ये लेख हमारी सीरीज़, पोखरण के 25 साल: भारत के एटमी सफ़र की समीक्षा, का एक हिस्सा है.
1998 में भारत ने जब ख़ुद को परमाणु शक्ति संपन्न राष्ट्र घोषित किया, तो इसका परमाणु ऊर्जा के उपकरणों का निर्यात करने वाले देशों के साथ व्यापार की शर्तें तय करने पर गहरा असर पड़ा. ज़मीन के नीचे पांच एटमी धमाकों के बाद, जैसी कि उम्मीद थी, पश्चिमी देशों ने भारत पर प्रतिबंध लगा दिए; पोखरण II के बाद भारत ने अपने ज़बरदस्त कूटनीतिक प्रयासों से भारत के प्रति पश्चिमी देशों के रवैये में बुनियादी बदलाव लाने में सफलता हासिल की और ख़ुद को दुनिया में परमाणु ऊर्जा की मुख्यधारा से जोड़ने में भी कामयाबी हासिल की. लगभग दो दशकों तक भारत के ऊपर परमाणु अप्रसार के सख़्त प्रतिबंध लगे थे, जो उसके सामरिक आविष्कार कर सकने की व्यवस्था को कमज़ोर करने के लिए लगाए गए थे. इससे भारत के असैन्य परमाणु ऊर्जा कार्यक्रम पर भी विपरीत प्रभाव पड़ा था. ईंधन की कमी और अंतरराष्ट्रीय बाज़ार से परमाणु रिएक्टर के कल-पुर्ज़े हासिल करने में दिक़्क़तों के कारण भारत के असैन्य परमाणु कार्यक्रम को कम क्षमता और उत्पादन वाले निर्माण से काम चलाते रहना पड़ा था.
पोखरण II के बाद सफल कूटनीतिक प्रयासों के ज़रिए भारत, पश्चिमी देशों को ये समझाने में सफल रहा कि उनके द्वारा लगाए गए प्रतिबंध बेकार है. पश्चिमी देशों को भारत ने अपने स्वच्छ ईंधन की ज़रूरतों के बारे में भी समझाते हुए बताया कि इससे भारत की सामरिक क़िस्मत बदलेगी और वो अपने असैन्य परमाणु ऊर्जा कार्यक्रम के दरवाज़े अंतरराष्ट्रीय सहयोग के लिए खोल देगा. अगर भारत ने परमाणु हथियारों की अपनी क्षमता को क़ाबू में रखने की नीति पर चलते हुए पोखरण में परमाणु परीक्षण नहीं किए होते, और शीत युद्ध के दौर की परमाणु व्यवस्था में संशोधन नहीं किया होता, तो शायद 2004 में अमेरिका और भारत के बीच ऐतिहासिक एटमी समझौता न हुआ होता. पोखरण II के असर से ही अमेरिका और भारत के बीच एटमी डील हुई, जिसके बाद भारत के परमाणु ऊर्जा विभाग (DAE) ने इसके ज़रिए मिले अंतरराष्ट्रीय सहयोग के अवसर का फ़ायदा उठाया और स्वदेशी के साथ आयातित परमाणु रिएक्टर तकनीकों के मेल से देश में परमाणु ऊर्जा से बिजली बनाने के लिए एक महत्वाकांक्षी योजना तैयार की.
भारत का रुझान
2008 में न्यूक्लियर सप्लायर्स ग्रुप (NSG) से ख़ास भारत के लिए मिली रियायतों के बाद, परमाणु ऊर्जा विभाग ने कई अंतरराष्ट्रीय निर्यातकों के साथ रिएक्टर तकनीक हासिल करने और ईंधन प्राप्त करने में सहयोग के समझौते किए. वैश्विक बाज़ार तक पहुंच हासिल करके, DAE ने देश के कुल बिजली उत्पादन में परमाणु ऊर्जा की हिस्सेदारी को बढ़ाते हुए अंतरराष्ट्रीय सहयोग से 40 गीगावाट क्षमता के विकास की योजना बनाई थी. इसके अलावा वैश्विक बाज़ार से यूरेनियम हासिल करने के अवसरों ने भारत के मौजूदा रिएक्टर की क्षमता को भी बढ़ा दिया, क्योंकि प्रतिबंधों के कारण ये रिएक्टर अपनी क्षमता से कहीं कम बिजली बना रहे थे. अगले दो दशकों में परमाणु ऊर्जा से 63 गीगावाट बिजली बनाने का लक्ष्य तय करते हुए, भारत और अमेरिका के एटमी समझौते ने भारत के असैन्य परमाणु ऊर्जा क्षेत्र के विकास की अपार संभावनाओं को रफ़्तार दी थी.
