Author : Manavi Jain

Published on Nov 12, 2020 Updated 0 Hours ago

भविष्य के दफ़्तरों को सबसे पहले तो घर और दफ़्तर की परिकल्पना को उसकी संपूर्णता के साथ स्वीकार करना और अपनाना होगा. इसमें कामकाजी लोगों के तमाम तरह के तजुर्बों और ज़िम्मेदारियों के अनुभव शामिल होने चाहिए.

द नेक्स्ट नॉर्मल: कोविड-19 के बाद के दौर में काम-काज के स्थानों में लचीलापन लाने की कोशिश

कोविड-19 की महामारी ने मानवता के हालिया इतिहास की सबसे पेचीदा चुनौतियों में से कुछ एक को हमारे सामने पेश किया है. कोविड-19 की व्यापकता और इसका प्रभाव इतना है, जो अब से पहले किसी अन्य महामारी के दौर में नहीं देखा गया था. इसने न केवल मानव जीन और हमारी स्वास्थ्य व्यवस्था से अपने क़हर की भारी क़ीमत वसूली है. बल्कि, इससे वैश्विक अर्थव्यवस्था को अरबों डॉलर का नुक़सान हुआ है. लाखों लोगों की नौकरियां इस महामारी के चलते चली गई. दुनिया के तमाम देशों की सरकारों को इस महामारी की चुनौती से निपटने में आज भी पसीने छूट रहे हैं. सरकारों के सामने चुनौती इस बात की है कि वो कोरोना वायरस का संक्रमण रोकने के साथ-साथ अर्थव्यवस्था को रफ़्तार देने का काम कैसे करें.

अब जबकि तमाम सरकारें, कारोबारी और समुदाय इस संकट से निपटने में जुटे हुए हैं तो धीरे-धीरे ध्यान इस बात पर बढ़ रहा है कि कैसे अर्थव्यवस्था को दोबारा खोला जाए. विकास की तेज़ दर फिर से कैसे हासिल की जाए. जैसे-जैसे कर्मचारी दोबारा अपने दफ़्तरों में काम पर लौट रहे हैं, तो इस समय दुनिया को वास्तविक और आभासी यानी वर्चुअल दोनों ही क्षेत्रों में कामकाज के नए नियम बनाने पड़ रहे हैं. क्योंकि, महामारी के चलते घर और दफ़्तर के बीच का फ़ासला बहुत हद तक मिट गया है. दोनों के बीच कई जगह टकराव भी देखने को मिल रहा है. इस बदली हुई परिस्थिति से तालमेल बिठाने के दौरान, हर प्रक्रिया, हर काम और भूमिका को नए सिरे से स्थापित किया जा रहा है. ज़ाहिर है कि इससे कामकाज का भविष्य पूरी तरह से बदल जाने वाला है. कामकाजी लोगों की भूमिका और काम करने का तरीक़ा, दफ़्तरों के रोल मे भी परिवर्तन आ रहा है. इन सब बदलावों के बीच मूल प्रश्न ये हैं कि- कोविड-19 के बाद के दौर में वो कौन सी बड़ी प्राथमिकताएं है जिन्हें, महामारी के बाद के दौर में सबसे पहले अपनाने की ज़रूरत पड़ेगी? हमें सरकारी और निजी क्षेत्र के लोगों को किस तरह से तैयार करना होगा, जिससे कि वो ऑनलाइन टूल्स का इस्तेमाल किए बिना किसी बाधा के रिमोट अर्थव्यवस्था की ओर क़दम बढ़ाएं? भविष्य के काम-काजी वर्ग का स्वरूप क्या होगा? कोविड-19 के बाद के दफ़्तर और दूसरे कामकाजी स्थल कैसे होंगे?

कोविड-19 की व्यापकता और इसका प्रभाव इतना है, जो अब से पहले किसी अन्य महामारी के दौर में नहीं देखा गया था. इसने न केवल मानव जीन और हमारी स्वास्थ्य व्यवस्था से अपने क़हर की भारी क़ीमत वसूली है. बल्कि, इससे वैश्विक अर्थव्यवस्था को अरबों डॉलर का नुक़सान हुआ है.

क़रीब पचास हज़ार से अधिक कर्मचारियों वाली कंपनी के लिए ये कुछ बड़े सवाल हैं, जिनसे सेल्स फोर्स ने ख़ुद को रूबरू किया है. कंपनी बड़ी मुस्तैदी से इन सवालों के जवाब तलाश रही है. कंपनी ने अपने संसाधनों, संबंधों और उत्पादों की मदद से अपने कर्मचारियों, ग्राहकों और उनसे जुड़े समुदायों की मदद कर रही है. जिससे कि वो इस संकट से पार पा सकें. कोई भी फ़ैसला लेना, एक साथ कई जोखिम मोल लेने जैसा है. क्योंकि किसी के पास भी इस सवाल का जवाब नहीं है कि हालात कब सुधरेंगे? ये महामारी कब ख़त्म होगी? इसके बावजूद, सेल्सफोर्स ने मौजूदा हालात के हिसाब से ख़ुद को ढालने का काम किया है. कंपनी ने अपने कर्मचारियों, ग्राहकों और समाज के प्रति अपनी ज़िम्मेदारियों को समझते हुए अपने कारोबार में ज़रूरी परिवर्तन करने का काम किया है. नई परिस्थिति के हिसाब से कंपनी और कर्मचारियों को ढालने के लिए जिन नियमों का पालन किया जा रहा है, उनकी बुनियाद कंपनी के चार मूलभूत मूल्यों के ऊपर निर्भर है. और ये हैं-समानता, विश्वास, इनोवेशन और ग्राहकों की सफलता. सेल्सफोर्स ने अपने यहां तीन थीम के आधार पर बदलाव किए हैं. डिजिटल परिवर्तन, काम-काज में लचीलापन और ऑफ़िस के ढांचे में बदलाव.

