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Published on Mar 25, 2022 Updated 0 Hours ago

ऊर्जा में परिवर्तन से सामाजिक बदलाव सुनिश्चित होने की सोच लंबी अवधि में ग़लत भी साबित हो सकती है.

न्यायोचित परिवर्तन: भारत में कम कार्बन उत्सर्जन का पैमाना काफ़ी निचले स्तर पर है

यह लेख हमारी, कॉम्प्रिहेंसिव एनर्जी मॉनिटर: इंडिया ऐंड द वर्ल्ड सीरीज़ का एक हिस्सा है.


दूसरे विश्व युद्ध के बाद अमेरिकी सैनिकों के बीच ये सोच बड़े पैमाने पर फैली हुई थी कि अमन क़ायम होने से उनकी नौकरियां चली जाएंगी और युद्ध के दौर वाले सैन्य ख़र्च के ख़त्म होने से अमेरिकी अर्थव्यवस्था दोबारा भयंकर मंदी के दौर में लौट जाएगी. इसके जवाब में अमेरिकी सरकार वर्ष 1944 में जीआई बिल ऑफ़ राइट्स लेकर आई थी, जिसे सैनिकों की पुनर्स्थापना के क़ानून के रूप में भी जाना जाता है. इस क़ानून के तहत अमेरिकी सैनिकों को शिक्षा, नौकरी के प्रशिक्षण, विशेष सुविधाएं हासिल करने, बेरोज़गारी के भत्ते, पढ़ाई और मकान बनाने के लिए कम ब्याज दर पर क़र्ज़ देने, मेडिकल सुविधाएं और दिव्यांगता के फ़ायदे उपलब्ध कराए जाते थे. बाद में शीत युद्ध के दौरान, अमेरिका ने आर्थिक सुस्ती के हर दौर का सामना सैन्य ख़र्च बढ़ाकर किया. इसका मक़सद आर्थिक विकास को दोबारा बहाल करना था. हालांकि, अमेरिकी सरकारें इन ख़र्चों को दुनिया भर में तनाव का हवाला देकर जायज़ ठहराती थीं. इसका नतीजा ये हुआ कि अमेरिका के शांति समर्थक और बम विरोधी कार्यकर्ताओं को ये समझ में आया कि हथियारों की होड़ ख़त्म करने के लिए नौकरियों और आर्थिक समृद्धि को सुनिश्चित करना होगा. 1970 के दशक के आख़िरी वर्षों में शांति के समर्थक कार्यकर्ताओं ने श्रमिक संघों से संपर्क साधा, जिससे कि अमेरिकी अर्थव्यवस्था के युद्ध आधारित विकास का रुख़ योजनाबद्ध तरीक़े से शांति के दौर की अर्थव्यवस्था की तरफ़ मोड़ सकें. तेल, रासायनिक और परमाणु क्षेत्र में काम करने वाले कामगारों के संगठनों ने प्रस्ताव रखा कि जिन मज़दूरों की नौकरी को निरस्त्रीकरण से ख़तरा हो, उन्हें 1944 के GI बिल की तरह ही मदद दी जाए.

1990 के दशक में ये विचार उभरा कि पर्यावरण संरक्षण की नीतियों से जिन लोगों पर असर पड़ रहा है उन्हें उच्च शिक्षा और रोज़गार के मौक़े मुहैया कराने के लिए ख़ास तौर से अमेरिका में वित्तीय मदद उपलब्ध कराई जाए. मज़दूर संगठनों के नेताओं ने मांग की कि ज़हरीले कचरे को साफ़ करने के लिए बनाए गए विशाल फंड के साथ-साथ इस क्षेत्र में काम करने वालों के लिए भी एक सुपरफंड बनाया जाए. चूंकि ‘सुपरफंड’ के साथ एक नकारात्मक सोच जुड़ी हुई थी, इसलिए 1995 में इसका नाम ‘न्यायोचित परिवर्तन’ रखा गया और 1997 में पर्यावरण समूहों और मज़दूर संगठनों के बीच न्यायोचित परिवर्तन के गठबंधन बनाए गए. इस न्यायोचित परिवर्तन के पीछे की बुनियादी सोच ये थी कि ज़हरीले कहे जाने वाले सेक्टरों को पर्यावरण संरक्षण के लक्ष्य हासिल करने के लिए, बेरोज़गारी के रूप में अनुपात से ज़्यादा टैक्स अदा करने के लिए नहीं कहा जाना चाहिए.

‘सुपरफंड’ के साथ एक नकारात्मक सोच जुड़ी हुई थी, इसलिए 1995 में इसका नाम ‘न्यायोचित परिवर्तन’ रखा गया और 1997 में पर्यावरण समूहों और मज़दूर संगठनों के बीच न्यायोचित परिवर्तन के गठबंधन बनाए गए.