हालांकि, 2010 में भारत की संसद ने जब सिविल लायबिलिटी फॉर न्यूक्लियर डैमेज एक्ट (CLNDA) पारित किया, तो उससे अंतरराष्ट्रीय सप्लायर आशंकित हो गए और भारत द्वारा अपनी महत्वाकांक्षी योजनाओं को हक़ीक़त बनाने की राह में कई मुश्किलें कड़ी हो गईं. CLNDA के तहत रिएक्टर और दूसरे संसाधनों की आपूर्ति करने वालों की जवाबदेही की शर्त ने अंतरराष्ट्रीय ही नहीं, घरेलू आपूर्तिकर्ताओं को भी सशंकित कर दिया और इससे भारत के असैन्य परमाणु क्षेत्र के ऊपर आशंका के काले बादल मंडराने लगे. जब परमाणु ऊर्जा विभाग ने सप्लायर्स की आशंकाओं को दूर करने के लिए लगातार कोशिश की और इस क़ानून के तहत तय जवाबदेहियों के बारे में उनकी आशंकाएं दूर की, तब जाकर घरेलू उद्योग नए रिएक्टर के निर्माण की बोलियां लगाने के लिए राज़ी हुआ. हालांकि विदेशी खिलाड़ियों, जैसे कि अमेरिका और फ्रांस के साथ परमाणु ऊर्जा क्षेत्र में सहयोग को लागू करने की राह में अभी भी इस क़ानून (CLNDA) को बाधक बताया जा रहा है.
परमाणु ऊर्जा विभाग केवल रूस की एटमस्ट्रोएक्सपोर्ट के साथ ही 1000 मेगावट क्षमता के आठ प्रेशराइज़्ड वाटर रिएक्टर (PWR) की आपूर्ति का समझौता कर पाया है. अमेरिकी और फ्रांसीसी कंपनियों के साथ मिलकर बड़े परमाणु बिजलीघर बनाने में देरी के कारण, परमाणु ऊर्जा विभाग को अगले कुछ वर्षों के दौरान, बिजली बनाने की क्षमता के विकास के लक्ष्यों को 2005-06 की तुलना में घटाना पड़ा है. विदेशी ताक़तों के साथ तकनीकी कारोबारी सौदे करने में देरी के कारण भारत की बिजली उत्पादन में परमाणु ऊर्जा की हिस्सेदारी बढ़ाने की योजनाएं मुख्य रूप से स्वदेश में विकसित प्रेशराइज़्ड हैवी वाटर रिएक्टर (PHWR) तकनीक पर टिकी हैं. ये भारत के परमाणु ऊर्जा कार्यक्रम का सबसे अहम हिस्सा है. समय के साथ साथ DAE ने PHWR तकनीक में महारत हासिल करने में सफलता प्राप्त की है और हाल ही में काकरापारा में 700 मेगावाट क्षमता के रिएक्टर का चालू होना, स्वदेशी तकनीक के विस्तार में मील का एक अहम पत्थर साबित हुआ है. PHWR की बढ़ी हुई क्षमता को मानक बनाने और इसे फ्लीट मोड में लागू संचालित करने के घरेलू परमाणु ऊर्जा उद्योग की उम्मीदें जगा दी है. 2017 में सरकार ने फ्लीट मोड वाले 10 PHWR रिएक्टर के पूरा होने का ऐलान किया था. भारत की परमाणु ऊर्जा से बिजली बनाने की मौजूदा क्षमता 6780 मेगावाट से बढ़कर 2032 तक 22,480 मेगावाट हो जाएगी.
भारत की तरक़्क़ी की मौजूदा ज़रूरतों को देखते हुए, परमाणु ऊर्जा ‘ग़ैर जीवाश्म ईंधन ऊर्जा’ का एक आवश्यक स्रोत है. परमाणु ऊर्जा को नवीनीकरण योग्य कहा जाए या हरित ऊर्जा, इस विवाद से परे, कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन (CO2) कम करने में इसके योगदान की अहमियत से इनकार नहीं किया जा सकता है. कहा जाता है कि कोयले से चलने वाले बिजलीघरों की तुलना में परमाणु ऊर्जा से बिजली बनाने से हर 4.1 करोड़ टन CO2 उत्पादन कम होता है. 2032 तक परमाणु ऊर्जा की मौजूदा क्षमता को बढ़ाकर तीन गुना करने की नीति पर निश्चित रूप से सख़्ती से अमल करने की ज़रूरत है. पूंजी का सहयोग जुटाने और सरकारी कंपनियों के साथ निजी क्षेत्र के साझा प्रयासों को बढ़ावा देना, इस दिशा में किए जा रहे कुछ बुनियादी सकारात्मक प्रयास हैं. इससे भी अहम बात ये है कि भारत की निजी क्षेत्र ज़िम्मेदारी एकदम स्पष्ट है. उसे आपूर्ति श्रृंखला की बाधाएं दूर करनी होंगी और ये सुनिश्चित करना होगा कि रिएक्टर बनाने और उसके दूसरे कल-पुर्ज़े समय पर उपलब्ध हों तभी परमाणु ऊर्जा के लक्ष्य हासिल किए जा सकेंगे.
