ताक़त और वर्चस्व को लेकर छिड़ी तगड़ी प्रतिस्पर्धा पिछली सदी के सामरिक विमर्श का सबसे प्रभावपूर्ण हिस्सा रही है. 1990 के दशक की शुरुआत में पूर्ववर्ती सोवियत संघ के पतन के बाद एक छोटा मगर अहम कालखंड ऐसा आया था जो अमेरिका के लिए एकध्रुवीय ताक़त बन जाने का लम्हा था. उसके बाद ऐसा लगने लगा कि दुनिया बहुध्रुवीय व्यवस्था की ओर बढ़ रही है. इसमें कई ताक़तें अपना-अपना किरदार निभा रही थीं. बहरहाल पिछले कुछ वर्षों में वैश्विक सामरिक मामलों के विमर्श में ताक़त और वर्चस्व की वही पुरानी सियासत एक बार फिर से परवान चढ़ने लगी है. ख़ासतौर से कोरोना महामारी के चलते ये रुझान और व्यापक हो गया है.
तकनीक का क्षेत्र भी इस रुझान से बच नहीं पाया है. इस सिलसिले में डेटा की जासूसी, विदेशी प्रभाव डालने वाली कार्रवाइयां और ऐप से लेकर बुनियादी ढांचों के क्षेत्र से जुड़ी तकनीकी सेवाओं तक पर पाबंदी जैसी प्रवृतियां दिखाई देने लगी हैं. अमेरिका और चीन के बीच के रिश्तों में इस तरह के अनेक रुझान देखे जा सकते हैं. हालांकि इस संदर्भ में विश्लेषकों ने ये बात रेखांकित की है कि मौजूदा वक़्त में दिख रही ये प्रतिस्पर्धा पिछली सदी में बड़ी ताक़तों के बीच वर्चस्व कायम करने को लेकर हुए टकराव से बुनियादी तौर पर अलग है.
दो महाशक्तियों के बीच इस तरह के प्रतिक्रियात्मक खेल सिर्फ़ अपने दुश्मन के ऊपर प्रतिक्रियात्मक बढ़त हासिल करने के लिए ही नहीं खेले जाते. दरअसल इसका मकसद संसार की दूसरी राज्यसत्ताओं और वैश्विक स्तर पर नागरिक समाज के ऊपर अपनी सोच और प्रतिक्रियाओं का दबदबा कायम करना भी होता है.
इस लेख में अमेरिका और चीन के बीच तकनीक के मोर्चे पर छिड़े संघर्ष को प्रतिक्रियात्मक चालबाज़ियों के नज़रिए से समझने की कोशिश की गई है. इस नज़रिए का ताल्लुक़ विभिन्न राज्यसत्ताओं द्वारा एक-दूसरे की सोच और क्रियाओं पर नियंत्रण पाने का लक्ष्य बनाकर किए जाने वाले प्रयासों से है. मौजूदा लेख पूर्व की एक परिचर्चा का ही अगला पड़ाव है. उस परिचर्चा में हमने देखा था कि युद्ध के तौर-तरीके कैसे बदल गए हैं. विशाल पैमाने पर डेटा संग्रह, बर्ताव और पूर्वानुमान से जुड़े विश्लेषणात्मक अध्ययनों और आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस के उभार के चलते छठी पीढ़ी का संग्राम (6GW) सामने आ गया है. वैश्विक स्तर पर चौकसी वाली पूंजीवादी आर्थिक व्यवस्था के मातहत काम करने वाली इकाइयां इन तकनीकों का इस्तेमाल कर रही हैं.