वैसे तो भारत में कई मज़दूर संगठन इतने ताक़तवर हैं कि वो निजीकरण और नौकरियां जाने की आशंकाओं का विरोध करें. लेकिन पर्यावरण संरक्षण के आंदोलनों और मज़दूर संगठनों के बीच संबंध बहुत कमज़ोर हैं. इससे भारत की कार्बन उत्सर्जन कम करने की नीतियों के चलते प्रभावित होने वाले सेक्टरों के कामगारों के न्यायोचित बदलाव की स्थिति कमज़ोर होती है.

पर्यावरण सम्मेलनों में न्यायोचित परिवर्तन

1992 के संयुक्त राष्ट्र के फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन क्लाइमेट चेंज (UNFCCC) की सेक्शन 8 के  आर्टिकल 4 ने सभी देशों से ये अपील की थी कि इस कन्वेंशन के तहत तकनीक के आदान-प्रदान, बीमा और पूंजी उपलब्ध कराने समेत अन्य सभी ज़रूरी क़दमों के बारे में भी पूरी गंभीरता से विचार करें. इन क़दमों पर ख़ास तौर से विकासशील देशों की ज़रूरतों और चिंताओं का ध्यान रखते हुए चर्चा की गई थी. जिससे कि जलवायु परिवर्तन के बुरे असर को झेलने वाले विकासशील देशों को उससे निपटने के लिए उठाए जाने वाले क़दमों, ख़ास तौर से उन देशों में जिनकी अर्थव्यवस्थाएं उत्पादन, प्रसंस्करण और निर्यात, और/ अथवा जीवाश्म ईंधन और इससे जुड़े दूसरे तरह के ईंधन की खपत पर निर्भर हैं. 2015 के पेरिस जलवायु समझौते की प्रस्तावना में कहा गया है कि देशों द्वारा तय की गई विकास संबंधी प्राथमिकताओं में न्यायोचित परिवर्तन के लक्ष्य हासिल करने के लिए कामगारों के लिए सम्मानजनक और बेहतर नौकरी की उचित व्यवस्था का भी ध्यान रखा जाना चाहिए. 2021 में स्कॉटलैंड में हुए संयुक्त राष्ट्र के जलवायु परिवर्तन सम्मेलन (COP26) में न्यायोचित परिवर्तन के घोषणापत्र में इस ज़रूरत को स्वीकार गया था कि शून्य कार्बन उत्सर्जन वाली अर्थव्यवस्थाओं के निर्माण के दौरान कोई भी पीछे न छूट जाए. ख़ास तौर से जो लोग उन सेक्टरों में काम करते हैं, शहरों में रहते हैं, जो अधिक कार्बन उत्सर्जन करने वाले उद्योग हैं. भारत समेत किसी भी कम अमीर देश ने इस घोषणापत्र पर हस्ताक्षर नहीं किए हैं.

2021 में स्कॉटलैंड में हुए संयुक्त राष्ट्र के जलवायु परिवर्तन सम्मेलन (COP26) में न्यायोचित परिवर्तन के घोषणापत्र में इस ज़रूरत को स्वीकार गया था कि शून्य कार्बन उत्सर्जन वाली अर्थव्यवस्थाओं के निर्माण के दौरान कोई भी पीछे न छूट जाए.

