Author : Arya Roy Bardhan

Occasional PapersPublished on May 09, 2024
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कृषि: चावल के निर्यात पर लगे प्रतिबंध का उपयोग देश में क्रॉप-सब्स्टिट्यूशन के लिये किया जाये!

  • Arya Roy Bardhan

    भारत दुनिया में धान यानी चावल का सबसे बड़ा निर्यातक है. अत: वह वैश्विक धान बाज़ार का अहम खिलाड़ी है. वैश्विक स्तर पर चल रहे भू-राजनीतिक तनाव और कमोडिटी कीमतों में बाज़ार में चल रही उथल-पुथल के चलते वैश्विक स्तर पर धान की कमी आने का अनुमान है. इस बात को ध्यान में रखकर भारत ने नॉन-बासमती चावल के निर्यात पर जुलाई 2023 से ही रोक लगा दी है. ऐसा करने की वज़ह यह है कि वह अपने घरेलू ग्राहकों को बढ़ी हुई कीमतों का सामना करने से बचाना चाहता है. इस पेपर में इस बात की पड़ताल की गई है कि निर्यात पर लगी रोक का क्या असर होने वाला है. यह पड़ताल इस पृष्ठभूमि में की जा रही है कि बासमती तथा नॉन-बासमती उत्पादक किसानों के बीच समृद्धि का पुन:बंटवारा कैसे किया जाएगा. इसके साथ ही पेपर का लक्ष्य फसल प्रतिस्थापना तथा व्यवसाय उपायों को लेकर सुझाव देना है. धान उत्पादन में लगने वाले भारी संसाधनों वाली प्रक्रिया को देखते हुए इस पेपर की सिफ़ारिश हैं कि निर्यात-पाबंदी नीति का उपयोग क्लाइमेट-रेज़िलियंट यानी मौसम के प्रति लचीले मिलेट क्रॉप्स अर्थात श्रीअन्न (बाजरा, जौ आदि) को बढ़ावा करने में किया जाए. इस पेपर का सुझाव है कि बासमती चावल पर निर्यात शुल्क लगाकर सूखे एवं जल-कुशल मिलेट को दी जाने वाली मिनिमम सपोर्ट प्राइस (एमएसपी) में वृद्धि की जानी चाहिए. ऐसा होने पर जलसंकट को लेकर भारतीय अर्थव्यवस्था पर पड़ने वाले दबाव को भी कम किया जा सकेगा.

Attribution:

आर्य रॉय बर्धन, “कृषि: चावल के निर्यात पर लगे प्रतिबंध का उपयोग देश में क्रॉप-सब्स्टिट्यूशन के लिये किया जाये!,” ओआरएफ सामयिक पेपर नंबर 431 , मार्च 2024, ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन।

प्रस्तावना

धान, जिसका वैज्ञानिक नाम ओराइज़ा सैटिवा है, को अक्सर आद्रता और गीले मौसम से जोड़कर देखा जाता है. हालांकि यह केवल ट्रॉपिकल जोन्स यानी उष्ककटिबंधीय क्षेत्रों से जुड़ा नहीं होता. कुछ लोगों का मानना है कि धान पूर्वी हिमालयी क्षेत्र में पाई जाने वाली वाइल्ड ग्रास के घराने से जुड़ा है. जबकि कुछ लोगों का विचार है कि 1000 BCE[1]  के आसपास धान की उत्पत्ति दक्षिणी भारत में हुई और वहां से यह उत्तर भारत होते हुए चीन, कोरिया, फिलिपिन्स, जापान और इंडोनेशिया तक पहुंच गया. "राइस प्लांट"[2] के लिए मलय शब्द, पैडी, का उपयोग राइस यानी धान का नाम बदलकर इस्तेमाल करने के लिए किया जाता है. इसका उपयोग विशेषत: धान उत्पादन करने वाले ख़ेत का उल्लेख करने के लिए किया जाता है. दुनिया भर में अपने पैर जमाने में धान को भले ही काफ़ी वक़्त लग गया हो, लेकिन अब यह एक प्रायमरी यानी प्राथमिक कृषि एवं आर्थिक उत्पाद बन गया है. बुनियादी भोजन का अहम हिस्सा होने के अलावा धान से अनेक रेडी-टू-ईट उत्पाद जैसे पफ्ड राइस यानी मुरमुरे का निर्माण भी किया जाता है. इसके अलावा राइस हस्क (धान का छिलका), स्ट्रा (धान का भुसा) का उपयोग जानवर एवं पोल्ट्री खाद्य के रूप में किया जाता है. जबकि राइस ब्रान ऑयल का उपयोग सोप यानी साबून उद्योग में होता है. इस कृषि उपज के वैश्विक स्तर पर डाइट्स यानी आहार, संस्कृति एवं इकोनॉमिक लाइफस्टाइल्स पर पड़ने वाले प्रभाव को देखते हुए संयुक्त राष्ट्र (UN) ने 2004 को‘इंटरनेशनल ईयर ऑफ राइस’के रूप में मान्यता दी थी.[3] धान, लगभग 3.5 बिलियन लोगों के आहार का हिस्सा है.[4] इसमें भी एशिया में सबसे ज़्यादा लोग अपने रोजमर्रा के जीवन में राइस का उपयोग करते हुए ही अपनी दैनिक कैलोरी को हासिल करते हैं.[5] हालांकि धान का उत्पादन 100 से ज़्यादा देशों में होता है, लेकिन इसमें एशिया के उत्पाद की हिस्सेदारी 90 प्रतिशत की है.[6] वैश्विक स्तर पर आबादी बढ़ने के साथ ही धान की मांग में भी इज़ाफ़ा होगा. इसकी वज़ह से वैश्विक कृषि श्रृंखला (ग्लोबल एग्रीकल्चरल चेन) पर धान उत्पादन बढ़ाने का दबाव भी बढ़ेगा. विभिन्न बाज़ार घटकों में हुई उथल-पुथल, COVID-19 के बाद के दौर में धान की वैश्विक स्तर पर आपूर्ति में देखे गए दबाव के साथ ही यूक्रेन-रूस संघर्ष और अन्य भू-राजनीतिक विवादों ने धान बाज़ार पर पड़ने वाले दबाव को और भी बढ़ा दिया है.[7] लेकिन वर्ष 2023-24 में वैश्विक धान उत्पादन में 1.3 फीसदी का सुधार आने की उम्मीद है. इसकी वज़ह यह है कि धान उत्पादकों को अच्छा मूल्य मिल रहा है, खाद की कीमतों में गिरावट देखी जा रही है और सरकार की ओर से सब्सिडी के माध्यम से होने वाली सहायता जारी है.[8]
सतत विकास के लक्ष्यों (SDGs) को हासिल करने में धान की अहम भूमिका है. ग्लोबल वैल्यू चेन में आर्थिक रूप से कमज़ोर 900 मिलियन लोग धान के साथ या तो उत्पादक अथवा ग्राहक के रूप में जुड़े हुए हैं. इसके अलावा 400 मिलियन लोग धान उत्पादन से सीधे जुड़े हुए हैं.[9] उत्पादन में वृद्धि और घटते दामों के कारण आर्थिक रूप से कमज़ोर ग्राहक लाभान्वित होते हैं. यह स्थिति विकास की कड़ियों के माध्यम से आर्थिक उन्नति में अहम भूमिका अदा करती है. एशिया में कमज़ोर तबके के अधिकांश लोगों के लिए कैलोरी उपभोग का 70 फीसदी[10] माध्यम होने की वज़ह से धान वैश्विक भूखमरी से निपटने में अहम भूमिका अदा करता है. धान की वज़ह से खाद्यन्न सुरक्षा मुहैया करवाने के साथ-साथ न्यूट्रिशनल बेनिफिट्‌स में भी इज़ाफ़ा किया जा सकता है. SDG-1 (भूखमरी मिटाने) तथा SDG-2 (जीरो हंगर यानी शुन्य भूखमरी) में सीधे-सीधे योगदान के अलावा धान और उसकी उत्पादन प्रक्रिया SDG-5 (जेंडर इक्वॉलिटी यानी लिंग समानता) पर अंतर्निहित प्रभाव डालती है. इसी प्रकार SDG-6 (शुद्ध पेय जल एवं सैनिटेशन यानी स्वच्छता), SDG-8 (उपयुक्त कार्य तथा आर्थिक उन्नति), SDG-12 (ज़िम्मेदाराना उपभोग तथा उत्पादन), SDG-13 (जलवायु कार्रवाई) एवं SDG-15 (पृथ्वी पर जीवन) पर भी इसका अंतर्निहित पड़ता है.[11] उदाहरण के लिए धान खेती, प्रसंस्करण एवं विपणन में अहम भूमिका अदा करने के बावजूद महिलाओं को सूचना, प्रौद्योगिकी एवं प्राथमिक सुविधाओं को हासिल करने में काफ़ी दिक्कतों का सामना करना पड़ता है. सिंचित धान खेतों को विश्व में सिंचित जल का 35 फीसदी जल मिलता है[12], जिसे देखते हुए धान उत्पादन की प्रक्रिया में वॉटर-सेविंग मैनेजमेंट टेक्नोलॉजिस्‌ एवं सस्टेनेबल क्रॉपिंग मेकैनिज्म्स्‌ यानी लचीले कृषि तंत्र पर ध्यान दिया जाना बेहद ज़रूरी हो जाता है. जैसे-जैसे जल की उपलब्धता घटती जा रही है और तापमान में इज़ाफ़ा हो रहा है, वैसे-वैसे धान क्षेत्र की सस्टेनेबिलिटी यानी स्थिरता पर सवालिया निशान लगता जा रहा है. इसी बात को ध्यान में रखकर अब धान उद्योग को सस्टेनेबल यानी स्थिर उपभोग एवं उत्पाद प्रक्रियाओं को अपनाना होगा. राइस वैल्यू चेन को अधिक सस्टेनेबल प्रैक्टिसेस्‌ के साथ रिअलाइन करने यानी फिर से संगठित करने के लिए अंतर्राष्ट्रीय सहयोग आवश्यक है. इसमें मुख्यत: खेतों में अपनाई जाने वाली नवोचार और व्यावहारिक अनुसंधान पर ध्यान देना होगा (इसके लिए SDG-17-ससत विकास के लिए वैश्विक साझेदारी को पुख़्ता करने के माध्यम को सशक्त बनाकर नवसंजीवनी देना).


ऐसा अनुमान है कि 2024 में भारत की धान अर्थव्यवस्था US$51.58 बिलियन की बन जाएगी.[13] विश्व में भारत दूसरा सबसे बड़ा धान उत्पादक होने के साथ सबसे बड़ा धान निर्यातक है. ,[14],[15]  वैश्विक धान कारोबार में भारत 40 फ़ीसदी का योगदान देता है. ये पेपर भारत के धान बाज़ार पर केंद्रित है. इसमें उस बाज़ार के ढांचे , उसकी प्रक्रिया, एजेंट्स तथा संस्थानों पर नज़र डाली गई है. इसके अलावा इसमें जुलाई 2023 में नॉन-बासमती चावल (रोज़ाना उपयोग वाला इकोनॉमिक क्वॉलिटी का धान/चावल) के निर्यात पर लगाई गई पाबंदी पर भी बात की गई है. सरकार ने यह पाबंदी घरेलू बाज़ार में चावल के मूल्यों को स्थिर करने के लिए उद्देश्य से लगाई थी. इसके अलावा इस पेपर में बासमती (धान की प्रीमियम क्वॉलिटी) के निर्यात पर लगी पाबंदी से होने वाले दुष्परिणाम और नॉन-बासमती धान उत्पादकों की आय के बीच के अंतर पर भी चर्चा की गई है. इस पेपर में मांग-आपूर्ति को लेकर थियोरेटिकल फ्रेमवर्क यानी सैद्धांतिक ढांचे को पेश किया गया है. इसके माध्यम से भारत के ग्राहक और धान उत्पादकों पर पाबंदी के असर का आकलन किया गया है. यहां पर फसल प्रतिस्थापना की आवश्यकता को उजागर करने के लिए बासमती के अत्यधिक जल उपयोगी प्रकृति पर ध्यान आकर्षित किया गया है. फसल प्रतिस्थापना पर अमल करने से भारत के समक्ष मंडरा रही भीषण जलसंकट की समस्या से निपटा जा सकेगा. इसके अलावा दूसरे सैद्धांतिक ढांचे के माध्यम से धान उत्पादन से जुड़ी भारी पर्यावरणीय कीमत के मुद्दे पर ध्यान आकर्षित किया गया है. इसे रोकने के लिए सूखी फसल के उत्पादन को बढ़ावा देना और निर्यात पाबंदी का इसके पक्ष में इस्तेमाल करना ज़रूरी है. इस पेपर में सूखी, मौसम-लचीली मिलेट फसल को बढ़ावा देने की सिफ़ारिश की गई है, ताकि कम सामाजिक मूल्य चूकाते हुए बेहद न्यूट्रिशनल सिक्योरिटी हासिल की जा सकें.