इस लेख में हम इस बात की पड़ताल करने की कोशिश करेंगे कि कोविड-19 के बाद कामकाज का भविष्य कैसा रहने वाला है. और इन तीन बुनियादी स्तंभों के माध्यम से आर्थिक वृद्धि की रफ़्तार को कैसे दोबारा हासिल करने की कोशिश की जा रही है. और इस दिशा में चलते हुए कौन से अवसर मिलने वाले हैं. कौन सी चुनौतियां सामने खड़ी हैं. इस दिशा में पहला क़दम डिजिटल परिवर्तन का है. अब सबको तेज़ रफ़्तार वाली सस्ती इंटरनेट सेवा उपलब्ध हो रही है. देशों की सीमाओं के आर-पार सहयोग बढ़ रहा है. डेटा की सुरक्षा के मज़बूत मानक अपनाए जा रहे हैं. सरकार ऐसी नीतियां बना रही है जो दूरस्थ कामकाजी स्थलों की अवधारणा पर आधारित अर्थव्यवस्था को बढ़ावा देती हैं. दूसरी बात, एक मज़बूत मगर लचीले कामकाजी तबक़े का निर्माण करना है. इसके केंद्र में कर्मचारी का कल्याण और नई परिस्थितियों के अनुरूप ढालने में उनकी मदद करना है. तीसरी बात काम करने और काम-काज के स्थलों को नए आयामों के हिसाब से ढालना है. इसमें कामकाज के हाईब्रिड मॉडल की ओर स्थायी तौर पर बढ़ने की कोशिश की जा रही है. जिसमें कभी घर से काम करना पड़ सकता है. तो कभी कार्यालय जाकर काम निपटाना पड़ सकता है. यानी घर कभी घर होगा, तो कभी दफ़्तर. ऐसे में एक ताक़तवर डिजिटल कमांड सेंटर की ज़रूरत भी है, जो कहीं भी काम करने की सहूलियत प्रदान कर सके. जिससे कर्मचारी कहीं भी रह कर काम कर सकते हैं. हर जगह उन्हें आवश्यक डिजिटल माहौल और सुविधाएं उपलब्ध हों. कंपनियां इन अवसरों और इनसे जुड़ी चुनौतियों से कैसे निपट पाती हैं, इसी बात से आगे की दिशा में बढ़ने की हमारी सफलता तय होगी.

कामकाजी लोगों की भूमिका और काम करने का तरीक़ा, दफ़्तरों के रोल मे भी परिवर्तन आ रहा है. इन सब बदलावों के बीच मूल प्रश्न ये हैं कि- कोविड-19 के बाद के दौर में वो कौन सी बड़ी प्राथमिकताएं है जिन्हें, महामारी के बाद के दौर में सबसे पहले अपनाने की ज़रूरत पड़ेगी

डिजिटल परिवर्तन को आगे बढ़ाने की प्रक्रिया

इस वैश्विक महामारी ने रातों-रात कामकाज की परिस्थितियों में बदलाव कर दिया. महामारी से बचाने के लिए कंपनियों ने अपने कर्मचारियों को कई हिस्सों में बांट कर अलग-अलग जगह काम करने को प्रोत्साहित किया. वो ऑफ़िस आने के बजाय घर बैठ कर काम करने लगे. ये एक ऐसी प्रक्रिया थी जिसने कामकाजी स्थलों के डिजिटल परिवर्तन में सबसे बड़ी भूमिका निभाई है. कोविड-19 के कारण तमाम कारोबारों को बाहर से ऐसा झटका लगा है, जिससे वो अपने व्यापार के डिजिटल परिवर्तन को मजबूर हो गए. ये एक ऐसा बदलाव है, जिसे वो काफ़ी दिनों से टालते आ रहे थे. जबकि, उन्हें काफ़ी पहले से इसकी शुरुआत कर देनी चाहिए थी. टैली सॉल्यूशन्स की एक रिपोर्ट कहती है कि भारत के 68 लाख सूक्ष्म, छोटे और मध्यम दर्जे के कारोबारियों में से 94 प्रतिशत ने कोविड-19 की महामारी के दौरान अपना व्यापार जारी रखने के लिए डिजिटल माध्यमों का सहारा लिया.[1]