भारत में पुनर्वास और पुनरुद्धार

न्यायोचित परिवर्तन पर भारत में आई ज़्यादातर हालिया रिपोर्ट इस बात पर ज़ोर देती हैं कि विकास और कार्बन उत्सर्जन कम करने के लिए ऊर्जा की उपलब्धता सुधारने, कोयले से दूरी बनाने में आने वाली दिक़्क़तें दूर करने पर ज़ोर देने की ज़रूरत है. इंडोनेशिया और दक्षिण अफ्रीका में कोयले का इस्तेमाल ख़त्म करने पर की गई केस स्टडीज़ का अध्ययन इनसे भारत को मिलने वाले सबक़ सीखने के लिए किया जा रहा है. वैसे तो कुछ रिपोर्टों में इस बात की चर्चा की गई है कि कम कार्बन उत्सर्जन की ओर बदलाव का ख़र्च कौन उठाएगा. मगर, ज़्यादातर में ये तर्क दिया गया है कि नवीनीकरण योग्य ऊर्जा की लागत पर लगाया गया कर बहुत कम है और वास्तविक रूप से ऊर्जा उपयोग में बदलाव में कोई ख़ास लागत नहीं आएगी. असल में सुझाव ये दिया जा रहा है कि ऊर्जा उत्पादन में बदलाव के ज़रिए जो नई नौकरियां पैदा होंगी और नवीनीकरण योग्य ऊर्जा की कम दरें, सामाजिक बदलाव और ऊर्जा की उपलब्धता सुनिश्चित करने की लागत की भरपाई कर देंगी. हालांकि, ये आकलन शायद सही साबित न हो. क्योंकि, नवीनीकरण योग्य ऊर्जा की व्यवस्था (बीच में बिजली कटने, बैक के भंडारण की अनिश्चितता या वैकल्पिक बिजली उत्पादन, ऊर्जा केंद्रों से खपत के इलाक़ों तक बिजली ले जाने की लागत) बहुत अधिक है. ग्राहकों के लिए बिजली की ऊंची दरों (जो अधिक नवीनीकरण योग्य ऊर्जा की खपत वाले यूरोपीय देशों में देखी जा रही हैं) और ज़्यादा बिजली खपत वाले उद्योगों की चुनौती से किस तरह निपटा जाएगा, इस बारे में भारत की न्यायोचित परिवर्तन की परिचर्चाओं में कोई बात नहीं हो रही है. भारत में न्यायोचित परिवर्तन के अन्य विश्लेषणों में ये सुझाव दिया गया है कि इससे होने वाले कुल लाभ, इसकी लागत से कहीं ज़्यादा हैं. कोयले का उपयोग ख़त्म करने और इससे रोज़ी-रोज़गार ख़त्म होने की लागत के बदले में ये तर्कदिया जाता है कि नवीनीकरण योग्य ऊर्जा सस्ती है. इससे लाखों नई नौकरियां पैदा होंगी और साफ़ हवा भी मिलेगी और इसके साथ-साथ खनन वाले ग़रीब ज़िलों में संगठित अपराध ख़त्म करने में भी मदद मिलेगी. सौर ऊर्जा के क्षेत्र में शुरुआती स्तर के इंजीनियरिंग की डिग्री वाले ग्रेजुएट जिन्हें ठेके पर रखा जाता है, उसकी मज़दूरी भारत के औसत अकुशल कामगार की मज़दूरी से कम होती है [1]. ये रोज़गार सृजन नहीं है बल्कि शोषण है जो सौर ऊर्जा से बनने वाली बिजली की कम दर की लागत का बोझ उठाता है.

न्यायोचित परिवर्तन पर भारत में आई ज़्यादातर हालिया रिपोर्ट इस बात पर ज़ोर देती हैं कि विकास और कार्बन उत्सर्जन कम करने के लिए ऊर्जा की उपलब्धता सुधारने, कोयले से दूरी बनाने में आने वाली दिक़्क़तें दूर करने पर ज़ोर देने की ज़रूरत है.

वैसे तो ज़्यादातर रिपोर्टें सबूत के साथ विश्लेषण और नियमों पर आधारित निष्कर्षों से पूर्ण हैं. इनमें से बहुत कम ही ऐसी हैं जो पहले भारत के कृषि आधारित अर्थव्यवस्था से औद्योगिक अर्थव्यवस्था में बदलाव (हालांकि ये बदलाव अभी अधूरा है) करने के इतिहास की चर्चा करती हैं. न ही इन रिपोर्टों में भारत में पुनर्वास के उस बेहद ख़राब पैमाने की चर्चा है, जिसके तहत विस्थापित हुए लोगों को, बेरोज़गारी, खेती योग्य ज़मीन हाथ से निकल जाने और रोज़ी-रोटी के मौक़े ख़त्म होने की सूरत में औद्योगीकरण की भारी क़ीमत चुकानी पड़ी है.

