Author : Ramanath Jha

Published on Jan 30, 2020 Updated 0 Hours ago

मौजूदा यूपी सरकार ने सुधार और बदलाव के जो उपाय किए हैं वो वक्त़ की ज़रूरत के अनुरूप है लेकिन पारदर्शिता तथा जवाबदेही के स्पष्ट मानकों के अभाव में पुलिसिया तंत्र के सत्तापक्ष के हाथ की कठपुतली बनने की आशंका है.

उत्तर-प्रदेश में लागू हुआ पुलिस कमिश्नर सिस्टम: कितनी बेहतर होगी पुलिसिंग?

बीते हफ्ते लखनऊ से आ रही ख़बरों  से संकेत मिल रहे थे कि उत्तर प्रदेश सरकार दो बड़े शहरों लखनऊ और नोएडा में पुलिस  कमिश्नर की व्यवस्था लागू करने पर बड़ी शिद्दत से विचार कर रही है. बात सच निकली, यूपी के मुख्यमंत्री ने 13 जनवरी 2020 को मंत्रिमंडल की एक बैठक के बाद इन दोनों शहरों में पुलिस कमिश्नेरट की व्यवस्था को लागू करने की घोषणा कर दी. यूपी में ये व्यवस्था सिर्फ लख़नऊ और नोएडा मे लागू है और ये शहर पुलिस कमिश्नेरट की व्यवस्था वाले शहरों की फ़ेहरिस्त  में दाख़िल होने वाले सबसे नये शहर हैं. इन दो शहरों के अलावा देश के 15 राज्यों के 71 शहरों में प्रशासन की ऐसी ही व्यवस्था अपनायी गई है.

पुलिस  कमिश्नर वाली प्रशासनिक व्यवस्था में पुलिसिंग के एतबार से किसी ज़िले को दो हिस्से में बांट दिया जाता है. शहरी बसाहट वाले बड़े हिस्से में पुलिसिंग की जो जिम्मेदारियां जिला आरक्षी अधीक्षक (डिस्ट्रिक्ट सुप्रिन्टेन्डेंट ऑफ पुलिस) के हाथों में थीं, वो नयी व्यवस्था में पुलिस कमिश्नर के हाथों में चली आती हैं.  इसके साथ ही साथ,  डिस्ट्रिक्ट  मजिस्ट्रेट (जिला दंडाधिकारी), अनुमंडल स्तर के दंडाधिकारी (एसडीएम)  और एक्ज़िक्यूटिव मजिस्ट्रेट (कार्याधिशासी दंडाधिकारी) की स्थितियों में भी बदलाव आता है और विधि-व्यवस्था के मामले में उन्हें हासिल अधिकार पुलिस कमिश्नर के हाथों में चले आते हैं. जिले के  बाकी बचे इलाक़े में पुलिसिंग के मामले में जिला आरक्षी अधीक्षक (डिस्ट्रिक्ट सुप्रिन्टेन्डेन्ट ऑफ पुलिस), जिला दंडाधिकारी  और उनके  नीचे काम कर रहे दंडाधिकारियों के अधिकार बने रहते हैं.

आईएएस लॉबी का तर्क हुआ करता था कि जिन राज्यों में साक्षरता-दर ऊंची है और गैर-सरकारी संगठनों की भागीदारी और सक्रियता के कारण नागरिक-समाज (सिविल सोसायटी) बड़े हद तक जीवंत है वहां पुलिस कमिश्नेरट की व्यवस्था एक हद तक ठीक-ठाक काम कर रही है

ये बात तो ख़ैर आम जानकारी में हैं कि प्रशासन के मामले में ऐसे बदलाव की कोशिशें पहले भी हुईं लेकिन आईएएस लॉबी के कड़े विरोध के कारण राजनीतिक नेतृत्व इस दिशा में कदम  नहीं उठा सका है. आईएएस लॉबी  अक्सर ये तर्क दिया करती थी कि यूपी में पुलिस पहले से ही बहुत  ताक़तवरर है और इसी का एक प्रमाण है कि पुलिस ने बड़ी दबंगई से एनकाउंटर  किये हैं. पुलिस जनता-जनार्दन में अपने प्रति विश्वास नहीं जगा पाती और लोग-बाग अमूमन अपनी शिकायतों को लेकर  मजिस्ट्रेट के पास जाते हैं. आईएएस लॉबी का तर्क हुआ करता था कि जिन राज्यों में साक्षरता-दर ऊंची है और गैर-सरकारी संगठनों की भागीदारी और सक्रियता के कारण नागरिक-समाज (सिविल सोसायटी) बड़े हद तक जीवंत है वहां पुलिस कमिश्नेरट की व्यवस्था एक हद तक ठीक-ठाक काम कर रही है. लेकिन, दुर्भाग्य से उत्तर प्रदेश में ये चीजें शायद ही देखने को मिलें-यूपी में साक्षरता कम है, लोगों में जागरुकता की भी कमी है और गरीबी बहुत ज्यादा है.

