएजी रिपोर्ट में उल्लेख है कि वाहनों की उपलब्धता में मामूली बढ़ोतरी हुई है और पुलिस बल में ड्राइवरों की भी कमी है। [7] इससे काम की गति प्रभावित होती है और पुलिस का रिस्पांस टाइम बढ़ जाता है।

पुलिस का संचार नेटवर्क भी समस्याओं का शिकार है। आईसीटी के युग में पुलिस तंत्र अभी भी उपयुक्त संचार नेटवर्क के लिए जूझ रहा है। पुलिस अनुसंधान और विकास ब्यूरो (बीपीआर&डी) का आंकड़ा ये बताता है कि देश के सभी राज्यों और केन्द्रशासित प्रदेशों में 51 थाने ऐसे हैं जहां ना तो टेलीफोन है और ना ही वायरलेस सेट। [8] सीएजी की रिपोर्ट में बताया गया है कि जिस पुलिस दूरसंचार नेटवर्क (पोलनेट) का उपयोग अपराधों की जांच और अपराध संबंधी आंकड़ों के आदान प्रदान के लिए होता है वो कई राज्यों में बेकार पड़ा है। [9] क्राइम एंड क्रिमिनल ट्रैकिंग नेटवर्क सिस्टम (सीसीटीएनएस) का गठन देश के सभी थानों को एक दूसरे से जोड़ने के इरादे से किया गया था। बिहार और राजस्थान अभी भी इस परियोजना को कार्यान्वयित नहीं कर पाये हैं। [10]

भारतीय पुलिस तंत्र अपनी वर्षों पुरानी नियुक्ति प्रक्रिया से भी ग्रस्त है। पुलिसकर्मियों की नियुक्ति की प्रक्रिया मध्ययुगीन है, खास तौर पर सिपाही से लेकर सब इंस्पेक्टर तक की। प्रशिक्षण के दौरान पूरा ध्यान प्रशिक्षु की शारीरिक शक्ति को बढ़ाने में दिया जाता है लेकिन फोरेंसिक ज्ञान, कानून, सायबर अपराध और वित्तीय धोखाधड़ी संबंधी विशेषज्ञता को या तो नजरअंदाज कर दिया जाता है या इन्हें ठंडे बस्ते में डाल दिया जाता है। सीएजी की रिपोर्ट के मुताबिक ज्यादातर राज्यों में प्रशिक्षित पुलिसकर्मियों का प्रतिशत भी काफी कम है। वर्ष 2016 [11] में सिपाही स्तर की 71,711 नियुक्तियों में से 67,669 सिपाहियों को प्रशिक्षण दिया गया। रिपोर्ट में हथियार प्रशिक्षण की कमियों और उपयुक्त प्रशिक्षण संबंधी बुनियादी ढांचे के अभाव का भी विशेष तौर पर उल्लेख है। [12]

पुलिसकर्मियों के लिए आवास व्यवस्था भी एक मुद्दा है। देश भर में पुलिसकर्मियों की बढ़ती संख्या के अनुरूप आवास सुविधा नहीं है। बीपीआर&डी रिपोर्ट के मुताबिक पुलिस बल के कुल स्वीकृत पदों में 8.06 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई लेकिन परिवार को आवास सुविधा मुहैया कराने के मामले यह बढ़ोतरी सिर्फ 6.44 प्रतिशत थी। इसका अर्थ ये हुआ कि एक बड़ी तादाद ऐसे पुलिसकर्मियों की है जिन्हें आवास सुविधा उपलब्ध नहीं है। [13]

सभी राज्यों और केन्द्रशासित प्रदेशों में वर्ष 2016-17 के दौरान पुलिस को आबंटित कुल बजट 113,379.42 करोड़ रूपये था जबकि कुल पुलिस खर्च 90,662.94 करोड़ रूपये था। इससे ये साबित होता है कि बजट का पूरा उपयोग नहीं किया गया। बीपीआर&डी आंकड़े और सीएजी ने इसका उल्लेख खास तौर पर किया है कि पुलिस बल आधुनिकीकरण (एमपीएफ) योजना के तहत आबंटित की गयी राशि का उपयोग नहीं हुआ। वर्ष 2015-16 के दौरान आधुनिकीकरण के लिए कुल 9,203 करोड़ रूपये उपलब्ध कराये गये थे लेकिन राज्यों ने इनमें से सिर्फ 1330 करोड़ रूपये खर्च किया जो कुल राशि का मात्र 14 प्रतिशत था। [14]

सभी राज्यों और केन्द्रशासित प्रदेशों में वर्ष 2016-17 के दौरान पुलिस को आबंटित कुल बजट 113,379.42 करोड़ रूपये था जबकि कुल पुलिस खर्च 90,662.94 करोड़ रूपये था।

