Author : Sarthak Shukla

Published on Jan 29, 2022 Updated 0 Hours ago

क्या ये टेक कंपनियां अपने उपकरणों और उत्पादों के निर्माताओं को फ़ैक्ट्री से होने वाला उत्सर्जन घटाने के लिए मजबूर कर सकती हैं? 

COP26 के बाद ‘बिग टेक’ और जलवायु परिवर्तन: थोड़ी हक़ीक़त, ज़्यादा फ़साना

ग्लासगो में जलवायु सम्मेलन COP26 के अंत के बाद अब सारी निग़ाहें इस मोर्चे पर होने वाली कार्रवाइयों पर टिक गई हैं. सरकारों के अलावा उद्योग जगत और उनसे जुड़ी कंपनियां भी जलवायु परिवर्तन से मुक़ाबले में अहम किरदार हैं. इस सिलसिले में कॉरपोरेट जगत में कुछ अहम घटनाक्रम देखने को मिल रहे हैं. ख़ासतौर से बिग टेक के क्षेत्र में जलवायु से जुड़े एजेंडे को आगे ले जाने की क़वायद दिखाई दे रही है. 

वैश्विक स्तर पर एक सुखद बदलाव नज़र आ रहा है. तमाम आर्थिक दायरों से जुड़े विभिन्न किरदार जलवायु के मोर्चे पर वैश्विक विमर्श को अब पहले से ज़्यादा सक्रियता से स्वीकार करने लगे हैं.

वैश्विक स्तर पर एक सुखद बदलाव नज़र आ रहा है. तमाम आर्थिक दायरों से जुड़े विभिन्न किरदार जलवायु के मोर्चे पर वैश्विक विमर्श को अब पहले से ज़्यादा सक्रियता से स्वीकार करने लगे हैं. बिग टेक सरीखे डिजिटल अर्थव्यवस्था के खिलाड़ियों ने भी जलवायु से जुड़े लक्ष्यों का एलान किया है. धरती के टिकाऊ भविष्य के प्रति योगदान देने की क़वायदों से वो भी ख़ुद को जोड़ने लगे हैं. एमेज़ॉन ने साल 2040 तक नेट-ज़ीरो उत्सर्जन का स्तर हासिल करने के लक्ष्य की घोषणा की है. कंपनी ने 2025 तक अपनी गतिविधियों के लिए सिर्फ़ नवीकरणीय ऊर्जा का इस्तेमाल करने की व्यवस्था शुरू करने का लक्ष्य रखा है. फ़ेसबुक और ऐप्पल ने अपनी पूरी मूल्य श्रृंखला में 2030 तक नेट-ज़ीरो उत्सर्जन का स्तर हासिल करने का इरादा जताया है. माइक्रोसॉफ़्ट ने भी 2030 तक कार्बन उत्सर्जन के स्तर को तटस्थ से भी नीचे (carbon negative) लाने की प्रतिबद्धता सामने रखी है. इसके अलावा कंपनी ने 2050 तक अब तक के तमाम उत्सर्जनों को हटा लेने का लक्ष्य भी रखा है. गूगल भी “नेट-ज़ीरो हासिल करने की रेस” के साथ जुड़ गया है. कंपनी ने अपनी शत प्रतिशत गतिविधियों को नवीकरणीय ऊर्जा से संचालित करने के महत्वाकांक्षी लक्ष्य का एलान किया है. इस सिलसिले में कंपनी ने जीवाश्म से तैयार बिजली को समायोजित करने के लिए (offsetting) नवीकरणीय सर्टिफ़िकेट का प्रयोग नहीं करने का फ़ैसला किया है. भारत में भी घरेलू तौर पर एमेज़ॉन इंडिया, ज़ोमैटो और स्विगी ने कार्बन उत्सर्जन की बड़े पैमाने पर रोकथाम करने के लक्ष्य का एलान किया है. इसके लिए इन कंपनियों ने अपने डिलिवरी करने वाले बेड़े में इलेक्ट्रिक वाहनों को शामिल किए जाने की घोषणा की है. 