 

भारत की धान मूल्य श्रृंखला


भारत दुनिया में चीन के बाद दूसरा सबसे बड़ा धान उत्पादक है. भारत के पास पुरातन धान की विभिन्न प्रजातियों के साथ के साथ जैव विविधता भी उपलब्ध है. ऐसे में भारत में धान उत्पादन बहु आयामी कहा जा सकता है. यह मौसम की पैटर्न से जुड़ा हुआ है और धान को उपभोग योग्य चावल बनाने में एक सुनियोजित प्रक्रिया का पालन किया जाता है,  जिसमें मिलिंग के विभिन्न चरण शामिल हैं. इसके बावजूद भारत का धान उद्योग और निश्चित ही उसका कृषि क्षेत्र, उत्पादकता को लेकर अहम चुनौतियों और दबाव का सामना करता है. उदाहरण के लिए बासमती और नॉन-बासमती धान उत्पादकों के बीच महत्वपूर्ण आर्थिक विषमताएं देखी जाती है. ये विषमताएं भारतीय धान मूल्य श्रृंखला के भीतर मौजूद चुनौतियों और अवसरों को उजागर करती है. सरकारी नीति, ख़रीद प्रणाली और बाज़ार के डायनामिक्स यानी गतिविज्ञान का आकलन किया जाए तो भारतीय धान उद्योग के समक्ष मौजूद जटिल विशेषताओं को समझा जा सकता है.



प्रक्रियाएं


भारत में कृषि भूमि पर सर्वाधिक धान की फसल ली जाती है और भारत दुनिया में धान का दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक है.[16] एक ओर जहां इंडिका किस्म का धान उत्तर पूर्वी भारत से आने की बात कही जाती है, वही दूसरी ओर जापोनिका किस्म का धान दक्षिणी चीन के वाइल्ड राइस क्षेत्र से होते हुए भारत पहुंचने की बात कही जाती है.[17] वेदों में भी धान के सांस्कृतिक महत्व का उल्लेख मिलता है और आज भी अनेक घरों में धान को संपत्ति और उत्पत्ति का प्रतीक माना जाता है.[18] लेकिन धान की उत्पादन प्रक्रिया में विगत अनेक सदियों में काफ़ी पुनर्गठन होते देखा गया है.


धान को प्रमुखता से तीन मौसमों में उगाया जाता है.  इसका वर्गीकरण फसल की कटाई के मौसम के हिसाब से किया गया है. इसमें शरद ऋतु, सर्दी और गर्मी शामिल हैं. शरद ऋतु अथवा खरीफ़ पूर्व धान की बुवाई मई से अगस्त के बीच होती है और कुल फसल उत्पादन में इसका सात फ़ीसदी हिस्सा है. हालांकि मुख्य धान उत्पादन का मौसम, जिसमें कुल धान उत्पादन का 84 फ़ीसदी धान पैदा होता है, को सर्दी में बोया जाता है. इसे खरीफ़ सत्र में नवंबर से दिसंबर के बीच काट लिया जाता है. मार्च और जून के बीच गर्मी में अथवा रबी सत्र में लिए काटे जाने वाले धान की वार्षिक धान उत्पादन में 9 फ़ीसदी हिस्सेदारी है. लेकिन इस फसल के दौरान काटे जाने वाला धान मानव उपयोग के लायक नहीं होता. पॉलिश्ड राइस अथवा चावल बनाने के लिए धान को मिलिंग में भेज कर उसका चोकर और छिलका निकालना पड़ता है. मिलिंग प्रक्रिया में प्री -क्लीनिंग,  डिस्टोनिंग, पर बॉयलिंग, हस्किंग, हस्क एस्पिरेशन, पैडी सेपरेशन, व्हाइटनिंग, पॉलिशिंग, लेंथ ग्रेडिंग, ब्लेंडिंग, वेइंग और बैगिंग का समावेश है.

बासमती और नॉन बासमती किसानों के वितरण ढांचे पर विचार कीजिए.[19] बासमती का आम तौर पर बड़े पैमाने पर उत्पादन होता है. बड़े पैमाने पर धान उत्पादन करने वाले किसान पंजाब, हरियाणा और पश्चिम बंगाल में पाए जाते हैं, जबकि नॉन बासमती की फसल लेने वाले किसान आमतौर पर छोटे धान उत्पादक होते हैं जो विभिन्न धान उत्पादक शेष राज्यों में अलग-अलग हिस्सों में फ़ैले हुए हैं. धान लेने के पैमाने में वृद्धि का मतलब इन उत्पादकों पर लागत ख़र्च का बोझ बढ़ना होता है, लेकिन ऐसा करने से वे धान मूल्य श्रृंखला के नेटवर्क के साथ बेहतर तरीके से जुड़कर अपनी पहुंच को विस्तारित कर सकते हैं. ऐसा होने पर उन्हें मोल भाव करने की अधिक क्षमता हासिल होती है और नॉन बासमती चावल उत्पादकों को अपनी फसल के लिए बेहतर मूल्य मिलता है. इस पेपर की दृष्टि से यह एक महत्त्वपूर्ण मुद्दा है. इसके बारे में आगे विस्तार से बात की जाएगी.

उत्पादकता एवं समस्याएं

भारत के पास दुनिया की कृषि योग्य भूमि में से 11.2 फ़ीसदी भूमि है. US और चीन के बाद भारत, विश्व का कितना सबसे बड़ा अनाज उत्पादक देश है. कृषि उपज के मामलों में भारत विश्व का नेतृत्व कर रहा है और यह व्यावसायिक उपज और पशुधन के मामले में बेहद बेहतर कर रहा है. भारत के पास धान के तहत आने वाला सर्वाधिक कृषि क्षेत्र है. चीन के मुकाबले यह लगभग 50% से ज़्यादा है धान फसल बोने के बावजूद भारत दुनिया में धान उत्पादक देशों के मामले में दूसरे नंबर पर आता है.
इसका कारण भारत में कम पैदावार को माना जा सकता है. भारत में प्रति हेक्टेयर 2809 किलोग्राम धान की उपज होती है (देखें टेबल 2)

टेबल 1: विश्व के 10 सबसे बड़े धान उत्पादक देश (2020 में)



स्रोत: कृषि सांख्यिकी पर एक नज़र (2020)[20]

अनाज बाज़ार वैश्विक स्तर पर मूल्य में होने वाले उतार चढ़ाव और प्राकृतिक आपदाओं को लेकर अतिसंवेदनशील रहता है. इन कारणों की वज़ह से आपूर्ति में आने वाली अप्रत्याशित कमी के साथ घरेलू खाद्यान्नों की कीमतों में तेज़ी से वृद्धि हो सकती है. भारतीय धान बाज़ार के लिए उपरोक्त बात सही है, लेकिन इस बात को भी ध्यान में रखना चाहिए कि कम उत्पादकता के कारण ही भारत के पास उपलब्ध विशाल धान उपज वाले क्षेत्र की वास्तविक क्षमता का दोहन करने में परेशानी आ रही है. इसे देखते हुए भारत में कम धान उत्पादकता से जुड़े कारणों का विश्लेषण आवश्यक हो जाता है. चित्र 1 में यह साफ़ हो जाता है कि भारत को आजादी मिलने के बाद धान की पैदावार में काफ़ी वृद्धि हुई है, लेकिन जब इसकी तुलना वैश्विक दर से की जाए तो यह बेहद कम है. और यह बात कृषि नीति निर्माताओं के लिए चिंता का विषय होना चाहिए.

चित्र 1 : भारत में धान की उत्पादकता/पैदावार ( किलो/ हेक्टेयर, 1961-2021)



स्रोत: इंडिया स्टैट[21] एंड अवर वर्ल्ड ऑर्डर इन डाटा[22]

टेबल 1 यह दर्शाता है कि कैसे विभिन्न राज्यों में धान की पैदावार अलग-अलग होती है. पंजाब में प्रति हेक्टेयर सर्वाधिक धान की पैदावार होती है. कृषि उपज के तहत आने वाले आधे से ज़्यादा क्षेत्र में वर्षा पोषित पारिस्थितिकी प्रणाली है, जबकि उच्च पैदावार देने वाली धान की किस्म सिंचित पारिस्थितिकी व्यवस्था के लिए उपयुक्त है.[23] उच्च पैदावार वाली किस्म खाद के उपयोग के लिए रिस्पॉन्सिव यानी उत्तरदायी होती है. इसके बावजूद खाद उपयोग को लेकर क्षेत्रीय असंतुलन इन किस्मों की क्षमता को सीमित करता है. इसकी वज़ह से भारत में उसके दक्षिण एशिया सहयोगियों के मुकाबले बेहद कम पैदावार देखी जाती है. इसके अलावा वर्षा पोषित पारिस्थितिकी में जटिल ढांचे की अपनी ही मांग होती है. इस मांग के अनुरूप तकनीक को भारत में अभी अपनाया जाना शेष है. कृषि क्षेत्र के तहत आने वाला लगभग 15 फ़ीसदी क्षेत्र बाढ़ ग्रस्त इलाकों में आता है जिसकी वज़ह से पैदावार में अस्थिरता हमेशा बनी ही रहती है. कमज़ोर प्रबंधन व्यवस्था और सिंचाई को लेकर अपर्याप्त सुविधाओं की वज़ह से पैदावार प्रक्रियाओं से जुड़े ख़तरे और भी बढ़ जाते हैं. भारत में कम पैदावार से जुड़े अनेक प्राथमिक कारण है. इसकी वज़ह से अंतिम स्टॉक की उपलब्धता को लेकर अनिश्चित बनी रहती है और सरकार को सहयोग तंत्र के तहत हस्तक्षेप करना पड़ता है. यह हस्तक्षेप व्यापार संबंधित उपाय से जुड़ा होता है.

टेबल 2: भारत के प्रमुख धान उत्पादक राज्य (2020-21 and 2021-22)

 
स्रोत: कृषि सांख्यिकी पर एक नज़र (2022)[24]

सरकार का दृष्टिकोण


धान ख़रीद प्रक्रिया की जांच से ही भारतीय धान बाजार की छान बीन की जा सकती है. केंद्रीय पूल (राज्य और केंद्र सरकार की ओर से ख़रीदे गए धान का स्टॉक) के लिए फूड कॉरपोरेशन आफ इंडिया (FCI) तथा राज्य सरकार की विभिन्न एजेंसियां (SGA's) धान की न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) पर ख़रीद करती है.[25] ख़रीद का लक्ष्य पैदावार अनुमान,  विपणन योग्य सरप्लस और संभावित क्रॉप पैटर्न्स को देखकर तय किया जाता है. SGAs राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून (NFSA) तथा अन्य कल्याणकारी योजनाओं के तहत FCI के साथ विचार विमर्श के बाद धान की ख़रीद करते हैं. केंद्रीयकृत योजना के तहत धान की खरीद सीधे FCI या SGAs की ओर से की जाती है. यह दोनों एजेंसियां बाद में ख़रीदे गए धान को FCI को सौंप देती है जो विभिन्न राज्य सरकार के माध्यम से चलने वाली कल्याणकारी योजनाओं के तहत इसका वितरण करती है. केंद्र सरकार, को ख़रीद पर हुए ख़र्च की प्रतिपूर्ति  करती है. विकेंद्रीकृत ख़रीद व्यवस्था (DCP) SGAs को धान की खरीद और अपने राज्य में उसके वितरण करने की सुविधा प्रदान करती है. केंद्र सरकार बाद में ख़रीद पर हुए संपूर्ण ख़र्च को पहले से तय मूल्य के हिसाब से SGAs को भुगतान कर देती है. DCP की व्यवस्था को परिवहन शुल्क कम करने और ख़रीद क्षमता को बढ़ाने के लिए अपनाया गया था.

