ये लेख अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस सीरीज़ का हिस्सा है.
भारत के वर्कफोर्स (श्रम बल) में पुरुषों का दबदबा है. जो देश अपने डेमोग्राफिक डिविडेंड (जनसंख्या से जुड़े फायदे) का इस्तेमाल करना चाहता है- जहां दुनिया में सबसे ज़्यादा काम-काजी आबादी है और जो 2030 तक लगभग 70 प्रतिशत तक पहुंचने की उम्मीद है- वो वर्कफोर्स में महिलाओं की कम भागीदारी का ख़तरा नहीं उठा सकता है. भारत दुनिया के विकास में सबसे बड़ा योगदानकर्ता बनने वाला है. हाल की एक रिपोर्ट में अनुमान लगाया गया है कि 8 प्रतिशत की GDP विकास दर को हासिल करने के लिए अगले पांच साल महत्वपूर्ण हैं और इस विकास को सुनिश्चित करने के लिए 2030 तक तैयार होने वाले नए वर्कफोर्स में महिलाओं की भागीदारी आधे से ज़्यादा ज़रूर होनी चाहिए.
हाल की एक रिपोर्ट में अनुमान लगाया गया है कि 8 प्रतिशत की GDP विकास दर को हासिल करने के लिए अगले पांच साल महत्वपूर्ण हैं और इस विकास को सुनिश्चित करने के लिए 2030 तक तैयार होने वाले नए वर्कफोर्स में महिलाओं की भागीदारी आधे से ज़्यादा ज़रूर होनी चाहिए.
देश के वर्कफोर्स में महिलाओं की भागीदारी में गिरावट का ऐतिहासिक उदाहरण है. फीमेल लेबर फोर्स पार्टिसिपेशन रेट यानी श्रम बल में महिलाओं की हिस्सेदारी की दर (FLFPR) आज़ादी के कुछ साल बाद 1955 में 24.1 प्रतिशत थी. 1972 में FLFPR बढ़कर 33 प्रतिशत हो गई लेकिन इसके बाद इसमें लगातार गिरावट आई और 2017 में ये घटकर 23 प्रतिशत के न्यूनतम स्तर पर पहुंच गई. भारत के श्रम बल में लैंगिक अंतर (जेंडर गैप) हाल के दशकों में सबसे लगातार विरोधाभास बना हुआ है. इसका कारण काफी हद तक रूढ़िवादी सामाजिक मानदंड और मांग पक्ष (काम-काज के अवसर) एवं आपूर्ति पक्ष (काम-काज के लिए महिलाओं की उपलब्धता) जैसे कारकों को बताया जाता है. ये स्थिति पिछले कुछ दशकों के दौरान आर्थिक विकास में तेज़ी, फर्टिलिटी रेट (प्रजनन दर) में गिरावट और उच्च शिक्षा में महिलाओं के दाखिले में बढ़ोतरी के बावजूद है. भुगतान वाले काम-काज (पेड वर्क) से महिलाओं को दूर रखने का नतीजा अर्थव्यवस्था में लगातार लैंगिक असमानता के रूप में निकला है. पारंपरिक रूप से भारत की महिलाओं को आम तौर पर श्रम केंद्रित, कम भुगतान और बिना किसी सामाजिक सुरक्षा के अनौपचारिक काम-काज में रोज़गार मिला है.
हालांकि, पिछले छह वर्षों में FLFPR में सुधार हुआ है और नए रुझान उभर रहे हैं. पीरियोडिक लेबर फोर्स सर्वे (PLFS) यानी अवधिक श्रम बल सर्वेक्षण (2022-23) के आंकड़े संकेत देते हैं कि FLFPR 37 प्रतिशत है जो कि पिछले सर्वे (2021-22) की तुलना में 4.2 प्रतिशत प्वाइंट ज़्यादा है.
युवा, अधिक शिक्षित महिलाएं वर्कफोर्स में शामिल हो रही हैं
ये बदलाव दूसरी रिपोर्ट में भी दिखी है जैसे कि स्टेट ऑफ वर्किंग इंडिया रिपोर्ट 2023 जिसने भारत में रोज़गार के चलन में लैंगिक असमानता में कमी की तरफ इशारा किया. ये कमी अर्थव्यवस्था में संरचनात्मक परिवर्तन से जुड़ी है जिसकी वजह से पूरे देश में महिला वर्कफोर्स में बदलाव हुआ है.