घटनाक्रमों की गहराई से पड़ताल

सतही तौर पर ऐसा लगता है कि दौलतमंद टेक्नोलॉजी कंपनियां आक्रामक तरीक़े से जलवायु-अनुकूल नीतियों और लक्ष्यों के साथ ख़ुद को जोड़ रही हैं. हालांकि इन घटनाक्रमों की गहराई से पड़ताल करने पर जानकारियों से भरी तस्वीरें सामने आती हैं. जलवायु के मुद्दे पर न्याय के मोर्चे पर इन कार्रवाइयों की पड़ताल करने पर ये पूरी क़वायद और भी अहम हो जाती है. ग़ौरतलब है कि न्याय से जुड़ा ये पूरा मसला जलवायु परिवर्तन को लेकर हो रही जंग का मुख्य कारक है. बहरहाल अगर जलवायु से जुड़ा न्याय ही पैमाना है तो टिकाऊ विकास के मोर्चे पर हर कार्रवाई महज़ कार्बन उत्सर्जन की रोकथाम से जुड़ी क़वायदों से आगे निकलनी चाहिए. इस सिलसिले में ख़ासतौर से नाज़ुक हालात में जी रहे समुदायों का ख़्याल रखे जाने की ज़रूरत है. दरअसल इस सिलसिले में तमाम पक्षों द्वारा अपनी गतिविधियों के चलते सामने आने वाले प्रतिकूल सामाजिक-आर्थिक और पारिस्थितिक प्रभावों का निपटारा करने की आवश्यकता है. हालांकि इन प्रभावों का समग्र रूप से आकलन किया जाना कोई आसान काम नहीं है. इनसे लोगों के जीवन और आजीविका पर असर होता है. इन प्रभावों का स्वरूप गुणवत्ता के तौर पर दिखाई देता है. 

सतही तौर पर ऐसा लगता है कि दौलतमंद टेक्नोलॉजी कंपनियां आक्रामक तरीक़े से जलवायु-अनुकूल नीतियों और लक्ष्यों के साथ ख़ुद को जोड़ रही हैं. हालांकि इन घटनाक्रमों की गहराई से पड़ताल करने पर जानकारियों से भरी तस्वीरें सामने आती हैं. 

