Author : Renita D'souza

Published on Apr 07, 2021 Updated 0 Hours ago

भारतीयों की ख़ुशी को लेकर वर्ल्ड हैप्पीनेस रिपोर्ट 2021 बेहद निराशाजनक तस्वीर पेश करती है. 

वो पाँच वजहें जिसके कारण भारत की पहचान एक ‘उदास और निराश’ आबादी वाले देश की बनती जा रही है!

पूरी दुनिया इस बात को लेकर आम तौर पर सहमत है कि संपूर्ण रूप से हमारे बेहतर होने की नुमाइंदगी जीडीपी नहीं बल्कि ख़ुशी करती है. इस सहमति पर ख़ुशी को मापने की कई कोशिशें आधारित हैं जिनमें से एक वर्ल्ड हैप्पीनेस रिपोर्ट ने प्रकाशित की है जो संयुक्त राष्ट्र सस्टेनेबल डेवलपमेंट सॉल्यूशंस नेटवर्क का एक उत्पाद है. परंपरा के मुताबिक़ वर्ल्ड हैप्पीनेस रिपोर्ट (डब्ल्यूएचआर) 2021, जो नौंवी बार प्रकाशित की गई है, को 20 मार्च को जारी किया गया जिस दिन संयुक्त राष्ट्र अंतर्राष्ट्रीय ख़ुशी दिवस मनाया जाता है. भारतीयों की ख़ुशी को लेकर वर्ल्ड हैप्पीनेस रिपोर्ट 2021 बेहद निराशाजनक तस्वीर पेश करती है. इसलिए ये ज़रूरी है कि इस रिपोर्ट में जो बातें बताई गई हैं उन पर गहराई से विचार किया जाए ताकि काफ़ी हद तक एक नाख़ुश भारत के पीछे की वजहों की जानकारी हासिल की जा सके. 

डब्ल्यूएचआर ख़ुशी की रैंकिंग “जीवन मूल्यांकन” के आधार पर करती है. ये मूल्यांकन वर्ल्ड गैलप पोल से हासिल की जाती हैं जिसमें लोगों से कहा जाता है कि वो जीवन की गुणवत्ता के बारे में ख़ुद को 0 से 10 तक की स्थिति में रखें. जीवन की सबसे अच्छी स्थिति उस वक़्त होती है जब कोई व्यक्ति ख़ुद को 10 स्कोर दे जबकि सबसे ख़राब जीवन की स्थिति उस वक़्त होती है जब कोई व्यक्ति ख़ुद को 0 स्कोर दे. जो लोग सात या उससे ज़्यादा ख़ुद को स्कोर देते हैं वो जीवन की गुणवत्ता के मामले में “फलते-फूलते” व्यक्ति होते हैं. जिनका स्कोर चार से सात के बीच होता है उन्हें “संघर्षशील” कहा जाता है जबकि चार और उससे कम स्कोर वालों को “अत्यंत” दुख़ी माना जाता है. हर देश का कुल स्कोर भारण प्रक्रिया का इस्तेमाल करके निकाला जाता है जो राष्ट्रीय औसत तय करता है. इस प्रक्रिया के आधार पर 2020 में भारत का स्कोर बेहद ख़राब 4.225 रहा. ये स्कोर पूरी तरह 2020 के आंकड़ों पर आधारित है. इसका मतलब ये है कि एक भारतीय नागरिक जीवन संतुष्टि के मामले में “संघर्ष” कर रहा है. 

डब्ल्यूएचआर ख़ुशी की रैंकिंग “जीवन मूल्यांकन” के आधार पर करती है. ये मूल्यांकन वर्ल्ड गैलप पोल से हासिल की जाती हैं जिसमें लोगों से कहा जाता है कि वो जीवन की गुणवत्ता के बारे में ख़ुद को 0 से 10 तक की स्थिति में रखें

