24 अप्रैल 1993 को भारत ने अपने लोकतंत्र को मजबूत करने की नीयत से इसे और ज्यादा समावेशी और सहभागी बनाने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम बढ़ाया। सरकार की 73वें संविधान संशोधन एक्ट की अधिसूचना या फिर पंचायती राज अधिनियम (बाद में शहरी स्थानीय निकायों के लिए 74वां अधिनियम), से देश की संघीय व्यवस्था में एक तीसरी श्रेणी की शुरुआत हुई और इस तरह से विकेन्द्रीकृत शासन का एक नया युग शुरु हुआ। उल्लेखनीय तरीके से 73वें संविधान संशोधन ने देश में विकेन्द्रीकृत शासन के लिए या कहें तो स्थानीय स्व शासित संस्थाओं के लिए संवैधानिक औऱ विधिक अधिकार प्रदान किए।
इतने क्रांतिकारी विधेयक को पास करना आसान नहीं था क्योंकि कई वरिष्ठ नीति निर्माता इसे अपने अस्तित्व के लिए ही खतरा मान रहे थे। लिहाजा इसमें कोई हैरानी नहीं हुई जब राजीव गांधी सरकार के 1989 में लाये गये 64वें संविधान संशोधन बिल का राज्यसभा में समूचे विपक्ष ने विरोध किया। इस बिल में त्रिस्तरीय पंचायती राज संस्थाओं का प्रावधान था और विरोध करने वालों में विपक्षी सदस्यों के साथ ही सत्तारूढ़ कांग्रेस के भी सदस्य थे जो इसे अपनी ताकत और राजनीतिक आधार के लिए खतरा मान रहे थे। तीन साल के बाद राजीव गांधी के बाद प्रधानमंत्री बने नरसिंहा राव को 1992 में 73वें संशोधन विधेयक को पास कराने में काफी मान मनौव्वल और कड़ी मशक्कत करनी पड़ी यहां तक कि MPLAD फंड का भी निर्माण करना पड़ा। हालांकि यह एक्ट मूल बिल से कई मायनों में काफी हल्का कर दिया गया था लेकिन फिर भी इसमें कई ऐसे बुनियादी प्रावधान मौजूद थे जिसकी वजह से इसे ऐसे तस्वीर बदल देने वाले कानून की संज्ञा दी गई जिससे देश में वास्तविक तौर पर सहभागी लोकतंत्र स्थापित होगा।
अब ये बिल्कुल सही समय है इस बात को देखने का कि ये लघु गणतंत्र उम्मीदों पर कितने खरे उतरे हैं।
इस महत्वपूर्ण कदम को उठाये जाने के 25 साल पूरे हो चुके हैं। अब ये उचित समय है कि इस बात का मूल्यांकन किया जाये कि क्या इस कदम के बाद जो छोटे-छोटे गणतंत्र देश में स्थापित हुए क्या वो उम्मीदों पर खरे उतरे हैं। क्या पंचायतों को सच्चे अर्थों में स्व शासित संस्थाएं माना जा सकता है। क्या विकेन्द्रीकरण की मूल भावना भारत के लोकतांत्रिक परिवेश में अपनी जगह बना सकी है।
प्रमुख उपलब्धियां
पंचायतों को संवैधानिक दर्जा देने और उन्हें स्व शासित संस्थाओं के तौर पर पहचान देने वाले संविधान के 73वें संशोधन ने देश के लोकतांत्रिक मानस में गहरे तक अब अपनी पैठ बना ली है। इसकी एक बानगी है इनकी संख्या। देश में आज चुने हुए प्रतिनिधियों यानी सांसद औऱ विधायकों की संख्या महज पांच हजार के आसपास है जबकि पंचायती राज अधिनयुम के तहत देशभर में विभिन्न स्तरों (ग्राम सभा, पंचायत समिति औऱ जिला परिषद) पर लगभग तीस लाख से ज्यादा प्रतिनिधि हैं जो कि दुनिया की सबसे बड़ी लोकतांत्रिक व्यवस्था है।
