Published on Sep 13, 2019 Updated 0 Hours ago

राज्य के मूल निवासियों को डर है कि अगर घुसपैठ को नहीं रोका गया तो बाहरी लोगों की आबादी स्थानीय लोगों से अधिक हो जाएगी. वे अपनी बात को सही साबित करने के लिए कुछ ज़िलों में बंगाली मुस्लिम आबादी में हुई भारी बढ़ोतरी की दलील दे रहे हैं.

NRC की फाइनल लिस्ट से जवाब कम मिले, सवाल कहीं अधिक खड़े हुए!

असम में 31 अगस्त को नेशनल रजिस्ट्रेशन ऑफ सिटिजंस (एनआरसी) की अंतिम लिस्ट आई. 3.29 करोड़ आवेदकों में से कुल 3,11,21,004 नागरिकों को इसमें जगह मिली. इसका मतलब है कि लाखों लोग अंतिम लिस्ट में जगह नहीं बना पाए. इसी साल जुलाई में एनआरसी का अंतिम मसौदा आया था, जिसमें करीब 40 लाख लोगों के नाम नहीं थे. यह बात महत्वपूर्ण है कि अंतिम लिस्ट में आखिरी मसौदे की तुलना में कहीं अधिक नागरिकों के नाम हैं.

असम में अवैध प्रवासियों की समस्या का पता लगाने के लिए एनआरसी बनाने की शुरुआत हुई थी, जिसमें भारतीय नागरिकों के नाम रजिस्टर किए जाने थे. ऐसा माना जाता है कि बांग्लादेश से घुसपैठ के कारण असम की डेमोग्राफी (आबादी की संरचना) में बदलाव हुआ है. असम के लोग सीमापार से घुसपैठ रोकने की मांग कर रहे थे. हालांकि, एनआरसी से घुसपैठ की समस्या सुलझने के बजाय और उलझ गई है. लोग भ्रमित हैं और इससे समस्या हल होने की बजाय कई सवाल खड़े हुए हैं. इसमें सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा उन 19 लाख लोगों से जुड़ा है, जिनके नाम अंतिम लिस्ट में नहीं हैं. असम की राजनीति में लंबे समय से बांग्लादेश से घुसपैठ का मुद्दा छाया रहा है. इस समस्या का समाधान तलाशने की बजाय सभी राजनीतिक दलों ने इसका चुनावी लाभ लेने की कोशिश की है. 1980 के दशक में राज्य में इसी मुद्दे को लेकर एथनिक हिंसा भड़की थी. राज्य के मूल निवासियों को डर है कि अगर घुसपैठ को नहीं रोका गया तो बाहरी लोगों की आबादी स्थानीय लोगों से अधिक हो जाएगी. वे अपनी बात को सही साबित करने के लिए कुछ जिलों में बंगाली मुस्लिम आबादी में हुई भारी बढ़ोतरी की दलील दे रहे हैं, जबकि सच्चाई यह है कि बांग्लादेश से राज्य में आने वालों को लेकर कोई प्रामाणिक सरकारी आंकड़ा नहीं है. समय-समय पर सरकारी सूत्रों की तरफ से इसके अनुमान आते रहते हैं, लेकिन उनमें भारी अंतर रहा है. इनमें बांग्लादेश से आने वालों की संख्या 30 लाख से लेकर 2 करोड़ तक बताई जाती है.

असम की राजनीति में लंबे समय से बांग्लादेश से घुसपैठ का मुद्दा छाया रहा है. इस समस्या का समाधान तलाशने की बजाय सभी राजनीतिक दलों ने इसका चुनावी लाभ लेने की कोशिश की है.