कोविड-19 की महामारी के बाद के महीनों के दौरान, सभी कारोबारियों को ये बात समझा दी कि वो अब डेटा पर आधारित निर्णय प्रक्रिया को अपनाएं और अपने अपने काम-धंधे में डिजिटलीकरण की प्रक्रिया को तेज़ करें. इंटरनेशनल डेटा कॉरपोरेशन द्वारा ऐसा अनुमान लगाया जा रहा है कि दुनिया भर के उद्योग जगत द्वारा डिजिटल परिवर्तन के लिए क़रीब 7.4 ख़रब डॉलर का निवेश अगले तीन वर्षों में किया जाएगा. [2] भारत में, नैसकॉम की एक रिपोर्ट के अनुसार, क़रीब 60 प्रतिशत छोटे और मध्यम दर्जे के कारोबारियों ने तो पहले ही अलग-अलग स्तर पर क्लाउड कंप्यूटिंग को अपना लिया है. आज की तारीख़ में भारत के कुल सार्वजनिक क्लाउड मार्केट का एक तिहाई हिस्सा इसी तबक़े के खाते में जाने की संभावना जताई जा रही है. [3]

आज संगठनात्मक स्तर पर बेहतरीन डिजिटल संसाधनों का इस्तेमाल करके आपसी सहयोग के माध्यम से दूर बैठ कर काम करने को बढ़ावा देने वाले संसाधनों का उपयोग बढ़ा है. इसने हर तरह के बिज़नेस मॉडल में बदलाव को बढ़ावा दिया है. 

सभी तरह के इनोवेशन के लिए तकनीक ही बुनियादी स्तंभ होता है. इसी की मदद से कार्यकुशलता उत्पादकता काम करने में आसानी और उत्पादन बढ़ाने में मदद मिलती है. आज की तारीख़ में हर तरह के व्यापार में डेटा की अहमियत बढ़ गई है. फिर चाहे वो औद्योगिक तबक़ा हो या कोई सरकारी संस्थान. डेटा के प्रवाह और मुक्त इंटरनेट सेवा पर आधारित जो डिजिटल परिवर्तन निर्मित किया जाता है, उसने सूचना संबंधी सोने की खदान का निर्माण किया है. जिसमें कारोबारी और उद्यमी अपने ज़रूरत की जानकारी का इस्तेमाल करके अपने उत्पाद और सेवाओं को बेहतर बनाते हैं और सीधे संभावित ग्राहक तक अपनी पहुंच भी इसी के माध्यम से बनाते हैं.

इस महामारी ने जिन परिवर्तनों को करने के लिए बाध्य किया है, उससे एक और बात हुई है. आज संगठनात्मक स्तर पर बेहतरीन डिजिटल संसाधनों का इस्तेमाल करके आपसी सहयोग के माध्यम से दूर बैठ कर काम करने को बढ़ावा देने वाले संसाधनों का उपयोग बढ़ा है. इसने हर तरह के बिज़नेस मॉडल में बदलाव को बढ़ावा दिया है. संवाद के हर माध्यम और बिंदु को छूने वाले इस परिवर्तन से संगठन के स्तर पर अधिक लचीलापन हासिल किया जा सका है. जिससे ग्राहकों के सीधा संवाद भी लगातार बढ रहा है. कोविड-19 के बाद के दौर की बदली हुई परिस्थिति के हिसाब से ख़ुद को ढालने, इसके लिए स्वयं को तैयार करने और अपने कारोबार का विस्तार करने को आतुर कारोबारियों ने एक से एक डिजिटल सेवाओं को अपनाया है. [4] अपने कारोबार में शामिल किया है. जिससे व्यापक स्तर पर इनोवेशन भी देखने को मिल रहा है. डिजिटल उपकरणों पर आधारित विशिष्ट किस्म के नए समाधान तलाशे गए हैं. फिर चाहे शिक्षा का क्षेत्र हो, स्वास्थ्य हो या फिर वित्तीय सेवाओं का कारोबार. इस महामारी के कारण उत्पन्न हुई बहुमुखी समस्याओं जैसे कि, स्वास्थ्य की चुनौती, यात्रा पर प्रतिबंध, दफ़्तरों की तालाबंदी और कर्मचारियों को अलग-अलग हिस्सों में बांट कर काम कराने से निपटने के लिए कारोबारियों को आधुनिक तकनीक, ऐप और प्रक्रियाओं की ज़रूरत है. जिससे वो इन चुनौतियों से पार पा सकें. और साथ ही साथ अपने कर्मचारियों की सुरक्षा सुनिश्चित करते हुए व्यापार में सफलता भी प्राप्त कर सकें.