टेबल 3 : केंद्रीय पूल के लिए धान ख़रीद (1999-2023)

 
स्रोत : इंडिया स्टैट[26]

2014-15 से पहले धान ख़रीद की दो पद्धतियों पर काम होता था. पहला था कस्टम मिल्ड राइस (CMR) और दूसरा था लेवी राइस पॉलिसी.[27] CMR के तहत FCIs और SGAs सीधे किसानों से MSP पर धान की ख़रीद करते थे और पहले से पंजीकृत मिलर्स को उसमें से चावल निकालने का ठेका सौंप देते थे. लेवी पॉलिसी के तहत राज्यों को केंद्रीय पुल में चावल का एक पूर्व निर्धारित प्रतिशत तय करने का अधिकार था,  जो मिलर्स को उन्हें देना होता था. लेकिन लेवी पॉलिसी में दो अहम ख़ामियां थी. पहली ख़ामी गुणवत्ता को लेकर अनिश्चित की थी जबकि दूसरी ख़ामी किसानों को MSP पर भुगतान सुनिश्चित करने को लेकर कोई पुख़्ता इंतजाम नहीं होने को लेकर थी. अतः एक अक्टूबर, 2015 को सरकार ने लेवी पॉलिसी को ख़त्म कर दिया. अब FCI और SGAs को किसानों से MSP पर सीधे धान ख़रीदने का एकल अधिकार मिल गया.


चित्र 2 : धान का न्यूनतम समर्थन मूल्य ( INR/quintal में, 2010-2024)



स्रोत : कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय[28] तथा फार्मर्स पोर्टल[29]


केंद्र सरकार ने तय किया कि 1 जनवरी, 2023 से अंत्योदय अन्न योजना के तहत आने वाले परिवारों और प्रायोरिटी हाउसहोल्ड बेनिफिशियरीज यानी प्राथमिकता परिवार के लाभार्थियों को एक वर्ष तक निशुल्क अनाज दिया जाएगा. [a],[30] NFSA के तहत केंद्र सरकार द्वारा आज भी जारी होने वाले धान का मूल्य पूर्व निर्धारित रूप से  INR 3 प्रति किलो ही है. ख़रीद प्रक्रिया के तहत केंद्रीय पूल के लिए अधिग्रहित धान के बाद बचे हुए स्टॉक को खुले बाज़ार में उपलब्ध करवाया जाता है. यही वह स्थान है जहां किसान और मूल्य श्रृंखला से जुड़ी अन्य इकाइयां पारिश्रमिक-संबंधी भाव का लाभ उठा सकते हैं. यहां पर ही NFSA के 800 मिलियन लाभार्थियों[31] के अलावा बचे हुए एक तिहाई आबादी के लोग धान बाज़ार में उतारकर बाज़ार संचालित दाम पर ख़रीद फरोख्त कर सकते हैं. इसकी वजह से ही अंतरराष्ट्रीय धान बाज़ार के ढांचे की जांच करना आवश्यक हो जाता है.

ग्लोबल राइस ट्रेड का वर्तमान ढांचा

वैश्विक धान पैदावार का कुल 10% धान[32] ही राइस ट्रेड यानी कारोबार में शामिल है. इसमें एशिया की 86.56 फ़ीसदी पैदावार का समावेश है. दुनिया में धान का सबसे बड़ा उत्पादक होने के बावजूद वैश्विक निर्यात में चीन की हिस्सेदारी बेहद कम है. (चित्र 3 देखें) इतना ही नहीं चीन दुनिया का सबसे बड़ा धान आयातक भी है, क्योंकि वहां की दो तिहाई आबादी अपने आहार के लिए चावल पर ही निर्भर करती होती है.[33]

चित्र 3 : सबसे बड़े धान निर्यातक देश  (2006-2023)


स्रोत :  USDA[34]

सब-सहारन अफ्रीका धान का सबसे बड़ा आयातक है. वैश्विक आयात में उसकी हिस्सेदारी 30% है, जो एशिया में होने वाली आयात की मांग से थोड़ी ज़्यादा है. पश्चिम एशिया धान का बड़ा आयातक है, जिसकी धान उपभोग में हिस्सेदारी 37.8 प्रतिशत की है.[35] EU और उत्तरी अमेरिका धान की रिकॉर्ड आयात करते हैं, लेकिन उनकी इस फसल पर निर्भरता उनके आर्थिक रूप से कमज़ोर सहयोगियों के मुकाबले काफ़ी कम है. वैश्विक आयात ढांचा धान के एक महत्वपूर्ण पहलू को उजागर करता है. वह यह है कि विकासशील क्षेत्र अपने आहार में धान पर अत्यधिक निर्भर करते हैं. यह याद रखना चाहिए कि यह एक संभावित ट्रेड की ओर इशारा कर रहा है इसे लेकर अभी कुछ ठोस नहीं कहा जा सकता. हालांकि, एशियाई देशों के कमज़ोर तबके अपने कैलोरी इंटेक के लिए धान पर ही अत्यधिक निर्भर रहते हैं. यह बात खाद्य सुरक्षा में धान की महत्वपूर्ण भूमिका को अधोरेखित करती है.



ग्लोबल राइस मार्केट में भारत


भारत दुनिया का सबसे बड़ा धान निर्यातक (2012 से) है. उसका निर्यात 2020 में बढ़कर 49% और 2021 में 46 परसेंट हो गया 2022 में भारत ने 22.1 मिलियन टन धान का निर्यात किया.[36] अपने यहां बढ़ रही आबादी को देखते हुए भारत को घरेलू खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करनी है. विकासशील अर्थव्यवस्था में अग्रणी बने रहने और ग्लोबल साउथ के देशों के सहयोगी के तौर पर भारत को परोक्ष अथवा अपरोक्ष सहयोग उस समय भी जारी रखना होगा जब वैश्विक स्तर पर उथल-पुथल मची हो. यह स्थिति भारत को अपनी विदेश नीति में कड़े फ़ैसले, विशेषता कृषि कारोबार पर पाबंदियों से जुड़े, लेने से रोकती है.

इस पेपर में चावल की चार श्रेणियों पर विचार किया गया है (यह ट्रेड में उनकी हिस्सेदारी और पैदावार पर आधारित है): बासमती चावल  (HS Code 10063020), परबॉयल्ड चावल  (HS Code 10063010), पार बॉयल्ड चावल से इतर चावल (बासमती को छोड़कर) (HS Code 10063090), तथा ब्रोकन राइस  (HS Code 10064000). 2022-23 में उपरोक्त चार कैटेगरी के चावल का ही भारत से होने वाले निर्यात में लगभग 98 फ़ीसदी की हिस्सेदारी थी.[37] इसमें बासमती की हिस्सेदारी सर्वाधिक 43% थी.  इसके बाद पार बॉयल्ड चावल ( 27 फ़ीसदी ) और पार बॉयल्ड से इतर चावल (20%) और ब्रोकन राइस की हिस्सेदारी 8% की थी.

चित्र 4 : भारत से चावल के मुख्य निर्यात गंतव्य ( US$, 2022 में)



स्रोत:  ITC[38]

भारत की चावल निर्यात पर पाबंदियां


COVID-19 महामारी और रूस तथा यूक्रेन के बीच चल रहे संघर्ष ने वैश्विक खाद्यान्न श्रृंखला को आपूर्ति संबंधी तगड़े झटके दिए हैं, जिसके चलते अंतरराष्ट्रीय स्तर पर खाद्य मुद्रास्फीति यानी खाद्यान्न कीमतों में महंगाई देखी जा रही है.[39] ऐसे में विशुद्ध कृषि माल के निर्यातकों को चुनौतियों का सामना करना पड़ता है, क्योंकि उनके यहां घरेलू खाद्यान्न सुरक्षा पर ख़तरा बढ़ने लगा है. इस स्थिति में एक पर्यायी उपाय यह हो सकता है कि बाहरी संतुलन को छोड़कर घरेलू मूल्य स्थिरता और खाद्यान्न सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए निर्यात पर पाबंदी लगा दी जाए. इसी समस्या से निपटने के लिए भारत ने 8 सितंबर 2022 को नॉन बासमती चावल के निर्यात पर 20% निर्यात शुल्क लगाने का फ़ैसला  किया था. निर्यात शुल्क के बावजूद नॉन बासमती व्हाइट राइस का निर्यात बढ़ा ही था, क्योंकि भू-राजनीतिक तनाव और प्रतिकूल मौसम परिस्थितियों की वज़ह से अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चावल की कमी देखी जा रही थी. 9 जनवरी, 2022 को ब्रोकन राइस के निर्यात पर भी पाबंदी लगा दी गई. ब्रोकन राइस का उपयोग जानवरों के चारे और इथेनॉल निर्माण में किया जाता है.[40]  घरेलू चावल के मूल्यों को स्थिर रखने के लिए सरकार ने 20 जुलाई, 2023 को नॉन बासमती व्हाइट राइस के निर्यात पर पाबंदी लगा दी.[41] सरकार ने ये पाबंदी चावल की अन्य श्रेणियां की निर्यात नीति के साथ छेड़छाड़ किए बगैर लगाई थी ताकि अंतरराष्ट्रीय मूल्य से होने वाला लाभ भारतीय किसानों को भी मिल सके. भारतीय सरकार ने निर्यात पर पाबंदी घरेलू ग्राहकों को मूल्य वृद्धि के झटको से बचाने और भारतीय किसानों को स्पर्धात्मक मूल्य का फ़ायदा पहुंचाने के लिए लगाई थी.

इस श्रेणी के चावल पर लगी निर्यात बंदी की वज़ह से सर्वाधिक प्रभावित देशों की पहचान करने के लिए यह आवश्यक है कि हम पहले सबसे बड़े आयातकों की पहचान कर ले. भारतीय निर्यात में हिस्सेदारी के हिसाब से 2021-22 तक घटते क्रमानुसार 10 सबसे बड़े आयातक इस प्रकार हैं. नेपाल, मेडागास्कर, बेनिन, वियतनाम, मलेशिया, कैमरून, यूनाइटेड अरब एमिरेट्स, टोगो मोजांबिक और कोत दिव्वार.

निर्यात पाबंदी लगने से पहले भारत का ब्रोकन राइस निर्यात 4 वर्षों में लगभग 43 गुना बढ़ गया था.[42] अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बढ़ी हुई मांग की आपूर्ति करने की वज़ह से भारतीय बाज़ार में ब्रोकन राइस की भारी कमी देखी जा रही थी. पशुपालन एवं पोल्ट्री उद्योग में ब्रोकन राइस की अहमियत को देखते हुए यह हस्तक्षेप घरेलू स्टॉक को संरक्षित करने और मूल्यों को स्थिरता प्रदान करने के लिए ज़रूरी हो गया था. इसी प्रकार ब्रोकन राइस का इथेनॉल ब्लेंडिंग में उपयोग होने से इथेनॉल डिस्टलरीज का आउटपुट यानी उत्पादन भी गतिहीन यानी स्थिर हो गया था. 5 वर्षों के दौरान औसतन 15.14% की खुदरा मूल्य वृद्धि के कारण निर्यात पाबंदी व्यवहार्य विकल्प बन गया था.[43]  2021-22 में ब्रोकन राइस के शीर्ष आयातकों में चीन, सेनेगल, वियतनाम,  जिबूती, इंडोनेशिया, कोत दिव्वार, गांबिया, कैमरून,  बेलारूस तथा बेनिन शामिल थे.

