Author : Navdeep Suri

Published on Feb 08, 2022 Updated 0 Hours ago

आर्थिक कूटनीति के नये क्षेत्रों को लेकर भारत के रुख़ पर न सिर्फ़ भारत के प्रतिस्पर्धियों की, बल्कि विकासशील देशों में उसके सहयोगियों की भी क़रीबी नज़र रहेगी. 

#NewEconomicDiplomacy: नयी आर्थिक कूटनीतिक दुनिया में ‘भारत’ होने के मायने!

आर्थिक कूटनीति को मोटे तौर पर कूटनीति के उस पहलू के बतौर परिभाषित किया जाता है जो अंतराष्ट्रीय आर्थिक संबंधों पर केंद्रित होती है. द्वितीय विश्व युद्ध के बाद, इसका आम तौर मतलब हो गया है आक्रामक द्विपक्षीय मोलतोल के ज़रिये राष्ट्रीय व्यापार, निवेश और तकनीकी हितों को बढ़ावा देना, और ऐसे ही हितों की विश्व व्यापार संगठन या WTO और संयुक्त राष्ट्र व्यापार एवं विकास सम्मेलन (UNCTAD) जैसी बहुपक्षीय संस्थाओं में पैरवी करना. वाणिज्यिक लक्ष्यों को आगे बढ़ाने के मुख्य उद्देश्य के लिए विदेशी सहायता कार्यक्रमों को इसमें बाद में जोड़ा गया.

हालांकि, सितंबर 1964 में भारत औरों से कुछ ख़ास हो गया, जब उसकी केंद्रीय कैबिनेट ने भारतीय तकनीकी एवं आर्थिक सहयोग कार्यक्रम आईटीईसी की स्थापना का फैसला किया.

हालांकि, सितंबर 1964 में भारत औरों से कुछ ख़ास हो गया, जब उसकी केंद्रीय कैबिनेट ने भारतीय तकनीकी एवं आर्थिक सहयोग कार्यक्रम आईटीईसी की स्थापना का फैसला किया. भारत जो नया-नया आज़ाद हुआ था और अब भी गरीब देश था, यह ऐलान कर रहा था कि वह अफ्रीका और एशिया के अपने और ज्यादा ग़रीब मित्रों को संबल प्रदान करेगा. उसका तर्क था, ‘आपसी सरोकार और परस्पर निर्भरता पर ऐसे रिश्ते स्थापित करना आवश्यक था, जो न सिर्फ़ साझा आदर्शों और आकांक्षाओं, बल्कि ठोस आर्थिक बुनियादों पर भी आधारित हों.’

परोपकारिता और व्यावहरिकता के अनोखे मिश्रण वाला, इरादों से भरा यह महत्वाकांक्षी बयान ही था, जिसने आधुनिक भारत की आर्थिक कूटनीति की बुनियाद रखी. और इसने काम भी किया. मैंने इसे प्रत्यक्ष तौर पर अफ्रीका की अपनी विस्तृत यात्राओं के दौरान देखा. वहां मैंने कहानियां सुनीं – भारतीय शिक्षकों से गणित और विज्ञान पढ़नेवाले प्रधानमंत्रियों और मंत्रियों की; भारतीय विशेषज्ञों द्वारा औद्योगिक क्षेत्र और कृषि विद्यालय स्थापित करने की; ‘राष्ट्रीय रक्षा महाविद्यालय’ एनडीसी नयी दिल्ली द्वारा एकाधिक राष्ट्रीय रक्षा महाविद्यालय स्थापित किये जाने की; बड़ी संख्या में सिविल सेवकों व तकनीकी कर्मियों, डॉक्टरों व नर्सों, इंजीनियरों व वैज्ञानिकों को आईटीइसी के तहत भारत में प्रशिक्षण दिये जाने की. अदीस अबाबा और गैबोरोन से लेकर अक्रा और विंडहोक तक, भारत के लिए सद्भावना बिल्कुल प्रकट रूप में थी. इस देश को एक मददगार और भरोसेमंद दोस्त माना जाता था.