उदाहरण के लिए सेल्सफोर्स के वर्क डॉट कॉम को ही लीजिए. इसके तहत कई तरह के समाधान और संसाधनों का निर्माण कुछ ही हफ़्तों के भीतर किया गया. ये ऐसे संसाधन थे जिनसे संगठनों और कारोबारियों को कोविड-19 की चुनौती से उबरने और नई परिस्थिति में काम जारी रखने में मदद करने वाले विकल्प उपलब्ध कराए गए. महामारी के बाद अनलॉक की प्रक्रिया शुरू हुई[5], तो ऑफ़िस को सुरक्षित रूप से फिर से खोलने में भी इन नए डिजिटल संसाधनों से मदद मिली. डिजिटल उत्पादों के इस ख़ज़ाने में से कारोबारियों को मेडिकल सलाह, क्राइसिस कमांड सेंटर, कॉन्टैक्ट ट्रेसिंग के समाधान, आपातकालीन सेवाओ का प्रबंधन, शिफ्ट मैनेजमेंट और कर्मचारी के कल्याण के मूल्यांकन की सेवाएं उपलब्ध कराई गई. सेल्सफोर्स ने इस उत्पाद की मदद से अपने बाज़ार के हालात की निगरानी की. अपने पैमानों के आधार पर और सरकार के नियमों के दायरे में रहते हुए, सेल्सफोर्स ने धीरे-धीरे करके अपने दफ़्तर खोले हैं. इनमें दक्षिण कोरिया, जापान, न्यूज़ीलैंड और हॉन्गकॉन्ग शामिल हैं.

हालांकि, कारोबार में इस डिजिटल परिवर्तन की प्रक्रिया हमेशा आसान हो, ये ज़रूरी नहीं है. इसमें कई पेचीदगियां भी शामिल हैं, जो काम की रफ़्तार को धीमा कर देती हैं. तकनीकी कंपनियों द्वारा नए और अच्छे तकनीकी संसाधनों को सबके लिए उपलब्ध कराया जा रहा है. आज मशीन लर्निंग, डीप लर्निंग और क्लाउट कंप्यूटिंग संबंधी नई नई उन्नत सेवाएं सहजता से उपलब्ध हैं. तकनीकी कंपनियां अपने ग्राहकों को हर तरह से डिजिटल मदद उपलब्ध करा रही हैं. इनमें बड़े कारोबारी घरानों से लेकर छोटे और मध्यम दर्जे के उद्योग शामिल हैं. फिर भी चुनौतियां कम नहीं हुई हैं. इनमें उच्च तकनीक वाली तेज़ और सस्ती इंटरनेट सेवा की अनुपलब्धता, डेटा की निजता और सुरक्षा के मानक, इन संसाधनों का नियमन करने वाली संस्था की कमी के कारण, सीमाओं के आर पार रिमोट वर्किंग आसान नहीं, बल्कि मुश्किल है. इसके अलावा कामकाजी लोगों के प्रशिक्षण की कमी और उनके नई तकनीकों से वाबस्ता न होने के कारण भी नए डिजिटल संसाधन अपनाने में दिक़्क़त आ रही है.

फिर भी चुनौतियां कम नहीं हुई हैं. इनमें उच्च तकनीक वाली तेज़ और सस्ती इंटरनेट सेवा की अनुपलब्धता, डेटा की निजता और सुरक्षा के मानक, इन संसाधनों का नियमन करने वाली संस्था की कमी के कारण, सीमाओं के आर पार रिमोट वर्किंग आसान नहीं, बल्कि मुश्किल है.

इसमें कोई दो राय नहीं कि ये चुनौतियां बहुत बड़ी हैं. और इनके बहुत व्यापाक और दूरगामी प्रभाव अलग-अलग मोर्चों पर देखने को मिल रहे हैं. ऐसे में अगर कारोबारियों को सफल होना है, तो उन्हें ऐसी व्यवस्था का निर्माण करना होगा, जो डिजिटल परिवर्तन को बढ़ावा दें. कुछ ऐसे समाधान उपलब्ध हैं, जिनसे इस लक्ष्य को हासिल किया जा सकता है. इसके लिए तेज़ गति वाली सस्ती इंटरनेट सेवा तक सबकी पहुंच होना, सुरक्षित कनेक्टिविटी होना ज़रूरी है. इससे दूर दूर देशों में बैठे लोगों के बीच सहयोग से काम हो सकेगा. डेटा की प्राइवेसी सुरक्षित रहेगी. सरकार को चाहिए कि वो डिजिटल सुरक्षा के मानकों को तय कर दे, सरकार की नीतियों में क्लाउड फर्स्ट के माध्यम से ही ख़रीद को बढ़ावा दिया जाए और निजी क्षेत्र की उन कंपनियों को बढ़ावा दिया जाए, जो दूरस्थ सेवाएं देती हों. ख़ास तौर से स्वास्थ्य, शिक्षा और कामकाज के क्षेत्र में. इसके अलावा वैश्विक कामकाजी वर्ग को STEM शिक्षा और नए हुनर के प्रशिक्षण देकर नई परिस्थतियों और परिवर्तनों के लिए तैयार किया जाए.