चित्र 5 : 2021-22 में भारत से ब्रोकन राइस के 10 सबसे बड़े आयातक (आयात  प्रतिशत में हिस्सेदारी के हिसाब से)



स्रोत: वाणिज्य विभाग[44]

अफ्रीकी देश भारतीय चावल के बड़े आयातक हैं. ऐसे में व्यापार में किसी तरह का भी व्यावधान हो, चाहे वह शुल्क संबंधी हो या फिर पाबंदी से जुड़ा, अफ्रीकी बाज़ार पर बड़ा गहरा असर डालता है. भारत का फ़ैफैसला वैश्विक स्तर पर कीमतों को बढ़ाने का कारण बनेगा, जो अफ्रीकी देशों को असमान रूप से प्रभावित करेगा और इसके चलते वहां खाद्य सुरक्षा को लेकर समस्या गहराती चली जाएगी. इसी प्रकार जैसा कि भारत में देखा गया था ब्रोकन राइस की कमी के कारण पोल्ट्री तथा पशुपालन क्षेत्र भी सिकुड़ता दिखाई देगा जिसके चलते खाद्यान्न की कमी और बढ़ती जाएगी.[45] उल्लेखनीय है कि भारत ने कमज़ोर और भारतीय चावल पर बड़े पैमाने पर आश्रित रहने वाले देशों को अनाज आपूर्ति की व्यवस्था के उपाय कर रखे हैं. भारत नियमित रूप से अफ्रीकन और एशियाई देशों को अनाज के कन्साइनमेंट भेज रहा है.[46]

चित्र 6 : 2021-22 में भारत से नॉन बासमती व्हाइट राइस के 30 सबसे बड़े आयातक

 
स्रोतवाणिज्य विभाग[47]



पृष्ठभूमि


2010 से भारत धान की सरप्लस पैदावार के साथ आत्मनिर्भर हुआ है. (देख चित्र 7) 2023-24 के ख़रीफ विपणन सत्र में 52.12 मिलियन मेट्रिक टन धान की ख़रीद होने की उम्मीद थी. इससे पिछले वर्ष में इसी सत्र के दौरान 49.6  मिलियन मेट्रिक टन धान की ख़रीद की गई थी.[48] निर्यात पर लगी पाबंदी के पश्चात घरेलू मुद्रास्फीति के कमज़ोर पड़ने के साथ उपभोग में तेज़ी आने की संभावना है.  इसकी वज़ह से वार्षिक चावल उपभोग तथा बचत  के 2023-24 में रिकॉर्ड 115 मिलियन मेट्रिक टन पहुंचने की संभावना है.[49]

चित्र 7: भारत में चावल की पैदावार और उपभोग (1000 मेट्रिक टन में, 1960-2023)



स्रोत : इंडिया स्टैट[50] तथा इंडेक्स मंडी[51]

भारत में पैदा होने वाले औसतन 130 मिलियन टन चावल में से लगभग 55 मिलियन धान को सरकारी कल्याणकारी योजनाओं के तहत वितरण के लिए सरकार ही ख़रीद लेती है. (देखें टेबल 3) 20 मिलियन टन से ज़्यादा का निर्यात किया जाता है, जबकि 55 मिलियन तन घरेलू बिक्री एवं रिजर्व के लिए बचता है. चूंकि भारत में घरेलू उपभोग का अनुमान लगभग 110 मिलियन टन के आसपास का है, अतः देश में चावल की कोई गंभीर कमी नहीं है. भारत में पर्याप्त आपूर्ति और रिकॉर्ड धान उत्पादन के बावजूद सितंबर 2021 से कीमतों में लगातार तेज़ी देखी जा रही है. (देखें चित्र 8) कीमतों में पिछले दो वर्षों में लगभग 20% की वृद्धि देखी गई है, जबकि अक्टूबर 2023 में कीमत 42.57 रुपए प्रति किलो के रिकॉर्ड स्तर पर पहुंच गई थी. इस वृद्धि को 2019-20 से ख़रीद की मात्रा में आई तेज़ी के साथ भी जोड़कर देखा जा सकता है.(देखें टेबल 3) एक और जहां पैदावार में इज़ाफ़ा हुआ है, वही ख़रीद में भी 17% की वृद्धि देखी गई है. इस वज़ह से खुले बाज़ार में आपूर्ति की कमी के कारण दाम में उछाल देखा गया. 

 

चित्र 8 : चावल का अखिल भारतीय औसत खुदरा मूल्य (रूपए/किलो)



स्रोत: ग्राहक मामलों का विभाग[52]

रिकॉर्ड चावल फसल की पैदावार के बावजूद खुदरा मूल्य में वृद्धि देखी गई जबकि घरेलू स्तर पर कोई चावल की कमी नहीं थी. इसे ख़रीद में हुई वृद्धि के साथ जोड़कर भी देखा जा सकता है, लेकिन इसके साथ ही वैश्विक घटनाओं और महामारी ने भी इसमें अहम भूमिका अदा की थी.


संभावित परिणाम


निर्यात बंदी के पश्चात नॉन बासमती चावल की घरेलू बाज़ार में आपूर्ति बढ़ जाएगी, इसकी वज़ह से फ्री मार्केट के दामों में गिरावट आएगी. अतः किसान अपना माल FCI को बेचने के लिए प्रवृत्त होंगे. यदि बाज़ार में कीमत MSP से नीचे गिरती है तो किसान MSP पर धान की बिक्री करना पसंद करेंगे. हालांकि सरकार की ख़रीद के मामले में अपनी सीमाएं हैं. सरकारी ख़रीद के लिए आवश्यक ढांचा और सुविधा उपलब्ध नहीं है. ऐसे में कुछ किसान मंडी (ओपन मार्केट) का रुख़ करेंगे, जहां MSP से कम कीमत पर उनका माल ख़रीदा जाएगा. ऐसे में किसान उत्पादकों की ओर से की गई सरप्लस पैदावार को उचित मूल्य नहीं मिलेगा. बाजार मूल्य और MSP के बीच इन संबंधों को दरकिनार करते हुए ये ग्राहक ही होता है जिसे इस व्यवस्था का लाभ मिलता है, क्योंकि उन्हें धान के लिए कम कीमत चुकानी पड़ती है.

दूसरी ओर यदि घरेलू मूल्य MSP से ज़्यादा होता है तो किसान अपना माल मंडी में ही बेचना पसंद करते हैं. वे FCI के पास उसी वक़्त जाते हैं जब मंडी में दाम MSP से नीचे होने लगता है. चूंकि, निर्यात पर पाबंदी लगी है अतः मंडी में अतिरिक्त आपूर्ति होने की वज़ह से दाम में गिरावट आ रही है और उत्पादकों को नुकसान उठाना पड़ रहा है. ऐसे में ग्राहक को भले ही नॉन बासमती व्हाइट राइस के दामों में आने वाली गिरावट से सीधे लाभ मिलता हो, लेकिन मूल्य में आई गिरावट का सीधा असर किसानों के कल्याण पर पड़ता दिखाई देता है.

चावल के विभिन्न श्रेणियों में अलग-अलग उपयोगकर्ता समूह की वज़ह से क्रॉस प्राइस इलास्टिसिटी अर्थात विभिन्न किस्मों के मूल्य का लचीलापन कम होता है, लेकिन नॉन बासमती व्हाइट राइस के मूल्य में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर होने वाली वृद्धि बासमती चावल की डिमांड को बढ़ा देती है. जब भारत ने नॉन बासमती व्हाइट राइस के निर्यात को रोक दिया है तो वैश्विक आपूर्ति में इसकी महत्वपूर्ण कमी आएगी, जिसका सीधा असर बासमती चावल के बाज़ार पर पड़ेगा. दूसरे भारतीय किसान आज भी विश्व बाज़ार को बासमती चावल का निर्यात कर रहे हैं जिसकी वज़ह से उन्हें कारोबारी मुनाफ़ा हो रहा है. ऐसे में संभावित वैश्विक कमी तथा चावल मूल्य श्रृंखला में आने वाले सभी व्यवधानों को देखने के बाद बासमती चावल की मूल्य वृद्धि से भारतीय किसानों को अधिक मांग और अधिक मूल्य के कारण लाभ ही मिलने वाला है. बाज़ार की उम्मीद में नकारात्मक परिवर्तन होने की वज़ह से ही मूल्य वृद्धि होती है. यह परिवर्तन नॉन बासमती चावल के मूल्य में वृद्धि और भविष्य में निर्यात को लेकर लगाई जाने वाली पाबंदी से जुड़ी संभावना की वज़ह से होती है. हालांकि, वैश्विक तथा भारतीय स्तर पर भी ग्राहकों को मूल्य वृद्धि का सामना करना होगा और उन्हें चावल उत्पादकों के लिए अपनी जेब ढीली करनी पड़ेगी. बासमती चावल के मामले में ग्राहक और उत्पादकों दोनों का ही इस स्थिति में कल्याण होता है.

व्यापार की वज़ह से लाभ अथवा कल्याण के पुनर्वितरण को हम इस तरह भी देख सकते हैं कि मुनाफ़े में नॉन बासमती उत्पादकों का हिस्सा बासमती उत्पादकों को मिल रहा है. इस स्थिति में संतुलन एक बार फिर थोड़ा गड़बड़ जाता है. नॉन बासमती ग्राहक स्पष्ट रूप से लाभान्वित हो जाते हैं जबकि बासमती के ग्राहकों को अपनी जेब से पैसा निकाल कर उत्पादकों को देना पड़ता है. इसकी वज़ह से बासमती ग्राहकों से कल्याण का समानाधिकारवादी स्थानांतरण नॉन बासमती ग्राहकों तक हो जाता है. दरअसल, निर्यात पर लगी पाबंदी की वज़ह से हाशिए पर रहने वाले नॉन बासमती उत्पादक किसानों पर बहुत ज़्यादा बोझ पड़ता है. इस पेपर के अगले हिस्से में प्रस्तुत सैद्धांतिक मॉडल में इस विषय पर गहराई से चर्चा की गई है और नीति संबंधी कुछ सुझाव दिए गए हैं जिनका उपयोग करके निर्यात बंदी के प्रभाव को दूर किया जा सकता है.

निर्यात में पाबंदी की वज़ह से वैश्विक बाज़ार में चावल की कमी होगी और इससे मूल्यवृद्धि भी होगी. इसकी वज़ह से अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कंज्यूमर सरप्लस भी सिकुड़ेगा और मूल्य वृद्धि तथा कम आपूर्ति के बोझ तले दब जाएगा. लेकिन कीमत में आने वाली उछाल के कारण उत्पादकों को इस व्यापार की वज़ह से मुनाफ़ा होगा. सब-सहारन अफ्रीका भारतीय नॉन बासमती व्हाइट राइस का सबसे बड़ा आयातक है, क्योंकि भारतीय नॉन बासमती व्हाइट राइस के दाम काम होते हैं और इसकी आर्थिक गुणवत्ता बढ़िया होती है.[53] इन देशों के लिए, जो औसतन चावल के शुद्ध आयातक है, को इस व्यापार से मुनाफ़ा नहीं हो सकता और अधिकांश मामलों में वहां कुल कल्याण में कमी ही आएगी. हालांकि, इस बात की उम्मीद तो थी लेकिन यह दावा कि भारत की ओर से लगाई गई निर्यात पाबंदी के कारण वैश्विक खाद्य संकट पैदा हो रहा है बे बुनियाद है.

प्राथमिक अनुमानों से यह तय हो रहा है कि इस पाबंदी का कुछ विकासशील देशों के कल्याण पर प्रभाव पड़ेगा. लेकिन इसके परिणाम इतने भी गंभीर नहीं होंगे कि यह पाबंदी उन देशों को खाद्य असुरक्षा की गंभीर स्थिति में ले जाकर छोड़ दें. वैश्विक कारोबार में केवल 10% धान की पैदावार ही शामिल है जिसमें भारत के हिस्सेदारी निर्यात के रूप में 40 फ़ीसदी है.[54] हालांकि भारत के चावल निर्यात में बासमती का हिस्सा सर्वाधिक है जबकि नॉन बासमती व्हाइट राइस की हिस्सेदारी 20% है.[55] ऐसे में केवल निर्यात पर पाबंदी लगाने से ही खाद्य सुरक्षा का बहुत बड़ा संकट खड़ा नहीं हो सकता.

नॉन बासमती चावल के मूल्य में होने वाली वृद्धि से बासमती का बाज़ार भी प्रभावित होगा जिसके चलते बासमती उत्पादक किसान को अधिक मुनाफ़ा होगा जबकि ग्राहकों की सरप्लस पर चोट पहुंचेगी. प्रीमियम क्वॉलिटी का बासमती चावल अधिकांश पश्चिम एशिया के संपन्न देशों में निर्यात किया जाता है और इसे वहां उच्च आय वाले परिवार ही इस्तेमाल करते हैं. ऐसे में इसकी वज़ह से खाद्य सुरक्षा को कोई ख़तरा पैदा होने वाला नहीं है. व्यापार से होने वाला मुनाफ़ा संपन्न ग्राहकों के माध्यम से बड़े पैमाने पर उत्पादन करने वाले किसानों तक पुनः वितरित हो जाएगा.

व्यापार नीति के लिए एक सैद्धांतिक मॉडल

निर्यात पाबंदी और वैश्विक स्तर पर बढ़ी मांग के प्रभावों का विश्लेषण मांग और आपूर्ति के एक सिंपल फ्रेमवर्क का सहयोग लेकर किया गया है. इसका लक्ष्य क्रमश: बासमती तथा नॉन बासमती बाज़ार से जुड़े उत्पादकों के सरप्लस और ग्राहकों के सरप्लस  का सहजता के साथ अध्ययन करना है. ग्राहक का सरप्लस अर्थात भुगतान करने की ग्राहक की इच्छा और मार्जिन पर बाज़ार मूल्य के बीच का अंतर होता है. इसी प्रकार उत्पादक के सरप्लस का अर्थ यह है कि उत्पादक एक यूनिट चावल को उत्पादित करने पर जितना मार्जिनल यानी गैर मामूली लागत लगाता है उसे उस लागत से ऊपर मिलने वाला मूल्य. इस विश्लेषण के लिए घरेलू ग्राहकों तथा उत्पादकों के कल्याण के मामले को ही ध्यान में रखा गया है.