इस दृष्टिकोण से विदेशी ताक़तों ख़ासकर शत्रु राज्यसत्ताओं के यूज़र डेटा पर नियंत्रण का मतलब है वैश्विक निजी डेटा पर काबू पाना. महाशक्तियों के बीच की गलाकाट प्रतिस्पर्धा का ये एक और जंग-ए-मैदान बन गया है. ऐसा इसलिए क्योंकि डेटा पर नियंत्रण का मतलब है अपने लक्ष्य की संप्रभुता को नष्ट करना. दो महाशक्तियों के बीच इस तरह के प्रतिक्रियात्मक खेल सिर्फ़ अपने दुश्मन के ऊपर प्रतिक्रियात्मक बढ़त हासिल करने के लिए ही नहीं खेले जाते. दरअसल इसका मकसद संसार की दूसरी राज्यसत्ताओं और वैश्विक स्तर पर नागरिक समाज के ऊपर अपनी सोच और प्रतिक्रियाओं का दबदबा कायम करना भी होता है. इस तरह की तमाम क़वायदों का लक्ष्य वैश्विक विमर्श पर अपनी मज़बूत पकड़ बनाना होता है.
ग्लोबल टेक के हालात
नीचे से ऊपर की ओर उठते नियंत्रण के इस फ़लसफ़े में सेवा जितनी ऊंचे स्तर की होगी डेटा संग्रह की काबिलियत या डेटा संग्रह पर रोक लगाने की ताक़त भी उतनी ही ज़्यादा होगी. बुनियादी ढांचे में वो ताक़त है जिसके ज़रिए अधिकतम तादाद में डेटा या तो इकट्ठा किए जा सकते हैं या फिर दूसरों को उन्हें इकट्ठा करने से रोका जा सकता है. हुवावे द्वारा पेश की गई सुरक्षा जोखिमों से ये बात साफ़ तौर पर सामने आ चुकी है. इतना ही नहीं अमेरिकी संसद कैपिटल हिल पर हुए हिंसा के मामले में भी AWS (अमेज़न वेब सर्विसेज़) द्वारा ट्रंप समर्थकों के बीच लोकप्रिय सोशल मीडिया ऐप Parler को इंटरनेट से मिटा दिए जाने की घटना से भी इसी की झलक मिली थी. इसके बाद ऑपरेटिंग सिस्टम्स (OSs), प्लैटफॉर्म्स, ऐप्स, वेबसाइट्स और प्लगइंस, एक्सटेंशंस, मॉड्स और हैक्स आते हैं. सौ बात की एक बात ये है कि तकनीकी सेवा जितने ऊंचे दर्जे की होगी वो उतना ही अधिक डेटा संग्रह कर सकेगी या फिर निचले दर्जे वाली सेवाओं द्वारा डेटा संग्रह को वो उतनी ही ताक़त से रोक सकेगी.
तकनीकी कंपनियों को दो भूमिकाएं निभानी होती हैं. संक्षेप में कहें तो इनमें से एक किरदार मुनाफ़ा कमाने वाली कंपनी का और दूसरा राष्ट्रीय सुरक्षा परिसंपत्ति का होता है. मिसाल के तौर पर फ़ेसबुक और गूगल तकनीकी क्षमता बढ़ाने में चीन की मदद कर रहे हैं. ये मदद इस हक़ीक़त के बावजूद दी जा रही है कि चीन रणनीतिक तौर पर अमेरिका का प्रतिद्वंदी है.
तकनीक से जुड़ी प्रतिस्पर्धा, डेटा गवर्नेंस नीतियों, बाज़ार पहुंच को सीमित करने और तकनीक के स्थानीयकरण जैसे मसलों को भी इसी नज़रिए से देखा जा सकता है. महाशक्ति बनने से जुड़े सवालों के संदर्भ में अपने शत्रु की प्रतिक्रियात्मक काबिलियत को सीमित करने से जुड़ी जद्दोजहद के तौर इस पूरी प्रक्रिया को देख सकते हैं. वैश्विक स्तर पर शत्रु पक्ष की तकनीक की पहुंच को सीमित करना और कूटनीतिक और रणनीतिक दबावों के ज़रिए ख़ुद की तकनीकी कंपनियों को बढ़ावा देने का प्रयास करना भी इसी प्रकार की रणनीति का हिस्सा है. इसे अपनी प्रतिक्रियात्मक शक्तियों को अपने शत्रु के मुक़ाबले ऊंचा उठाने की क़वायद के तौर पर देखने की ज़रूरत है. इसके पीछे का मकसद दूसरी राज्यसत्ताओं पर अपना ज़्यादा से ज़्यादा नियंत्रण स्थापित करना है.
