Published on Feb 09, 2022 Updated 0 Hours ago

पिछले दो दशक के दौरान भारत-अमेरिका के बीच संबंध का लगभग हर सोचने योग्य आयाम में विस्तार हो चुका है, हालांकि ये विस्तार साथियों के तौर पर नहीं बल्कि समानांतर यात्रा पर चल रहे जोड़ीदार यात्रियों की तरह हुआ है. 

‘नई विश्व व्यवस्था में भारत-अमेरिका संबंधों के लिए भविष्य की रूप-रेखा’

ये लेख भारत की आजादी के 75 साल: आकांक्षाएं, महत्वाकांक्षाएं और दृष्टिकोण श्रृंखला का हिस्सा है.


अंतर्राष्ट्रीय प्रणाली में भारत की उभरती भूमिका और वैश्विक व्यवस्था की मज़बूती और स्थायित्व में भारत के बढ़ते योगदान को किस तरह से देखा जाना चाहिए? वो कौन से मुद्दे और चुनौतियां हैं जो भारत की बढ़ती अंतर्राष्ट्रीय भूमिका के ख़िलाफ़ हैं और जिस वक़्त भारत एक महत्वपूर्ण वैश्विक किरदार के तौर पर लगातार बदल रहा है तो उसे किन अवसरों का लाभ उठाना चाहिए? भारत और अमेरिका के बीच संबंधों की सामरिक स्थिति इन सवालों पर विचार करने के लिए एक उपयोगी नज़र प्रदान करती है. 

भारत-अमेरिका संबंधों की रूप-रेखा 

अमेरिकी हितों के लिए भारत के निर्विवाद क्षेत्रीय और वैश्विक महत्व के बावजूद कई दशकों से अमेरिका द्विपक्षीय और क्षेत्रीय सहयोग को और गहरा करने के लिए प्रमुख क्षेत्रों पर विचार करने को तैयार नहीं था. इसका बड़ा कारण भारत के पास परमाणु हथियार का होना था. लेकिन साल 2000 के बाद के शुरुआती वर्षों में अमेरिका ने भारत के साथ एक सक्रिय और रचनात्मक साझेदारी को कई मुद्दों पर आगे बढ़ने के लिए आवश्यक मानना शुरू कर दिया. उदाहरण के लिए, आतंक के ख़िलाफ़ अमेरिका का वैश्विक युद्ध भारत के द्वारा अपने संगठित आतंकवाद के ख़तरे के ख़िलाफ़ लड़ाई से जुड़ गया; इसने दोनों देशों को खुफिया सूचना, क़ानून लागू करने और सैन्य संबंधों में ज़्यादा सहयोग के लिए एक व्यावहारिक मंच दिया. हाल के वर्षों में दोनों देशों के बीच साइबर सुरक्षा सहयोग में लगातार बढ़ोतरी हुई है. इसके अलावा, अमेरिका को ये एहसास हो गया है कि बढ़ते हुए चीन का मुक़ाबला करने के लिए भारत के साथ सहयोग में बढ़ोतरी आवश्यक है क्योंकि चीन पहले से ही क्षेत्रीय स्तर पर और उसके आगे अपने महत्वपूर्ण आर्थिक और राजनीतिक प्रभाव का इस्तेमाल कर रहा है. 

अमेरिका को ये एहसास हो गया है कि बढ़ते हुए चीन का मुक़ाबला करने के लिए भारत के साथ सहयोग में बढ़ोतरी आवश्यक है क्योंकि चीन पहले से ही क्षेत्रीय स्तर पर और उसके आगे अपने महत्वपूर्ण आर्थिक और राजनीतिक प्रभाव का इस्तेमाल कर रहा है. 