मान्यताएं:


  1. बाज़ार पूरी तरह स्पर्धात्मक है अर्थात चावल उत्पादकों को वैश्विक बाज़ार से उनकी मेहनत के हिसाब से दाम मिल रहा है. अन्य शब्दों में घरेलू एवं अंतरराष्ट्रीय मूल्य एक समान है.
    2. चावल की मांग सापेक्ष रूप से गैर लचीली है, अर्थात मूल्य वृद्धि का बाज़ार में होने वाली क्वांटिटी यानी मात्रा संबंधी मांग पर प्रभाव अपेक्षाकृत अनुपातिक प्रभाव कम पड़ता है. यह मान्यता इस बात पर आधारित है की चावल आहार और आवश्यक खाद्यान्न का हिस्सा है. विभिन्न अध्ययनों ने भी यह पाया है कि चावल की मांग गैर लचीली होती है.[56],[57],[58],[59]
    3. ख़रीद के लिए कोई ढांचा उपलब्ध नहीं है यानी बासमती चावल के बाज़ार में केवल बाज़ार के घटक ही काम करते हैं दूसरी ओर नॉन बासमती चावल को बाज़ार से MSP पर ख़रीदा जाता है.
    4. घरेलू मांग पर वैश्विक घटनाओं का कोई असर नहीं होता अर्थात किसी भी बाहरी मांग अथवा आपूर्ति से जुड़े झटकों के बावजूद भारत की मांग पद्धति में कोई परिवर्तन नहीं होता क्योंकि भारत चावल के लिए आयात पर आश्रित नहीं है.


उपरोक्त मॉडल में प्रयुक्त नोटेशंस निम्नलिखित हैं:

B: बासमती मार्केट का आउटपुट यानी पैदावार/ उत्पादन
NB : नॉन बासमती मार्केट का आउटपुट यानी पैदावार/ उत्पादन
Di : बाज़ार के लिए मांग वक्र  i (i = B, NB)
Di*: बाज़ार के लिए वैश्विक मांग वक्र i (i = B, NB)
Si: बाज़ार के लिए आपूर्ति वक्र i (i = B, NB)
CSi: बाज़ार में ग्राहकों का सरप्लस यानी अधिशेष  i (i = B, NB)
PSi: बाज़ार में उत्पादकों का सरप्लस यानी अधिशेष  i (i = B, NB)
Pij: बाज़ार i में मूल्य j स्थिति के तहत (j = 0,1,2)
नॉन बासमती राइस का न्यूनतम समर्थन मूल्य
X*: X के लिए कुल मांग (X=B, NB), अर्थात घरेलू मांग  + विदेशी मांग

चित्र 9 की आधार रेखा परिदृश्य बासमती बाज़ार के लिए वैश्विक मांग में होने वाली वृद्धि को दर्शाता है. आरंभिक वैश्विक मांग वक्र DB0* है, जबकि घरेलू आपूर्ति वक्र का प्रतिनिधित्व SB करता है. बाज़ार के मुक्त ढांचे को देखते हुए घरेलू मूल्य, अंतरराष्ट्रीय मूल्य के बराबर ही है (PB0).

चित्र 9 : बासमती चावल का बाज़ार

 
स्रोत: लेखक का अपना 

बासमती ग्राहकों से बासमती उत्पादक की ओर कल्याण का स्थानांतरण स्पष्ट दिखाई देता है. उत्पादकों को वैश्विक मूल्य में वृद्धि और मांग में बढ़ोतरी का लाभ मिलता है, जबकि बढ़ी हुई कीमतों की वज़ह से ग्राहक भी अपना उपभोग घटा लेते हैं. लेकिन यह विश्लेषण बासमती और नॉन बासमती चावल उत्पादकों के बीच होने वाले व्यापार के सापेक्ष लाभ को लेकर किया गया है.

नॉन बासमती बाज़ार का ही मामला लीजिए, जहां सरकार पैदावार का एक हिस्सा MSP पर ख़रीद लेती है.

चित्र 10 : नॉन बासमती चावल का बाज़ार



स्रोत: लेखक का अपना

उत्पादकों को वैश्विक डिमांड DN*[60] के साथ-साथ सरकार ख़रीद मूल्य का भी सामना करना पड़ता है. आधार रेखा परिदृश्य में कल्याण का बंटवारा निम्नलिखित रूप से होता है:



सरकार चावल के यूनिट्स को MSP पर ख़रीदती है.
वर्तमान NFSA योजना के तहत 2022-23 में अनाज जीरो कॉस्ट अर्थात निशुल्क मुहैया करवाए गए थे. यह सारी मंत्र ग्राहकों के सरप्लस अर्थात अधिशेष से जुड़ती है. लेकिन किसानों को खुले बाज़ार से कम दाम मिलता है और वह अपने सरप्लस का एक हिस्सा गंवा बैठते हैं जबकि सरकार को भी भारी मात्रा में ख़र्च का बोझ उठाना पड़ता है.  ख़रीद की मात्रा के बाहर बाज़ार खुले तौर पर काम करता है.[b]

निर्यात पर लगी पाबंदी के बाद अब किसानों को केवल घरेलू मांग वक्र यानी डॉमेस्टिक डिमांड कर्व से संतुष्ट होना पड़ रहा है. कीमतों में PN0 से PN1 तक तत्काल गिरावट देखी गई है. इसकी वज़ह से उत्पादकों के सरप्लस में कटौती हुई है और उनके हिस्से का सरप्लस ग्राहकों को स्थानांतरित हो गया है. इस परिदृश्य में हम यह मानकर चल रहे हैं कि सरकार ख़रीद से जुड़ी गतिविधियों को नहीं बढ़ाएगी. पाबंदी के पश्चात कल्याण की हिस्सेदारी निम्नलिखित है :



अतः निश्चित परिणाम ग्राहकों के सरप्लस में वृद्धि और उत्पादकों के सरप्लस में गिरावट है. सरकारी ख़र्चे में कोई परिवर्तन नहीं दिखाई देता.

इस मॉडल का उद्देश्य कल्याण के अंतर बाज़ार पुनर्विभाजन की चर्चा करना है. इसके परिणामों को पर्याय रूप से कुछ इस तरह परिभाषित किया जा सकता है कि कल्याण का स्थानांतरण बासमती ग्राहकों से नॉन बासमती ग्राहकों तक हो रहा है. यह शिफ्ट अथवा स्थानांतरण को समानाधिकारवादी है. दूसरी और व्यापार से होने वाला लाभ बासमती किसानों को मिल रहा है और इस वज़ह से लाभ में नॉन बासमती किसानों की हिस्सेदारी घट रही है. इसके चलते किसानों के दोनों समूहों को होने वाली आय में असमानता अविरत बढ़ती जा रही है. आगे होने वाली चर्चा में इस असमानता का समाधान ख़ोजने का लक्ष्य है.

उद्देश्य यह है कि बासमती और नॉन बासमती किसानों के बीच आय और संपत्ति की असमानता को दबाकर इस क्षेत्र में जल की कमी की समस्या को कम किया जाए. भारत सरकार के विकृत उपाय से निपटने का एक अन्य रास्ता यह है कि बासमती चावल बाज़ार पर मात्रात्मक उपाय इस वक्त लागू कर दिया जाए. एक विशेष टैरिफ जो प्रति यूनिट t के रेट से लागू हो, निर्यात होने वाले बासमती चावल पर लगा दिया जाए. ऐसा होने पर भारतीय बासमती चावल की अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में कीमत बढ़ेगी और इस वज़ह से वैश्विक मांग में कमी आकर घरेलू और अंतरराष्ट्रीय मूल्य के बीच एक ख़ाई पैदा होगी. धान बाज़ार की एक अहम ख़ासियत यह है कि वहां मांग बेहद गैर लचीली होती है. अन्य शब्दों में निर्यात की मांग को तेज़ी से कम किए बगैर हाई टैरिफ रिवेन्यू अर्जित किया जा सकता है. चित्र 11 में एक्सपोर्ट टैरिफ की वज़ह से मांग में आई कमी और उसकी वज़ह से घरेलू उपभोग में होने वाले परिवर्तन को दर्शाया गया है. जैसे ही डिमांड DB1*  से DB2* की ओर शिफ्ट करती है, वैसे ही घरेलू और अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में एक विभाजन निर्मित होता है. घरेलू बाज़ार PB2 पर ऑपरेट करते हैं, जबकि विदेशी ग्राहक  (PB2 + t) का भुगतान करने पर मज़बूर हो जाते हैं.

 

चित्र 11 : हस्तक्षेप पूर्व बासमती बाज़ार



स्रोत : लेखक का अपना

टैरिफ पश्चात कल्याण की हिस्सेदारी निम्नलिखित है:



ग्राहकों के सरप्लस में स्पष्ट रूप से इज़ाफ़ा होता है जबकि उत्पादक को का सरप्लस कम कीमत और कमज़ोर विदेशी मांग की वज़ह से घट जाता है. सरकार भी टैरिफ रेवेन्यू वसूल करती है. निर्यात कम हो जाता हैं और घरेलू उपभोग बढ़ जाता है, जिसकी वज़ह से ग्राहकों को इस व्यापार का लाभ मिलने लगता है.

सरकार को एक ऐसी नीति मिश्रण पर विचार करना चाहिए जिसमें नॉन बासमती उत्पादकों तथा मिलेट किसानों को बाज़ार में ज़्यादा सरप्लस का लाभ उठाने का अवसर मिले. सरकार को मिलेट पर MSP को बढ़ाकर उपज को अधिक मुनाफ़े वाली अथवा मेहनत के दाम देने वाली बनाना चाहिए. धान के तहत आने वाली कृषि भूमि पर फसल प्रतिस्थापन कर मिलेट उत्पादन को बढ़ावा देने के दो महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ सकते हैं.  इसमें से पहला प्रभाव जल उपयोग को लेकर है जबकि दूसरा कृषि रोज़गार से जुड़ा है. मिलेट्स की MSP बढ़ने से व्यापार को मिलेट उत्पादन के पक्ष में मोड़ने में भी सहायता मिलेगी. लेकिन मिलेट मार्केट में मौजूद मांग और आपूर्ति के बीच की खाई को दूर करने के लिए संस्थागत नीतियों पर अमल करना आवश्यक है.



फसल प्रतिस्थापन या प्रत्याहार: एक संभावित आयाम


नॉन बासमती ख़रीद प्रक्रिया को वित्तपोषित करने के लिए बासमती पर निर्यात शुल्क लगा देना शॉर्ट टर्म सॉल्यूशन होगा लेकिन इस क्षेत्र से जुड़ी आधारभूत समस्याओं को सीधे हल करने के लिए काफ़ी कुछ किया जाना चाहिए. धान क्षेत्र से जुड़ी अनिश्चितता  दरअसल कम पैदावार और उत्पादन प्रक्रिया के दौरान घटिया क्वॉलिटी के साधनों का उपयोग करने की वज़ह से है. इसके अलावा धान उत्पादन में लगने वाले जल उपयोग को अधिक लचीला बनाया जा सकता है. इसके बारे में लिए कृषि नीति की डिजाइन में ही कुछ विचार किया जा सकता है. 


धान एक उच्च कोटि का जल ग्रहण अनाज है इसके लिए 1250 mm जल की आवश्यकता होती है,[61] इसकी वज़ह से भूजल के स्रोत पर अत्यधिक दबाव पड़ता है और सिंचाई पर होने वाला ख़र्च भी बढ़ता है. हरित क्रांति के पश्चात धन एवं गेहूं आधारित खाद्य सुरक्षा उपायों ने देश के जल संकट की स्थिति को और भी गहरा अथवा ख़राब कर दिया है इसके चलते आप खाद्य सुरक्षा एवं जल उपलब्ध उपलब्धता के बीच ट्रेड ऑफ यानी अदला-बदली  की स्थिति बन गई है. बढ़ती हुई आबादी को देखकर अनाज की मांग की पूर्ति करने के लिए भारत ने धान एवं गेहूं के तहत आने वाली कृषि भूमि को बढ़ा दिया है इसकी वज़ह से जल संकट की अहमियत भी बढ़ती जा रही है. जल संकट की इसी अहमियत को ही ट्रांसबाउंडरी जल विवादों का आधार मानकर देखा जा रहा है.[62] ऐसे में देश की अर्थव्यवस्था में वाटर रिजर्व के पर्याप्त स्तर को बनाए रखना महत्वपूर्ण हो गया है.