सामाजिक-आर्थिक प्रभावों को वित्तीय पैमाने पर मापे जाने का चलन चल पड़ा है. दूसरी ओर पारिस्थितिक प्रभावों को उत्सर्जन आधारित चश्मे से देखने का रिवाज़ रहा है. इस तरह की क़वायद अब इतनी आगे निकल चुकी है कि लोगों के जीवन की गुणवत्ता को आंकड़ेबाज़ियों, प्रतिशत के खेल या संख्या के ज़रिए ढकने का दुष्प्रचार या छलावा होने लगा है. मिसाल के तौर पर उत्सर्जन की गणना के मुताबिक ग्रीन हाउस गैसों के वैश्विक उत्सर्जन में बिग टेक का हिस्सा महज़ 0.3 फ़ीसदी है. इनमें स्कोप वन उत्सर्जन (डेटा सेंटरों और गतिविधियों के ज़रिए), स्कोप टू उत्सर्जन (बिजली और दूसरे कारकों के ज़रिए) और स्कोप थ्री उत्सर्जन (डिलिवरी, कर्मचारियों की यात्राओं और रसद आपूर्तियों के ज़रिए) शामिल हैं. हालांकि दिक़्क़त तब खड़ी होती है जब उत्सर्जन के इन बेहद निम्न आंकड़ों का इस्तेमाल कर ये कहा जाता है कि बिग टेक कंपनियां जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए ज़रूरत से ज़्यादा प्रयास कर रही हैं. इसकी वजह ये है कि भले ही वो बेहद कम मात्रा में उत्सर्जन कर रही हैं लेकिन उन उत्सर्जनों का सामाजिक-आर्थिक प्रभाव काफ़ी विस्तृत होता है. दरअसल विकट परिस्थितियों में जी रहे लोगों की ज़िंदगी और आजीविका पर इन उत्सर्जनों का प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है. उत्सर्जन के इन छोटे अनुपातों की बुनियाद पर इन कारोबारों को उनकी सामाजिक जवाबदेहियों से अलग नहीं किया जा सकता. मिसाल के तौर पर अकेले साल 2019 में माइक्रोसॉफ़्ट से जुड़े तमाम अधिकारियों की कारोबारी यात्राओं के चलते 392,557 मीट्रिक टन ग्रीन हाउस गैस का उत्सर्जन हुआ था. इस तरह के उत्सर्जनों का प्रभाव भौगोलिक और आबादी के हिसाब से काफ़ी विस्तृत इलाक़े पर पड़ता है. इससे उन इलाक़ों में रहने वाले समुदायों पर कुप्रभाव पड़ता है जो मूल्य श्रृंखला में मौजूद होकर अपना योगदान देते हैं.  इनमें ईंधनों के खनन वाले इलाक़े, निर्माण कार्य, प्रॉसेसिंग, परिवहन और दूसरी तमाम गतिविधियों से जुड़े इलाक़े शामिल हैं. उत्सर्जनों के चलते धरती की सतह गर्म हो रही है. इससे पारिस्थितिक असंतुलन पैदा हो रहा है. इससे बाढ़, सूखा जैसी गंभीर और विनाशकारी आपदाओं की तादाद लगातार बढ़ रही है. पर्यावरणीय रूप से नाज़ुक समुदायों पर इसकी बहुत बड़ी मार पड़ रही है. 

जलवायु के मोर्चे पर टेक्नोलॉजी कंपनियों की कार्रवाइयों से जुड़े एक और अहम पहलू की चर्चा ज़रूरी है. यहां सवाल लक्ष्यों को पूरा करने, उत्सर्जन में कमी लाने और नेट-ज़ीरो और समायोजनों (offsets) से जुड़ी घोषणाओं में इस्तेमाल होने वाली गणना पद्धति को लेकर है.  दुनिया भर के वैज्ञानिक पहले ही 2030 तक उत्सर्जन स्तर के शीर्ष पर पहुंचने की चेतावनी जारी कर चुके हैं. ऐसे में समायोजन से जुड़ी पूरी क़वायद तो वैज्ञानिक रूप से ही नुकसानदेह है. इसकी वजह ये है कि इस पूरी क़वायद में एक ओर उत्सर्जन में बढ़ोतरी होती है तो वहीं किसी दूसरी जगह उत्सर्जन के स्तर में गिरावट लाई जाती है. इसके अलावा समायोजन की गुणवत्ता भी सवालों के घेरे में है. कई रिपोर्टों में बताया गया है कि इस कड़ी में उन इलाक़ों में पेड़ लगाए गए हैं जहां कभी जलवायु परिवर्तन का ख़तरा था ही नहीं. ज़ाहिर है ख़ासतौर से वैसी जगहों में पेड़ लगाने की मुहिम से जलवायु के मोर्चे पर कोई फ़ायदा होने की उम्मीद ही नहीं होती. इसी प्रकार अपने लक्ष्यों को ज़मीन पर उतारने और अपनी पूरी मूल्य-श्रृंखला में उत्सर्जन की रोकथाम के लिए टेक्नोलॉजी कंपनियां मूल्य-श्रृंखला से जुड़ा तौर-तरीक़ा अपना रही हैं. हालांकि ये एक स्वागत योग्य क़दम है, लेकिन इस कड़ी में मूल्य-श्रृंखला में किसी को शामिल करने या नहीं करने को लेकर मनमाफ़िक़ रवैया अपनाने की आशंका तो बनी ही रहती है. मसलन ख़रीदारों, विक्रेताओं और यहां तक कि विभिन्न उत्पादों के उपभोक्ताओं को मूल्य श्रृंखला की परिभाषा में शामिल किया जाएगा या नहीं- इसको लेकर संदेह का वातावरण बना ही रहता है. ख़ासतौर से टेक्नोलॉजी कंपनियों के साथ जुड़े लघु, छोटे और मझौले उद्यमों को लेकर इस तरह का असमंजस रहता है. लिहाज़ा जलवायु के मोर्चे पर न्याय से जुड़ा लक्ष्य हासिल करने के लिए एक भरोसेमंद और निष्पक्ष निगरानी ढांचा स्थापित किया जाना निहायत ज़रूरी हो जाता है. 

