Author : Abhijit Singh

Published on Aug 18, 2020 Updated 0 Hours ago

आने वाले वर्षों में उत्तरी हिंद महासागर में चीन की नौसेना की उपस्थिति बढ़ने की संभावना से खाड़ी क्षेत्र में अस्थिरता और तनाव बढ़ने की आशंका गहरा रही है

चीन-ईरान राजवंश का सामुद्रिक प्रभाव

भारत को चाबहार—जाहिदान रेलवे लाइन परियोजना से बाहर करने संबंधी ईरान के ताज़ा निर्णय से भारतीय रणनीतिक हल्कों में कुछ अकुलाहट महसूस की जा सकती है. इस घटना से नई दिल्ली के माथे पर बल पड़ना स्वाभाविक है. शोचनीय यह है कि ईरान ने यह कदम इसी समय क्यों उठाया? भारतीय पर्यवेक्षकों के अनुसार रेलवे लाइन परियोजना रणनीतिक पहल थी: पाकिस्तान को उलांघने के लिए चाबहार बंदरगाह और उससे जुड़ी रेलवे लाइन. इसके जरिए पाकिस्तान द्वारा मध्य एशिया एवं अफ़ग़ानिस्तान तक थलीय रास्ते से भारत की पहुंच में रोड़े अटकाने से भारत को छुटकारा मिल जाता. अमेरिका की पाबंदियों के बीच से भारत जब इस परियोजना के लिए पैसे जुटाने की कोशिश कर रहा था तभी ईरान ने अचानक ख़ुद ही इसे बनाने का फैसला सुना दिया. परेशानी दरअसल ईरान द्वारा यह फैसला चीन द्वारा परियोजना में सहायता की पेशकश के बाद किए जाने से है.

 भारतीय पर्यवेक्षक ईरान एवं चीन के मध्य एकीकृत सैन्य एवं व्यापारिक भागीदारी की संभावना से अधिक चिंतित हैं. बीजिंग ने ईरानी अर्थव्यवस्था के प्रमुख क्षेत्रों में प्रत्यक्ष रूप में 400 अरब डॉलर मूल्य के निवेश का वायदा किया है. इसके बदले ईरान द्वारा चीन को 25 साल तक निरंतर अपने यहां उत्पादित कच्चे तेल की आपूर्ति करनी होगी. चीन द्वारा बीआरआई अर्थात बेल्ट एंड रोड इनिशियेटिव नामक अपनी महत्वाकांक्षी परियोजना के अंतर्गत अन्य देशों के मुकाबले ईरान में सबसे बड़ी राशि के निवेश का प्रस्ताव किया है. यह ईरान के कच्चे तेल एवं गैस संबंधी बुनियादी ढांचे के निर्माण के लिए व्यापक निवेश सिद्ध होगा. इसमें कच्चे तेल तथा गैस संबंधी सुविधाओं के निर्माण पर क्रमश: 280 अरब डॉलर एवं 120 अरब डॉलर निवेश का प्रस्ताव है. बीजिंग द्वारा ईरान में अपने पूंजी निवेश की निगरानी के लिए 5000 सुरक्षाकर्मी तैनात करने की भी योजना है.

 चीन—ईरान रणनीतिक भागीदारी का प्रभाव नौवहन के क्षेत्र में विशेषकर महत्वपूर्ण है. न्यूयार्क टाइम्स द्वारा पिछले दिनों आंशिक प्रकाशित 18 पृष्ठ के गुप्त समझौता प्रारूप के अनुसार चीन की निर्माण कंपनियां ईरान के खाड़ी वाले तटीय क्षेत्रों में अनेक बुनियादी ढांचा परियोजनाओं का काम शुरू करने वाली हैं. इनमें शत अल अरब नदी के पूर्वी तट पर बसे शहर अबादान में मुक्त व्यापार क्षेत्र और क़ेश्म द्वीप में भी निर्माण कार्य शामिल है जहां तेहरान कच्चे तेल के उत्पादन एवं भंडारण की विराट सुविधा खड़ी करना चाहता है.

