Author : Viola Dsouza

Published on Oct 16, 2023 Updated 0 Hours ago
भारत में पोषण से जुड़ी पहलों को मज़बूत करने के लिए डेटा-संचालित नीतिगत दख़ल ज़रूरी..!

पूरी दुनिया में कोई भी हिस्सा ऐसा नहीं है, जहां वैश्विक पोषण संकट का प्रभाव नहीं दिखता हो. 21वीं सदी में पूरे विश्व के समक्ष कई गंभीर सामाजिक चुनौतियां हैं और पोषण संकट भी इन्हीं चुनौतियों में से एक है. ख़राब पोषण यानी कुपोषण की वजह से स्वास्थ्य और सामाजिक-आर्थिक सूचकों पर तो असर पड़ता ही है, पर्यावरण पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है. “विश्व में खाद्य सुरक्षा और पोषण” विषय पर वर्ष 2022 की रिपोर्ट के लेखकों के मुताबिक़, “दुनिया भुखमरी, खाद्य असुरक्षा और सभी प्रकार के कुपोषण को समाप्त करने के अपने प्रयासों में आगे बढ़ने के बजाए, पीछे की ओर जा रही है.” पूर्वी यूरोप में चल रहे युद्ध और कोविड-19 महामारी का वैश्विक स्तर पर भुखमरी एवं कुपोषण के रूप में विनाशकारी प्रभाव पड़ा है. अनुमान है कि वर्ष 2021 में 828 मिलियन लोग भूख और भुखमरी की चपेट आए थे, यह वर्ष 2019 के आंकड़े से 150 मिलियन अधिक है. इसके साथ ही 924 मिलियन अतिरिक्त व्यक्तियों ने गंभीर खाद्य असुरक्षा का सामना किया, जो कि वर्ष 2019 की तुलना में 207 मिलियन अधिक है.

पोषण की कमी की वजह से समाज की कमज़ोर आबादी सबसे अधिक प्रभावित होती है, अर्थात पोषण की कमी का ख़ास तौर पर महिलाओं और बच्चों में अलग-अलग तरीक़े से असर पड़ता है.

संयुक्त राष्ट्र के महासचिव एंटोनियो गुटेरेस के मुताबिक़, “कुल मिलाकर, सतत विकास लक्ष्यों को हासिल करने के लिए हमें वैश्विक स्तर पर बिना समय गंवाए तेज़ गति के साथ प्रयास करने की ज़रूरत है. हमें उन दिक़्क़तों और जलवायु परिवर्तन से जुड़े संकटों के ख़िलाफ़ लचीलापन बनाने का काम करना होगा, जो खाद्य असुरक्षा को बढ़ाने का काम करते हैं.”

पोषण की कमी की वजह से समाज की कमज़ोर आबादी सबसे अधिक प्रभावित होती है, अर्थात पोषण की कमी का ख़ास तौर पर महिलाओं और बच्चों में अलग-अलग तरीक़े से असर पड़ता है. यूनिसेफ (UNICEF) की कार्यकारी निदेशक कैथरीन रसेल के अनुसार, “वैश्विक स्तर पर जो भुखमरी का संकट फैला हुआ है, उसकी वजह से दुनिया में लाखों की संख्या में माताएं और उनके बच्चे भुखमरी व गंभीर कुपोषण की परिस्थितियों में रहने को विवश हैं.” उन्होंने आगे कहा कि “अगर कुपोषण के मुद्दे को संबोधित करने के लिए अंतर्राष्ट्रीय समुदाय की ओर से तत्काल क़दम नहीं उठाए जाते हैं, तो आने वाली पीढ़ियों को इस संकट के दुष्परिणाम भुगतने होंगे.”

बच्चों में कुपोषण की वजह से संक्रमण, कमज़ोर रोग प्रतिरोधक क्षमता और शारीरिक वृद्धि एवं विकास से जुड़े हानिकारक परिणाम सामने आने का ख़तरा रहता है. विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) के अनुसार, पूरी दुनिया में निम्न और मध्यम आय वर्ग वाले राष्ट्रों में पांच साल से कम उम्र के जितने बच्चों की मौत होती है, उनमें लगभग 45 प्रतिशत मौतें कुपोषण के कारण होती हैं.

