पिछले कई वर्षों से पश्चिमी एशिया की जियोपॉलिटिक्स का असर हम सुदूर समुद्र में देखते आए हैं. इसमें एक तरफ़ तो खाड़ी देशों और इज़राइल के बीच की तनातनी है, तो दूसरी तरफ़ फ़ारस की खाड़ी, ओमान की खाड़ी और ख़ास तौर से होरमुज़ की जलसंधि में ईरान के साथ टकराव की स्थिति है. होरमुज़ की जलसंधि, ईरान और अरब खाड़ी के बीच एक बेहद संकरा समुद्री रास्ता है. 2018 में हर दिन 2 करोड़ बैरल तेल, होरमुज़ की जलसंधि से होकर गुज़रता था. इस वजह से ये दुनिया भर में तेल और गैस की आपूर्ति को ठप करने की ताक़त रखने वाला सबसे अहम समुद्री रास्ता है. अब लाल सागर के इर्द गिर्द विकसित किया गया वैकल्पिक रास्ता सामरिक टकराव का एक नया ठिकाना बनता जा रहा है.
क्षेत्र की सुरक्षा संबंधी फ़िक्र
ईरान और खाड़ी देशों के बीच का तनाव हमेशा से ही इस क्षेत्र की सुरक्षा संबंधी फ़िक्र के केंद्र में रहा है. हालांकि, जब ईरान ने P5+1 देशों के साथ परमाणु समझौता किया और उसके बाद 2018 में डॉनल्ड ट्रंप के राष्ट्रपति काल में अमेरिका ने बड़े बेआबरू होकर इस समझौते को अलविदा कहा, तो ईरान और इज़राइल और ईरान और अमेरिका के बीच छुपकर चलने वाली जो जंग आम तौर पर ज़मीन और हवा में होती रही थी, अब वो खिसककर फ़ारस की खाड़ी और आस-पास के दूसरे समुद्री इलाक़ों में आ गई है. इसके निशाने पर तेल व्यापार के अहम रास्ते आ गए हैं. पिछले कुछ महीनों के दौरान फ़ारस की खाड़ी में कारोबारी जहाज़ों पर चोरी-छुपे हमले किए गए हैं. ईरान की हथियारबंद नौकाओं ने अमेरिकी सेना के जहाज़ों को परेशान किया है. इज़राइल का झंडा लगाकर चल रहे जहाज़ों पर रहस्यमयी विस्फोट हुए हैं, और इससे भी ज़्यादा रहस्यमयी तरीक़े से ईरान के नौसैनिक जंगी जहाज़ों में आग लगने और उनके ओमान की खाड़ी में डूबने की घटनाएं हुई हैं.
भारत अपनी तेल की ज़रूरतों का 80 प्रतिशत हिस्सा आयात करता है. कई ख़बरों के मुताबिक़, ऑपरेशन संकल्प के दौरान भारत के नौसैनिक जंगी जहाज़ों ने हर दिन औसतन 16 भारतीय कारोबारी जहाज़ों को समुद्र में सुरक्षा मुहैया कराई थी.
आज पश्चिमी एशिया से तेल का सबसे ज़्यादा आयात एशियाई अर्थव्यवस्थाएं करती हैं. इन घटनाओं को देखते हुए, एशिया के देश अब सैन्य रूप से और सक्रिय हो रहे हैं. भारतीय नौसेना ने 2019 में ऑपरेशन संकल्प शुरू किया था, जिससे होरमुज़ की जलसंधि से निकलकर आगे जाने वाले कच्चे तेल के जहाज़ों को भारत तक सुरक्षित पहुंचाया जा सके. भारत अपनी तेल की ज़रूरतों का 80 प्रतिशत हिस्सा आयात करता है. कई ख़बरों के मुताबिक़, ऑपरेशन संकल्प के दौरान भारत के नौसैनिक जंगी जहाज़ों ने हर दिन औसतन 16 भारतीय कारोबारी जहाज़ों को समुद्र में सुरक्षा मुहैया कराई थी.