दूसरा और सबसे ज्यादा अहम योगदान है कि 73वें संशोधन ने लोकतंत्र और राजनीतिक समावेशिता की जड़े मजबूत की हैं और समाज के सबसे पिछड़े और वंचित तबकों की भागीदारी को बढ़ाया है। 73वें संशोधन के तहत महिलाओं, अनुसूचित जातियों और जनजातियों तथा अन्य पिछ़ड़े वर्ग के लिए लागू होने वाले बाध्यकारी आरक्षण के चलते इन समाज के दस लाख से अधिक नये प्रतिनिधियों को लोकतांत्रिक प्रक्रिया में स्थान मिला है। निर्विवाद रूप से ये देश में राजनीति के क्षेत्र में महिलाओं के लिए सबसे ज्यादा सकारात्मक बदलाव लाने वाली प्रक्रिया है। जहां एक ओर संसद औऱ राज्य की विधानसभाओं में महिलाओं की भागीदारी महज 8 फीसदी है वहीं इस क्षेत्र में बहुत बड़ी संख्या यानी लगभग 49 फीसदी चुनी हुई प्रतिनिधि महिलाएं हैं। आज देश में महिला प्रतिनिधियों की तादाद लगभग 14 लाख है। इनमें से 86 हजार स्थानीय निकायों की प्रतिनिधि हैं।
दूसरा और सबसे ज्यादा अहम योगदान है कि 73वें संशोधन ने लोकतंत्र और राजनीतिक समावेशिता की जड़े मजबूत की हैं और समाज के सबसे पिछड़े और वंचित तबकों की भागीदारी को बढ़ाया है।
हालांकि ये भी बात सही है कि बहुत सारे ऐसे मामले हैं जहां ये प्रतिनिधित्व सिर्फ सांकेतिक बनकर रह गया है या फिर महिला प्रतिनिधि यहां तक कि सरपंच और जिला परिषद अध्यक्ष जैसे पदों पर चुनी गयी प्रतिनिधि भी महज पुरुषों की कठपुतली (कई बार अपने पति की और कई बार परिवार के दूसरे सदस्यों की) बनकर रह गई हैं। बावजूद इसके हाल के दिनों में हुए अध्ययन और जारी हुई रिपोर्टें बताती हैं कि पंचायतों में इस बाध्यकारी आरक्षण की वजह से बड़ी संख्या में सकारात्मक नतीजे सामने आये हैं। मिसाल के तौर पर एस्थर डफलो और राघवेन्द्र चटोपाध्याय ने राजस्थान और पश्चिमी बंगाल में पंचायतों पर किये गये अपने अध्ययन में पाया कि स्थानीय निकायों में महिला प्रतिनिधित्व का वंचित तबकों को पर्याप्त मात्रा में मिलने राशन दिये जाने की प्रक्रिया पर सकारात्मक प्रभाव पड़ा। लक्ष्मी अय्यर द्वारा भी किये गये इसी तरह के एक अध्ययन में पता चला कि स्थानीय निकायों में महिलाओं के होने से दूसरी महिलाओं को अपराध की घटनाओं की जानकारी देने और महिलाओं से हित से जुड़े मामले उठाने में सहूलियत होती है। हालांकि इस मामले में राष्ट्र व्यापी स्तर पर एक अध्ययन का सामने आना अभी बाकी है लेकिन फिर भी इस बात के तो कुछ प्रमाण हैं ही कि अपने निम्न शिक्षा स्तर और राजनीति माहौल तथा सूझबूझ की कमी के बावजूद महिलाएं और अनुसूचित जाति-जनजाति के चुने प्रतिनिधि अपने राजनीति अधिकारों का प्रयोग कर रहे हैं और सदियों पुराने दमन से बाहर निकल कर नेता के तौर पर उभर रहे हैं।
एन के सिंह की अध्यक्षता वाले 15वें वित्त आयोग ने भी मौजूदा मदद को दो फीसदी बढ़ाने का प्रस्ताव किया है। ये पूरी तस्वीर बदलकर रख देने वाला कदम साबित हो सकता है।