वर्ष 2015 की एक रिपोर्ट के मुताबिक़ दुनिया के जितने भी कम वजन वाले बच्चे हैं, उनमें से लगभग 90 प्रतिशत बच्चे दक्षिण एशिया और उप-सहारा अफ्रीका के क्षेत्रों से थे और उनमें से लगभग आधे दक्षिण एशिया रीजन में रहते थे. दक्षिण एशिया के साथ-साथ उप-सहारा अफ्रीका और मध्य एशिया के क्षेत्रों में बौनेपन के मामले सबसे ज़्यादा मिलते हैं. इस रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2022 में दक्षिणी एशिया सब रीजन में वैश्विक पोषण लक्ष्यों को हासिल करने की दिशा में बेहद मामूली प्रगति हुई है. दक्षिण एशिया की बात करें, तो भारत में बच्चों में कुपोषण सबसे अधिक पाया जाता है. ग्लोबल न्यूट्रिशन रिपोर्ट 2022 के मुताबिक़ भारत ने कहीं न कहीं इस समस्या पर काबू पाने में प्रगति की है. हालांकि, भारत में 5 वर्ष से कम उम्र के 34.7 प्रतिशत बच्चे ऐसे हैं, जिनका कम विकास हुआ है और वे छोटे कद के हैं, जबकि 17.3 प्रतिशत बच्चे कमज़ोर यानी बेहद दुबला-पतले हैं और 1.6 प्रतिशत बच्चे ऐसे हैं, जो ओवर वेट यानी मोटापे का शिकार हैं. एशिया रीजन में बौनापन (21.8 प्रतिशत) और कमज़ोरी (8.9 प्रतिशत) के कुल औसत की तुलना में भारत में ऐसे मामलों का प्रतिशत अधिक है.

भारत की पहल

भारत ने कुपोषण की समस्या का मुक़ाबला करने के लिए कई पहलों की शुरुआत की है, ख़ास तौर पर कमज़ोर समूहों में कुपोषण को खत्म के लिए सरकार द्वारा कई क़दम उठाए गए हैं. जैसे कि प्रधानमंत्री मातृ वंदना योजना (PMMVY), स्वच्छ भारत मिशन, आंगनवाड़ी केंद्रों पर पोषण वाटिका और राष्ट्रीय पोषण मिशन/पोषण अभियान. भारत सरकार ने पोषण अभियान के अंतर्गत बौनेपन (स्टंटिंग), अल्पपोषण और एनीमिया (छोटे बच्चों, महिलाओं एवं किशोर लड़कियों के बीच) को कम करने का लक्ष्य निर्धारित किया था, साथ ही जन्म के समय बच्चों की कम वजन से जुड़ी समस्या को क्रमशः 2 प्रतिशत, 3 प्रतिशत और 2 प्रतिशत कम करने का भी लक्ष्य निर्धारित किया था. पोषण मिशन के माध्यम से वर्ष 2022 तक बौनेपन को 38.4 प्रतिशत (NFHS-4) से घटाकर 25 प्रतिशत (Mission 25 by 2022) करने की कोशिश की गई है. ज़ाहिर है कि यह एक महत्वाकांक्षी लक्ष्य था, ख़ास तौर पर इसके मद्देनज़र यह बेहद महत्वपूर्ण लक्ष्य था कि वर्ष 2006 में बौनेपन की समस्या 48 प्रतिशत थी, जो वर्ष 2016 में घटकर 38.4 प्रतिशत ही हो पाई थी, अर्थात इसमें प्रतिवर्ष सिर्फ़ एक प्रतिशत अंक की गिरावट दर्ज़ की गई थी.