धान की MSP में वृद्धि की वज़ह से किसान इस फसल को लेने के लिए प्रोत्साहित होंगे. इसके चलते वॉटर डिमांड यानी जल संबंधी मांग में भी तत्काल इज़ाफ़ा होगा. ऐसे में जल संकट और खाद्य सुरक्षा के बीच अदला-बदली की स्थिति और भी गंभीर हो जाएगी. अदला-बदली की स्थिति से बचने के लिए हमें अधिक शोषित्र, सूखे-लचीले अनाज जैसे मिलेट्स पर ध्यान देना होगा. मिलेट्स न्यूट्रीशन का भी एक पुख़्ता स्रोत है. हालांकि मिलेट्स ज़्यादा भूमि और परिश्रम गहन अनाज होते हैं, लेकिन उन्हें लगने वाला जल धान को लगने वाले जल से बेहद कम होता है. उदाहरण के लिए रागी के लिए 310 mm प्रति हेक्टेयर पानी की ही ज़रूरत होती है.[63] मिलेट्स उत्पादन को बढ़ाने से एक और जहां न्यूट्रिशन सिक्योरिटी की समस्या को हल करने में सहायता होगी वही जल संकट से भी निजात मिल सकती है.  दीर्घायु उपाय के तहत यह पेपर एक क्रॉप डायवर्सिफिकेशन यानी अनाज विविधता पॉलिसी सुझाता है जिसमें बासमती उत्पादन के तहत आने वाली भूमि को धीरे-धीरे मिलेट्स प्रोडक्शन के तहत लाया जाए.

यह पेपर एक सिंपल थियोरेटिकल फ्रेमवर्क यानी सरल सैद्धांतिक फ्रेमवर्क प्रस्तुत करता है,  जो नीति के परिणामों को फार्मूलेट यानी तैयार करेगा. इस फ्रेमवर्क में बासमती बाज़ार और एकीकृत मिलेट्स मार्केट का विचार किया है. एक और धान जहां जल गहन है वही मिलेट्स उसके मुकाबले अधिक भूमि एवं परिश्रम गहन है.[64] यहां मान लिया गया है कि दीर्घ अवधि में इनपुट्स यानी साधनों का उपयोग फिक्स्ड प्रोपोर्शन यानी तय अनुपात में फिक्स्ड कोएफिशियांत्स यानी तय गुणांकों में किया जायेगा. अतः इसमें लियोनटिफ प्रोडक्शन फंक्शन का उपयोग किया है.

मान्यताएं:


  1. दीर्घ अवधि में फैक्टर इंटेंसिटी रेशियो यानी कारक तीव्रता अनुपात कांस्टेंट यानी स्थिर रहते हैं जैसे कि कारकों को एक फिक्स्ड प्रोपोर्शन में इस्तेमाल किया जाता है. इसके अलावा अन्य सारे कारकों के लिए प्रति यूनिट अवश्यकता स्थिर रहती है.
    2. उत्पादन भूमि उपलब्धता की वज़ह से लाचार अथवा बंधा हुआ होता है. जैसे कि भूमि की अक्षय निधि फिक्स्ड रहती है, जबकि अन्य कारकों को भूमि उपयोग के हिसाब से इस्तेमाल किया जाता है.
    3. कृषि क्षेत्र में श्रम आपूर्ति अधिक ही रहती है. ऐसे में श्रम की मांग की वज़ह से वेतन वृद्धि होने की संभावना नहीं है. लेकिन कृषि रोज़गार को स्थिर वेतन स्तर पर बढ़ाया भी जा सकता है.
    4. वॉटर में एक अपवर्ड-स्लोपिंग सप्लाई कर्व होता है अर्थात जल संकट के बावजूद उत्पादन प्रक्रिया में अधिक मूल्य देकर ज़्यादा जल उपलब्ध करवाया जा सकता है (यह उस वक़्त तक हो सकता है जब तक जल पूर्ण गहराई यानी रिक्तिकरण में ना चला जाए) इस वज़ह से वॉटर स्कार्सिटी वैल्यू भी बढ़ जाती है.

    उपरोक्त फ्रेमवर्क में प्रयुक्त नोटेशंस निम्नलिखित हैं:

    R: धान पैदावार की मात्रा
    M: मिलेट्स पैदावार की मात्रा
    Li: सेक्टर में लगाए गए मजदूर i (i = R,M)
    Ti: सेक्टर में उपयोग की गई भूमि i (i = R,M)
    Wi: सेक्टर में उपयोग किया गया जल i (i = R,M)Ther
    ai: राइस सेक्टर में उत्पादन के लिए कारकों की प्रति यूनिट आवश्यकता (i= 1,2,3)
    bi: मिलेट्स सेक्टर में उत्पादन के लिए कारकों की प्रति यूनिट आवश्यकता (i= 1,2,3)
    X: फसल प्रतिस्थापन नीति के तहत शिफ्ट की गई भूमि की मात्रा


    सप्लाई साइड यानी आपूर्ति के मामले में मिलेट किसान और नॉन बासमती किसान वैल्यू नेटवर्क तक पहुंच को लेकर एक ही तरह की समस्या का सामना करते हैं. छोटे पैमाने पर होने की वज़ह से मिलेट किसानों[65] की उत्पादक तथा ग्राहकों के बीच डिस्कनेक्ट यानी समन्वय के अभाव होता है. इसे देखते हुए इन किसानों को बाज़ार मूल्य तक संपूर्ण पहुंच उपलब्ध नहीं हो पाती.

    ख़र्च का महत्त्वपूर्ण हिस्सा बीच में ही विनियोजित हो जाता है जिसकी वज़ह से किसानों के घर तक केवल एक छोटा सा हिस्सा ही पहुंच पाता है. साइज यानी आकार और एक्सेस यानी पहुंच के बीच बेहद सकारात्मक कोरलेशन होने की वज़ह से मिलेटस का उत्पादन बाधित होता है. ऐसे में धान के निर्यात पर लगाई गई रोक का उपयोग भारत में मिलेट्स के उत्पादन को बढ़ावा देने के एक साधन के रूप में किया जा सकता है.

 
अगस्त 2023 में ही सरकार ने नीति सुझाव पर अमल किया था जब उसने बासमती पर न्यूनतम निर्यात दर (MEP) के माध्यम से निर्यात शुल्क लगा दिया था. MEP लगाने का उद्देश्य उच्च मांग से होने वाले लाभ को भुनाना था, लेकिन इसे इस तरह देखा गया कि बासमती व्यापारी इतने ऊंचे मार्कअप यानी मूल्य-वृद्धि पर ख़रीददार नहीं ढूंढ पाएंगे. बाद में MEP को US$1200 से घटाकर US$950 प्रति टन कर दिया गया.[66] इसी प्रकार का एक वैकल्पिक समकक्ष शुल्क भी विदेशी मांग पर यही प्रभाव डालेगा और सरकार को एक मुनाफ़े वाला शुल्क राजस्व हासिल हो सकेगा. बासमती की मांग में आई इस कमी को एक अवसर मानकर बासमती के तहत आने वाली कृषि भूमि को मिलेट्स उत्पादन के लिए उपयोगी बनाने में इस्तेमाल किया जा सकता है. ऐसा अतिरिक्त भूमि के हिस्से को स्थानांतरित करके ऐसा किया जा सकता है.(पहले के सेक्शन में प्रस्तुत मॉडल के मामले में B2*-B1*) ऐसा होने पर बड़े किसानों को मिलेट्स वैल्यू नेटवर्क में शामिल होने का अवसर दिया जा सकेगा. उत्पादन को बढ़ावा देने के लिए सरकारी कार्यक्रमों के माध्यम से किसानों को प्रोत्साहित और प्रेषित किया जा सकेगा.  लेकिन ग्राहकों की पसंद को बदलना ही एक आत्मनिर्भर बाज़ार के लिए आवश्यक होगा.

मेजर मिलेट्स यानी मुख्य मिलेट्स जैसे ज्वार और बाजरा के लिए MSP धान से अधिक है,[67] लेकिन किसानों की इन कीमतों तक पहुंच नहीं है. इस मूल्य का अधिकांश हिस्सा परिवहन ख़र्च, प्रसंस्करण शुल्क और कुछ हद तक भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाता है. लेकिन जब बासमती किसान मिलेट्स उत्पादन में शामिल होंगे तो वे अपने नेटवर्क का इस्तेमाल करते हुए सरप्लस में से अधिकतम हिस्सेदारी अर्जित करने के लिए प्रयास कर सकते हैं.  इसकी वज़ह से यह अनाज अपने पारिश्रमिक के अनुसार मूल्य पा सकेगा और किसान इसे लेकर बाज़ार में आने के लिए प्रेरित होंगे. इसी प्रकार भारतीय ग्राहकों को मिलेट्स के न्यूट्रीशन के लाभ और जल संरक्षण के संबंध में उनकी भूमिका को लेकर जानकारी दी जाए तो घरेलू मांग में इज़ाफ़ा किया जा सकता है. ऐसा होने पर किसान मिलेट्स बाज़ार में प्रवेश करेगा और इस वज़ह से कीमतों में भी वृद्धि देखी जाएगी. एक दूसरा तरीका यह भी है कि मिलेट्स उपभोग को बढ़ाया जाए. NFSA मिलेट्स को ख़रीदता है और कुछ मात्रा में चावल की जगह मिलेट्स का वितरण करता है. ऐसा होने पर प्रोसो,  फॉक्सटेल समेत अन्य छोटे मिलेट्स को भी ख़रीद प्रक्रिया के दायरे में लाया जा सकेगा. खेती पर होने वाले ख़र्च को देखकर अधिक मूल्य वाली MSP देने पर किसान भी मिलेट्स मार्केट में आने के लिए प्रोत्साहित होगा.

नीति सुझाव

यह पेपर बाज़ारों को इच्छित दिशा में मोड़ने की दृष्टि से कुछ नीति सुझाव प्रस्तुत करता है, जो सैद्धांतिक मॉडल तथा संस्थागत नीतियों से उपजे हैं.
निर्यात पाबंदी के पश्चात निम्नलिखित रूप से कल्याण में परिवर्तन होने की संभावना है:

1. बासमती उत्पादकों के सरप्लस में इज़ाफ़ा.
2. घरेलू बासमती ग्राहकों के सरप्लस में गिरावट.
3. घरेलू नॉन बासमती उत्पादकों के सरप्लस में गिरावट.
4. घरेलू लोन बासमती ग्राहकों के सरप्लस में इज़ाफ़ा.

व्यापार नीति की वज़ह से कल्याण में आने वाली कमी और लाभों के अपर्याप्त वितरण में सुधार के लिए यह पेपर बासमती राइस पर निर्यात शुल्क लगाने की सिफ़ारिश करता है. निर्यात शुल्क से होने वाली वसूली का उपयोग मिलेट्स की ख़रीद करने पर किया जा सकता है. इसके अलावा बासमती के तहत आने वाली कृषि भूमि को मिलेट्स की ओर शिफ्ट करने का काम भी हो सकता है. यह पॉलिसी मिक्स यानी नीति का मिश्रण किसानों के मुनाफ़े में वृद्धि करने के साथ ही न्यूट्रीशनल सिक्योरिटी को भी बढ़ावा दे सकता है.

प्रस्तावित फसल प्रतिस्थापन नीति के तहत बासमती उत्पादन के तहत आने वाली अतिरिक्त भूमि को मिलेट्स उत्पादन के लिए काम में लिया जाएगा. इसकी वज़ह से एक और जहां कृषि संबंधी रोज़गार बढ़ेगा वहीं कृषि कार्यों में होने वाला जल का उपयोग भी कम होगा और भारतीय नागरिकों के न्यूट्रीशन उपभोग में भी वृद्धि होगी. हालांकि, इस नीति के तहत भारतीय ग्राहकों को मिलेट्स की ओर अपनी रुचि बढ़ानी होगी. इस दिशा में पहल काम मिलेट्स की ख़रीद में इज़ाफ़ा करते हुए NFSA के तहत मिलेट्स का वितरण करके किया जा सकता है.

नीति का यह मिश्रण ग्राहकों तथा उत्पादकों को कृषि उपज के मूल्य में होने वाली उथल-पुथल और मौसम से जुड़ी अनिश्चितता से सुरक्षा प्रदान कर सकता है. सहज और सरल होने के बावजूद नीतियों को चरणबद्ध तरीके से लागू करने की आवश्यकता है. कृषि मूल्य श्रृंखला में औचक किए जाने वाले परिवर्तनों से हाशिए पर बैठे किसान बुरी तरह प्रभावित हो सकते हैं और उन पर इस ऑपरेशन अर्थात क्षेत्र क्षेत्र से बाहर होने की नौबत आ सकती है. अतः छोटे किसानों में फसल प्रतिस्थापन को प्रोत्साहन देने के मामले में एक बॉटम-अप अप्रोच भी बेहद ज़रूरी है. मूल्य श्रृंखला में होने वाले लीकेज को भी न्यूनतम करना होगा, ताकि किसानों को बाज़ार भाव तक अधिकतम पहुंच मुहैया करवाई जा सके.