चीन द्वारा  होर्मुज जलडमरूमध्य के पास स्थित बंदरगाह वाले शहर जास्क में भी बुनियादी ढांचे का निर्माण किया जाएगा. यह बलूचिस्तान के ग्वादार से महज 150 मील दूर है जहां चीन की कंपनी द्वारा बंदरगाह बनाकर उसका संचालन किया जा रहा है. पर्यवेक्षकों का अनुमान है कि जास्क में चीन अपनी प्राथमिक नौसैन्य उपस्थिति से भी ईरान, पाकिस्तान एवं चीन के बीच सैन्य प्रशिक्षण एवं अभ्यास को बढ़ा सकता है जिससे क्षेत्रीय सुरक्षा परिदृश्य में चीन मज़बूत होगा.

चिंतित होने की फिलहाल निश्चित ही कोई वजह नहीं है. ध्यान रहे कि खाड़ी में समुद्री सुरक्षा के जिम्मेदार ईरान की नौसेना ईरानियन रिवोल्यूशनरी गार्ड्स नेवी को ईरानी बंदरगाहों में किसी भी विदेशी नौसेना की उपस्थिति बर्दाश्त नहीं है. चाबहार में इमाम अली नौसैनिक अड्डा ईरानी नौसेना द्वारा ही नियंत्रित है और बंदर—ए—जास्क एवं केश्म द्वीप पर भी उसकी टुकड़ियां तैनात हैं. ईरान के सर्वोच्च नेता अयातुल्ला खमेनई की वफ़ादार रिवोल्यूशनरी गार्ड्स कोर उग्र सुधारवाद के प्रति समर्पित लड़ाकों की सैन्य टोली है. इसके दो ही लक्ष्य हैं: क्रांति को अक्षुण्ण रखना तथा अमेरिका से मुकाबला.

होर्मुज जलडमरूमध्य में अमेरिकी नौसेना को नए—नए तरीकों से तंग करने में माहिर ईरानी नौसेना स्वदेशी बंदरगाहों में विदेशी सैन्य गतिविधियों को न्यूनतम स्तर पर रखती है. इसीलिए ईरान की धरती पर 1979 के बाद से एक भी विदेशी सैन्य अड्डा नहीं है. ईरान—चीन समझौते से खाड़ी क्षेत्र में चीन का प्रभाव बढ़ने की जितनी संभावना बढ़ रही है पर्यवेक्षकों के अनुसार ईरान के रिवोल्यूशनरी गार्ड्स कोर नेतृत्व द्वारा ईरान के बंदरगाहों में चीन की सेना पीएलए यानी पीपल्स लिबरेशन आर्मी को अपनी उपस्थिति बढ़ाने की अनुमति नहीं मिलने की गुंजाईश भी उतनी ही अधिक है.

ईरानी नौसेना द्वारा पिछले साल की घोषणा के अनुसार यदि ईरान द्वारा हिंद महासागर में स्थाई अड्डा बना लिया गया तो विश्लेषकों की राय में उस अड्डे पर चीन के युद्धक पोतों की आवाजाही बढ़ सकती है. ग्वादार एवं चाबहार के बीच प्रस्तावित समझौते से भारत की दुविधा बढ़ सकती है.

पश्चिमी हिंद महासागर क्षेत्र के व्यापक संदर्भ में यदि देखें तो चीन—ईरान समझौते का कहीं अधिक महत्व है. जिबूती में अपना अड्डा बना चुकी पीएलए धीरे—धीरे अफ्रीका के समुद्री क्षेत्र तथा उत्तरी हिंद महासागर में अपनी सैन्य उपस्थिति बढ़ा रही है. विश्लेषकों की राय में ईरान के संग एकीकृत रणनीतिक समझौते के बलबूते चीन द्वारा ईरान—पाकिस्तान तटीय क्षेत्र में अपनी सैन्य उपस्थिति बढ़ाई जा सकती है. पीएलए द्वारा क्षेत्र में अमेरिकी एवं भारतीय नौसेना की गतिविधियों का निगरानी तंत्र बनाने में भी योगदान किया जा सकता है. चीन के समर्थन के फायदे तथा होर्मुज के मुहाने पर तेल टर्मिनल बन जाने के बलबूते ईरान द्वारा फारस की खाड़ी के भीतर कहीं अधिक आक्रामक रूख अपनाने की हिम्मत दिखाने से इंकार नहीं किया जा सकता.