भारत सरकार द्वारा बजट 2021-2022 में एक एकीकृत पोषण सहायता कार्यक्रम मिशन पोषण 2.0 की शुरुआत की गई थी. इस प्रोग्राम का मकसद सभी राज्यों एवं केंद्र शासित प्रदेशों में पोषण से संबंधित गवर्नेंस, क्षमता निर्माण और समन्वय को सशक्त करना था. नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे यानी NHFS-5 (2019-21) के मुताबिक़ भारत सरकार की कोशिशों की वजह से देश में पांच साल से कम उम्र के बच्चों में कुपोषण के मामलों (नाटापन, दुबलापन और कम वजन) में कमी आई है. नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे (NFHS-4 & NFHS-5) के आंकड़ों की तुलना किए जाने पर राज्यों एवं केंद्र शासित प्रदेशों में पांच साल से कम उम्र के बच्चों में नाटापन, दुबलापन और कम वजन को लेकर बेहतर जानकारी हासिल होती है, साथ ही महिलाओं (15-49 वर्ष की आयु) में कुपोषण के स्थिति की सच्चाई भी सामने आती है. आंकड़ों का राज्य-वार विस्तृत, सटीक और तुलनात्मक विश्लेषण करने से पांच वर्ष से कम उम्र के बच्चों में कुपोषण की स्थिति में महत्वपूर्ण सुधार, गतिरोध और बढ़ोतरी के अलग-अलग रुझानों के बारे में पता चलता है. इस लेख में आगे प्रस्तुत किए गए चित्र 1, 2, 3, 4, 5 में प्रदर्शित आंकड़े पोषण संबंधी स्थिति में वार्षिक तौर पर होने वाले बदलावों को स्पष्टता से बताते हैं.  कहने का तात्पर्य यह है कि ये आंकड़े अलग-अलग राज्यों में हुई प्रगति या गिरावट को लेकर एक बारीक़ नज़रिया प्रस्तुत करते हैं. जबकि चित्र-6 राज्यों में पोषण से जुड़ी गतिविधियों के लिए केंद्रीय फंड के आवंटन और उसकी तुलना में वास्तविक ख़र्च के बारे जानकारी हासिल करने में सहायता करता है.

चित्र 1: वर्ष 2015-16 से 2019-20 के दौरान भारत में राज्यों/केंद्र शासित प्रदेशों में बौनेपन को लेकर हुए बदलाव प्रतिशत में

 स्रोत: NFHS-5 रिपोर्ट

इन आंकड़ों के मुताबिक़ दादरा और नगर हवेली एवं दमन और दीव (2.2 प्रतिशत), गोवा (5.7 प्रतिशत), हिमाचल प्रदेश (4.5 प्रतिशत), लक्षद्वीप (5.2 प्रतिशत), केरल (3.7 प्रतिशत), मेघालय ( 2.7 प्रतिशत), मिजोरम (0.8 प्रतिशत), नागालैंड (4.1 प्रतिशत), ओडिशा (6.9 प्रतिशत), तेलंगाना (5.1 प्रतिशत) और त्रिपुरा (8.0 प्रतिशत) में बच्चों में बौनेपन के मामलों में वृद्धि दर्ज़ की गई है.

चित्र 2: वर्ष 2015-16 से 2019-20 तक भारत के विभिन्न राज्यों/केंद्र शासित प्रदेशों में दुबलेपन के प्रसार में प्रतिशत अंकों में परिवर्तन

स्रोत: NFHS-5 रिपोर्ट

इन आंकड़ों से साफ पता चलता है कि असम (4.7 प्रतिशत), बिहार (2.1 प्रतिशत), हिमाचल प्रदेश (3.7 प्रतिशत), जम्मू-कश्मीर (6.8 प्रतिशत), लक्षद्वीप (3.7 प्रतिशत), लद्दाख (8.2 प्रतिशत), मणिपुर ( 3.1 प्रतिशत), मिजोरम (3.7 प्रतिशत), नागालैंड (7.8 प्रतिशत), तेलंगाना (3.6 प्रतिशत) और त्रिपुरा (1.4 प्रतिशत) में बच्चों में दुबलेपन के मामलों में बढ़ोतरी दर्ज़ की गई है.