बहरहाल यहां एक पैदाइशी विरोधाभास देखने को मिलता है. दरअसल तकनीकी कंपनियों को दो भूमिकाएं निभानी होती हैं. संक्षेप में कहें तो इनमें से एक किरदार मुनाफ़ा कमाने वाली कंपनी का और दूसरा राष्ट्रीय सुरक्षा परिसंपत्ति का होता है. मिसाल के तौर पर फ़ेसबुक और गूगल तकनीकी क्षमता बढ़ाने में चीन की मदद कर रहे हैं. ये मदद इस हक़ीक़त के बावजूद दी जा रही है कि चीन रणनीतिक तौर पर अमेरिका का प्रतिद्वंदी है. ऐसे में दो मालिकों की सेवा करने जैसे दुविधा वाले हालात पैदा होते हैं. ऐसे में राज्यसत्ताओं द्वारा अपनी ख़ुद की तकनीकी इकाइयों पर ज़ाहिर किया जाने वाले नियंत्रण अहम हो जाता है. इसी से ये तय होता है कि क्या प्रतिद्वंदी देश उन इकाइयों द्वारा पेश की जा रही सेवाओं का फ़ायदा उठाकर अपना प्रभाव जमाने वाली कार्रवाइयों को अंजाम दे सकता है या नहीं.
अमेरिका और चीन की हाई टेक रस्साकशी
अमेरिका साइबर संसार की महाशक्ति है. साइबर संसार के बुनियादी और बेहद अहम हलकों में अमेरिकी कंपनियों का दुनिया भर में बोलबाला है. इनमें हार्डवेयर, ऑपरेटिंग सिस्टम्स (मोबाइल और डेस्कटॉप दोनों), बुनियादी ढांचा (क्लाउड, सीडीएन, वेब होस्टिंग), सोशल प्लैटफ़ॉर्म आदि शामिल हैं. साफ़ है कि इस क्षेत्र में बाक़ी दुनिया के मुक़ाबले अमेरिका की निजी ताक़त सबसे ज़्यादा है. दुनिया की टॉप 20 टेक्नोलॉजी कंपनियों में से 11 अमेरिका में स्थित हैं. बाक़ी की 9 कंपनियां चीन की हैं. चीन की तकनीकी इकाइयों ने भी उच्च तकनीकी के क्षेत्र में अपनी अहम मौजूदगी बनाने में कामयाबी पाई है. ख़ासतौर से नेटवर्क इंफ़्रास्ट्रक्चर में उनका दबदबा है. दोनों ही महाशक्तियों ने 6GW और मनोवैज्ञानिक लड़ाइयों से जुड़े तमाम तत्वों को अपनी-अपनी सुरक्षा रणनीतियों में शामिल कर लिया है. चीन ने इस प्रक्रिया को अपने ‘तीन युद्धों’ वाले सिद्धांत के तौर पर अंजाम दिया है जबकि अमेरिका इसे ‘धारणा प्रबंधन’ के रूप में अमल में लेकर आया है. पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ़ चाइना के गोल्डन शील्ड प्रोजेक्ट (द ग्रेट फ़ायरवॉल) ने विदेशी प्रतिक्रियात्मक शक्तियों के प्रति उसकी सुरक्षा की दीवार को और मज़बूत बना दिया है. दरअसल चीन ने इसके ज़रिए बाहरी इंटरनेट और उसपर मौजूद ज़्यादातर बाहरी सामग्रियों को ब्लॉक कर रखा है.