भारत में होने वाले जल के कुल उपभोग में अनाज से जुड़ी फ़सलों की सिंचाई का हिस्सा 50% है.[68] जिन राज्यों में मानसून की वर्षा कम हो रही है, वहां अनाज की फसल के लिए सिंचाई के पानी की मांग बहुत तेज़ी से बढ़ी है. इस वज़ह से जल संकट में इज़ाफ़ा हुआ है.[69] धान उत्पादन की तुलना में मिलेट्स के लिए केवल 30 फ़ीसदी पानी की आवश्यकता होती है.  इसके अलावा मिलेट्स बेहद कम अथवा बगैर सिंचाई के भी बढ़ता रहता है.[70] इसके अतिरिक्त धान एक महत्वपूर्ण ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जक है इसके अलावा धान के कैलोरी आउटपुट से सम्बन्धित क्लाइमेट सेंसिटिव चिंताएं भी इसके साथ जुड़ी हुई है.[71]

मिलेट्स के पुनः प्रवर्तन के लिए सप्लाई यानी आपूर्ति और डिमांड यानी मांग का ध्यान रखने वाली रणनीतियों की आवश्यकता है.[72] आपूर्ति के मामले में कुछ इलाकों में धान की जगह  मिलेट्स को प्रतिस्थापित किया जा सकता है या मिलेट्स को दलहन, तेल बीज और धान के साथ- साथ बोया जा सकता है. हालांकि पहले विकल्प में विभिन्न इनपुट्स की आवश्यकता होगी, जिसमें धान क्षेत्र को मुक्त करना, मुक़्त किए गए धान क्षेत्र में मिलेट्स की एफिशिएंसी यानी क्षमता को बढ़ाना और उत्पादन पश्चात ढांचे और सुविधाओं में इज़ाफ़ा करना, ताकि आर्थिक रूप से मिलेट्स को प्रोत्साहित कर किसानों को इसे अपनाने के लिए प्रेरित किया जा सके.

सरकार मिलेट्स के उत्पादन और उपभोग को प्रोत्साहित करने के लिए निम्नलिखित संस्थागत नीतियों पर विचार कर सकती है:

जागृति कार्यक्रम: ग्राहक और उत्पादक दोनों को ही मिलेट्स के बेनिफिट्स यानी लाभ से अवगत या परिचित होना चाहिए. किसानों को इस बारे में जानकारी दी जानी चाहिए कि धान और गेहूं की उपज लेने के कारण उन्हें क्या पर्यावरणीय मूल्य चुकाना पड़ता है. इन दोनों फ़सलों की वज़ह से उनकी भूमि कम उपजाऊ होने के साथ घरेलू उपभोग के लिए उपलब्ध जल की हिस्सेदारी को भी तेज़ी से काम करती है. किसानों को मिलेट्स उत्पादन से जुड़े बेनिफिट्स यानी लाभ के बारे में जानकारी देकर यह बताया जाना चाहिए कि मिलेट्स की रिसोर्स एफिशियंसी यानी संसाधन क्षमता क्या है और किस प्रकार यह फसल लंबी अवधि में वहनीय साबित होगी. इसके साथ-साथ परिवारों को भी इस बात से अवगत करवाना होगा कि पारंपरिक अनाज की सामाजिक कीमत क्या है और किस प्रकार यह उनके जल सुरक्षा के लिए एक अहम ख़तरा बनकर उभर रहे हैं. इतना ही नहीं धान और गेहूं के मुकाबले मिलेट्स में मौजूद न्यूट्रीशनल लाभ भी परिवारों को अपने आहार को मिलेट्स की ओर ले जाने के लिए प्रेरित करेंगे.

बाज़ार का हस्तक्षेप: केवल जागृति के माध्यम से ही किसानों को मिलेट्स उत्पादन की दिशा में मोड़ना संभव नहीं होगा. सरकार को इसके लिए मूल्य संबंधी कार्रवाई करते हुए लोगों को इच्छित परिवर्तन अपनाने के लिए प्रोत्साहित करना होगा. पहले तो मिलेट्स की MSP में वृद्धि यह सुनिश्चित करेगी कि किसानों को अपने उत्पादन के लिए एक सुरक्षा कवच मिले और फिर उनमें मिलेट्स के तहत आने वाले कृषि क्षेत्र को बढ़ाने की इच्छा शक्ति भी पैदा होगी. दूसरे उत्पादन में परिवर्तन के लिए इनपुट्स के दाम भी इस दृष्टि से रखने होंगे. मिलेट्स में जल और खाद की कम आवश्यकता को देखते हुए इस पर सब्सिडी को भी उसी अनुपात में काम करना होगा, ताकि यह संकेत दिया जा सके कि अब सोशित्र फसल की दिशा में जाना है. ऐसा होने पर ही किसान गेहूं, धान समेत अन्य जल गहन अनाज के उत्पादन को घटाकर क्लाइमेट स्मार्ट मिलेट्स यानी मौसम अनुकूल मिलेट्स के तहत अधिक भूमि को लेकर आएंगे. तीसरी NFSA के तहत मिलेट्स का वितरण करने से ग्राहकों को भी मिलेट्स की दिशा में मोड़ा जा सकेगा और पारंपरिक अनाज के लिए मांग को धीरे-धीरे कम किया जा सकेगा. इस तरह मिलेट्स मार्केट में प्रचलित मांग और आपूर्ति के बीच की दूरी को भी पाटा जा सकेगा.

अनुसंधान और विकास में इज़ाफ़ा: भारतीय अनुसंधान में हाल के दशकों में मिलेट्स की कुछ विस्तृत श्रेणियों किस्में विकसित की है, जिनकी पैदावार अधिक और उससे जुड़े नुक़सान कम है. इस अनुसंधान के परिणामों को अनुकरणीय बनाने से वैश्विक किसान समुदाय बढ़ रही जलवायु परिवर्तन संबंधी चिंताओं के बीच मिलेट्स की क्षमताओं को समझ सकेगा. छोटे मिलेट्स जैसे की पर्ल, फॉक्सटेल, प्रोसो और फिंगर मिलेट्स के उत्पादन से जुड़े अनुसंधान और उपभोग से जुड़े लाभ को बढ़ावा दिया जाना चाहिए, ताकि वैश्विक समुदाय इस बात को समझ कर मिलेट्स को अपना प्रधान आहार बनाने के लिए तैयार हो सके. इसी प्रकार अनुसंधान के क्षेत्र में निवेश भी बढ़ना चाहिए ताकि उच्च पैदावार वाली श्रेणियां के इनपुट्स का विकास हो सके और पैदावार में अहम वृद्धि के साथ कुल मुनाफ़ा भी बढ़ सके.

एक टिकाऊ मूल्य श्रृंखला: ऐसे फ्रेमवर्क में निवेश होना चाहिए जो मिलेट किसानों को बाज़ार की संपूर्ण पहुंच मुहैया करवा सके. पर्याप्त ख़रीद कार्यक्रमों के अभाव में मांग और आपूर्ति के बीच दूरी होती है जिसकी वज़ह से मिलेट खेती घाटे का सौदा बन जाती है. इस समस्या से निपटने के लिए किसानों को प्रोत्साहित कर आरंभिक फंडिंग मुहैया करवाई जानी चाहिए. इसके अलावा मूल्य श्रृंखला को अधिक पारदर्शी बनाया जाना चाहिए तथा मिडस्ट्रीम में होने वाले लीकेज को न्यूनतम किया जाना आवश्यक है. यह करने के लिए ख़रीद और वितरण व्यवस्था में सरकारी हस्तक्षेप को बढ़ाना होगा. इस उद्योग को बढ़ावा देने के लिए किसानों को आरंभिक सब्सिडी दी जानी चाहिए ताकि वे बाज़ारों तक पहुंच सुनिश्चित कर सके और इस सुखी फसल से होने वाले फ़ायदे को हासिल कर सके.


निष्कर्ष


इस पेपर ने दर्शा दिया है कि नॉन बासमती राइस पर लगाई गई निर्यात बंदी का उद्देश्य घरेलू ग्राहक को वैश्विक मूल्य के झटकों से बचाना था, लेकिन इस पाबंदी की वज़ह से नॉन बासमती किसानों की आय भी नकारात्मक रूप से प्रभावित हुई है. नॉन बासमती किसान मुख्यत: उन राज्यों में होते हैं जहां खेत छोटे होते है. इन किसानों को बासमती किसानों के मुकाबले कम मूल्य मिलता है. ऐसे में नॉन बासमती बाज़ार में मांग की कमी के कारण इन किसानों के कल्याण का ही नुक़सान होगा और बासमती तथा नॉन बासमती किसानों के बीच आय को लेकर विभाजन और भी बढ़ जाएगा. नीति के इस आसमान परिणाम को देखकर यह पेपर बासमती निर्यात पर एक्सपोर्ट टैरिफ अर्थात निर्यात शुल्क लगाने का सुझाव देता है जिसका उपयोग सूखे मिलेट्स की MSP बढ़ाने के लिए किया जा सकता है.

इस बदलाव का सम्भावित बोझ उठाने वाले बासमती उत्पादकों को फसल प्रतिस्थापन की समानांतर नीति के माध्यम से राहत पहुंचाई जा सकती है अथवा मुआवजा दिया जा सकता है. बासमती से मिलेट्स की दिशा में परिवर्तन की वज़ह से पानी की मांग भी कम होगी तथा यह क्षेत्र सस्टेनेबल यानी टिकाऊ बन जाएगा. बाज़ार तक बड़ी पहुंच रखने वाले बासमती किसान अपने स्केल एडवांटेज के माध्यम से मिलेट्स के पारिश्रमिक संबंधी बेनिफिट्स पा सकते हैं. मिलेट्स की MSP बढ़ाने के साथ ही मिलेट्स की सभी किस्म को ख़रीद प्रक्रिया के तहत लाने की वज़ह से ग्राहकों की प्राथमिकता को भी धीरे-धीरे आकार दिया जा सकेगा और किसानों को इस बाज़ार में उतारने का अवसर मिल सकेगा. जैसे ही मिलेट्स बाज़ार मुनाफ़े का सौदा बनेगा वैसे ही नॉन बासमती किसान भी अपनी फसल को परिवर्तित करने के लिए तैयार हो जाएंगे. अतः नीति का यह मिश्रण बाज़ार को विस्तारित करने के साथ ही मज़बूती भी प्रदान करेगा और इसकी वज़ह से मौसम अनिश्चित विश्व को एक तेज़ी से बढ़ता हुआ टिकाऊ कृषि क्षेत्र उपलब्ध हो सकेगा.

Endnotes

[a] Under the Antyodaya Anna Yojana, 35 kg of foodgrains are distributed per family each month if the family income does not exceed INR 15,000. Priority households (with an annual income less than INR 100,000) are entitled to 5 kg per person per month.

[b] The government is unable to procure the whole produce due to the lack of adequate procurement infrastructure and facilities.