कई रिपोर्टों में बताया गया है कि इस कड़ी में उन इलाक़ों में पेड़ लगाए गए हैं जहां कभी जलवायु परिवर्तन का ख़तरा था ही नहीं. ज़ाहिर है ख़ासतौर से वैसी जगहों में पेड़ लगाने की मुहिम से जलवायु के मोर्चे पर कोई फ़ायदा होने की उम्मीद ही नहीं होती

बिग टेक कंपनियों द्वारा लॉबिंग का सहारा 

इसके अलावा ये बात भी सामने आई है कि कई मौक़ों पर बिग टेक कंपनियां नियामक व्यवस्थाओं या सार्वजनिक नीतियों और धारणाओं को प्रभावित करने के लिए आक्रामक अंदाज़ में लॉबिंग का भी सहारा लेती रही है. इससे सार्वजनिक नीति निर्माण से जुड़ी पूरी क़वायद में टेक्नोलॉजी की दुनिया के बड़े खिलाड़ियों द्वारा मनमर्ज़ी से छेड़छाड़ किए जाने का ख़तरा पैदा हो जाता है. ज़ाहिर है इन तिकड़मों से इन बड़ी कंपनियों की जलवायु को मद्देनज़र रखकर की गई घोषणाओं और कार्रवाइयों की विश्वसनीयता कमज़ोर पड़ती है. इस सिलसिले में हम अमेरिका की मिसाल ले सकते हैं. ख़बरों के मुताबिक अमेरिका में बिग टेक कंपनियों ने 2020-21 में लॉबिंग पर कुल 6.5 करोड़ अमेरिकी डॉलर की रकम ख़र्च की थी. इसमें से सिर्फ़ 6 प्रतिशत रकम जलवायु के मोर्चे पर कार्रवाइयों के नाम थी. तेल और गैस कंपनियों द्वारा जलवायु के मोर्चे पर सकारात्मक कार्रवाइयों के ख़िलाफ़ पेश की गई राजनीतिक पूंजी के साथ तुलना करके देखने पर हमारे सामने निराश कर देने वाली हक़ीक़त बेपर्दा हो जाती है. दरअसल, ऐसी बड़ी कंपनियों की जलवायु से जुड़ी घोषणाएं बेहद आकर्षक होती हैं. ऐसे में सार्वजनिक नीतियों और धारणाओं के बेपटरी हो जाने का ख़तरा रहता है. असलियत ये है कि ऐसी बड़ी कंपनियां जलवायु से जुड़ी कार्रवाइयों के पूरे विमर्श में किसी तरह का सकारात्मक योगदान नहीं कर रही होती हैं. ज़ाहिर है कि नियम-क़ायदों, नीतियों, लोकमत या जन-धारणाओं को पिछले दरवाज़े से प्रभावित करने के लिए होने वाले प्रयासों पर लगाम लगाए जाने की ज़रूरत है. इसके लिए मज़बूत निगरानी तंत्र और पारदर्शी प्रशासकीय ढांचे की सख़्त आवश्यकता है. 