डब्ल्यूएचआर 2021 ने प्रमुख परिवर्तनशील चीज़ों की पहचान की है जो जीवन के मूल्यांकन में अंतर्राष्ट्रीय विभिन्नता के बारे में बता सकती है. इनमें घरेलू आमदनी, स्वास्थ्य, नागरिकों द्वारा दिखाई गई उदारता, पसंद का जीवनसंगी चुनने की आज़ादी, भ्रष्टाचार को लेकर अनुभव, नागरिकों के दोस्तों और संबंधियों द्वारा सामाजिक समर्थन, शिक्षा, रोज़गार, उम्र, लिंग, वैवाहिक स्थिति और संस्थानों में विश्वास शामिल हैं. ऐसे में हैरानी की बात नहीं है कि इन परिवर्तनशील चीज़ों का एक उपवर्ग ही बताता है कि क्यों एक औसत भारतीय नागरिक जीवन में ख़ुशी हासिल करने के लिए “संघर्ष” कर रहा है. 

पहली वजह: कम होती आमदनी और रोज़गार 

साल 2020 इस बात का गवाह रहा है कि किस तरह कोविड-19 महामारी के रूप में एक अभूतपूर्व मानवीय संकट ने दुनिया भर को तहस-नहस कर दिया. इस संकट की शुरुआत में एक तात्कालिक क़दम ये उठाया गया कि कई देशों में लॉकडाउन लगा दिया गया. भारत उन देशों में से एक है. वास्तव में ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी की सख़्ती के इंडेक्स में भारत के लॉकडाउन को दुनिया के सबसे कठोर लॉकडाउन में से एक बताया गया. इस लॉकडाउन की वजह से भारतीय अर्थव्यवस्था को तगड़ा झटका लगा. इस लॉकडाउन का सबसे गंभीर नतीजा देश में प्रवासी संकट के रूप में सामने आया. आजीविका के नुक़सान और उसकी वजह से आमदनी में कमी लाज़मी थी. समय और लॉकडाउन की अपेक्षाकृत सख़्ती के मुताबिक़ आमदनी में सबसे ज़्यादा कमी अप्रैल 2020 में दिखी जब ग्रामीण और शहरी भारत की आमदनी क्रमश: 19 प्रतिशत और 41 प्रतिशत गिरी. इस कमी की वजह से आर्थिक विकास में 23.9 प्रतिशत की गिरावट आई और बेरोज़गारी दर क़रीब 24 प्रतिशत पर पहुंच गई. रोज़गार और आमदनी– दोनों में रिकवरी हुई भी तो उसे बहुत अच्छा नहीं कहा जा सकता. 

भारत में स्थिति को और भी ख़राब ये तथ्य बनाता है कि यहां श्रमिक संख्या का क़रीब 90 प्रतिशत अनौपचारिक क्षेत्र में है. इसकी वजह से श्रमिकों का एक बड़ा हिस्सा सामाजिक सुरक्षा से वंचित है.

संतोषजनक रोज़गार और आमदनी के पर्याप्त स्रोत निश्चित रूप से जीवन संतुष्टि को सुनिश्चित करने के लिए काफ़ी नहीं हो सकते जैसा कि अक्सर दलील दी जाती है लेकिन उसके लिए हर हाल में ज़रूरी हैं. भारत में स्थिति को और भी ख़राब ये तथ्य बनाता है कि यहां श्रमिक संख्या का क़रीब 90 प्रतिशत अनौपचारिक क्षेत्र में है. इसकी वजह से श्रमिकों का एक बड़ा हिस्सा सामाजिक सुरक्षा से वंचित है. उन्हें न तो आमदनी की वो सुरक्षा मिलती है जो बचत सुनिश्चित करती है, न ही उनके पास वो संसाधन हैं जो झटके की स्थिति यानी जैसी मौजूदा महामारी जैसी स्थिति में उनके लिए प्रतिरोधक का काम कर सकें. ऐसे में अनौपचारिक क्षेत्र में काम करने वाले लोगों के लिए महामारी का आर्थिक बोझ और मुसीबत काफ़ी ज़्यादा रही. 