वैश्विक स्तर पर निजी डेटा पर अमेरिका का नियंत्रण दो तरीकों से कायम रहता है. पहला, दुनिया की सबसे बड़ी टेक्नोलॉजी कंपनियां- जिनमें माइक्रोसॉफ़्ट, ऐप्पल, गूगल और फ़ेसबुक शामिल हैं- स्वेच्छा से एनएसए के PRISM प्रोग्राम पार्टनर हैं. इन PRISM पार्टनरों की वैश्विक मौजूदगी के चलते अमेरिका के पास वैश्विक स्तर पर डेटा संग्रह की काबिलियत मौजूद है. अमेरिका का FISA क़ानून बिना किसी न्यायिक आदेश के भी किसी विदेशी व्यक्ति द्वारा किए जाने वाले संचार को बीच में रोकने का अधिकार देता है. इसके लिए केवल अटॉर्नी जनरल की मंज़ूरी की ज़रूरत होती है. इतना ही नहीं, अमेरिका अपने क्षेत्राधिकार में नियम-क़ायदे न मानने वाली कंपनियों को यूज़र डेटा को रिकॉर्ड करने और उसको जारी करने के लिए मजबूर कर सकता है. इसके लिए अमेरिका के पास नेशनल सिक्योरिटी लेटर्स जैसे साधन मौजूद हैं.
अमेरिका का FISA क़ानून बिना किसी न्यायिक आदेश के भी किसी विदेशी व्यक्ति द्वारा किए जाने वाले संचार को बीच में रोकने का अधिकार देता है.
चीन की कंपनियों ने भी अब अपनी सरहदों के बाहर सेवाएं मुहैया कराना शुरू कर दिया है. चीन का नेशनल इंटेलिजेंस लॉ (एनआईएल) भी PRISM प्रोग्राम के जैसे ही कार्य करता है. हालांकि अमेरिका के विपरीत चीनी तौर-तरीके में दो मालिकों वाली दुविधा के निपटारे का प्रयास किया गया है. दरअसल चीनी क़ानून के तहत तमाम चीनी कंपनियों को सरकार की ख़ुफ़िया कार्रवाइयों में सहयोग करने को बाध्य किया जाता है. इसी प्रकार साइबर सुरक्षा क़ानून ने स्थानीयकरण की ज़रूरतों को सख्ती से लागू किया है. इसके तहत किसी भी डेटा को विदेश ट्रांसफ़र करने के लिए साइबर सुरक्षा प्रशासन की सहमति की ज़रूरत होती है. अमेरिका के PRISM प्रोग्राम की ही तरह इस क़ानून के तहत चीन में कार्यरत सभी कंपनियों के लिए सरकार के साथ यूज़र डेटा साझा करना ज़रूरी होता है. ऐसे प्रावधान चीन के ख़िलाफ़ किसी भी विरोधी की प्रतिक्रियात्मक शक्तियों को काफ़ी हद तक दुर्बल या कम कर देते हैं.
दूसरे, दुनिया-भर में अपने मित्र स्थापित करने की अमेरिकी व्यवस्था वैश्विक स्तर पर डेटा पर निगरानी या चौकसी रखने से जुड़ा दबदबा बनाने की अमेरिकी रणनीति में बेहद अहम भूमिका निभाती है. ख़ुफ़िया जानकारियां साझा करने के लिए ‘फ़ाइव आइज़’, ‘नाइन आइज़’ और ‘फ़ोर्टिन आइज़’ जैसे गठजोड़ अमेरिकी ख़ुफ़िया एजेंसियों को अपने मित्र देशों से डेटा जुटाने और मित्र देशों तक पहुंचे डेटा के संग्रह करने की सुविधा प्रदान करते हैं. इतना ही नहीं इसके ज़रिए इन एजेंसियों को अमेरिकी क़ानूनों और निजता की सुरक्षा से जुड़े प्रावधानों को ठेंगा दिखाने की छूट भी मिल जाती है. इस उपाय से वो अपने नागरिकों के निजी डेटा तक भी पहुंच बना लेते हैं. इसके साथ-साथ ऐसे गठजोड़ों का इस्तेमाल “निजी और कमर्शियल संचार को रोकने और उनपर निगरानी रखने की वैश्विक व्यवस्था” के संचालन के लिए भी किया जाता रहा है. इस सिलसिले में प्रोजेक्ट एशेलॉन का उदाहरण लिया जा सकता है. इनसे बाक़ी दुनिया के मुक़ाबले अमेरिका को बहुत अधिक प्रतिक्रियात्मक ताक़त हासिल होती है.