नया कौशल सीखना, रीस्किलिंग और कामगारों की एक लचीली टीम का निर्माण

चौथी औद्योगिक क्रांति के साथ ही पहले ही पूरी दुनिया में कामकाजी तबक़े के बीच उथल पुथल देखने को मिल रही थी. अब ज़ोर इस बात पर दिया जा रहा है कि लोगों को नए हुनर का प्रशिक्षण दिया जाए. पुराने कामगारों को नई ट्रेनिंग दी जाए. उनके काम को और बेहतर बनाया जाए. नौकरियों और उद्योग धंधों में नए तरह के हुनर की मांग ने इस बात को और बढ़ावा देने का काम किया है. अब हर दिन विकसित होती नई तकनीक ने वास्तविक और आभासी दुनिया का फ़र्क़ मिटा दिया है. ऐसे में दुनिया भर में कारोबारी और कंपनियों को तेज़ी से हो रहे इनोवेशन से क़दम से क़दम मिलाकर चलने की चुनौती का सामना करना पड़ रहा है. कोविड-19 की महामारी के वैश्विक संकट के दौर में आज कंपनियों को ऐसी चुनौती का सामना करना पड़ रहा है, जहां ग्राहकों की ज़रूरतें और उनकी मांगें, कोविड-19 के पहले के दौर से बिल्कुल अलग हैं. सोशल डिस्टेंसिंग, केवल डिजिटल तकनीक आधारित अनुभवों पर ज़ोर देने का युग आ गया है. जिसके कारण कंपनियों को अपने उत्पादन को नए सिरे से ढालने और सप्लाई लाइन के नए नियम तय करने पड़ रहे हैं. इसमें कुछ क्रांतिकारी बदलावों से कर्मचारियों में अलग-अलग तरह की कार्य क्षमता का विकास हो रहा है. इसमें घर पर बैठ कर ही काम करने वालों के लिए नए अवसर पैदा हुए हैं. तो, दुकानों पर काम करने वालों के लिए नई ज़िम्मेदारियां निकलकर सामने आई हैं. और इन सभी कार्यों को सुरक्षा की सख़्त गाइडलाइन के साथ करना होगा. [6]

इस महामारी से लोगों के बीच नई डिजिटल तकनीकों जैसे की क्लाउड कंप्यूटिंग, इंटरनेट ऑफ़ थिंग्स (IoT), ऑग्यूमेंटेड रियालिटी/वर्चुअल रियालिटी (AR/VR), आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस (AI) और 3D तकनीकों की स्वीकार्यता बढ़ेगी. इससे छोटे छोटे मगर मुश्किल कामों को बेहद कम लागत में पूरा किया जा सकेगा. ये नई और उभरती हुई तकनीकी सुविधाएं, बड़े पैमाने पर कामकाजी तबक़े में बदलाव लाने का काम करेंगी. विश्व आर्थिक मंच की एक रिपोर्ट कहती है कि अगर मशीनों के चलते दुनिया भर में क़रीब 7.5 करोड़ लोगों की नौकरियां जाएंगी. तो कम से कम 13.3 करोड़ नई नौकरियों के द्वार भी नई तकनीकें खोलेंगी. यानी इंटेलिजेंट मशीनों के ज़्यादा से ज़्यादा इस्तेमाल से इंसानों का नुक़सान नहीं होगा. बल्कि, उन्हें 5.8 करोड़ नई नौकरियों के सृजन का लाभ मिलेगा. [7]

विश्व आर्थिक मंच की एक रिपोर्ट कहती है कि अगर मशीनों के चलते दुनिया भर में क़रीब 7.5 करोड़ लोगों की नौकरियां जाएंगी. तो कम से कम 13.3 करोड़ नई नौकरियों के द्वार भी नई तकनीकें खोलेंगी. यानी इंटेलिजेंट मशीनों के ज़्यादा से ज़्यादा इस्तेमाल से इंसानों का नुक़सान नहीं होगा. बल्कि, उन्हें 5.8 करोड़ नई नौकरियों के सृजन का लाभ मिलेगा. 

आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस से कामकाज में आ रहे परिवर्तन, नौकरियों पर लोगों को रखने वालों से छुपे नहीं हैं. और सेल्सफोर्स रिसर्च के सर्वे के अनुसार, ज़्यादातर मानव संसाधन अधिकारी मानते हैं कि आर्टिफ़िशिल इंटेलिजेंस, इंटरनेट ऑफ़ थिंग्स (IoT) और बिग डेटा के कारण कामकाजी लोगों के इनोवेशन और उत्पादकता पर सबसे अधिक प्रभाव पड़ेगा. [8] इस सर्वे से ये भी पता चलता है कि 59 प्रतिशत मानव संसाधन प्रबंधक ये मानते हैं कि आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस के बढ़ते इस्तेमाल के चलते, कामकाजी लोगों के हुनर में भी बदलाव आएगा. उनके अंदर जिस काम को करने की क्षमता की अपेक्षा आज होती है. उसमें परिवर्तन आएगा. कंपनियां चाहेंगी कि कामकाजी लोग अपने अंदर नए हुनर का निखार पैदा करें. वो डेटा विश्लेषण, सॉफ्टवेयर क्रिएशन और प्रबंधन, इमोशनल इंटेलिजेंस और क्रिएटिव थिंकिंग पर ज़्यादा ज़ोर दें. इसी तरह मैकिंसी की एक रिपोर्ट का कहना है कि यूरोप और अमेरिका में तकनीकी हुनर की मांग में कम से कम 50 प्रतिशत की वृद्धि होने की संभावना है. इसमें उच्च स्तर के भावनात्मक और सामाजिक हुनर, जैसे कि पहल करने, नेतृत्व करने उद्यमिता दिखाने जैसे कौशल की मांग कम से कम 30 प्रतिशत बढ़ जाएगी. [9] इसकी तुलना में शारीरिक श्रम वाले काम और हाथ से होने वाले काम करने वालों की मांग में कमी आएगी. ऐसे काम जो बार बार एक ही तरह से किए जाते हैं, उनमें इंसानों की जगह मशीनें ले लेंगी. जिस काम में सिर्फ़ बुनियादी साक्षरता और गिनती गिनने की ज़रूरत होती है, वो अब मशीनों के हवाले किया जा रहा है. इस तरह के कामों के लिए लोगों को नौकरी पर रखने में क्रमश: 30 और 20 प्रतिशत की गिरावट आएगी. नई तकनीकों के चलते भविष्य की नौकरियों के लिए हुनर की मांग बदलने वाली है. इसलिए कामकाजी लोगों को नए नए कौशल सीखने होंगे. तभी वो बेहद प्रतिद्वंदी बाज़ार में ख़ुद के लिए काम तलाश पाएंगे.