अमेरिका में बिग टेक कंपनियों ने 2020-21 में लॉबिंग पर कुल 6.5 करोड़ अमेरिकी डॉलर की रकम ख़र्च की थी. इसमें से सिर्फ़ 6 प्रतिशत रकम जलवायु के मोर्चे पर कार्रवाइयों के नाम थी.

ऐसे में जो ठोस सवाल पूछे जाने चाहिए वो ये हैं: क्या ये टेक कंपनियां अपने उपकरणों और उत्पादों के निर्माताओं को फ़ैक्ट्री से होने वाला उत्सर्जन घटाने के लिए मजबूर कर सकती हैं? क्या वो इन निर्माताओं को स्वच्छ ऊर्जा स्रोतों के इस्तेमाल के लिए रज़ामंद कर सकती हैं? और क्या ऐसी बड़ी कंपनियां अपने उपकरणों में इस्तेमाल होने वाले पदार्थों को रिसाइकिल कर उन्हें दोबारा इस्तेमाल में ला सकती हैं? छोटे निर्माता ठेके के आधार पर काम करते हैं, ऐसे में उनके पास किस हद तक स्वच्छ तकनीक अपनाने की क्षमता होगी? अपने मुनाफ़ों के हिसाब से नामुनासिब लागत वहन करने के लिए वो कैसे तैयार हो जाएंगे?

आगे का रास्ता

लिहाज़ा आगे का रास्ता यही है कि हम जलवायु के मोर्चे पर न्याय को एक ऐसा पैमाना मानकर आगे बढ़ें जिसके साथ किसी तरह की छेड़छाड़ न की जा सके. बिग टेक समेत तमाम तकनीकी कंपनियों की कार्रवाइयों को इसी पैमाने के हिसाब से मापे जाने की ज़रूरत है. इस दिशा में पहला बड़ा क़दम तो यही हो सकता है कि जलवायु गतिविधियों को मापने के मौजूदा तौर-तरीक़ों में बदलाव किया जाए. फ़िलहाल कंपनियां सिर्फ़ उत्सर्जन के स्तर या जलवायु अनुकूल नीतियों में किए जाने वाले निवेश के नज़रिए से अपनी जलवायु कार्रवाइयों का हिसाब-क़िताब लगाती हैं. वास्तविक पैमाने में समुदायों के कल्याण की जानकारी देने वाले यानी गुणवत्ता बताने वाले मानकों को जोड़ा जाना चाहिए. इस सिलसिले में ख़ासतौर से उन समुदायों की सुध ली जानी चाहिए जिनपर कंपनी की गतिविधियों की वजह से सबसे बड़ा प्रभाव पड़ रहा हो. उसी तरह जलवायु परिवर्तन के कुप्रभावों की रोकथाम और उभरते वक़्त के हिसाब से ढलने की दिशा में कंपनियों द्वारा किए जा रहे प्रयासों से ऐसे नाज़ुक समुदायों के हितों में हो रही बढ़ोतरी का आकलन भी किया जाना चाहिए. ये तमाम क़वायद तभी मुमकिन हैं जब सामुदायिक जुड़ाव, सामाजिक संवाद, नाज़ुक और कमज़ोर तबकों की पहचान और व्यवस्था के स्तर पर सोच-विचार से जुड़ी पूरी प्रक्रिया को टेक्नोलॉजी कंपनियों के जलवायु से जुड़े प्रयासों में संस्थागत स्वरूप दे दिया जाए. 

ये तमाम क़वायद तभी मुमकिन हैं जब सामुदायिक जुड़ाव, सामाजिक संवाद, नाज़ुक और कमज़ोर तबकों की पहचान और व्यवस्था के स्तर पर सोच-विचार से जुड़ी पूरी प्रक्रिया को टेक्नोलॉजी कंपनियों के जलवायु से जुड़े प्रयासों में संस्थागत स्वरूप दे दिया जाए. 