[1] Directorate of Rice Development, Ministry of Agriculture, Government of India, “Rice – A Status Paper,”

https://drdpat.bih.nic.in/Downloads/Status-Paper-on-Rice.pdf

[2] Etymonline, “Paddy,” January 1, 2024, https://www.etymonline.com/word/paddy

[3]  “UN Declares 2004 the International Year of Rice,” UN News, October 31, 2003, https://news.un.org/en/story/2003/10/84272-un-declares-2004-international-year-rice

[4] National Geographic Education, “Food Staple,” https://education.nationalgeographic.org/resource/food-staple/

[5] Emily Elert, “Rice by the Numbers: A Good Grain,” Nature 514 (2014), https://www.nature.com/articles/514S50a

[6] Naomi K. Fukagawa et al., “Rice: Importance for Global Nutrition,” Journal of Nutritional Science and Vitaminology 65 (2019), https://www.jstage.jst.go.jp/article/jnsv/65/Supplement/65_S2/_pdf

[7] “Infographic - How the Russian Invasion of Ukraine has Further Aggravated the Global Food Crisis,” Council of the European Union, https://www.consilium.europa.eu/en/infographics/how-the-russian-invasion-of-ukraine-has-further-aggravated-the-global-food-crisis/

[8]  Food and Agriculture Organization, FAO Food Outlook, June 2023, Rome, Food and Agriculture Organization of the United Nations, 2023, https://www.fao.org/newsroom/detail/fao-food-outlook--global-output-set-for-expansion--but-declining-imports-by-the-most-vulnerable-countries-are-a-cause-for-concern/en

[9] RICE, CGIAR Research Program RICE Contributions to the United Nations Sustainable Development Goals, RICE CGIAR, 2017, https://ricecrp.org/wp-content/uploads/2017/03/RICE-and-SDGs.pdf

[10]  RICE, “CGIAR Research Program RICE Contributions to the United Nations Sustainable Development Goals”

[11] RICE, “CGIAR Research Program RICE Contributions to the United Nations Sustainable Development Goals”

[12] RICE, “CGIAR Research Program RICE Contributions to the United Nations Sustainable Development Goals”

[13] Mordor Intelligence, Rice Industry in India Size & Share Analysis - Growth Trends & Forecasts (2024 - 2029), Mordor Intelligence, https://www.mordorintelligence.com/industry-reports/india-rice-market

[14] Rice Production, “Major Rice Producing Countries,” The All India Rice Exporters’ Association, https://airea.net/major-rice-producing-countries/

[15]  Statistical Data, “World Rice Trade,” The All India Rice Exporters’ Association, https://airea.net/world-rice-trade/

[16] Ministry of Agriculture & Farmers Welfare, Department of Agriculture and Farmers Welfare, Economics and Statistics Division, Agricultural Statistics at a Glance 2022, Government of India, 2022, https://desagri.gov.in/wp-content/uploads/2023/05/Agricultural-Statistics-at-a-Glance-2022.pdf

[17] Directorate of Rice Development, Ministry of Agriculture, Government of India, “Rice – A Status Paper”

[18] Directorate of Rice Development, Ministry of Agriculture, Government of India, “Rice – A Status Paper”

[19] M. Kumar, “India’s Rice Export: What is in it for Farmers?” Agrarian South: Journal of Political Economy 8, no. 1-2 (2019): 136-71, https://journals.sagepub.com/doi/full/10.1177/2277976019851930#:~:text=Out%20of%20the%20total%20rice,rice%20(APEDA%2C%202017).

[20] Ministry of Agriculture & Farmers Welfare, Department of Agriculture and Farmers Welfare, Economics and Statistics Division, Agricultural Statistics at a Glance 2022, Government of India, 2022, https://desagri.gov.in/wp-content/uploads/2023/05/Agricultural-Statistics-at-a-Glance-2022.pdf

[21] “Section-Wise Area, Production and Productivity of Rice in India (1949-1950 to 2023-2024-1st Advance Estimates),” Indiastat, https://www.indiastat.com/table/rice/season-wise-area-production-productivity-rice-indi/7264

[22] “Rice Yields, 1961-2021,” Our World in Data, https://ourworldindata.org/grapher/rice-yields?tab=table

[23] Directorate of Rice Development, Ministry of Agriculture & Farmer’s Welfare, Government of India, https://drdpat.bih.nic.in/

[24] Ministry of Agriculture & Farmers Welfare, Department of Agriculture and Farmers Welfare, Economics and Statistics Division, Agricultural Statistics at a Glance 2022, Government of India, 2022, https://desagri.gov.in/wp-content/uploads/2023/05/Agricultural-Statistics-at-a-Glance-2022.pdf

[25] Government of India, Department of Food and Public Distribution, “Procurement Policy,” http://34.199.234.160:83/Procurement-Policy.htm

[26]  “Annual Offtake, Allocation and Procurement of Rice,” Indiastat, https://www.indiastat.com/data/agriculture/annual-offtake-allocation-and-procurement-of-rice

[27] Government of India, Department of Food and Public Distribution, “Procurement Policy”

[28] Ministry of Agriculture and Farmers Welfare, Department of Agriculture & Farmers Welfare, Economics and Statistics Division (Food Economics Section), Government of India, “Minimum Support Prices (MSP) for Kharif Crops for Marketing Season 2023-24,” https://desagri.gov.in/wp-content/uploads/2023/06/English-notification-for-website-.pdf

[29] “Statement Showing Minimum Support Prices – Fixed by Government (Rs.quintal),” Farmers’ Portal, https://farmer.gov.in/mspstatements.aspx

[30]  Government of India, “Procurement Policy”

[31]  National Food Security Portal, Department of Food & Public Distribution, Government of India, https://nfsa.gov.in/

[32] Statistical Data, “World Rice Trade,” The All India Rice Exporters’ Association, https://airea.net/world-rice-trade/

[33] Yashi Gupta, “Explained: Why is China Importing Rice from India for the First Time in Decades?” CNBC TV18, December 17, 2020, https://www.cnbctv18.com/world/explained-why-is-china-importing-rice-from-india-for-the-first-time-in-decades-7757601.htm

[34] “Rice Sector at a Glance: Global Rice Production and Consumption,” Economic Research Service, U.S. Department of Agriculture, United States Government, https://www.ers.usda.gov/topics/crops/rice/rice-sector-at-a-glance/#Global

[35] Middle East and Africa Basmati Rice Market Outlook, Expert Market Research, https://www.expertmarketresearch.com/reports/middle-east-and-africa-basmati-rice-market

[36]  “Rice Sector at a Glance: Global Rice Production and Consumption,”

[37] Government of India, Ministry of Commerce and Industry, Export-Import Data Bankhttps://tradestat.commerce.gov.in/eidb/ecom.asp

[38] “Prospects for Market Diversification for a Product Exported by India in 2022, Product : 1006 Rice,” Trade Map, International Trade Centre, https://www.trademap.org/Country_SelProductCountry_Graph.aspx?nvpm=1%7c699%7c%7c%7c%7c1006%7c%7c%7c4% 7c1%7c1%7c2%7c1%7c1%7c2%7c1%7c1%7c2

[39] Rob Vos et al., “COVID-19 and Food Inflation Scares,” In COVID-19 and Global Food Security: Two Years Later (International Food Policy Research Institute, 2022), https://www.ifpri.org/publication/covid-19-and-food-inflation-scares

[40] Ministry of Consumer Affairs, Food & Public Distribution, Government of India, https://pib.gov.in/PressReleasePage.aspx?PRID=1861558

[41] Ministry of Consumer Affairs, Food & Public Distribution, Government of India,

https://www.pib.gov.in/PressReleasePage.aspx?PRID=1941139

[42] Ministry of Consumer Affairs, Food & Public Distribution, Government of India, https://pib.gov.in/PressReleasePage.aspx?PRID=1861558

[43] Ministry of Consumer Affairs, Food & Public Distribution, Government of India, https://pib.gov.in/PressReleasePage.aspx?PRID=1861558

[44] Government of India, “Export-Import Data Bank”

[45] Ministry of Consumer Affairs, Food & Public Distribution, Government of India, https://pib.gov.in/PressReleasePage.aspx?PRID=1858078

[46] Puja Das, “India Clears Non-Basmati Rice Exports to Bhutan, Mauritius, Singapore,” Livemint, August 30, 2023, https://www.livemint.com/news/india/india-lifts-export-ban-on-non-basmati-white-rice-allows-limited-exports-to-bhutan-mauritius-and-singapore-11693418009767.html

[47] Government of India, “Export-Import Data Bank”

[48] Ministry of Consumer Affairs, Food & Public Distribution, Government of India, https://www.pib.gov.in/PressReleasePage.aspx?PRID=1951287

[49] Nathan Childs and Bonni LeBeau, Rice Outlook: August 2023, Economic Research Service, U.S. Department of Agriculture, United States Government, 2023, https://www.ers.usda.gov/webdocs/outlooks/107164/rcs-23g.pdf?v=4873.7

[50] “Section-Wise Area, Production and Productivity of Rice in India (1949-1950 to 2023-2024-1st Advance Estimates)”

[51] Index Mundi, https://www.indexmundi.com/agriculture/?country=in&commodity=milled-rice&graph=domestic-consumption

[52] Department of Consumer Affairs, Government of India, https://fcainfoweb.nic.in/reports/report_menu_web.aspx

[53] Merchandise Trade, Department of Commerce, Ministry of Commerce and Industry, Government of India, https://dashboard.commerce.gov.in/commercedashboard.aspx

[54] “Rice Sector at a Glance: Global Rice Production and Consumption”

[55] Government of India, “Export-Import Data Bank”

[56] “Rice Demand Analysis,” Food and Agricultural Organization of the United Nations, https://www.fao.org/3/y4475e/y4475e08.htm

[57] S. Isvilanonda, and W. Kongrith, “Thai Household’s Rice Consumption and its Demand Elasticity,” ASEAN Economic Bulletin 25, no. 3 (2008): 271-82, https://link.gale.com/apps/doc/A193406509/AONE?u=anon~2bf56937&sid=googleScholar&xid=049cbf3d

[58] Ogoudele Simon Codjo, “Estimating Demand Elasticities for Rice in Benin” (Master of Science diss., University of Arkansas, 2019), https://scholarworks.uark.edu/cgi/viewcontent.cgi?article=4944&context=etd

[59] J.A.L Effiong et. al., “Analysis of the Demand for Locally Processed Rice in Niger State, Nigeria,” Journal of Agriculture and Social Research 6, no. 1 (2006): 22-26, https://www.ajol.info/index.php/jasr/article/view/2868/32157

[60]  “Basmati Rice Sales to Grow 30 Pc on High Demand this Fiscal: Report,” Press Trust of India, February 9, 2023, https://old.ptinews.com/news/business/basmati-rice-sales-to-grow-30-pc-on-high-demand-this-fiscal-report/511186.html

[61] TNAU Agritech Portal, “Water Requirements of Agricultural Crops in Surface Irrigation Methods,” Tamil Nadu Agricultural University, https://agritech.tnau.ac.in/agriculture/agri_irrigationmgt_waterrequirements.html

[62] Jayanta Bandopadhyay and Nilanjan Ghosh, “A Scarcity Value Based Explanation of Trans-Boundary Water Disputes: The Case of the Cauvery River Basin in India,” Water Policy 11, no. 2 (2009): 141-67, https://iwaponline.com/wp/article-abstract/11/2/141/19868/A-scarcity-value-based-explanation-of-trans?redirectedFrom=fulltext

[63] TNAU Agritech Portal, “Water Requirements of Agricultural Crops in Surface Irrigation Methods”

[64] “Cost of Cultivation/Production & Related Data,” Directorate of Economics and Statistics, Department of Agriculture and Farmers Welfare, Ministry of Agriculture and Farmers Welfare, Government of India, https://eands.dacnet.nic.in/Cost_of_Cultivation.htm

[65] Pavithra K. M., “Government Procurement of Millets at MSP Negligible Compared to Rice & Wheat,” Factly, March 15, 2023, https://factly.in/data-government-procurement-of-millets-at-msp-negligible-compared-to-rice-wheat/#:~:text=Jowar%2C%20Ragi%2C%20%26%20Bajra%20are,procurement%20of%20millets%20by%20states.

[66] Neeraj Mohan, “Centre has Agreed to Reduce Basmati MEP to USD 950: Exporters,” Hindustan Times, October 23, 2024, https://www.hindustantimes.com/cities/chandigarh-news/centre-has-agreed-to-reduce-basmati-mep-to-usd-950-exporters-101698087574779.html

[67]  “Statement Showing Minimum Support Prices – Fixed by Government (Rs.quintal)”

[68]   Ruparati Chakraborti et al., “Crop Switching for Water Sustainability in India’s Food Bowl Yields Co-Benefits for Food Security and Farmers’ Profits,” Nat Water 1 (2023): 864-78, https://www.nature.com/articles/s44221-023-00135-z

[69] Chakraborti et al., “Crop Switching for Water Sustainability in India’s Food Bowl Yields Co-Benefits for Food Security and Farmers’ Profits”

[70] “Millets-Future of Food and Farming,” Millet Network of India, Deccan Development Society, and FIAN, India, https://krishi.maharashtra.gov.in/Site/Upload/GR/millets-Book.pdf

[71] J. Bisen et al., “Can Rice Facilitate Revival of Mighty Millets?” ICAR-National Rice Research Institute, 2023, https://icar-nrri.in/wp-content/uploads/2023/05/2023_Rice-Millet.pdf

[72] Bisen et al., “Can Rice Facilitate Revival of Mighty Millets?”

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Arya Roy Bardhan

Arya Roy Bardhan

Arya Roy Bardhan is a Research Assistant at the Centre for New Economic Diplomacy, Observer Research Foundation. His research interests lie in the fields of ...

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