चीन की नौसेना द्वारा खाड़ी क्षेत्र में अभी तक अपनाई गई भरपूर सावधानी के बावजूद ईरान एवं अन्य क्षेत्रीय देशों के साथ चीन के नौसैनिक लेनदेन में तेजी आई है. चीन की नौसेना द्वारा पिछले साल ईरान एवं रूस के साथ किए गए क्षेत्रीय युद्धाभ्यास से उत्तरी हिंद महासागर में अपनी उपस्थिति बढ़ाने की उसकी महत्वाकांक्षा स्पष्ट हो रही है.

ईरानी नौसेना द्वारा पिछले साल की घोषणा के अनुसार यदि ईरान द्वारा हिंद महासागर में स्थाई अड्डा बना लिया गया तो विश्लेषकों की राय में उस अड्डे पर चीन के युद्धक पोतों की आवाजाही बढ़ सकती है. ग्वादार एवं चाबहार के बीच प्रस्तावित समझौते से भारत की दुविधा बढ़ सकती है. चीन—पाकिस्तान की नौसैनिक जुगलबंदी की चुनौती पहले से ही झेल रही भारतीय नौसेना के लिए चीन—ईरान में नौसैनिक संबंध स्थापित होना स्वस्थ संकेत नहीं है.

ज़ाहिर है कि चाबहार में भारत का प्रभाव घटने के लिए नई दिल्ली में अनेक लोग अमेरिका को दोषी ठहरा रहे हैं. उनके अनुसार यदि वाशिंगटन नियोजित रूप में तेहरान को अलग—थलग नहीं करता तो भारत और ईरान के मध्य विश्वसनीयता के संकट से बचा जा सकता था. अमेरिकी बंदिशों के कारण भारत को चूंकि ईरान से तेल के आयात की मात्रा मजबूरन घटानी पड़ी इसलिए तेहरान ने नई दिल्ली को भरोसेमंद भागीदार समझना बंद कर दिया. इतना ही नहीं ट्रम्प प्रशासन के दबाव में ईरान की सरकार को मजबूरन ऐसे निर्णय करने पड़े जिनसे भारतीय हितों पर आघात हुआ है.

यह ऐसा संबंध है जो पूर्वी हिंद महासागर में तो बढ़िया स्थिति में है क्योंकि वहां पर भारतीय एवं अमेरिकी हित स्पष्ट सुसंगत हैं मगर पश्चिमी हिंद महासागर में दोनों का दृष्टिकोण अलग—अलग होने के कारण उसमें वहां कुछ विसंगति है.

इससे भारत के अमेरिका से नौसैनिक संबंधों में अंतरविरोध भी प्रमाणित हो रहा है: यह ऐसा संबंध है जो पूर्वी हिंद महासागर में तो बढ़िया स्थिति में है क्योंकि वहां पर भारतीय एवं अमेरिकी हित स्पष्ट सुसंगत हैं मगर पश्चिमी हिंद महासागर में दोनों का दृष्टिकोण अलग—अलग होने के कारण उसमें वहां कुछ विसंगति है. महत्वपूर्ण पहलू हालांकि यह भी है कि नई दिल्ली के रणनीतिक हित ”पश्चिम प्रभावित” हैं क्योंकि कच्चा तेल की धार पश्चिम से बहती है, अधिकतर व्यापार एवं भारत का भारी पूजी निवेश तथा प्रवासी भारतीय भी पश्चिम में ही हैं. भारत और अमेरिका पश्चिमी हिंद महासागर में सिर्फ खराब तालमेल के ही शिकार नहीं हैं बल्कि पर्यवेक्षकों का कहना है कि अमेरिका की ईरान नीति भारत के हितों का सरासर नुक्सान कर रही है.

 इसलिए वाशिंगटन और नई दिल्ली में नीति निर्धारकों को ईरान पर आपसी तालमेल सुधारने की आवश्यकता समझनी चाहिए. आने वाले वर्षों में उत्तरी हिंद महासागर में चीन की नौसेना की उपस्थिति बढ़ने की संभावना से खाड़ी क्षेत्र में अस्थिरता और तनाव बढ़ने की आशंका गहरा रही है. अमेरिका और भारत दोनों की नौसेनाओं के सामने पश्चिमी हिंद महासागर में मिलकर काम करने के पर्याप्त कारण हैं. तटीय क्षेत्र में अपना—अपना रणनीतिक प्रभाव जमाने की कोशिश के बावजूद शांति बरकरार रखने को इन्हें अपनी गतिविधियों में तारतम्य स्थापित करना होगा.

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