कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने 25 मार्च को 20% गरीब परिवारों को प्रति वर्ष 72,000 रुपये की न्यूनतम आय (NYAY — न्यूनतम आय योजना) की गारंटी, जिसे ‘न्याय’ का नाम दिया गया है, देने का वादा कर सत्तारूढ़ बीजेपी को तगड़ा झटका दिया है, जिसे भाजपा ने महज़ एक ‘धोखा’ करार दिया है।
वित्त मंत्री अरुण जेटली ने गांधी के प्रस्ताव की तत्काल ही निंदा करते हुए कहा कि “कांग्रेस का इतिहास गरीबी उन्मूलन के नाम पर लोगों को ठगने का रहा है” जबकि मोदी के नेतृत्व वाली सरकार “पहले से ही गरीबों को वो दे चुकी है जिसका वादा कांग्रेस कर रही है।”
गांधी ने कहा कि यदि उनकी पार्टी को होने वाले संसदीय चुनाव में सत्ता में लाया जाता है, तो देश के सबसे गरीब परिवारों को 6,000 रुपये प्रति माह या 72,000 रुपये प्रति वर्ष की आय का समर्थन दिया जाएगा जिससे 25 करोड़ परिवार लाभान्वित होंगे।
मध्यमार्गी विचारधारा से लेकर वामपक्ष के लोगों ने इस विचार का स्वागत करते हुए इसे गेम चेंजर बताया जबकि मध्यमार्गी राजनीति से दक्षिणपंथी राजनीति के समर्थकों ने और पूंजीवादी विचारधारा के समर्थक लोगों ने मिलकर इसे आर्थिक संकट की ओर धकेलने वाला कदम कहा है।
आजादी के बाद आने वाली हर सरकार ने व्यापक रुप से फैली हुई गरीबी की समस्या को दूर करने के प्रयास किए और ऐसी कई सब्सिडी योजनाएं शुरू कीं जिनके दम पर समाज में गरीबों के प्रतिशत को कम करने का दावा किया गया।
यह बहस पुरानी है एवं सार्वभौमिक बुनियादी आय के रूप में या विभिन्न नामकरणों के साथ गत दो शताब्दी से चली आ रही है। 16वीं शताब्दी में, सर थॉमस मोर ने यूटोपिया में यह विचार दिया कि प्रत्येक व्यक्ति को एक गारंटीकृत आय प्राप्त होनी चाहिए। 18वीं शताब्दी के अंत में, अंग्रेजी रेडिकल थॉमस स्पेंस और अमेरिकी कार्यकर्ता थॉमस पेन ने इस विचार का दृढ़ता से समर्थन किया जिसके अंतर्गत एक कल्याणकारी व्यवस्था के अंतर्गत सभी नागरिकों को एक निश्चित आय की गारंटी प्राप्त होती है।
इस मुद्दे पर बहस दुनिया भर में अनवरत चलती आ रही है। यह बहस पुन: उभर उठती है जब कोई राजनीतिक दल इस तरह का आश्वासन देता है या सरकार समाज के कमजोर वर्गों के लिए किसी लोकलुभावन योजना की घोषणा करती है। भारत में, जब से देश स्वतंत्र हुआ है तब से यह बहस चल रही है। उस समय प्रश्न यह था कि किस प्रकार की आर्थिक व्यवस्था- पूंजीवादी या समाजवादी, भारत में होनी चाहिए। लंबी बहस और चर्चा के बाद मिश्रित अर्थव्यवस्था के पक्ष में निर्णय लिया गया।
आजादी के बाद आने वाली हर सरकार ने व्यापक रुप से फैली हुई गरीबी की समस्या को दूर करने के प्रयास किए और ऐसी कई सब्सिडी (इमदाद) योजनाएं शुरू कीं जिनके दम पर समाज में गरीबों के प्रतिशत को कम करने का दावा किया गया।
स्वतंत्रता संग्राम के दौरान, नेताओं और राजनीतिक दलों ने लोगों के लिए कल्याणकारी राज्य बनाने का वायदा किया था। संविधान निर्माताओं ने भारत की कल्पना कल्याणकारी राज्य के रूप में की थी। संविधान के भागIV में अनुच्छेद 38, जो राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों से संबंधित है, स्पष्ट रूप से कहता है: “राज्य लोगों के कल्याण को बढ़ावा देने और उनकी रक्षा करने का प्रयास करेगा क्योंकि यह एक सामाजिक व्यवस्था है जिसमें न्याय, सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक विकास द्वाराराष्ट्रीय जीवन के सभी संस्थानों को समृद्ध किया जाएगा।”