बहुत सी कंपनियां ये तो मान रही हैं कि उन्हें अपने कर्मचारियों को नए कौशल सीखने की ट्रेनिंग देनी होगी. इसके लिए नए कार्यक्रम संचालित करके अपने कामगारों को नई चुनौतियों के लिए तैयार करना होगा. लेकिन, अभी भी वो अपने अंदर बदलाव करने को तैयार नहीं हैं. या उनकी बदलाव लाने की प्रक्रिया बहुत धीमी है. सेल्सफोर्स रिसर्च की फ्यूचर ऑफ वर्कफोर्स डेवलपमेंट की रिपोर्ट बताती है कि 70 प्रतिशत मैनेजर ये मानते हैं कि कामकाजी लोगों को ट्रेनिंग देने से उनकी उत्पादकता में बहुत सुधार आएगा. जबकि 69 प्रतिशत ये मानते हैं कि इससे उनकी टीम भविष्य की चुनौतियों का सामना करने और नई तकनीकी आविष्कार के इस्तेमाल के लिए तैयार होंगे. भले ही 68 प्रतिशत HR मैनेजर ये मानते हैं कि प्रशिक्षण के औपचारिक कार्यक्रम उपयोगी होते हैं. फिर भी इनमें से केवल 46 प्रतिशत इसे अपने लिए उच्च प्राथमिकता का विषय मानते हैं. इस फ़र्क़ का ही नतीजा है कि आज नौकरीपेशा लोगों की रोज़ी-रोटी संकट में है. और कंपनियों के पास क़ाबिल लोगों की कमी है. [10] हैरानी की बात ये है कि बजट की दिक़्क़त और कर्मचारियों के पास प्रशिक्षण के लिए समय न होने जैसी चुनौतियों के अलावा, इस सर्वे में ऐसी कोई वजह नहीं मिली, जिससे कामकाजी लोगों के कौशल के आधुनिकीकरण की राह में बाधाएं खड़ी हों. ऐसी कोई वजह नहीं समझ में आई कि आख़िर कंपनियां, अपने कर्मचारियों को नए कौशल की ट्रेनिंग क्यों नहीं देना चाहतीं. ऐसे में सवाल इस बात का उठता है कि आख़िर कंपनियां इस बात को लेकर इतनी निष्क्रिय क्यों हैं? वो अपने कर्मचारियों को प्रशिक्षित करने में दिलचस्पी क्यों नहीं लेती हैं? इससे एक और चिंताजनक बात भी सामने आती है. वो ये कि कंपनियों में इस बात को लेकर कोई हड़बड़ी नहीं दिखती. कर्मचारियों के विकास के दृष्टिकोण हर कारोबारी सेक्टर में अलग-अलग देखे जाते हैं. वित्तीय सेवाएं देने वाली कंपनियां अक्सर इस मामले में बाक़ी उद्योगों से आगे रहती हैं. वो अपने कर्मचारियों को नियमित रूप से नए नए काम के लिए प्रशिक्षित करती रहती हैं. कर्मचारियों का जो तबक़ा इस प्रशिक्षण का हिस्सा नहीं बन पाता, उसे ज़्यादा तवज्जो दी जाती है. इसी तरह तकनीकी कंपनियां, ऑनलाइन कोर्स सिखाने के लिए लगातार नए नए कार्यक्रम चलाती रहती हैं. जबकि, कंज़्यूमर प्रोडक्ट और खुदरा कारोबार से जुड़े सेक्टर नई तकनीक से ख़ुद को लैस करने और कर्मचारियों को ट्रेनिंग देने के मामले में हमेशा क़तार में सबसे पीछे होते हैं.

सेल्सफोर्स रिसर्च की फ्यूचर ऑफ वर्कफोर्स डेवलपमेंट की रिपोर्ट बताती है कि 70 प्रतिशत मैनेजर ये मानते हैं कि कामकाजी लोगों को ट्रेनिंग देने से उनकी उत्पादकता में बहुत सुधार आएगा. जबकि 69 प्रतिशत ये मानते हैं कि इससे उनकी टीम भविष्य की चुनौतियों का सामना करने और नई तकनीकी आविष्कार के इस्तेमाल के लिए तैयार होंगे. 