भारत के हरित परिवर्तन को आगे बढ़ाने और परमाणु ऊर्जा समेत गैर जीवाश्म ईंधन के स्रोतों की हिस्सेदारी बढ़ाने की मौजूदा नीति, घरेलू उद्योग को स्थानीय मूल्य संवर्धन का एक सुनहरा अवसर मुहैया कराती है. भारत में बिजली की बढ़ती मांग के बावजूद, अभी भी हम ऊर्जा के उपकरणों और कल-पुर्ज़ों के आयात पर बहुत अधिक निर्भर है. 2020 में गलवान की हिंसक झड़प के बाद चीन से आयात पर सरकार द्वारा प्रतिबंध लगाने से पहले तक, भारत के बिजली उद्योग को कल-पुर्ज़ों, मशीनों और दूसरे संसाधनों की आपूर्ति करने वाले देशों में चीन की बड़ी हिस्सेदारी रही थी. आयात की जगह स्वदेश में निर्माण और उसे प्रोत्साहन देने के लिए प्रोडक्शन लिंक्ड इंसेंटिव (PLI) की असरदार योजनाओं और प्राथमिकता के आधार पर ख़रीदारी करना, घरेलू उत्पादकता और मूल्य संवर्धन को बढ़ावा देने के लिए वक़्त की मांग है. इससे राष्ट्रीय और क्षेत्रीय स्तर पर भारत की कंपनियों की प्रतिस्पर्धा करने की क्षमता भी बढ़ाई जा सकेगी.
निष्कर्ष
पहले के दौर में परमाणु हथियारों को लेकर भारत की दुविधाजनक स्थिति ने उसके असैन्य परमाणु ऊर्जा क्षेत्र के विकास को भी बाधित किया. वैसे तो पोखरण II परीक्षणों ने अतीत की नीतियों को पूरी तरह अलविदा कहने का इशारा किया. लेकिन परमाणु ऊर्जा का सेक्टर अपनी एक अलग जगह बनाए, इसके लिए एक अच्छी और भरोसे लायक़ नीतिगत व्यवस्था बनानी होगी, तभी ये क्षेत्र अपनी असली क्षमता को हासिल कर सकेगा. भारत की दूरगामी ऊर्जा ज़रूरतों में परमाणु ऊर्जा की भूमिका निश्चित और निर्विवाद है. इसी से घरेलू विकास और उत्पादकता को बढ़ावा दिया जा सकेगा.
दुनिया आज बड़ी बारीक़ी से देख रही है कि भारत किस तरह ब्रीडर और थोरियम आधारित तकनीक के क्षेत्र में मिसाल बन रहा है. पोखरण II के बाद परमाणु अप्रसार की नीयत से लगाए गए प्रतिबंधों को हटाए जाने से इन परियोजनाओं को काफ़ी बल मिला है. इसके अलावा, भारत इंटरनेशनल थर्मोन्यूक्लियर रिएक्टर (ITER) जैसी अंतरराष्ट्रीय परियोजनाओं में भी भागीदार बन रहा है, जो नए नए अनुसंधानों और आविष्कारों में साझेदारों के ज़रिए भारत की वैज्ञानिक और तकनीकी कुशलता को बढ़ा रहा है. पोखरण II परीक्षणों के बाद से भारत ने अपने असैन्य परमाणु ऊर्जा कार्यक्रम के विस्तार में काफ़ी लंबा सफ़र तय किया है. भारत की दूरगामी ऊर्जा सुरक्षा और हरित ऊर्जा में परिवर्तन की मांग है कि वो अपने परमाणु ऊर्जा के विस्तार के ऐतिहासिक अवसर में और पूंजी निवेश करें और ज़रूरी नीतिगत सहयोग के ज़रिए उसके दूरगामी विकास में मददगार बने.
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