दूसरी वजह: देश में भ्रष्टाचार को लेकर नकारात्मक समझ

करप्शन परसेप्शन इंडेक्स (सीपीआई) 2020 में भारत का स्कोर 100 में 40 रहा. 90-100 के बीच का स्कोर भ्रष्टाचार को लेकर बेहद स्वच्छ देश बताता है जबकि 0-9 के बीच का स्कोर बताता है कि वो देश काफ़ी भ्रष्ट है. सीपीआई 2020 में भारत 180 देशों में 86वें पायदान पर है. कुछ जानकार ऐसे भी हैं जिनका मानना है कि भारत का स्कोर यहां व्यापक स्तर पर व्याप्त भ्रष्टाचार का सही आकलन नहीं करता. इस शंका को ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल द्वारा प्रकाशित ग्लोबल करप्शन बैरोमीटर एशिया सर्वे के नतीजे सही ठहराते हैं. इस सर्वे के मुताबिक़ एशिया के देशों में भारत में रिश्वतखोरी की दर (39 प्रतिशत) सबसे ज़्यादा है और यहां के नागरिकों के द्वारा व्यक्तिगत संपर्क इस्तेमाल करने की दर (46 प्रतिशत) भी सबसे ज़्यादा है. रिपोर्ट का निष्कर्ष बताता है कि, “भारत में जिन लोगों पर सर्वे किया गया उनमें से पुलिस के संपर्क में आने वाले 42% लोगों ने रिश्वत दी. आधिकारिक दस्तावेज़ जैसे कि पहचान के कागज़ात हासिल करने में भी रिश्वतखोरी (41%) बहुत ज़्यादा थी. व्यक्तिगत संपर्क का इस्तेमाल भी पुलिस से लेन-देन (39%), पहचान के दस्तावेज़ हासिल करने (42%) और अदालतों से जुड़े मामलों (38%) में व्यापक तौर पर किया जाता है.”

कोविड-19 के युग में ये साफ़ है कि उच्च शैक्षणिक योग्यता और उसकी वजह से बेहतर नौकरी की संभावना वाले लोग आने वाली आर्थिक दिक़्क़तों का सामना करने के लिए अच्छे तरीक़े से तैयार हैं.

तीसरी वजह: सामाजिक समर्थन की कमी

सामाजिक समर्थन पर राष्ट्रीय स्कोर इस सवाल के जवाब (0 या 1) का राष्ट्रीय औसत है कि “अगर आप मुसीबत में हैं तो क्या आपके पास ऐसे रिश्तेदार या दोस्त हैं जिनसे आप मदद की उम्मीद कर सकते हैं या नहीं?” भारत का इस मामले में स्कोर 0.617 रहा जो 2020 के सर्वे में जिन 95 देशों के आंकड़े जुटाए गए थे, उनमें से सिर्फ़ तीन देशों के स्कोर से ज़्यादा था. दूसरे शब्दों में, जहां तक सामाजिक समर्थन की बात है तो भारत जिन 95 देशों के आंकड़े उपलब्ध हैं, उनमें 92वें पायदान पर है. 

चौथी वजह: शैक्षणिक योग्यता का निम्न स्तर

सारणी: शैक्षिक योग्यता द्वारा श्रमिकों का प्रतिशत वितरण (2018-19)

Education Level Regular Formal Regular Informal RWS Self-Employed Casual Workers Total
Not literate 2.29 11.79 7.93 25.70 37.41 24.30
Literate without formal education 0.04 0.19 0.13 0.43 0.50 0.38
Literate below Primary 1.25 3.90 2.83 5.67 8.03 5.56
Primary 3.28 12.66 8.85 14.20 18.14 13.88
Middle 10.52 23.57 18.27 22.46 21.72 21.28
Secondary 10.99 15.00 13.37 12.99 8.90 12.09
Higher Secondary 20.16 14.79 16.97 10.06 4.24 10.30
Graduates and above 51.48 18.09 31.65 8.51 1.06 12.22
Total 100 100 100 100 100 100

Source: PLFS unit data (2018–19)