उद्योगों और कारोबार में कंपनियां अपनी ज़रूरतों और कर्मचारियों के कौशल के बीच के फ़ासले को भरने के लिए कई तरीक़े अपना सकती हैं. जैसे कि तकनीकी और विशेषज्ञ भूमिकाओं के लिए बाहर से नए लोगों को काम पर रखना, मौजूदा स्टाफ को नई ज़रूरतों के हिसाब से प्रशिक्षित करना. या फिर इन दोनों विकल्पों को अपनाकर कुछ कंपनियां कर्मचारियों की ऐसी टीम बना सकते हैं, जो हर परिस्थिति में काम कर सके. यानी अस्थायी और परिवर्तनशील ज़िम्मेदारियों वाली नौकरियां. मैकिंसी की रिपोर्ट के अनुसार, इसमें नए हुनर से लैस, ठेके पर काम करने वाले कर्मचारियों की फौज तैयार करना भी शामिल है. जिसे कंपनी के मुख्य काम के अलावा दूसरे काम कराने के लिए अस्थायी तौर पर रखा जा सकता है. उनकी क़ाबिलियत के आधार पर उन्हें अस्थायी ज़िम्मेदारी दी जा सकती है. [11]  उदाहरण के लिए वाल-मार्ट कंपनी अपने फ्रंटलाइन कर्मचारियों और बैक ऑफ़िस कामों में लगे अपने कर्मचारियों को ट्रेनिंग देने के लिए अगले चार वर्षों में 4 अरब डॉलर का निवेश करेगी. जिससे वो कस्टमर सर्विस संबंधी नई ज़िम्मेदारियां निभाने के लिए तैयार हो सकें. जबकि पेशेवर सेवाएं देने वाली कंपनी, मैनपावर ने शिक्षा के क्षेत्र में काम करने वाली पियर्सन के साथ साझेदारी की है, जिससे वो अपने एक लाख तीस हज़ार कर्मचारियों को अगले पांच वर्षों में नए कौशल से प्रशिक्षित कर सके. [12]

सेल्सफोर्स कंपनी अपने कर्मचारियों को प्रशिक्षित करने और भविष्य के लिहाज़ से उनके कौशल में वृद्धि के लिए ज़रूरी ट्रेनिंग देने के मामले में शुरुआत से ही अग्रणी सोच वाली रही है. कंपनी इसे केवल एक कारोबारी रणनीति के तौर पर नहीं देखती. जिससे कि वो अपने भविष्य के लिए क़ाबिल लोगों की फौज तैयार कर सके. बल्कि, कंपनी का मक़सद ये भी है कि वो हर कर्मचारी को बराबरी से प्रगति करने के अवसर प्रदान कर सके. ट्रेलहेड, सेल्सफोर्स कंपनी का मुफ्त ऑनलाइन लर्निंग कार्यक्रम है. जिससे कंपनी का हर कर्मचारी नए हुनर सीख सकता है. उपयोगी कौशल से ख़ुद को लैस कर सकता है. [13] अपने लिए सर्टिफिकेट जुटा सकता है. इस कार्यक्रम में कंपनी का कोई भी व्यक्ति तेज़ और ख़ुद से आगे बढ़ाने वाले मॉड्यूल को चुन सकता है. ज़रूरी हुनर सीख सकता है. ख़ुद के लिए कॉलेज में पढ़ाई के ऑनलाइन प्वाइंटर्स जुटा सकता है. और इनकी मदद से कंपनी में तरक़्क़ी के नए अवसर हासिल कर सकता है. ट्रेलहेड ऑनलाइन लर्निंग प्लेटफ़ॉर्म की शुरुआत इस सोच के साथ हुई थी कि इससे कर्मचारियों को न केवल स्वयं को प्रशिक्षित करने के बहुआयामी मॉडल को तैयार करना था. बल्कि ये सुनिश्चित करना था कि कर्मचारियों का प्रशिक्षण हर कर्मचारी को बराबरी से प्रगति के अवसर देने और उन्हें जीवन की अन्य चुनौतियों से निपटने के लिए तैयार करना है. इस महामारी ने साबित किया है कि कंपनी ने अपने कर्मचारियों की बेहतरी के लिए कितनी अहम पहल की थी. हालांकि, पारंपरिक शिक्षा की अहमियत तो हमेशा ही बनी रहेगी. लेकिन, बहुत से लोगों के लिए नियमित शिक्षा प्राप्त कर पाना भी मुश्किल होता है. या फिर पारंपरिक शिक्षा से लोगों को उनकी मौजूदा नौकरी के लिए ज़रूरी सभी तरह के कौशल सीखने को नहीं मिलते. इसका नतीजा ये है कि आज बहुत से लोग ख़ुद को शिक्षित करने के लिए आसान तरीक़ों की तलाश कर रहे हैं. और वो स्वयं को विविध कौशलों से लैस करना चाहते हैं. इनमें करियर का एक पड़ाव पार कर चुके पेशेवर भी हैं, नौकरी बदलने की ख़्वाहिश रखने वाले भी हैं, युवा स्कूली छात्र भी हैं, कारोबारी लोग भी हैं, रिटायर हो चुके बुज़ुर्ग हैं और नए डेवेलपर्स भी शामिल हैं. एशिया-प्रशांत क्षेत्र में ट्रेलहेड ऑनलाइन लर्निंग प्रोग्राम काफ़ी सफल रहा है. ख़ास तौर से महामारी की रोकथाम के लिए लगे लॉकडाउन के दौरान. अमेरिका के बाहर इसका सबसे अधिक लाभ उठाने वालों में भारत के लोग शामिल हैं. मार्च से लेकर मई 2020 के दौरान ट्रेलहेड में रजिस्ट्रेशन कराने वालों में 70 प्रतिशत युवा थे. और इस कार्यक्रम से कम से कम पांच लाख लोगों ने अपने प्रोग्राम को सफलता से पूरा करके ख़ुद के लिए साठ लाख प्वाइंटर्स जुटाए थे. इन लोगों ने तमाम विषयों में ख़ुद को प्रशिक्षित किया था. ये बात बहुत महत्वपूर्ण है. क्योंकि, भारत में कर्मचारियों को नए हुनर सिखाने की बड़ी सख़्त ज़रूरत है. क्योंकि आज भारत के कुल कामकाजी लोगों में से केवल पांच प्रतिशत ही ऐसे हैं, जिन्होंने औपचारिक रूप से पेशेवर प्रशिक्षण हासिल किया है. ये आंकड़े भारत के कौशल विकास मंत्रालय के हैं. [14] कोविड-19 के बाद के दौर में नए हुनर सीखना, नौकरी बचाए रखने का सबसे बड़ा कारक होगा. ऐसा करके ही लोग ख़ुद को बेरोज़गार होने से बचा सकेंगे. पेशेवर स्तर पर तरक़्क़ी कर पाएंगे.