तीसरी अहम बात कि दशकों पहले जिन्हें नखदंत विहीन संस्थान कहा जाता था, (बलवंत राय मेहता कमेटी की 1957 में आयी सिफारिशों के बाद ), उन्हें 73वें संशोधन ने न केवल लोककल्याण के काम कराने और प्रस्तावों और खर्चों को तैयार करने की ताकत दी बल्कि पंचायती राज अधिनियम के तहत अपने रोजमर्रा के कामों के लिए कई महत्वपूर्ण आय के स्रोत(भले ही वो कागज पर ही हों) भी दिये। स्थानयी प्रशासन में उनकी अहम भूमिका को पहचाने हुए, 13वें और 14वें वित्त आयोंगों ने केन्द्र से मिलने वाले मदों का एक बड़ा हिस्सा स्थानीय निकायों को दिया। एन के सिंह की अध्यक्षता वाले 15वें वित्त आयोग ने भी मौजूदा मदद को दो फीसदी बढ़ाने का प्रस्ताव किया है। ये पूरी तस्वीर बदलकर रख देने वाला कदम साबित हो सकता है।
चौथी बात कि विकेन्द्रीकरण की व्यवस्था इतने दूरगामी प्रभाव देने वाली है कि केन्द्रीय सरकार ने भी मनरेगा और स्वच्छ भारत जैसी अपने सबसे महात्वाकांक्षी योजनाओं को लागू करने के लिए पंचायतों को ही प्रमुख योजना और क्रियान्वयन केन्द्र बनाया है।
जहां तक स्थानीय निकायों को वास्तव में अधिकार दिये जाने की बात है तो आखिरकार, निचले स्तर से बनने वाले दबाव की वजह से विकेन्द्रीकरण की मुहिम रंग लाती दिख रही है। हाल ही में राज्यों के बीच पंचायतों की सक्रियता, अधिकारों के हस्तांतरण औऱ धन देने तथा दायित्वों को लेकर एक स्वस्थ प्रतियोगिता भी शुरू हुई है। मिसाल के तौर पर केरल औऱ कर्नाटक से प्रेरणा लेकर (जिन्होंने 26 विभागों में अधिकारों का हस्तांतरण किया) राजस्थान ने भी कृषि, शिक्षा, स्वास्थ्य, महिला, बाल एवं सामाजिक कल्याण जैसे नौ विभागों में धन, अधिकार और अधिकारियों का हस्तांतरण किया है। उसी तरह बिहार की सरकार ने भी पंचायत सरकार जैसे अनूठे प्रयोग शुरू किये हैं जिसमें विकास से जुड़ी सभी योजनाओं के जमीनी स्तर पर क्रियान्वयन में प्रमुखता दी गई है। लगभग तीस सालों के इंतजार के बाद हाल ही में झारखंड में भी पंचायत चुनाव हुए हैं। कुल मिलाकर विकेन्द्रीकरण की प्रक्रिया अब मजबूती से आगे बढ़ रही है और अब इसकी गति को वापस मोड़ पाना नामुमकिन लगता है।
हाल ही में राज्यों के बीच पंचायतों की सक्रियता, अधिकारों के हस्तांतरण औऱ धन देने तथा दायित्वों को लेकर एक स्वस्थ प्रतियोगिता भी शुरू हुई है।
मौके जो हाथ से निकले
इन तमाम सकारात्मक खबरों और उपलब्धियों के बीच विकेन्द्रीकरण की प्रक्रिया को धीमा करने में तमाम संस्थागत चुनौतियों और सिस्टम से जुड़ी समस्याओं का प्रमुख हाथ रहा है। मिसाल के तौर पर राज्यों की एक बड़ी संख्या इससे जुड़ी जरूरी अर्हताओं जैसे कि राज्य पंचायत अधिनियम की व्यवस्था करना, राज्य वित्त आयोग का गठन करना तथा राज्य निर्वाचन आयोग के साथ ही जिला योजना कमेटियों का गठन करने आदि को पूरा करती हुई नजर आती है। लेकिन अभी बड़ी संख्या में राज्य ऐसे भी हैं जिन्होंने इन निकायों को अभी तक धन और