अपनी तरफ़ से भारत ने काफ़ी पहले ये समझ लिया था कि चीन का प्रमुख सामरिक लक्ष्य ख़ुद को अमेरिका की जगह एशिया में सबसे महत्वपूर्ण सुरक्षा ताक़त के रूप में स्थापित करना है और इससे भी बढ़कर अमेरिका के द्वारा तय की जाने वाली मौजूदा अंतर्राष्ट्रीय वैश्विक व्यवस्था को चुनौती देना है. इसके साथ-साथ भारत ये भी जानता है कि चीन की सामरिक आकांक्षा को नियंत्रण में लाने के लिए अमेरिका की मज़बूत क्षेत्रीय और वैश्विक स्थिति महत्वपूर्ण है. जैसा कि फॉरेन अफेयर्स मैगज़ीन के अक्टूबर 2019 संस्करण में रॉबर्ट डी. ब्लैकविल और एशले जे. टेलिस ने लिखा है: “जहां तक चीन की बात है, अमेरिकी और भारतीय राष्ट्रीय हित एक-दूसरे से मिलते-जुलते हैं. अमेरिका ने एक व्यवस्था के माध्यम से एशिया में स्थायित्व बनाए रखने की तलाश की जिसका आधार चीन का प्रभुत्व नहीं बल्कि इस क्षेत्र के सभी देशों की सुरक्षा और स्वायत्तता थी. भारत ने चीन के वर्चस्व को लेकर अपने डर की वजह से चीन के मुक़ाबले अमेरिका के दृष्टिकोण का समर्थन किया.”

पिछले दो दशकों के दौरान भारत-अमेरिका के बीच संबंध का लगभग हर सोचने योग्य आयाम में विस्तार हो चुका है- राजनीतिक, कूटनीतिक, आर्थिक और सैन्य- हालांकि ये विस्तार साथियों के तौर पर नहीं बल्कि समानांतर यात्रा पर चल रहे जोड़ीदार यात्रियों की तरह हुआ है. काफ़ी हद तक ये कहा जा सकता है कि 21वीं शताब्दी में भारत-अमेरिका साझेदारी का पता एक व्यावहारिक यथार्थ से चलता है जो असहमति के बड़े बिंदुओं और कई बार हमेशा मौजूद खुले टकराव को स्वीकार करता है. लेकिन भारत और अमेरिका के बीच वर्तमान के बढ़े हुए सहयोग के लिए 2020 में दो बड़े कारण थे: i) वैश्विक कोविड-19 महामारी और,  ii) चीन के क़दम- कोविड-19 महामारी और हॉन्ग कॉन्ग को लेकर उसकी घरेलू कार्रवाई और पड़ोस के देशों के लिए तेज़ी से बढ़ता दिख रहा उसका उकसावे वाला व्यवहार. 

पिछले दो दशकों के दौरान भारत-अमेरिका के बीच संबंध का लगभग हर सोचने योग्य आयाम में विस्तार हो चुका है- राजनीतिक, कूटनीतिक, आर्थिक और सैन्य- हालांकि ये विस्तार साथियों के तौर पर नहीं बल्कि समानांतर यात्रा पर चल रहे जोड़ीदार यात्रियों की तरह हुआ है.

अंतर्राष्ट्रीय प्रणाली में भारत की भूमिका 

भारत पर नज़र रखने वाले समीक्षक लंबे समय से विश्व मंच पर भारत के बढ़ते महत्व की उम्मीद रख रहे हैं. भारत को सही ढंग से विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है: विशाल जनसंख्या, संसाधनों से भरपूर, बेहद स्वाभिमानी और अपने 130 करोड़ नागरिकों के हालात को बदलने में निर्विवाद रूप से सफल. वैश्विक मुद्दों पर स्वतंत्र नीति की भारत की परंपरा के कारण शीत युद्ध के समय से कई दशक बीतने के बाद भी उसके हितों को लाभ हुआ है. आज विश्व समुदाय जिन महत्वपूर्ण मुद्दों का सामना कर रहा है, उनमें भारत एक प्रतिष्ठित स्थान रखता है: जलवायु परिवर्तन; सतत विकास; असमानता को दूर करना; और बढ़ती वैश्विक जनसंख्या को समर्थन देने, शिक्षित करने, रोज़गार प्रदान करने के लिए मज़बूत वैश्विक अर्थव्यवस्था को चुनौती. अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भारत ने संयुक्त राष्ट्र और दूसरे अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर एक स्थायी बल के तौर पर सेवा दी है. भारत ने कुशलता से अमेरिका-रूस संबंधों के अक्सर ख़राब दौर में ख़ुद को सुरक्षित रखा है, विकासशील विश्व की अनगिनत चुनौतियों को देखा है और साइबर युग के झूठे वादों एवं जोख़िमों से लड़ाई में एक बड़ी आवाज़ के रूप में उभरा है. ये सभी चीज़ें भारत तब कर रहा है जब वो घरेलू स्तर पर पाकिस्तान और चीन से निपटने में बेहद व्यस्त है. 