इन सारी समस्याओं की रामबाण दवा है पुलिस सुधार, जिस पर दशकों से बहस चल रही है लेकिन कोई नतीजा नहीं निकल पाया। समय समय पर कई आयोगों ने सुधार की प्रक्रियाओं पर विचार किया है। सरकार की ओर से अभी तक राष्ट्रीय पुलिस आयोग सहित छह समितियों का गठन हो चुका है। इन समितियों ने व्यापक पुलिस सुधार की सिफारिश की है। इनमें पुलिस प्रशिक्षण पर गोरे समिति (1971-73), पुलिस सुधार पर रिबेरो समिति (1998), पुलिस सुधार पर पद्मनाभैया समिति (2000), राष्ट्रीय सुरक्षा पर मंत्री समूह (2000-01), और आपराधिक न्याय प्रणाली सुधार पर मलीमथ समिति (2001-03) शामिल है।

इन समितियों की सिफारिशों के बावजूद अभी तक कोई खास बदलाव देखने को नहीं मिला है। सुप्रीम कोर्ट ने 2006 में प्रकाश सिंह मामले में एक ऐतिहासिक फैसला सुनाते हुए केन्द्र और राज्य सरकारों को विंदुवार सात निर्देश दिये। हांलाकि आज तक इन पर अमल नहीं हो पाया। ये आदेश का पालन करने में राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी और नौकरशाही के अड़ियल रूख को दिखाता है। ना तो राजनीतिज्ञ और ना ही नौकरशाह पुलिस पर से अपना नियंत्रण खोना चाहते हैं। पुलिस पर नियंत्रण में स्पष्टता का अभाव 1861 के पुलिस कानून में भी दिखता है जो ‘निगरानी’ और ‘आम नियंत्रण और निर्देश’ के मामले में मौन है। [15] इस वजह से कार्यपालिकाओं ने पुलिस को राजनीतिक नेताओं के हाथ का उपकरण बना कर रख दिया है जो उनके निहित स्वार्थों की पूर्ति करती रहे।

इन चुनौतियों पर केन्द्र और राज्य सरकारों का तत्काल ध्यान देने की जरूरत है। राजनीतिक नेतृत्व को ये समझने की आवश्यकता है कि अक्षम पुलिस तंत्र देश की सुरक्षा और अखंडता को नकारात्मक रूप से प्रभावित करेगा। ये सही समय है कि हम पुलिस बल को राजनीतिक आकाओं के गिरफ्त से मुक्त करें और इसे ‘शासक की पुलिस’ की बजाय ‘जनता की पुलिस’ में परिवर्तित करें। [16]

लेखक ORF नई दिल्ली में रिसर्च इंटर्न हैं।


[1] Press Information Bureau, “PM’s Speech at the Conference of CMs on Internal Security.” (2012).

[2] Press Trust of India, “Internal security going to be a big challenge for India: NSA Ajit Doval,” The Economic Times, 13 July 2018.

[3] Mohan, Garima and Navaz Kotwal , “State Security Commissions: Reforms Derailed,” Commonwealth Human Rights Initiative (2011).

[4] Second Administrative Reform Commission,“Public Order,” Report Five, (2007): pp. 113.

[5] Bureau of Police Record & Development, “Data on Police Organisation,” (2017): pp. 37.

[6] Comptroller and Auditor General of India, “Compendium on Performance Audit Reviews on Modernisation of Police Force,” pp. 14.

[7] Ibid.

[8] Bureau of Police Record & Development, “Data on Police Organisation,” (2017): pp. 116.

[9] Comptroller and Auditor General of India, “Compendium on Performance Audit Reviews on Modernisation of Police Force,” pp.15.

[10] Ministry of Home Affairs, “Status of CCTNS,” https://mha.gov.in/sites/default/files/CCTNS_Briefportal24042018.pdf

[11] Bureau of Police Record & Development, “Data on Police Organisation,” (2017): pp. 123- 124.

[12] Comptroller and Auditor General of India, “Compendium on Performance Audit Reviews on Modernisation of Police Force,” pp. 18.

[13] Bureau of Police Record & Development, “Data on Police Organisation,” (2017): pp. 103.

[14] Bureau of Police Record & Development, “Data on Police Organisation,” (2016).

[15] Mohan, Garima and Navaz Kotwal, “State Security Commissions: Reforms Derailed,” Commonwealth Human Rights Initiative (2011).

[16] Singh, Prakash, “Need to transform from ruler’s police to people’s police,” The Indian Express, 27 November 2018.

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