(i) रिपोर्ट बताती है कि कम पढ़ाई करने वाली अधिक उम्र की महिलाएं वर्कफोर्स से बाहर हो रही हैं. इसके साथ-साथ ज़्यादा पढ़ाई करने वाली कम उम्र की महिलाएं वर्कफोर्स में शामिल हो रही हैं.
(ii) वेतन वाले रोज़गार में महिलाओं की संख्या बढ़ रही है जबकि अनौपचारिक मज़दूरी वाले काम-काज में महिलाओं की संख्या घट रही है.
(iii) खेती में काम करने वाली महिलाओं का हिस्सा घट रहा है. सर्विस सेक्टर में शामिल होने वाली महिलाओं का अनुपात बढ़ रहा है.
जैसे-जैसे वेतन वाले रोज़गार में महिलाओं की संख्या बढ़ती है, वैसे-वैसे कमाई के मामले में लैंगिक अंतर (जेंडर गैप) पर इसका सकारात्मक असर पड़ता है. ज़्यादा महिलाओं के द्वारा अनौपचारिक (कैज़ुअल) मज़दूरी वाला काम-काज छोड़ने से लैंगिक अंतर में कमी आती है. महिला श्रम बल में इन बदलावों का मतलब देश में महिलाओं की आर्थिक भागीदारी पर दीर्घकालीन असर है.
PLFS के आंकड़े दिखाते हैं कि शहरी महिलाओं के लिए LFPR में जहां 5 प्रतिशत प्वाइंट की बढ़ोतरी हुई वहीं ग्रामीण महिलाओं के लिए 14 प्रतिशत प्वाइंट. कई विश्लेषणों के मुताबिक ये आंशिक तौर पर महिलाओं के काम-काज के अधिक सटीक माप से जुड़ी हो सकता है.
लेबर फोर्स में महिलाओं की भागीदारी में कुल बढ़ोतरी की वजह ग्रामीण महिलाओं का वर्कफोर्स में शामिल होना है. PLFS के आंकड़े दिखाते हैं कि शहरी महिलाओं के लिए LFPR में जहां 5 प्रतिशत प्वाइंट की बढ़ोतरी हुई वहीं ग्रामीण महिलाओं के लिए 14 प्रतिशत प्वाइंट. कई विश्लेषणों के मुताबिक ये आंशिक तौर पर महिलाओं के काम-काज के अधिक सटीक माप से जुड़ी हो सकता है. भारत और कई विकासशील देशों में महिलाएं व्यापक रूप से बिना भुगतान (अनपेड) के आर्थिक काम से जुड़ी होती हैं. ये अनपेड काम देखभाल या घरेलू काम से अलग है. खेतों में काम या परिवार के कारोबार में काम इसके उदाहरण हैं जिनके लिए उन्हें न तो पैसा दिया जाता है, न ही कामगार के तौर पर उन्हें मान्यता दी जाती है. अब जो डेटा इकट्ठा किए जा रहे हैं वो ऐतिहासिक रूप से महिलाओं के काम-काज के गलत माप की तुलना में ज़्यादा अवगत हैं और शायद ये FLFPR में बढ़ोतरी का कारण हो सकता है. बिना भुगतान वाली महिला कामगार 2017-18 में कुल महिला कामगार में 31.7 प्रतिशत की तुलना में बढ़कर 2022-23 में 37 प्रतिशत हो गईं.
महिलाओं के स्व-रोज़गार में बढ़ोत्तरी लेकिन देखभाल से जुड़े बोझ में कोई अंतर नहीं
PLFS के ताज़ा राउंड (2022-23) में एक और महत्वपूर्ण रुझान देखा गया. स्व-रोज़गार करने वाली महिलाओं का अनुपात सबसे उच्चतम स्तर पर पहुंच गया. 2021-22 के 60 प्रतिशत की तुलना में ये बढ़कर 70.1 प्रतिशत हो गया. PLFS में स्व-रोज़गार की दो उप-श्रेणियां हैं- स्वयं कामगार (ओन अकाउंट वर्कर) एवं नियोक्ता और घरेलू उद्यमों में बिना वेतन की सहायक (अनपेड हेल्पर). आधे से ज़्यादा महिलाओं ने घरेलू उद्यमों में 'बिना वेतन की सहायक' के रूप में काम किया.