दूसरी तरफ आईपीएस लॉबी ने शहरों में जारी मौजूदा प्रशासनिक व्यवस्था की बेतरतीबी का तर्क दिया जिसमें  रोज़मर्रा की पुलिसिंग के कई मसलों पर  मजिस्ट्रेट से अनुमति लेनी  ज़रुरी होती है, और इससे पुलिस की कार्यकुशलता पर असर पड़ता है. इसके अलावे, मौजूदा प्रशासनिक व्यवस्था में  ज़िम्मेदारियां ज़िला प्रशासन के दो अंगों में बंटी होती हैं. कानून और व्यवस्था बहाल करने की कुछ कठिन स्थितियों में, अगर हालात काबू से बाहर निकल गये हों तो फिर एक-दूसरे पर दोषारोपण शुरू हो जाता है और यह तय कर पाना मुश्किल हो जाता है कि प्रशासनिक मशीनरी के किस हिस्से का दोष कितना है. ऐसे बहुत से मामले देखने में आये हैं जब  मजिस्ट्रेट अनिर्णय की स्थिति में रहे और इस कारण हालात बेकाबू हो उठे नतीजतन नागरिकों को गंभीर कठिनाइयों का सामना करना पड़ा.

प्रशासन के ढांचे में किये गये इस सुधार को मुख्य रूप से शहरीकरण को अंजाम देने में लगी शक्तियों के नज़रिये से देखा जाना चाहिए और उन बदलावों को लागू करने पर ध्यान दिया जाना चाहिए जो शहरीकरण से उपजी चुनौतियों के समाधान के लिए ज़रुरी हैं

आईएएस और आईपीएस लॉबी के इन तर्कों के पीछे क्या  वजह रही है वो लोगों के आम स्वभाव में खोजे जाने चाहिए. अमूमन देखने में आता है कि जिन लोगों की शक्तियां सीमित हैं वे और ज्य़ादा शक्ति हासिल करने की जुगत लगाते हैं, और जिनके पास भरपूर शक्ति है उन्हें अपनी ताकत का बंटवारा करना गवारा नहीं होता. आईएएस अधिकारियों को औपनिवेशिक व्यवस्था में पूरमपूर शक्तियां हासिल हुई है और  आज़ादी के बाद के वक्तों में कई दशकों तक यह स्थिति कायम रही. इसी कारण आईएएस अधिकारियों को लगता है कि हासिल शक्तियों का उपभोग करना उनका अधिकार है. लेकिन आईपीएस के अधिकारी सोचते हैं कि ये ताकत उनके गले में किसी  असहाय बोझ की तरह बंधी हुई है, वे इस बंधन को उतारकर मुक्ति का अहसास करना चाहते हैं. लेकिन सोच की इन दोनों ही धाराओं में ये बात कहीं नहीं है कि स्थानीय स्तर पर प्रशासन का ढांचा जरूरत के अनुरूप होना चाहिए और ज़रूरतों  का ठीक-ठीक आकलन करके ही ऐसा ढांचा अख्त़ियार किया जाना चाहिए.

प्रशासन के ढांचे में किये गये इस सुधार को मुख्य रूप से शहरीकरण को अंजाम देने में लगी शक्तियों के नज़रिये से देखा जाना चाहिए और उन बदलावों को लागू करने पर ध्यान दिया जाना चाहिए जो शहरीकरण से उपजी चुनौतियों के समाधान के लिए ज़रुरी हैं. इसके अतिरिक्त ये देखना भी ज़रुरी है कि ज़िले में लागू शासन-प्रणाली पर प्रशासनिक बोझ कितना ज्य़ादा है ताकि इसे विभिन्न हिस्सों में बांटकर प्रशासन का काम ज्यादा कुशलता से अंजाम दिया जा सके. इस सिलसिले में एक और बात भी अहम है— यह देखना भी  ज़रुरी है कि नयी व्यवस्था उत्तर प्रदेश की मौजूदा सामाजिक-आर्थिक परिवेश में जवाबदेही के भाव को किस हद तक मज़बूती दे पाती है.