खाड़ी की जियोपॉलिटिकल उठा-पटक
सऊदी अरब जैसे देश काफ़ी समय से होरमुज़ की जलसंधि से बचने के लिए लाल सागर के रास्ते का इस्तेमाल करने का ख़याल पालते रहे हैं. फ़ारस की खाड़ी में जियोपॉलिटिकल उठा-पटक को देखते हुए, सऊदी अरब, लगातार अपनी पूरब-पश्चिम तेल पाइपलाइन (EWOP) की क्षमता का विस्तार कर रहा है. इस पाइपलाइन से सऊदी अरब के अहम तेल क्षेत्रों जैसे कि अबक़ैक़ से कच्चा तेल लाल सागर के यांबू और रबीघ बंदरगाहों तक ले जाया जा सकेगा. ऐसा करके सऊदी अरब, होरमुज़ जलसंधि में ईरान के ख़तरे और वहां होने वाली तनातनी से बच सकेगा. हालांकि, ये बात कहना जितना आसान है, करना उतना ही मुश्किल है. क्योंकि, पिछले कुछ वर्षों के दौरान लाल सागर में भी फ़ौजी मोर्चेबंदी तेज़ हो गई है.
लाल सागर में भी क्षेत्रीय और अंतरराष्ट्रीय जियोपॉलिटिकल तनातनी की कोई कमी नहीं है. अगर होरमुज़ की जलसंधि वाला रास्ता ईरान के नज़दीक होने के चलते उसकी धमकियों का शिकार था, तो यमन में जंग और वहां के हूथी विद्रोहियों को ईरान के समर्थन के चलते लाल सागर भी उन्हीं जियोपॉलिटिकल और भौगोलिक ख़तरों से वाबस्ता है, जो फ़ारस की खाड़ी में मौजूद हैं. हूथी विद्रोहियों पर पहले ही लाल सागर के आस-पास के सऊदी अरब के ठिकानों और मूलभूत ढांचों पर ड्रोन और विस्फोटकों के ज़रिए हमला करने के आरोप लगते रहे हैं. इन हमलों के ज़रिए ईरान, इज़राइल और सऊदी अरब को ये संदेश देने में कामयाब रहा है कि वो अपने इर्द-गिर्द ही नहीं, उनकी सीमाओं के क़रीब जाकर भी उनकी सुरक्षा को चुनौती दे सकता है. इसके अलावा लाल सागर के अफ्रीकी किनारे पर स्थित छोटे से देश जिबूती में आज अमेरिका, चीन, जापान, इटली और फ़्रांस ने सैनिक अड्डे बना रखे हैं. इस बीच, संयुक्त अरब अमीरात ने भी पश्चिमी एशिया के अलग अलग ठिकानों पर अपने सैनिक अड्डे बना रखे हैं. आज संयुक्त अरब अमीरात के सैनिक अड्डे सोमालिया में भी हैं, और जल्द ही जिबूती और यमन के बीच एक छोटे से जज़ीरे मैयून पर उसका सैनिक और हवाई अड्डा जल्द ही काम करने लगेगा. ये सैनिक अड्डा लाल सागर के मुहाने यानी बाब अल-मनबाब जलसंधि के बिल्कुल बीच में है. अपनी भौगोलिक स्थिति के चलते लाल सागर में बाब अल-मनबाब की हैसियत ठीक वैसी ही है, जैसी फ़ारस की खाड़ी में होरमुज़ की जलसंधि की है. मैयून द्वीप पर सैनिक अड्डे से संयुक्त अरब अमीरात को लाल सागर के आस-पास पहुंच बनाने में काफ़ी मदद मिलेगी और ज़ाहिर है, ज़रूरत पड़ने पर इस सैनिक अड्डे का इस्तेमाल संयुक्त अरब अमीरात का बेहद क़रीबी सऊदी अरब भी कर सकेगा. इस सैनिक अड्डे की मदद से संयुक्त अरब अमीरात अपने क़रीबी पश्चिम सहयोगी देशों जैसे कि अमेरिका और यहां तक कि चीन से भी नज़दीकी बढ़ा सकेगा.
जापान, इटली और फ़्रांस ने सैनिक अड्डे बना रखे हैं. इस बीच, संयुक्त अरब अमीरात ने भी पश्चिमी एशिया के अलग अलग ठिकानों पर अपने सैनिक अड्डे बना रखे हैं.