भारत ने अपने यहां न्यायोचित परिवर्तन की व्याख्या और इसे लागू करने को किसी प्रोजेक्ट से प्रभावित लोगों या परिवारों के पुनर्वास और पुनरुद्धार (R&R) के नज़रिए से ही देखा है. लेकिन, सबसे सख़्त समीक्षा करने वालों ने ये निष्कर्ष निकाला है कि सरदार सरोवर बांध बनने से प्रभावित हुए 35 हज़ार परिवारों के हितों को ‘राष्ट्रीय हित’ के नाम पर क़ुर्बान कर दिया गया. कई अन्य बड़ी औद्योगिक परियोजनाओं को लागू करने के दौरान पुनर्वास और पुनरुद्धार को बेहद ख़राब तरीक़े से लागू करने की मिसाल देने वाले दस्तावेज़ों की कमी नहीं है. भारत के ज़मीन अधिग्रहण के तमाम क़ानून, जिनमें सबसे नया क़ानून भी शामिल है, उनमें ‘बड़े सार्वजनिक हित’ के नाम पर लोगों की इच्छा के ख़िलाफ़ उनकी ज़मीन के अधिग्रहण को वाजिब ठहराया गया है. इसकी एक तुलनात्मक मिसाल, उत्तर पश्चिमी राजस्थान के  भादला सोलर पार्क और दक्षिणी कर्नाटक के पावागढ़ पार्क के रूप में दी जाती है. ये दोनों ही दुनिया के सबसे बड़े सोलर पार्कों में से एक हैं. दोनों की बिजली बनाने की क्षमता 4350 मेगावाट के शीर्ष स्तर तक जाती है. दोनों ही जगहों पर ज़मीन अधिग्रहण के बदले में नौकरियों, अस्पतालों, स्कूलों, सड़कों और पानी की आपूर्ति के वादे किए गए थे, जिसके ज़रिए स्थानीय लोगों को अपनी रोज़ी-रोटी चलाने का मौक़ा मिलता. वैसे तो सौर ऊर्जा की ये परियोजनाएं तैयार भी हो गईं और कार्बन उत्सर्जन कम करने के लिए दुनिया भर में इनकी बड़ी तारीफ़ भी की जा रही है. लेकिन स्थानीय लोगों से जिन-जिन सुविधाओं के वादे किए गए थे, उनमें से कोई एक वादा भी पूरा नहीं किया गया. दोनों ही परियोजनाओं के मामले में आधिकारिक निष्कर्ष ये निकाला गया कि उनसे प्रभावित परिवारों को पुनर्वास के पैकेज के तहत पर्याप्त मुआवज़ा दिया जा चुका है. सरदार सरोवर के मामले में प्रभावित परिवारों की तकलीफ़ का आकलन करने के लिए बनाई गई आधिकारिक समिति ने अपनी रिपोर्ट में ये निष्कर्ष निकाला था कि बांध परियोजना के सामाजिक प्रभावों से निपटने में कोई भी कमी नहीं बरती गई. सुप्रीम कोर्ट ने भी औद्योगीकरण के हक़ में इन निष्कर्षों पर मुहर लगा दी थी.

भारत के ज़मीन अधिग्रहण के तमाम क़ानून, जिनमें सबसे नया क़ानून भी शामिल है, उनमें ‘बड़े सार्वजनिक हित’ के नाम पर लोगों की इच्छा के ख़िलाफ़ उनकी ज़मीन के अधिग्रहण को वाजिब ठहराया गया है.

दिलचस्प बात ये है कि कोयले के उपयोग को ख़त्म करने के लिए, ‘सामाजिक रूप से न्यायोचित’ योजना को वर्ल्ड बैंक की मदद से पूर्वी भारत के उन कुछ ज़िलों में लागू किया जा रहा है, जहां पर खदानों को बंद कर दिया गया है. इसे भारत की पहली न्यायोचित पुनर्वास योजना (शायद ये मानते हुए कि भारत में पूर्व के परिवर्तन सामाजिक रूप से नाइंसाफ़ी वाले थे) कहा जा रहा है. इस ‘न्यायोचित परिवर्तन’ की समय-सीमा लगभग आठ बरस और लागत एक अरब डॉलर होने का अनुमान लगाया गया है. अगर ये योजना कामयाब हो भी जाती है, तो विश्व बैंक की मदद से लागू किए जा रहे पुनर्वास के इस मॉडल को पूरे देश मे लागू करना मुश्किल होगा. इतिहास में इस बात की कोई मिसाल नहीं मिलती कि रोज़गार और आर्थिक पिरामिड के सबसे निचले स्तर के उन लोगों को बड़े पैमाने पर फिर से शिक्षित, प्रशिक्षित करके उनका पुनर्वास किया गया हो, जिनकी नौकरियां या ज़मीन छिन गई हो. सबसे अहम बात तो ये है कि परियोजनाओं से रोज़ी-रोटी छिनने की चुनौतियों के समाधान को इंसाफ़ से ज़्यादा अधिकारों की नज़र से तोला जाता है. कोई अधिकार, देश द्वारा किसी नागरिक को दी जाने वाली विशेष सुविधा है, जिसे देश के व्यापक हितों के लिए क़ुर्बान किया जा सकता है.

स्रोत: 1945-2011 के लिए सनहति 2011. भारत में कोयला खनन की समीक्षा: धनबाद कोयला खदानों से जांच रिपोर्ट; 2011-2018 के लिए भारत के कोयला नियंत्रक.

[1] व्यक्तिगत साक्षात्कार और चर्चा

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Authors

Akhilesh Sati

Akhilesh Sati

Akhilesh Sati is a Programme Manager working under ORFs Energy Initiative for more than fifteen years. With Statistics as academic background his core area of ...

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Lydia Powell

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Ms Powell has been with the ORF Centre for Resources Management for over eight years working on policy issues in Energy and Climate Change. Her ...

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Vinod Kumar Tomar

Vinod Kumar Tomar

Vinod Kumar, Assistant Manager, Energy and Climate Change Content Development of the Energy News Monitor Energy and Climate Change. Member of the Energy News Monitor production ...

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