वर्ष 2005 के बाद आर्थिक फ़ायदा

यह अच्छा लगा, बस. मुट्ठीभर सम्मानजनक अपवादों को छोड़ दें, तो भारत के सहायता कार्यक्रम देश के लिए किसी स्पष्ट आर्थिक फ़ायदे में रूपांतरित नहीं हुए. यह 2005 के आसपास जाकर बदलना शुरू हुआ. भारत ने 50 करोड़ अमेरिकी डॉलर की छोटी रकम के साथ अफ्रीका के लिए क्रेडिट लाइन (क़र्ज़ की पेशकश) की शुरुआत की. नरम ब्याज दरों और सॉवरेन गारंटी के साथ लगभग 30 फ़ीसद अनुदान वाली ये क्रेडिट लाइनें, फ्रेंच-भाषी अफ्रीका के मुश्किल बाज़ारों में भारत की अग्रणी कंपनियों के जगह बनाने और एशिया व अफ्रीका के देशों में परियोजनाओं को सफलतापूर्वक क्रियान्वयित करने के लिए उत्प्रेरक बन गयीं. इन परियोजनाओं में मुख्य बुनियादी ढांचा क्षेत्र जैसे रेलवे, सड़कों और बंदरगाहों के ज़रिये ट्रांसपोर्ट कनेक्टिविटी; बिजली उत्पादन और वितरण; मैन्यूफैक्चरिंग उद्योग; और यहां तक कि कृषि और सिंचाई भी शामिल हैं. नतीजतन, भारत के पड़ोस में महत्वाकांक्षी लेकिन अक्सर देरी वाली कनेक्टिविटी परियोजनाओं – सड़क, रेल, नदी परिवहन नेटवर्कों के साथ तेल पाइपलाइनों और पावर ट्रांसमिशन ग्रिडों के विस्तार – ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सीधी निगरानी में आख़िरकार आकार लेना शुरू किया.

मुट्ठीभर सम्मानजनक अपवादों को छोड़ दें, तो भारत के सहायता कार्यक्रम देश के लिए किसी स्पष्ट आर्थिक फ़ायदे में रूपांतरित नहीं हुए. यह 2005 के आसपास जाकर बदलना शुरू हुआ.

सेवा क्षेत्र की बात करें, तो भारत आईटी सेंटर्स फॉर एक्सेलेंस बना रहा था, ई-विद्याभारती और ई-आरोग्यभारती कार्यक्रमों के ज़रिये शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाएं प्रदान करने के लिए अपनी सैटेलाइट क्षमताओं का लाभ उठा रहा था. मूल ITEC कार्यक्रम साइबर सुरक्षा और जलवायु परिवर्तन से लेकर उद्यमिता और शिक्षा तक के पाठ्यक्रमों के लिए 1200 पूर्ण वित्तपोषित ट्रेनिंग स्लॉट मुहैया कराने तक विस्तृत था. सरकार ने देशों को भारतीय उत्पाद खरीदने के लिए प्रोत्साहित करने के वास्ते 1 अरब अमेरिकी डॉलर के ‘ख़रीदारों के लिए क़र्ज़’ की पेशकश भी शुरू की. जलवायु परिवर्तन के महत्व को स्वीकार करते हुए, भारत ने न केवल इंटरनेशनल सोलर अलायंस स्थापित करने की अगुवाई की, बल्कि विकासशील देशों में सौर ऊर्जा परियोजनाओं के वित्तपोषण के लिए 1.6 अरब अमेरिकी डॉलर की क्रेडिट लाइन मुहैया कराने पर भी सहमत हुआ.