आंतरिक तौर पर भारत की चुनौतियां न सिर्फ़ बहुत ज़्यादा है बल्कि कई बार ख़ुद को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर ज़्यादा ताक़तवर दिखाने की उसकी योजना के लिए रुकावट भी हैं. भारत की लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं को काफ़ी सांप्रदायिक घृणा से प्रभावित किया गया है और भारत की शासन व्यवस्था से जुड़े संस्थान भारी राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक ज़िम्मेदारियों के सामने लंबे समय से कमज़ोर हैं. इसके अलावा भारत को स्थायी ग्रामीण ग़रीबी और बढ़ती शिक्षित और शहरी जनसंख्या, जो हर महीने काम की तलाश करने वाले 10 लाख से ज़्यादा लोगों को अर्थव्यवस्था में डालती है, से भी मुक़ाबला करना पड़ रहा है. अनगिनत दूसरी चुनौतियों के साथ ये चुनौतियां भारत की राह में रुकावट डालती हैं. इसकी वजह से अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर जिस भूमिका को भारत अदा करना चाहता है और जिसके योग्य वो है भी, उसे वो दृढ़तापूर्वक नहीं रख पा रहा है. 

भारत ने कुशलता से अमेरिका-रूस संबंधों के अक्सर ख़राब दौर में ख़ुद को सुरक्षित रखा है, विकासशील विश्व की अनगिनत चुनौतियों को देखा है और साइबर युग के झूठे वादों एवं जोख़िमों से लड़ाई में एक बड़ी आवाज़ के रूप में उभरा है.

भारत का निष्क्रिय रवैया

कई मायनों में भारत की चुनौतियां उसी तरह की हैं जिनका सामना अंतत: सभी मज़बूत देशों को करना है: क्या उन ज़िम्मेदारियों को पूरी तरह स्वीकार करना है जो विशाल शक्ति के लिए आवश्यक हैं. ये ज़िम्मेदारियां घर के साथ-साथ बाहर भी मुश्किल पसंद की मांग करती हैं. वास्तव में आज हर सरकार तेज़ी से बढ़ती सामाजिक उम्मीदों, जो हर जगह लोगों को अधिकार देने वाली सूचना और संपर्क तक व्यापक पहुंच की वजह से बढ़ रही है, को ध्यान में रखने की चुनौती का सामना कर रही है. ये वास्तविकता भारत से ज़्यादा सच कहीं भी नहीं है. आगे बढ़ने के लिए भारत को अंतर्राष्ट्रीय नेतृत्व के प्रति अपने रवैये का ज़रूर विरोध करना चाहिए. भारत का रवैया परंपरागत तौर पर निष्क्रिय रहा है, सक्रिय होने के बदले प्रतिक्रियात्मक रहा है. भारत का सबसे बड़ा संसाधन उसके लोग हैं. आज के विश्व में जहां आंकड़ों के अनुसार मानव इतिहास के किसी भी हिस्से के मुक़ाबले लोग ज़्यादा स्वस्थ, धनवान, शिक्षित, ज़्यादा घूमने-फिरने वाले और राजनीतिक तौर पर ज़्यादा सक्रिय हैं, उस वक़्त भारत नेतृत्व की आकांक्षा रखने वाले किसी भी देश के साथ समान रूप से खड़ा है. 

आगे बढ़ने के लिए भारत को अंतर्राष्ट्रीय नेतृत्व के प्रति अपने रवैये का ज़रूर विरोध करना चाहिए. भारत का रवैया परंपरागत तौर पर निष्क्रिय रहा है, सक्रिय होने के बदले प्रतिक्रियात्मक रहा है.

विश्व की महाशक्ति के रूप में अमेरिका की स्थिति के बावजूद ये पूरी तरह साफ़ है कि आज की दुनिया जिन चुनौतियों का सामना कर रही है, वो ऐसी हैं कि कोई भी देश सभी ज़रूरी चीज़ें नहीं कर सकता और जिन चीज़ों को करने की ज़रूरत है उन्हें अकेले नहीं किया जा सकता. कोविड-19 महामारी के रूप में अभूतपूर्व वैश्विक संक्रमण ने इसे दिखाया है. अमेरिका ने हमेशा एक योग्य साझेदार को महत्व दिया है. अब ये भारत की बारी है कि वो उद्देश्य और स्वाभिमान के साथ आगे बढ़े और मार्गदर्शक के अपने हिस्से का नियंत्रण ले. 

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