आजादी के बाद आने वाली हर सरकार ने व्यापक रुप से फैली हुई गरीबी की समस्या को दूर करने के प्रयास किए और ऐसी कई सब्सिडी योजनाएं शुरू कीं जिनके दम पर समाज में गरीबों के प्रतिशत को कम करने का दावा किया गया।
बावजूद कि यह वायदा राजनीतिक दलों द्वारा राष्ट्रीय या राज्य चुनावों के दौरान जारी किए जाने वाले घोषणापत्र में किया जाता है, इसके लाभ और हानि को भारतीय संविधान में परिभाषित कल्याण की अवधारणा के आलोक में देखा जाना चाहिए।
पहली बार कांग्रेस अध्यक्ष सुभाष चंद्र बोस ने 1938 में हरिपुर सत्र में न्यूनतम आय गारंटी योजना का विचार रखा था। यहां तक कि इस विचार का अध्ययन करने और इसकी व्यवहार्यता का पता लगाने के लिए जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया गया था, लेकिन द्वितीय विश्व युद्ध के शुरु होने के कारण इसे आगे जारी नहीं रखा जा सका।
इस संवैधानिक लक्ष्य को पूरा करने के लिए, विभिन्न सरकारों ने अलग-अलग सब्सिडी योजनाएं शुरु की, लेकिन असमानता विशेष कर आर्थिक क्षेत्र में यथावत बनी रही। पिछली शताब्दी के अंतिम दशक में उदारीकरण के व्यापक रुप से लागू होने के साथ देश की अर्थव्यवस्था को पूर्ण रुप से खोल दिए जाने के बाद से अमीर और गरीब के बीच का अंतर और अधिक बढ़ गया और इस प्रकार से जगजाहिर हो गया।
2004 में, कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार ने राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम और शिक्षा का अधिकार अधिनियम संसद से पारित करवाकर रोजगार और शिक्षा का अधिकार गरीबों को दिया। सितंबर2013 में, भारतीय राज्य द्वारा सस्ती और पर्याप्त गुणवत्ता वाले भोजन के अधिकार को भी दे दिया गया।
अधिकार आधारित दृष्टिकोण और भोजन, शिक्षा, रोजगार और अब आय के लिए न्यूनतम गारंटी के आश्वासन का विरोध इस तर्क के साथ किया जाता रहा है कि ऐसी योजनाएं मनुष्य में उपक्रम करने की प्रवृत्ति को मारती हैं,काम करने की प्रेरणा को नष्ट करती हैं और वित्तीय अनुशासनहीनता को बढ़ावा देती हैं। यह भी तर्क दिया जाता है कि इस तरह के उपायों से अक्सर भ्रष्टाचार फैलता है। यह भी कहा जाता है कि ऐसी योजनाओं का व्यावहारिक धरातल पर क्रियान्वयन बहुत कठिन है।
पिछले 45 वर्षों में उच्चतम स्तर पर पहुंची बेरोजगारी के साथ, सबसे गरीब परिवारों के लिए न्यूनतम आय का वायदा निश्चित रूप से वैचारिक द्वंद्व के वातावरण में जनसाधारण की अपेक्षाओं को जाग्रत करने की एक प्रबल कोशिश है जो अक्सर चुनावी परिणाम को निर्णायक रूप से प्रभावित करती है।
2017 में प्रकाशित सेंटर फॉर इक्विटी स्टडीज द्वारा भारतीय अर्थव्यवस्था के 25 वर्षों के उदारीकरण और वैश्वीकरण पर तैयार एक रिपोर्ट में कहा गया है कि 1990 के बाद की वृद्धि आजादी के बाद के पहले चार दशकों के स्तर से तीन गुना अधिक थी लेकिन गरीबी की दर 1981-90 के दौरान प्रति वर्ष 0.94% से घटकर 1990 और 2005 के बीच मात्र 0.65% पर सिमट गई।
परिणामस्वरूप, 2000 के बाद से उच्च डेसीबल वृद्धि के कारण सबसे 10% अमीर लोगों के लिए धन में 12 गुना वृद्धि हुई, जबकि सबसे गरीब 10% लोगों की आय केवल तीन गुना बढ़ी और इसका कारण रोजगार का अपर्याप्त सृजन था, जैसा कि इंडिया एक्सक्लूज़न रिपोर्ट में कहा गया है।