चित्र 3: वर्ष 2015-16 से 2019-20 तक भारत के विभिन्न राज्यों/केंद्र शासित प्रदेशों में कम वजन के मामलों में प्रतिशत में बढ़ोतरी

स्रोत: NFHS-5 रिपोर्ट

इन आंकड़ों से स्पष्ट है कि अंडमान और निकोबार द्वीप समूह (2.1 प्रतिशत), असम (3.0 प्रतिशत), दादरा और नगर हवेली एवं दमन और दीव (2.9 प्रतिशत), हिमाचल प्रदेश (4.3 प्रतिशत), जम्मू-कश्मीर (4.4 प्रतिशत), केरल (3.6 प्रतिशत), लक्षद्वीप (2.2 प्रतिशत), लद्दाख (1.7 प्रतिशत), नागालैंड (10.2 प्रतिशत), तेलंगाना (3.4 प्रतिशत) और त्रिपुरा (1.5 प्रतिशत) में बच्चों में कम वजन के मामलों में बढ़ोतरी दर्ज़ की गई है. 

चित्र 4: वर्ष 2015-16 से 2019-20 के बीच भारत में विभीन्न राज्यों/केंद्रों शासित प्रदेशों में बच्चों में मोटापे के मामलों में बढ़तोरी प्रतिशत में

स्रोत: NFHS-5 रिपोर्ट

छत्तीसगढ़, दादरा और नगर हवेली एवं दमन और दीव, गोवा व तमिलनाडु को छोड़कर लगभग बाक़ी सभी राज्यों में बच्चों में अधिक वजन यानी मोटापे के मामलों में वृद्धि दर्ज़ की गई है.

चित्र 5: वर्ष 2015-16 से 2019-20 के बीच भारत में राज्यों/केंद्र शासित प्रदेशों में नाटापन, दुबलापन, कम वजन और मोटापे से संबंधित आंकड़े संक्षेप में

स्रोत: NFHS-5 रिपोर्ट

जहां तक महिलाओं के पोषण का मुद्दा है, तो इसमें झारखंड की स्थिति सबसे ख़राब है. सभी राज्यों एवं केंद्र शासित प्रदेशों में झारखंड में सबसे अधिक 26.2 प्रतिशत महिलाएं कुपोषण का शिकार हैं, जबकि लद्दाख में पोषण को लेकर महिलाओं की स्थिति एक हिसाब से सबसे अच्छी है, यहां केवल 4.4 प्रतिशत महिलाएं ही कुपोषित हैं. पोषण से जुड़ी गतिविधियों के लिए बजट आवंटन की बात करें, तो महाराष्ट्र की सबसे ज़्यादा 60,810 इकाइयों को केंद्रीय फंड आवंटित हुआ है और 43,714 इकाइयों द्वारा इस फंड का उपयोग किए जाने के साथ यह राज्य फंड का उपयोग करने के मामले में भी अव्वल है. 118 इकाइयों के साथ लक्षद्वीप को सबसे कम केंद्रीय राशि मिली है. तालिका 1 राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों में आवंटित और उपयोग की गई कुल धनराशि का संक्षिप्त ब्योरा उपलब्ध कराती है, जबकि चित्र 6 प्रत्येक राज्य के लिए धन के आवंटन और उसके सापेक्ष धन के उपयोग का विवरण प्रदान करता है.

तालिका 1: कुल आवंटित एवं उपयोग की गई धनराशि का विस्तृत विश्लेषण

Total Central Funds released (in Lakhs) Total Central Funds utilised (in Lakhs)
Mean 14625.345556 9922.712667
Standard deviation 16322.643321 11368.748833
Median 8067.095000 5629.215000
Inter quartile range (IQR) 20687.6 14335.2375

स्रोत: पोषण अभियान के प्रभाव को लेकर अध्ययन

चित्र 6: राज्य-वार आवंटित/उपयोग की गई धनराशि

स्रोत: पोषण अभियान के प्रभाव को लेकर अध्ययन

अगर आंकड़ों को एकत्र करने का एक ठोस व विकसित इंफ्रास्ट्रक्चर बनाया जाए और पोषण से जुड़े अलग-अलग सूचकों की रियल टाइम निगरानी की जाए, तो कुपोषण की समस्या की व्यापकता के बारे में सटीक जानकारी प्राप्त करने और आंकड़े एकत्र करने में मदद मिलेगी.