विदेश मंत्रालय के भीतर ‘विकास साझेदारी प्रशासन’ के तहत, भारत के सहायता कार्यक्रमों के नाटकीय विस्तार में वाणिज्यिक एवं बहुपक्षीय आर्थिक कूटनीति के ज्यादा ‘परंपरागत’ पहलुओं पर भी उतना ही ज़ोर दिया जाना शामिल था. बाजार तक पहुंच  के लिए प्रयत्न और नॉन-टैरिफ अवरोधकों से मुक़ाबला करते हुए; देश में निवेश के लिए बहुराष्ट्रीय कंपनियों, निजी इक्विटी फर्मों और सॉवरेन फंड्स को लुभाते हुए; तथा तेल ख़रीद में रियायतों और ऊर्जा सुरक्षा समझौतों के लिए प्रयत्न करते हुए, भारत के राजनयिक मिशन ट्रेड शो और ‘मेक इन इंडिया’ कार्यक्रमों के आयोजन में सक्रियतापूर्वक जुट गये. भारत की दुबई एक्सपो 2020 में हाई-प्रोफाइल भागीदारी और ‘नये भारत’  की झलक पेश करने के लिए भारतीय पवेलियन का कल्पनाशील ढंग से इस्तेमाल एक मिसाल है. इसके साथ ही, बहुपक्षीय संस्थाओं में सक्रिय भागीदारी के द्वारा, भारत दूसरे के बनाये नियमों का मूकदर्शक रहने के बजाय, खेल के नये नियम परिभाषित करने में शामिल होने के अपने इरादों का संकेत दे रहा है.

अगर जलवायु परिवर्तन वजूद का सवाल बन जाता है और कोविड-19 जैसे महामारियां पूरी वैश्विक अर्थव्यवस्था के भंवर में फंसने का ख़तरा पेश करती रहती हैं, तो भारत को झटके झेलने में सक्षम बुनियादी ढांचे से लेकर वैश्विक स्वास्थ्य तक के विषयों पर बातचीत की अगुवाई करनी चाहिए.

इन सबके बावजूद, नये दशक में, भारत को आर्थिक कूटनीति के क्षेत्र में उपजी नयी चुनौतियों का सामना करना ही चाहिए. संरक्षणवादी रुझान उभार पर हैं, और बहुपक्षीय समझौतों की जगह द्विपक्षीय समझौतों को प्राथमिकता दी जा रही है. बड़े पश्चिमी देशों में बढ़ती आप्रवासन-विरोधी भावनाओं ने श्रमिक गतिशीलता में नया व्यवधान खड़ा किया है. कृत्रिम बुद्धिमत्ता, चौथी औद्योगिक क्रांति तथा 5जी के आर्थिक वृद्धि की रीढ़ के रूप में उभरने के साथ, भारत को अपनी आर्थिक कूटनीति के औज़ारों में नये सिरे से बदलाव अवश्य करना चाहिए. अगर डाटा नया तेल है, तो स्पष्ट एवं पारदर्शी घरेलू क़ानून और संस्थाएं अवश्य विकसित की जानी चाहिए, ताकि डेटा प्रोसेसिंग के सुरक्षित ठिकाने के रूप में भारत के प्रति भरोसा जगाया जा सके. अगर जलवायु परिवर्तन वजूद का सवाल बन जाता है और कोविड-19 जैसे महामारियां पूरी वैश्विक अर्थव्यवस्था के भंवर में फंसने का ख़तरा पेश करती रहती हैं, तो भारत को झटके झेलने में सक्षम बुनियादी ढांचे से लेकर वैश्विक स्वास्थ्य तक के विषयों पर बातचीत की अगुवाई करनी चाहिए. अमेरिका, जापान और ऑट्रेलिया के साथ क्वॉड में भारत की सक्रिय भागीदारी जलवायु परिवर्तन और वैक्सीन उत्पादन के मुद्दों से निपटने, साथ ही बेहद अहम खनिजों, साइबर सुरक्षा, सप्लाई चेन के लचीलेपन की तलाश, भरोसेमंद स्रोतों से 5जी और दूसरी तकनीकों को अपनाने, और कई सारी अन्य उभरती चुनौतियों में महत्वपूर्ण भूमिका निभायेगी. 