चीन का रुख़ अमेरिका से बिल्कुल अलग है. वैश्विक स्तर पर डेटा पर निगरानी रखने के मामले में अमेरिका के प्रभाव को चुनौती देने के लिए वो गठजोड़ों का सहारा नहीं ले रहा. इसके लिए वो डिजिटल सिल्क रोड इनिशिएटिव की मदद ले रहा है. इसके तहत भागीदार देशों को चीन की तकनीकी सेवाएं मुहैया कराई जाती हैं. इसमें सबसे ऊंचे दर्जे की तकनीकी सेवा जैसे संचार से जुड़ा बुनियादी ढांचा भी शामिल है. इस तरह की मदद से चीन को भागीदार देशों पर बड़ी प्रतिक्रियात्मक बढ़त हासिल होती है.
दुनिया भर में 5जी बाज़ार में हुवावे का अहम स्थान है. इससे चीन के लिए एक ऐसा दरवाज़ा खुला है जहां अमेरिका का दबदबा नहीं है. अमेरिका के घरेलू बाज़ार में हुवावे के बढ़ते प्रभाव से अमेरिका को चीन की प्रतिक्रियात्मक शक्ति के बढ़ने का एहसास होने लगा था. इसी वजह से आगे चलकर अमेरिका ने हुवावे पर प्रतिबंध लगा दिया
दुनिया भर में 5जी बाज़ार में हुवावे का अहम स्थान है. इससे चीन के लिए एक ऐसा दरवाज़ा खुला है जहां अमेरिका का दबदबा नहीं है. अमेरिका के घरेलू बाज़ार में हुवावे के बढ़ते प्रभाव से अमेरिका को चीन की प्रतिक्रियात्मक शक्ति के बढ़ने का एहसास होने लगा था. इसी वजह से आगे चलकर अमेरिका ने हुवावे पर प्रतिबंध लगा दिया. हालांकि अमेरिका ने इस ख़तरे का बाक़ी दुनिया के मुक़ाबले अपनी प्रतिक्रियात्मक शक्ति को बढ़ाने के लिए भी इस्तेमाल किया. हुवावे पर वैश्विक स्तर पर पाबंदी लगाने की अपील करते हुए अमेरिका ने इसकी जगह विकल्पों के तौर पर दुनिया को एरिकसन का सुझाव दिया. ये कंपनी स्वीडन में स्थित है, जो अमेरिका के फ़ोर्टिन आइज़ गठजोड़ का साथी है. स्पष्ट है कि अगर दुनिया एरिकसन को अपनाती है तो इससे न सिर्फ़ अमेरिका के रणनीतिक प्रतिस्पर्धियों की तादाद सीमित होगी बल्कि इससे वैश्विक डेटा पर अपना शिकंजा कायम करने की चीनी काबिलियत पर भी काफ़ी हद तक लगाम लग सकेगी. इसके अलावा ऐसे उपायों से वैश्विक डेटा पर अमेरिका का पहले से ज़्यादा नियंत्रण भी हो सकेगा.