अधिकारों का हस्तांतरण नहीं किया है। एक ओर केरल और पश्चिमी बंगाल जैसे राज्यों ने 26 विभागों में ये हस्तांतरण कर दिया है वहीं कई राज्यों में सिर्फ तीन विभागों तक में ही ये काम हो पाया है। तमाम मामलों में जिन राज्यों ने ये हस्तांतरण हो भी चुका है वहां पर भी इन विभागों की ओर से पंचायतों को व्यावहारिक और जमीनी स्तर पर ये हस्तांतरण नजर नहीं आता है। यहां पर नौकरशाह और विभाग तथा एजेंसियां ही सारा काम अपने हाथ में लिये हुए हैं। कई राज्यों में तो पंचायतों के समानांतर नयी संस्थाएं खड़ी की जा रही हैं जो उनके हिस्से का सारा काम कर रही हैं। मिसाल के तौर पर हरियाणा सरकार ने एक ग्रामीण विकास एजेंसी मुख्यमंत्री की अध्यक्षता में बना दी है जो स्थानीय निकायों का सारा कामकाज देखती है।
सार्वजनिक वस्तुओं और सेवाओं को ज्यादा बेहतर तरीके से लोगों से पहुंचाने के लिए पंचायती राज संस्थाओं का इस्तेमाल किये जाने को लेकर बनी एक विशेषज्ञ कमेटी की रिपोर्ट से खुलासा हुआ कि एक मनरेगा और पिछड़े क्षेत्रों को दी जाने वाली सहायता राशि बैकवर्ड रीजन ग्रान्ट फंड को छोड़ दें तो लगभग डेढ़ सौ से ज्यादा केन्द्रीय योजनाओं में से किसी में भी पंचायती संस्थानों को अहम भूमिका नहीं दी गई। ये हाल तब है जब कैबिनेट सचिव ने 8 नवबंर 2004 के अपने आदेश में साफ तौर पर इसे लागू किये जाने को कहा था। आज भी विभिन्न राज्यों में इन कामों को संबंधित विभाग ही संभाल रहे हैं। मोटे तौर पर कहें तो पंचायतों को अभी भी स्थानीय शासन प्रक्रिया के पूर्ण रूप से स्वायत्तशासी संस्थान के रूप में तैयार होना अभी बाकी है। इसके पीछे बड़ी वजह है राज्यों के राजनीतिक नेतृत्व और नौकरशाही का लगातार हो रहा विरोध जो मानते हैं कि पंचायतों के उभार के साथ ही उनकी भूमिका निरर्थक होती जायेगी। इस तरह 73वें संविधान संशोधन के लक्ष्यों को हासिल करने के लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी साफ नजर आती है।
पंचायतों को अभी भी स्थानीय शासन प्रक्रिया के पूर्ण रूप से स्वायत्तशासी संस्थान के रूप में तैयार होना अभी बाकी है। इसके पीछे बड़ी वजह है राज्यों के राजनीतिक नेतृत्व और नौकरशाही का लगातार हो रहा विरोध जो मानते हैं कि पंचायतों के उभार के साथ ही उनकी भूमिका निरर्थक होती जायेगी।
उससे भी ज्यादा खतरनाक चलन ये है कि इन संस्थाओं के गठन के 25 साल के बाद भी इन्हें मजबूत किये जाने औऱ इनकी क्षमता बढ़ाने के लिए बहुत कम प्रयास किये गये हैं। बहुत ही कम राज्यों ने पंचायतों की नियोजन प्रक्रिया पर विशेष ध्यान दिया है और उसके समावेशीकरण पर काम किया है। कई राज्यों ने तो नये चुने गये प्रतिनिधियों के अधिकारों को सुनिश्चित करने औऱ क्षमता को बढ़ाने की दिशा में कोई ध्यान ही नहीं दिया है, इनमें से कई प्रतिनिधि तो समाज के बेहद पिछड़े तबके से आते हैं। लिहाजा इतने होनहार संस्थान की विश्वसनीयता क्षमता