नये माहौल में स्टार्टअप्स की भूमिका

आर्थिक कूटनीति के इन और अन्य नये क्षेत्रों को लेकर भारत द्वारा अपनाये गये रुख पर न सिर्फ़ उसके प्रतिस्पर्धियों द्वारा, बल्कि विकासशील देशों के उन सहयोगियों द्वारा भी क़रीबी नज़र रखी जायेगी जो अपने अति महत्वपूर्ण हितों की रक्षा के लिए भारत की पैरोकारी पर भरोसा करते हैं. नयी आर्थिक कूटनीति पर एक कार्यक्रम को डिजाइन और संचालित करने के लिए ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन और भारत के विदेश सेवा संस्थान के बीच होने जा रहा सहयोग इस उभरते विषय (ज्ञान की शाखा) के बढ़ते महत्व का संकेत देता है. आनेवाले वर्षों में, द्विपक्षीय और बहुपक्षीय दोनों मंचों के मामले में इन मुद्दों के साथ प्रभावी ढंग से पेश आने के लिए युवा भारतीयों और विदेशी राजनयिकों के बीच क्षमता निर्माण होने की उम्मीद है.  

इन क्षेत्रों में कुछ सबसे शानदार आइडिया बहुत सारे सामाजिक उद्यमियों और स्टार्टअप्स से आते हैं, जिन्होंने ख़ुद से ही यथास्थिति को तोड़ने की चुनौती ली है. 

इस नयी आर्थिक कूटनीति में, सरकारी कर्ताओं भर से परे देखना अहम है. कुछ बेहतरीन प्रतिभाएं शिक्षा, स्वास्थ्य देखभाल और वित्तीय समावेशन जैसे क्षेत्रों में भारत के अग्रणी गैर सरकारी संगठनों द्वारा किये जा रहे असाधारण काम में मौजूद हैं. इन क्षेत्रों में कुछ सबसे शानदार आइडिया बहुत सारे सामाजिक उद्यमियों और स्टार्टअप्स से आते हैं, जिन्होंने ख़ुद से ही यथास्थिति को तोड़ने की चुनौती ली है. कई ने शिक्षा, स्वास्थ्य देखभाल, वित्तीय समावेशन, और कई दूसरे मॉडल विकसित किये हैं जो अन्य विकासशील देशों के लिए बड़े पैमाने पर इस्तेमाल हो सकते हैं और अपनाये जा सकते हैं. इसके उदाहरणों में कई देशों में प्राथमिक शिक्षा के प्रथम मॉडल, जयपुर फुट, बेयरफुट कॉलेज ऑफ़ वुमन सोलर एनर्जी टेक्नीशियंस की, और आधार जैसे समाधान बनाने करने के लिए इंडिया स्टैक की बढ़ती मांग शामिल है. अवसर की प्रतीक्षा में और भी कई हैं, जो अपने आइडिया और विशेषज्ञता को भारतीय तटों से परे ले जाना चाहते हैं. इस तरह, भारत को अपनी ख़ुद की कहानियां ज़रूर बतानी चाहिए- बांग्लादेश के स्कूली बच्चों की, अपने हाथ या पैर गंवाने वाले मलावी के लोगों की, केन्या की सोलर दादियों की, घाना के आइटी स्नातकों की, इथोपिया की नर्सों की और उन सबकी, जिनकी ज़िंदगियों को इन आइडियाज या विजन ने छुआ है.

नयी आर्थिक कूटनीति की इस दुनिया में, भारत मायने रखता है. चीनी ख़ैरातों की बराबरी कर पाने में भारत की अक्षमता पर आंसू बहाने के बजाय, देश की प्रचंड शक्तियों और संसाधनों का इस्तेमाल करना महत्वपूर्ण है. भारत सही मायनों में ज्ञान और विचारों का प्रकाश स्तंभ है, जो फ़र्क़ डाल सकता है और डालेगा.

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