जिन देशों का ज़िक्र हमने ऊपर किया, उनके अलावा रूस भी एक सैनिक अड्डा स्थापित करने के लिए सूडान से बातचीत कर रहा है. 2020 में जारी की गई सूचना के तहत इस समझौते के तहत रूस को पोर्ट सूडान का बंदरगाह 25 साल के लिए पट्टे पर मिल जाएगा. हालांकि, जून 2021 में आई ख़बरों के मुताबिक़, सूडान इस समझौते की नए सिरे से समीक्षा कर रहा है, जिससे उसके अपने हित भी सध सकें. सूडान ने ये फ़ैसला जनवरी 2021 में अब्राहम समझौते का हिस्सा बनने के बाद लिया है, जिसके तहत अरब देशों और इज़राइल के बीच संबंध सामान्य बनाने की कोशिश हो रही है. अब्राहम समझौते को आगे बढ़ाने में अमेरिका काफ़ी ज़ोर लगा रहा है. 1990 के दशक में ओसामा बिन लादेन का ठिकाना रहे सूडान को इसके बदले में अमेरिका के आतंकवाद वाली सूची से ख़ुद को हटवाने की बड़ी कामयाबी मिली है. रूस के साथ सैनिक अड्डे वाले समझौते को लेकर सूडान के फिर से विचार करने को अब्राहम समझौतों की रौशनी में देखा जा सकता है. हो सकता है कि अमेरिका और संयुक्त अरब अमीरात ने सूडान पर ये दबाव बनाया हो कि वो पोर्ट सूडान को रूस के हवाले न करे.
भारत की अपनी कूटनीतिक मौजूदगी
चूंकि भारत दुनिया के सबसे बड़े तेल आयातक देशों में से एक है. इसलिए, आने वाले समय में इस इलाक़े में भारत की सैन्य मौजूदगी एक स्थायी तस्वीर बन जाए. क्योंकि, भारत ने पश्चिमी एशिया में अपनी कूटनीतिक मौजूदगी को काफ़ी बढ़ा लिया है और हो सकता है कि आने वाले समय में भारत को ओमान के दुक़्म बंदरगाह के इस्तेमाल की इजाज़त भी मिल जाए. ओमान एक निरपेक्ष देश है, जो भारत को ईरान और खाड़ी देशों के बीच अपने सैन्य अड्डे और कूटनीतिक हितों के बीच संतुलन बनाने में मदद करता है.
रूस के साथ सैनिक अड्डे वाले समझौते को लेकर सूडान के फिर से विचार करने को अब्राहम समझौतों की रौशनी में देखा जा सकता है. हो सकता है कि अमेरिका और संयुक्त अरब अमीरात ने सूडान पर ये दबाव बनाया हो कि वो पोर्ट सूडान को रूस के हवाले न करे.
जहां सऊदी अरब जैसे बड़े तेल उत्पादक देश लाल सागर को होरमुज़ जलसंधि के विवाद से बचने के विकल्प के रूप में देखते हैं. वहीं, लाल सागर के इर्द गिर्द जितनी तेज़ी से सैनिक उपस्थिति बढ़ रही है, उससे भारतीय नौसेना की चिंताएं निश्चित रूप से बढ़ जाएंगी. तब भारतीय नौसेना को अरब सागर से विस्तृत हिंद महासागर क्षेत्र में अपनी गश्त और मौजूदगी बढ़ानी पड़ेगी और भारत को अपनी घरेलू ऊर्जा ज़रूरतों और सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए और अधिक राजनीतिक और सैन्य संसाधन लगाने पड़ेंगे. हो सकता है कि आने वाले समय में भारत का ऑपरेशन संकल्प इस क्षेत्र में और अधिक स्थायी और संस्थागत मौजूदगी का रूप अख़्तियार कर ले, जिससे भारत के जंगी जहाज़ लंबे समय के लिए दूसरे देशों के बंदरगाहों पर खड़े रह सकें और दोस्ताना ताल्लुक़ वाले देशों से सैन्य सहयोग को बढ़ाया जा सके.
पूर्वी अफ्रीका के समुद्री किनारे पर अमेरिका द्वारा आयोजित सैन्य अभ्यास कटलैस एक्सप्रेस 2021 में ब्रिटेन, जिबूती, सूडान, सोमालिया, सेशेल्स और अन्य देशों के साथ भारत की भागीदारी ये दिखाती है कि आज भारत अरब सागर, हिंद महासागार और हिंद प्रशांत के विकसित होते नज़रिए को अपनी रणनीति में शामिल कर रहा है. एशियाई देशों, ख़ास तौर से आज के दौर में तेल का आयात करने वाली मुख्य एशियाई अर्थव्यवस्थाओं को आने वाले समय में पश्चिमी एशिया के आस-पास के इलाक़ों में अपनी सैन्य उपस्थिति बढ़ाने की मांग का सामना करना होगा. इस हक़ीक़त के लिहाज़ से ख़ुद को तैयार करने के लिए, भारत को भी अगले कुछ सालों के दौरान इन बदलते समीकरणों के हिसाब से अपनी सैनिक और राजनयिक क्षमता का विस्तार करना चाहिए.
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