एनआरसी लिस्ट से 19 लाख लोगों के बाहर रहने से भी इन आंकड़ों पर सवालिया निशान लग गया है. असम में ज्यादातर लोगों का मानना है कि बड़ी संख्या में घुसपैठिये अवैध तरीके से हासिल किए गए दस्तावेज़ों की मदद से एनआरसी की अंतिम लिस्ट में जगह बनाने में सफल रहे हैं. नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटिजंस में नागरिकता साबित करने वाले दस्तावेज़ों के पारदर्शी तरीके से विश्लेषण पर जोर दिया गया है. दिलचस्प बात यह है कि जिस एनआरसी से घुसपैठ विवाद के ख़त्म होने की उम्मीद की जा रही थी, उससे राज्य में नई तनातनी की शुरुआत हो सकती है. सत्ताधारी राजनीतिक दल के कुछ नेताओं ने तो यहां तक कहा है कि वे विदेशियों की पहचान के लिए वैकल्पिक तरीकों का इस्तेमाल करेंगे. ऐसी आशंका जताई जा रही है कि इस लिस्ट से राज्य में सामुदायिक ध्रुवीकरण और तेज हो सकता है, जबकि एथनिक और धार्मिक आधार पर यहां के लोग पहले ही बंटे हुए हैं. 2010 में असम के दो जिलों — बारपेटा और कामरूप में पायलट आधार पर एनआरसी की शुरुआत हुई थी. हालांकि, इनमें से एक जिले में हिंसा के बाद इस प्रक्रिया को रोक दिया गया. असम पब्लिक वर्क्स नाम के स्वयंसेवी संगठन की याचिका पर सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद इसमें फिर से जान पड़ी. इस याचिका में अवैध प्रवासियों के नाम वोटर लिस्ट से हटाने की मांग की गई थी. उसके बाद सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में असम सरकार ने एनआरसी बनाने का काम पूरा किया.

जिस एनआरसी से घुसपैठ विवाद के ख़त्म होने की उम्मीद की जा रही थी, उससे राज्य में नई तनातनी की शुरुआत हो सकती है. सत्ताधारी राजनीतिक दल के कुछ नेताओं ने तो यहां तक कहा है कि वे विदेशियों की पहचान के लिए वैकल्पिक तरीकों का इस्तेमाल करेंगे.

इस प्रक्रिया से जुड़ा एक बड़ा सवाल यह है कि एनआरसी से किसे फायदा हुआ — स्थानीय लोगों को या अवैध प्रवासियों को. इसका राज्य में रहने वालों की जिंदगी पर क्या असर होगा? जिन लोगों को एनआरसी में जगह नहीं मिली है, अगर वे प्रवासी भी हैं तो उनके यहां आने की मजबूरियां रही होंगी. आज के हालात को देखकर यह नहीं लगता कि इन लोगों को वापस बांग्लादेश भेजना मुमकिन है. दूसरी तरफ, बांग्लादेश यह भी नहीं मानता कि उसके यहां से भारत में घुसपैठ हुई है. सरकार भी एनआरसी लिस्ट से बाहर रखे गए सभी लोगों को अवैध प्रवासी नहीं बल्कि शरणार्थी मानती है. मिसाल के लिए, इनमें बंगाली हिंदू भी शामिल हैं, जो जान-माल के डर से बांग्लादेश से असम आए थे. असम की सत्ताधारी पार्टी एनआरसी की अंतिम लिस्ट से खुश नहीं है और वह इस पर अपनी नाराज़गी का इज़हार भी कर चुकी है. इसके अलावा, एनआरसी की अंतिम लिस्ट में जगह नहीं पाने वालों में महिलाओं की बड़ी संख्या है, जो शादी करके राज्य में आई थीं. इन सभी समस्याओं का धीरज के साथ हल निकालने की जरूरत है. सरकार ने इसके लिए समुचित व्यवस्था बनाई है. जिन लोगों के नाम लिस्ट में नहीं हैं, उनसे जुड़े मामलों की सुनवाई के लिए 400 फॉरेनर्स ट्रिब्यूनल (एफटी) बनाए जा रहे हैं. इन लोगों को अंतिम लिस्ट आने के 120 दिनों के अंदर दावा पेश करना होगा. अगर कोई शख्स फॉरेनर्स ट्रिब्यूनल के आदेश से खुश नहीं है तो वह हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट भी जा सकता है. सरकार ने यह वादा भी किया है कि जब तक ऐसा कोई शख्स सारे विकल्पों का इस्तेमाल नहीं कर लेता, तब तक उसे विदेशी नहीं माना जाएगा. इसके साथ सच यह भी है कि ये ऐलान उन लोगों के ज़ख्म पर मरहम लगाने के लिए काफी नहीं हैं, जो नागरिकता गंवाने के डर का सदमा झेल रहे हैं. एनआरसी की कई ख़ामियां सामने आई हैं और इससे एक हद तक असम के लोगों का राज्य सरकार की मशीनरी पर भरोसा घटा है. इसके बावजूद शांति की उम्मीद और देश पर गर्व सबके दिलों में है. लोगों के मन में आस है कि असम आगे चलकर बहुलतावाद की भावना को बहाल करने में सफल रहेगा.

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