ख़ुद पर पाबंदी लगने के बाद हुवावे ने अपना ऑपरेटिंग सिस्टम यानी OS तैयार कर लिया. इससे ऑपरेटिंग सिस्टम्स के मामले में अमेरिका पर चीन की निर्भरता घट गई. लिहाजा चीन के मुक़ाबले अमेरिका की प्रतिक्रियात्मक ताक़त भी कम हो गई. हक़ीक़त तो ये है कि चीन की कंपनियां वैश्विक स्तर पर अपनी प्रतिक्रियात्मक शक्तियां बढ़ाने के लिए एक के बाद एक लगातार कई शुरुआत कर रही हैं. इनमें ‘मौन’ फ़ोनों के लिए सबसे नए और सबसे ज़्यादा इस्तेमाल में आने वाला Kai OS शामिल है. गूगल जैसी विशाल अमेरिकी कंपनी ने भी इस वेंचर में निवेश किया है. इसकी वजह ये है कि ये उस बाज़ार या मूल्य समूह को अपनी सेवाएं मुहैया कराता है जिसे फ़िलहाल एंड्रॉयड से कोई सेवा हासिल नहीं होती है. ये ऑपरेटिंग सिस्टम बेहद कम वक़्त में ही तेज़ी से आगे बढ़ते हुए दुनिया का तीसरा सबसे प्रमुख ऑपरेटिंग सिस्टम बन गया है. 2020 में इसका इस्तेमाल करने वाले लोगों की तादाद 10 करोड़ थी जो लगातार बढ़ती जा रही है. इससे साफ़ है कि चीन ने ऊंचे दर्जे की तकनीकी वाले क्षेत्र के बाज़ार में भी अपना हिस्सा हासिल कर लिया है. ग़ौरतलब है कि इस क्षेत्र में पहले अमेरिका का दबदबा था. ऐसे में महाशक्ति का रुतबा हासिल करने की चीन की महत्वाकांक्षा को और मज़बूती मिली है.
भारत के लिए आगे का रास्ता
निश्चित रूप से अल्पकाल से लेकर मध्यम काल के बीच चीन द्वारा पेश ख़तरे की वजह से रणनीतिक तौर पर भारत के हाथ बंधे हुए हैं. ऐसे में अमेरिकी टेक कंपनियों पर ही भरोसा करना बुद्धिमानी भरा क़दम है. बहरहाल दीर्घकाल में भारत को ये तय करना होगा कि क्या वो ख़ुद को एक संभावित महाशक्ति के तौर पर देखना चाहता है या वो अमेरिका का साझीदार बनकर ही संतुष्ट है. भारत क्वॉड का अकेला ऐसा सदस्य है जो ख़ुफ़िया सूचनाओं को साझा करने वाले अमेरिका की अगुवाई वाले तंत्र यानी ‘फ़ाइव आइज़’ गठजोड़ का हिस्सा नहीं है. साफ़ है कि भारत के साथ परिस्थितियां ज़रा हटके हैं. ऐसे में वो उभरती हुई इस दुनिया में अपने लिए ख़ास मुकाम तय कर सकता है.
निश्चित रूप से अल्पकाल से लेकर मध्यम काल के बीच चीन द्वारा पेश ख़तरे की वजह से रणनीतिक तौर पर भारत के हाथ बंधे हुए हैं. ऐसे में अमेरिकी टेक कंपनियों पर ही भरोसा करना बुद्धिमानी भरा क़दम है.
ये बात सच है कि अमेरिका के नेतृत्व वाले ऐसे ख़ुफ़िया गठजोड़ों में शामिल होने से चीनी तकनीक पर भारत की निर्भरता कम करने में मदद मिलेगी. इससे भारत को चीन की प्रतिक्रियात्मक शक्ति को कम करने में भी कामयाबी मिलेगी. हालांकि इस पूरी क़वायद के नतीजे के तौर पर अमेरिका पर भारत की निर्भरता और बढ़ जाएगी. बहरहाल दीर्घकालीन दृष्टिकोण से अमेरिका पर दांव लगाते हुए घरेलू विकल्प तैयार करने की रणनीति महाशक्ति बनने के भारत के अरमानों को ज़िंदा रखेगी.
इसके अलावा भारत द्वारा सीमित संख्या में तैयार घरेलू विकल्पों का विदेशों में प्रचार-प्रसार किया जाना चाहिए. इसके लिए अमेरिका के PRISM या चीन के NIL कार्यक्रमों की तर्ज पर ही कोई पहल तैयार की जा सकती है. अगर भारत महाशक्ति बनने की ख़्वाहिश रखता है और एक दिन वैश्विक डेटा निगरानी तंत्र में अपना दबदबा बनाना चाहता है तो उसे इस तरह के क़दम उठाने होंगे.
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