जैसा कि ऊपर के आंकड़े बताते हैं, भारत में काम करने वाले लोगों में से 87.29 प्रतिशत की योग्यता उच्चतर माध्यमिक या उससे कम है. सामाजिक सुरक्षा, लिखित समझौते और दूसरी सुविधा वाली नौकरियां आमतौर पर उन लोगों को मिलती है जिनके पास उच्च शैक्षणिक योग्यता होती है- भारत में ऐसे लोग अल्पसंख्यक या कम संख्या में हैं. बेहद योग्य लोगों वाली नौकरी आमतौर पर ऐसी होती हैं जो डिजिटल बन सकती हैं. उदाहरण के लिए, एक मज़दूर की नौकरी ऑनलाइन नहीं हो सकती लेकिन ज्ञान वाली अर्थव्यवस्था के कई पहलू आसानी से ऐसा बदलाव कर सकते हैं. कोविड-19 के युग में ये साफ़ है कि उच्च शैक्षणिक योग्यता और उसकी वजह से बेहतर नौकरी की संभावना वाले लोग आने वाली आर्थिक दिक़्क़तों का सामना करने के लिए अच्छे तरीक़े से तैयार हैं. हैरानी की बात नहीं कि जीवन संतुष्टि के लिए शिक्षा एक महत्वपूर्ण चीज़ है, ख़ास तौर पर कोविड-19 के दौर में. 

उच्च शैक्षणिक योग्यता वाले लोगों के लिए सामाजिक नाता बरकरार रखने में डिजिटल तरीक़े को अपनाना ज़्यादा आसान है. सामाजिक नाता बनाए रखना जीवन संतुष्टि के लिए महत्वपूर्ण है. 

पांचवीं वजह: भारत की जनसंख्या की उम्र के आधार पर संरचना

भारत की जनसंख्या में बड़ा हिस्सा नौजवानों का है. भारत में क़रीब 67 प्रतिशत लोग 15-64 साल की उम्र की श्रेणी में हैं. डब्ल्यूएचआर 2021 हमें बताता है कि पूरी जनसंख्या के लिए स्वास्थ्य समस्या का आंकड़ा 23 प्रतिशत से घटकर 20 प्रतिशत हो गया है. 60 साल से ज़्यादा उम्र के लोगों में ये समस्या ज़्यादा है. जहां तक भारत की बात है तो इस फ़ायदे की वजह यहां की आबादी में नौजवानों की बड़ी संख्या है. इससे भी बढ़कर, जीवन का मूल्यांकन 30 साल से कम और 60 साल से ज़्यादा लोगों के लिए काफ़ी ज़्यादा है. क़रीब 50 प्रतिशत आबादी इन उम्र के बीच की है. जीवन मूल्यांकन में बढ़ोतरी का आनंद उठा रहे लोगों की ख़ुशी बाक़ी आधी जनसंख्या के द्वारा आजीविका और आमदनी के नुक़सान की वजह से चिंता, ग़ुस्सा और दुख के कारण कम हो सकती है. जैसा कि पहले ही दलील दी गई है कि इन नुक़सानों का बोझ भारतीय संदर्भ में ज़्यादा भारी है. जिसको एक वक़्त जनसंख्या से फ़ायदा उठाने का मौक़ा बताया जा रहा था अब वो देश में बेरोज़गारी के स्तर को देखते हुए राष्ट्रीय दायित्व बन गया है. 

जहां तक भारत में ख़ुशी की बात है तो बहुत चीज़ों पर विचार करने की ज़रूरत है. इसको संक्षेप में बताने के लिए दिवंगत राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी के शब्दों से बेहतर चीज़ नहीं है. उन्होंने कहा था, “आर्थिक विकास के एक संकीर्ण दृष्टिकोण ने भले ही हमें बेहतर जीडीपी और प्रति व्यक्ति आमदनी में बढ़ोतरी दिया हो लेकिन इसकी वजह से हमारा ध्यान पर्यावरणीय निरंतरता, सामाजिक कल्याण, हमारे लोगों की भावनात्मक और मानसिक सेहत से दूसरी तरफ़ चला गया है. ख़ुशी की तलाश निरंतर विकास, जो कि सामाजिक समावेशन और पर्यावरणीय निरंतरता का मेल-जोल है, की तलाश से नज़दीकी तौर पर जुड़ी है.” वास्तव में सही मायनों में तरक़्क़ी के लिए, जो कि ख़ुशी से ज़्यादा कहीं नहीं दिखती, भारत को सभी आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक पहलुओं में निरंतरता और समावेशन को अपनाना होगा. 

The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.