के विकसित न होने से प्रभावित हुई है। ऐसे में कोई हैरानी की बात नहीं है कि तमाम चुने हुए प्रतिनिधि साधारण कामों औऱ जिम्मेदारियों के लिए भी अधिकारियों का मुंह ताकते हैं औऱ इस तरह से उपहास का पात्र बनते हैं। ये पिछड़े औऱ गरीब इलाकों में ज्यादा नजर आता है जहां पर चुने हुए प्रतिनिधियों को ग्रामीण विकास की योजनाओं को लागू करने में भी काफी मुश्किलें आती हैं। विडम्बना ये है कि इस क्षमता की कमी को बड़ी सफाई से राजनीतिक औऱ प्रशासनिक अमला उनके खिलाफ इस्तेमाल करता है औऱ इन संस्थाओं को आगे विकसित नहीं होने देता। खासतौर पर पेसा एक्ट (देश के शेड्यूल्ड इलाकों ) वाले क्षेत्रों में ये हालत ज्यादा खराब है।
अधिकारों औऱ क्षमता से जुड़े मुद्दों के अलावा कई दूसरे गंभीर मुद्दे भी हैं, विशेषतौर पर अपर्याप्त वित्तीय शक्तियों का मामला जिसकी वजह से इन स्व शासित संस्थाओं को राज्य औऱ केन्द्र की सरकारों की दया पर निर्भर रहना पड़ता है। एक ओर जहां पंचायतों को कई कामों की जिम्मेदारी दी गई है, वहीं पर दूसरी ओर उनके लिए कर लगाने का अधिकार बेहद सीमित रखा गया है। कोई भी पंचायत किसी संपत्ति पर कर नहीं लगा सकती। यहां तक कि इस मामले में न्यायपालिका से भी उन्हें बहुत मदद नहीं मिली। इस मामले में एक बेहद चर्चित दाभोल की घटना का जिक्र जरूरी है जहां पर एनरॉन कंपनी पर एक ग्राम सभा ने टैक्स लगाने की कोशिश की लेकिन वो अदालत में हार गई। इस तरह से पंचायतों के अधिकार क्षेत्र को बढ़ाने और उनके औचित्य को स्पष्ट करने का प्रमुख कार्य अभी दिवास्वप्न ही लगता है।
आखिरी लेकिन सबसे अहम बात ये है कि अभी तक पंचायतों को ई गवर्नेंस के दायरे में लाने के लिए काफी कम प्रयास किये गये हैं। इस बात में कोई शक नहीं है कि नये जमाने की तकनीक (आईसीटी) का फायदा उठाते हुए जवाबदेही, पारदर्शिता और कार्यसाधकता को बढ़ाया जा सकता है। हालांकि इसके बावजूद देश की ढाई लाख पंचायतों में से आधी पंचायते भी ई-पंचायत प्रोजेक्ट के दायरे में नहीं हैं। यहां ये ध्यान रखना चाहिए कि पंचायतों के लिए आईसीटी अभियान 2004 में ही शुरू किया गया था।
अंत में ये कहना सही होगा कि महिलाओं तथा दूसरे पिछड़े और हाशिये पर खड़े समाज के सशक्तिकरण जैसी उपलब्धियों के बावजूद विकेन्द्रीकरण की प्रक्रिया काफी धीमी, सुस्त और असंतोषजनक है। इन संस्थाओं को संवैधानिक दर्जा दिया जाना जहां एक ओर इस विविधताओं वाले इस देश में बरसो से हाशिये पर पड़े समाज को मुख्यधारा में समावेशित किये जाने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम था वहीं अब इस सिलसिले में केन्द्र और राज्य के राजनीतिक हुक्मरानों की ओर से एक परिवर्तनकारी और ठोस कदम उठाये जाने की जरूरत है। उम्मीद की जा सकती है कि आने वाले वक्त में पंचायतें देश के लघु गणतंत्र के रूप में उभर कर सामने आयेंगी।
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