इस सिलसिले की पहली बात तो यह कि शहरीकरण के कारण अपराध और कानून-व्यवस्था के नये रूपाकार सामने आते हैं. क्रिमिनॉलॉजिस्ट यानी अपराधों के अध्ययन से जुड़े विशेषज्ञ इस बात पर सहमत हैं कि, शहरीकरण के जद में होने वाली अपराध की घटनाओं में संख्यात्मक और गुणात्मक अंतर  देखने को मिलते हैं. अपराध की ऐसी घटनाएं एक बड़ी और घनी आबादी के बीच होती है ऐसी जगहों पर लोग-बाग अक्सर एक-दूसरे से अपरिचित होते हैं और एक तरह से देखें तो उनके बीच अनामता या यूं कहें कि ‘कोई नाम न होने’ जैसीस्थिति होती है, सामाजिक रिश्ते-नातों का दायरा निहायत ढीला-ढाला होता है, धन का बड़े पैमाने पर एक जगह पर जमाव देखने को मिलता है और उपभोक्तावाद तथा भौतिकतावाद भी  अनैतिक दर्जे का होता है. चूंकि शहरीकरण की दायरे में लोग-बाग कई किस्म की गतिविधियों में लिप्त होते हैं सो यह स्थिति नये किस्म के आपराधिक  बर्ताव, अपराध को अंजाम देने के तरीके तथा संगठित अपराध को बढ़ावा देने वाली होती है. शहर की दृश्यमानता (विज़िबिलिटी) ज्य़ादा होती है और यहां अपराध की घटनाओं में जानो-माल के नुकसान के आसार भी ज्य़ादा रहते हैं. इन वजहों से शहरों में आतंकवादी गतिविधियों, मादक पदार्थों की तस्करी, अवैध मानव-व्यापार तथा  साइबर-क्राइम की घटनाएं ज्यादा तादाद में अंजाम पाती हैं. इन बातों के संदर्भ में अगर देखें तो पायेंगे कि, ग्रामीण इलाकों में होने वाली सामान्य ढर्रे की पुलिसिंग शहरी इलाकों में कारगर नहीं. शहरी इलाकों में कहीं ज्य़ादा पेशेवराना तर्ज और बेहतरीन कार्य-कौशल की पुलिसिंग की ज़रूरत होती है, साथ ही पुलिस-बल की संख्या भी अपेक्षाकृत ज्यादा होनी चाहिए. शहर धरना-प्रदर्शन के लिए मुफ़ीद हैं और शहरी इलाकों में दंगा होने की भी आशंका ज्य़ादा होती है. इनका असर शहर के आम जन-जीवन और अर्थव्यवस्था पर पड़ता है. धरना-प्रदर्शन और दंगों की स्थिति से तेज़ी से निबटना होता है और भीड़ के प्रबंधन से जुड़े कला और विज्ञान के तौर-तरीके अपनाने होते हैं. इन बातों के लिए भीड़ के प्रबंधन से जुड़ी विशेषज्ञता की ज़रूरत होती है.

दूसरी बात, शहरीकरण के कारण जैसे पुलिसिंग के मामले में विशेष किस्म के प्रशासन की ज़रूरत पैदा होती है उसी तरह म्यूनिसिपल  प्रशासन का भी विशेष ढांचा गढ़ने की ख़ास ज़रूरत पड़ती है. नियोजन(प्लानिंग), गवर्नेंस तथा म्यूनूस्पल सेवाओं को एक बड़ी आबादी तक पहुंचाने के लिए बड़े शहरों में नगरनिगम की स्थापना एक  ज़रुरी बात है. नगरनिगम के प्रधान म्यूनिस्पल कमिश्नर होते हैं और म्यूनिस्पल कमिश्नर अधिकांश तौर  पर आईएएस श्रेणी के अधिकारियों के बीच से चुने जाते हैं. शहरों में कायम इन दोनों प्रशासनिक ढांचों के कारण उस भूमिका में कुछ कटौती हो जाती है जो शहरी इलाके में एक डिस्ट्रिक्ट  मजिस्ट्रेट को निभानी होती है. सरकार ने ज़िले के दूर- दराज़ के इलाकों के विकास  को ध्यान में रखकर अनेक योजनाएं चला रखी हैं. इन योजनाओं  को वांछित जगह तक पहुंचाने के लिए इन पर पूरा ध्यान देना  ज़रूरी होता है और इस कारण डिस्ट्रिक्ट  मजिस्ट्रेट पर पहले ही काम का बोझ ज्यादा होता है. ऊपर बतायी गई स्थितियों के   मुताबिक ये बात उचित ही लगती है किशहरों में पुलिस  कमिश्नर की व्यवस्था लागू की जाए.