नीतिगत सिफ़ारिशें

उपरोक्त विश्लेषण से यह स्पष्ट है कि आने वाले समय में पोषण से जुड़े विभिन्न सूचकांकों में सुधार सुनिश्चित करने के लिए नीतिगत स्तर पर सुधार किया जाना बेहद आवश्यक है. इसके लिए न केवल यह समझना ज़रूरी है कि राज्यों में कुपोषण किस स्तर तक है और वे इससे कितनी शिद्दत से जूझ रहे हैं, बल्कि ये भी जानना आवश्यक है कि अलग-अलग किरदारों एवं सेक्टरों के समर्थन से इसका समाधान करने वाली पहलों को किस स्तर तक कार्यान्वित किया गया है. जैसा कि ऊपर दिए गए तमाम आंकड़ों और तालिका के माध्यम से बताया गया है कि पोषण के संदर्भ में राज्यों की जो सामाजिक स्थिति है, वो बच्चों में नाटापन, दुबलापन, कम वजन और मोटापे के मामलों में अलग-अलग होती है. ऐसे में विभिन्न नीतियों और उनके कार्यान्वयन के नज़रिए से आंकड़ों के इस अंतर को समझना बेहद महत्वपूर्ण है. ज़ाहिर है कि अगर आंकड़ों को एकत्र करने का एक ठोस व विकसित इंफ्रास्ट्रक्चर बनाया जाए और पोषण से जुड़े अलग-अलग सूचकों की रियल टाइम निगरानी की जाए, तो कुपोषण की समस्या की व्यापकता के बारे में सटीक जानकारी प्राप्त करने और आंकड़े एकत्र करने में मदद मिलेगी. इन विस्तृत आंकड़ों को जब गंभीरता के साथ खंगाला जाएगा, जो निश्चित तौर पर यह पता चल पाएगा कि कुपोषण मिटाने के लक्ष्य को हासिल करने के लिए किस प्रकार की नीतियों को बनाने और अमल में लाने की ज़रूरत है. इसके साथ ही यह भी पता चलेगा कि कुपोषण की चुनौती का सामना करने के लिए जो भी आवश्यकताएं हैं, उन्हें पूरा करने के लिए कितनी धनराशि चाहिए और उसके लिए किस प्रकार के नीतिगत दखल की ज़रूरत है. इसके अलावा इससे विभिन्न किरदारों के बीच अंतर-क्षेत्रीय सहयोग को प्रोत्साहित करने में भी मदद मिलेगी, जिससे कुपोषण के अलग-अलग आयामों से जुड़ी चुनौतियों का समाधान किया जा सकेगा. कुल मिलाकर भारत में लंबे समय से चली आ रही कुपोषण की मुश्किल चुनौती का समाधान करने के लिए सरकारी स्तर पर डेटा-संचालित, ज़रूरत के मुताबिक़, एकीकृत और व्यापक नीतिगत हस्तक्षेप की आवश्यकता है.


संजय पट्टनशेट्टी प्रसन्ना स्कूल ऑफ पब्लिक हेल्थ, मणिपाल एकेडमी ऑफ हायर एजुकेशन के ग्लोबल हेल्थ गवर्नेंस विभाग के प्रमुख हैं, साथ ही सेंटर फॉर हेल्थ डिप्लोमेसी में कॉर्डिनेटर हैं.

वियोला सैवी डिसूजा प्रसन्ना स्कूल ऑफ पब्लिक हेल्थ में हेल्थ पॉलिसी डिपार्टमेंट में पीएचडी स्कॉलर हैं.

शोबा सूरी ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन में सीनियर फेलो हैं.

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