शहरी क्षेत्रों की तुलना में ग्रामीण क्षेत्रों में स्व-रोज़गार करने वाली महिला कामगारों का हिस्सा हमेशा से अधिक रहा है. खेती और उससे जुड़ी गतिविधियां ग्रामीण महिलाओं के काम-काज में तीन-चौथाई हिस्सा हैं. स्व-रोज़गार करने वाली महिला कामगारों की संख्या में बढ़ोतरी की व्याख्या इस तरह से भी की जा सकती है कि ये देश भर में अधिक संख्या में महिलाओं के द्वारा एंटरप्रेन्योरशिप संभालने का संकेत है. प्रधानमंत्री मुद्रा योजना, जो एंटरप्रेन्योरशिप के लिए छोटे कर्ज़ देती है, के तहत लगभग 70 प्रतिशत लाभार्थी महिलाएं हैं और स्टार्ट-अप इंडिया के तहत स्वीकृत किया गया 84 प्रतिशत कर्ज भी महिलाओं को मिला है. इन दोनों योजनाओं को हाल के वर्षों में डिजिटल वित्तीय समावेशन, जो लैंगिक तौर पर समावेशी रहा है, के अभियान के ज़रिए मज़बूत बनाया गया है.
हालांकि, कुछ चेतावनियों पर ज़रूर ध्यान दिया जाना चाहिए. स्टेट ऑफ इंडिया वर्किंग रिपोर्ट स्व-रोज़गार करने वाली ग्रामीण महिलाओं की संख्या में बढ़ोतरी को महामारी के बाद आर्थिक परेशानी में बढ़ोतरी से जोड़ती है जिसने पुरुषों की तुलना में महिलाओं को अधिक प्रभावित किया है. आंकड़े इस बात की पुष्टि करते हैं. कामगारों की स्व-रोज़गार वाली श्रेणी में बढ़ोतरी, जो महामारी के दौरान पुरुषों और महिलाओं- दोनों के बीच व्याप्त थी, पुरुषों के लिए महामारी से पहले के समय के स्तर पर आ गई है लेकिन महिलाओं के लिए बढ़ी हुई है. ये हो सकता है कि दोनों रुझानों का अस्तित्व हो, आर्थिक संकट ने अधिक महिलाओं को पैसे वाले काम-काज (पेड वर्क) में आने के लिए मजबूर किया होगा और सरकारी योजनाओं के माध्यम से कर्ज की आसान उपलब्धता ने अधिक महिलाओं को छोटा उद्यम शुरू करने में सक्षम बनाया होगा. मामला चाहे कुछ भी हो लेकिन भारतीय अर्थव्यवस्था में महिलाओं की भागीदारी में मौलिक बदलाव हो रहा है.
स्टेट ऑफ इंडिया वर्किंग रिपोर्ट स्व-रोज़गार करने वाली ग्रामीण महिलाओं की संख्या में बढ़ोतरी को महामारी के बाद आर्थिक परेशानी में बढ़ोतरी से जोड़ती है जिसने पुरुषों की तुलना में महिलाओं को अधिक प्रभावित किया है.
उम्मीद के मुताबिक वर्कफोर्स में महिलाओं की भागीदारी में समग्र बढ़ोतरी के बावजूद देखभाल के काम और घरेलू काम में महिलाओं के बोझ में कमी नहीं आई है. भारत की महिलाएं औसतन 7.2 घंटे बिना भुगतान (अनपेड) वाले घरेलू काम में बिताती हैं जबकि पुरुष सिर्फ 2.8 घंटे बिताते हैं. इसका भुगतान (पेड) वाले काम-काज में भागीदारी करने की महिलाओं की क्षमता पर सीधा असर पड़ता है.
देश में अधिक महिलाओं के पेड वर्क में शामिल होने के साथ रोज़गार की क्वॉलिटी मायने रखेगी. अच्छा काम, उचित आमदनी, सामाजिक सुरक्षा और सुरक्षित काम-काज के हालात रोज़गार की क्वालिटी के लक्ष्य होंगे. इसके साथ-साथ वर्कफोर्स में महिलाओं के प्रवेश का समर्थन घर में देखभाल के काम-काज में कमी और उसे दूसरों से बांटने के साथ-साथ देखभाल के बुनियादी ढांचे और सेवाओं में अधिक निवेश के साथ करना चाहिए.
सुनैना कुमार ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन में सीनियर फेलो हैं.
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