सुशासन के दायरे में ये बात जानी-मानी है कि प्रशासन के किसी हलके को स्वायत्तता दी गई है तो उसके साथ पारदर्शिता तथा जवाबदेही की भी व्यवस्था लगी-बंधी हो.

 बहरहाल, पुलिस को कमिश्नर के ज़रिये ज्यादा ताकत और स्वायत्तता देने से ये तय नहीं हो जाता कि जादू की छड़ी घुमाने के समान शहरों में पुलिसिंग का काम एकदम से चाक-चौबंद हो जायेगा. सुशासन के दायरे में ये बात जानी-मानी है कि प्रशासन के किसी हलके को स्वायत्तता दी गई है तो उसके साथ पारदर्शिता तथा जवाबदेही की भी व्यवस्था लगी-बंधी हो. पश्चिमी जगत के लोकतांत्रिक देशों में कमिश्नर की व्यवस्था प्रत्यक्ष नियमों के अनुसार निर्वाचित मेयर (महापौर) और नगर-परिषद के सहारे चलती है और इस  इंतज़ाम में बड़े ऊंचे दर्जे का खुलापन होता है, पुलिस के कामकाज और कार्रवाइयों में जन-भागीदारी होती है. दुर्भाग्य से, भारत में पश्चिमी जगत के लोकतांत्रिक देशों के बड़े शहरों में प्रचलित प्रशासन का ढांचा तो एक हद तक अख्त़ियार किया गया है लेकिन सुशासन के लिए  ज़रूरी पूरा रास्ता तय करने में कोताही बरती जाती है.

इस निष्कर्ष तक पहुंचने के लिए किसी  ख़ास विशेषज्ञता की जरूरत नहीं है कि प्रशासन की सार्वजनिक संस्थाओं में जवाबदेही तय करने वाली उपायों को अमल में लाये बग़ैगर उन्हें स्वायत्तता देने से कदाचार, ताकत के दुरूप योग और नाइंसाफी के बढ़ने की आशंका रहती है. पुलिस सरकार का सबसे मजबूत अंग है, सो उसके  बर्ताव में इन बातों की आशंका ज्य़ादा है.

अंग्रेजों के शासन के ज़माने से ही पुलिस की छवि  ग़रीबों और जनता की हितैषी के रूप में नहीं रही. साल 1859 में अंग्रेजों ने इस बात को दर्ज किया था कि भारत की पुलिस अपराध के निवारण के काम में अनुपयोगी, अपराधों की पड़ताल के लिहाज़ से हद दर्जे की अकुशल और ताकत के  बर्ताव में एकदम ही स्वेच्छाचारी है और उसकी आम छवि एक भ्रष्ट तथा दमनकारी संस्था के रूप में है. इसके बावजूद, अंग्रेजों ने स्थिति को आधुनिक बनाने तथा सुधारने के मामले में कुछ नहीं किया. और, आजाद भारत में भी ये काम नहीं हुआ जबकि कई दशकों तक ऐसी सिफारिशों का अंबार लगता रहा.

ये बात बिल्कुल साफ़ है कि मौजूदा यूपी सरकार ने सुधार और बदलाव के जो उपाय किये हैं वो वक्त़ की ज़रूरत के अनुरूप है लेकिन पारदर्शिता तथा जवाबदेही के स्पष्ट मानकों के अभाव में, एक तरफ़ तो पुलिसिया तंत्र के  सत्तापक्ष के हाथ की कठपुतली बनने की आशंका है तो दूसरी तरफ सरकारी दमन-तंत्र बनकर उभरने की भी. यूपी का पिछला अनुभव इस आशंका को और भी ज्य़ादा प्रबल बनाता है.

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