एक और बात ये है कि बिग टेक कंपनियों की मूल्य श्रृंखला अपने धुंधले और अपारदर्शी  स्वरूप के चलते कुख्यात हैं. दरअसल, बिग टेक कंपनियों के कार्बन प्रभावों की पूरी तस्वीर किसी के पास नहीं है. आंशिक तौर पर इसकी वजह यही है कि उनकी आपूर्ति श्रृंखला इस तरह से स्थापित की जाती है कि शोधकर्ताओं के लिए सटीक आकलन लगाना बेहद मुश्किल हो जाता है. लिहाज़ा बिग टेक में कार्बन उत्सर्जन पर प्रभावी रूप से लगाम लगाने के लिए पहले क़दम के तौर पर उनके वास्तविक कार्बन प्रभावों, उनके स्रोतों और असर का समग्र और पारदर्शी रूप से आकलन किए जाने की ज़रूरत है. 

प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष उत्सर्जनों के अलावा डिजिटल टेक्नोलॉजी के इन किरदारों के लिए दूसरे क्षेत्रों में भी बेहतर तकनीक के इस्तेमाल को बढ़ावा दिए जाने के प्रयास करने की ज़रूरत है. इससे ये तमाम सेक्टर और ज़्यादा टिकाऊ तौर-तरीक़े अपना सकेंगे. ज़ाहिर है इससे वहां का कामकाज सतत विकास के लक्ष्यों के अनुरूप हो सकेगा. बिजली, परिवहन जैसे क्षेत्रों में आसानी से इस तरह के बदलाव लाए जा सकते हैं. इसी तरह कुछ दूसरे अपेक्षाकृत मुश्किल क्षेत्रों में भी टेक्नोलॉजी की मदद से कार्बन प्रभावों की बेहतर निगरानी की जा सकती है. इससे इन सेक्टरों में कार्बन प्रभावों से जुड़ी पूरी क़वायद को मुनासिब मुकाम तक पहुंचाया जा सकता है. 

आख़िर में ये सिर्फ़ एक काल्पनिक धारणा है कि बिग टेक और उपभोक्ताओं से सीधे जुड़ी टेक्नोलॉजी कंपनियां जलवायु परिवर्तन के जानलेवा प्रभावों (जो उनकी गतिविधियों की वजह से ही पैदा होती हैं) से निपटने के लिए वास्तविक रूप से निवेश करती हैं. इस तरह की कंपनियां उपभोक्ताओं के ज़रिए, लोगों का ध्यान खींचकर और समुदायों की क्रय शक्ति के बूते भारी आर्थिक मुनाफ़ा कमाती हैं. लिहाज़ा गतिविधियों की समूची मूल्य श्रृंखला को समेटने वाली और उनकी भीतरी सत्ता के तमाम समीकरणों को मद्देनज़र रखने वाली प्रणाली ही सबसे मुनासिब जान पड़ती है. इसके लिए पूरी व्यवस्था को समेटने वाला रुख़ अपनाना होगा तभी डिजिटल अर्थव्यवस्था में जलवायु कार्रवाइयों को संस्थागत स्वरूप दिया जा सकेगा. इसके साथ ही जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से निपटने की पूरी क़वायद में किसी कंपनी के प्रयासों की पड़ताल के लिए जलवायु के मोर्चे पर न्याय सुनिश्चित करने वाली व्यवस्था को प्रभावी पैमाने के तौर पर इस्तेमाल में लाने की व्यवस्था शुरू करनी होगी. आज ज़रूरत इस बात की है कि जलवायु परिवर्तन और उससे निपटने के तरीक़ों को ज़मीनी तौर पर समुदायों और आम लोगों पर पड़ रहे प्रभावों के ज़रिए समझा जाए. उत्सर्जन और निवेश के मसलों पर बड़े-बड़े और भ्रामक आंकड़ों के ज़रिए इन्हें पेश किए जाने की परंपरा अब ख़त्म होनी चाहिए. 

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