पिछले 45 वर्षों में उच्चतम स्तर पर पहुंची बेरोजगारी के साथ, सबसे गरीब परिवारों के लिए न्यूनतम आय का वायदा निश्चित रूप से वैचारिक द्वंद्व के वातावरण में जनसाधारण की अपेक्षाओं को जाग्रत करने की एक प्रबल कोशिश है जो अक्सर चुनावी परिणाम को निर्णायक रूप से प्रभावित करती है।
यह बहस का मुद्दा है कि 360,000 करोड़ रुपये के सालाना खर्च जो कि मोटे तौर पर जीडीपी का 1.2 प्रतिशत है, के परिणामस्वरुप भविष्य में राजकोषीय असंतुलन होता है या नहीं। मौजूदा सब्सिडीज़ के युक्तिसंगत उपयोग के द्वारा अनावश्यक को समाप्त करके और उपयोगी को बनाए रख कर, इस समस्या के समाधान हेतु संसाधनों का सृजन किया जा सकता है।
तर्क है कि भूख या पौष्टिक भोजन की कमी मानव विकास पर प्रतिकूल प्रभाव डालती है और मानव के बौद्धिक विकास को प्रामाणिक रुप से बाधित करती है और इसलिए कल्याणकारी राज्य की अवधारणा के समर्थक विशेषज्ञों के एक वर्ग का मानना है कि गरीबी से सुरक्षा आर्थिक विकास को गति देने की दिशा में कारगर साबित हो सकती है।
कल्याणकारी विचारधारा की प्रभावकारिता 2018-19 में सामने आई, जब महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम के तहत नौकरियों की मांग में कम से कम 10 प्रतिशत की वृद्धि हुई। यह मांग ग्रामीण क्षेत्र में उच्च बेरोजगारी से उत्पन्न आर्थिक तंगी की वजह से थी।
अधिकार आधारित विचारधारा और बुनियादी न्यूनतम आय की गारंटी ने ब्राजील जैसे देशों में सकारात्मक परिणाम दिए हैं। यहां 2001 में एक कानून पारित किया गया जिसके अंतर्गत कल्याणपरक प्रणाली को अनिवार्यत:लागू किया गया है। 2004 में, ब्राजील ने ‘बोल्सा फमिलिया’ नामक एक सामाजिक कल्याण कार्यक्रम पेश किया,जिसके अंतर्गत प्रत्यक्ष नकद हस्तांतरण द्वारा अल्पकालिक गरीबी को कम करने की कोशिश की गई है। यह योजना सशर्त रूप से नकद हस्तांतरण के माध्यम से गरीबों के बीच मानव पूंजी में वृद्धि करके दीर्घकालिक गरीबी को समाप्त करती है। ‘बोल्सा फमिलिया’ योजना के परिणामस्वरूप ब्राजील में गरीबी में 27 प्रतिशत की कमी आई है। इसके कारण ‘बोल्सा फमिलिया’ योजना को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सराहना मिली है।
कल्याणकारी विचारधारा की प्रभावकारिता 2018-19 में सामने आई, जब महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (मनेरगा) के तहत नौकरियों की मांग में कम से कम 10 प्रतिशत की वृद्धि हुई। यह मांग ग्रामीण क्षेत्र में उच्च बेरोजगारी से उत्पन्न आर्थिक तंगी की वजह से थी।
इस वित्तीय वर्ष में, 25 मार्च तक, मनेरगा के तहत 255करोड़ व्यक्ति-दिवस का सृजन किया गया जिसकी संख्या के भविष्य में बढ़ने की उम्मीद है। इसके बरक्स, आंकड़ों से यह पता चलता है कि इस योजना के अंतर्गत 2017-18 में 233 करोड़ व्यक्ति-दिवस और 2015-16 एवं2016-17 दोनों ही वर्षों में 235 करोड़ व्यक्ति-दिवस का सृजन किया गया था।
यह प्रस्ताव हो रहे आम चुनाव के दौरान गेम चेंजर है या नहीं, यह अनुमान नहीं लगाया जा सकता है लेकिन इतना तो तय है कि इसने अभी तक राष्ट्रीय सुरक्षा पर चल रही चुनावी बहस में आर्थिक मुद्दों को वापस ला दिया है।
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