एशिया-प्रशांत क्षेत्र में ट्रेलहेड ऑनलाइन लर्निंग प्रोग्राम काफ़ी सफल रहा है. ख़ास तौर से महामारी की रोकथाम के लिए लगे लॉकडाउन के दौरान. अमेरिका के बाहर इसका सबसे अधिक लाभ उठाने वालों में भारत के लोग शामिल हैं. 

इस महामारी से एक काम तो ये हुआ है कि आज नई क्षमताएं और कौशल विकसित करने पर ज़ोर बढ़ा है. लेकिन, कर्मचारियों को लेकर जो संवाद हो रहा है, वो बड़ा मशीनी क़िस्म का है. फिर चाहे सरकार द्वारा नागरिकों के लिए उठाए गए क़दम हों या कंपनियों द्वारा अपने कर्मचारियों की भलाई के लिए किए गए उपाय हों. यहां ये याद रखना बेहद ज़रूरी है कि इस समझदारी के केंद्र में वो मानसिक और भावनात्मक उठा-पटक होनी चाहिए, जिससे इस महामारी के दौर में लोग गुज़र रहे हैं. घर और दफ़्तर के बीच का फ़ासला मिट जाना, फ़ोन पर किसी व्यक्ति के हर समय उपलब्ध होने की सोच, हर सेक्टर में काम का बोझ बढ़ा है. ये ख़ास तौर से व्हाइट कॉलर नौकरियों में देखा जा रहा है. घर पर काम करने वालों के ऊपर बच्चों की देखभाल करने या घर के दूसरे काम करने की ज़िम्मेदारी का बोझ भी बढ़ गया है. यही कारण है कि महामारी के शुरुआती दौर में लोगों के ऊपर घर से काम करने पर दबाव और तनाव बहुत ही अधिक बढ़ गया था. फिर लोगों की नौकरियां भी बड़े पैमाने पर गई. उनकी सेहत को नुक़सान पहुंचा. सेल्फ आइसोलेशन के लिए मजबूर लोगों के लिए अकेले रहने की चिंता ने दुनिया भर में लोगों की मानसिक सेहत पर विपरीत प्रभाव डाला है. [15] कैज़र फैमिली फाउंडेशन द्वारा जुलाई महीने में किए गए एक सर्वे के अनुसार अमेरिका की आधी से अधिक वयस्क आबादी ने कहा कि कोविड-19 के चलते उनका तनाव बढ़ा है. अपने मानसिक स्वास्थ्य को लेकर उनके अंदर नकारात्मकता आई है. जो दो महीने पहले हुए सर्वे से 14 प्रतिशत ज़्यादा संख्या है. महामारी के दौरान महिलाएं, अश्वेत वयस्क, युवा लोग महामारी के वित्तीय दुष्प्रभाव के चलते आर्थिक कठिनाइयां झेल रहे थे. [16] हालांकि, भारत में महामारी के मानसिक सेहत पर पड़े दुष्प्रभाव का कोई ऐसा आंकड़ा उपलब्ध नहीं है. लेकिन, सामान्य तौर पर इसके सबूत साफ़ दिखए हैं. महामारी के मनोवैज्ञानिक दुष्प्रभाव हमें आत्महत्या, डिप्रेशन, चिंता और एंग्ज़ाइटी के रूप में दिखाई दिए हैं. ज़ाहिर है, भारत में भी अमेरिका जैसे ही हालात हैं.

सेल्सफोर्स ने इस महामारी के बड़े शुरुआती दौर में ही मानसिक तौर पर मज़बूती के सर्वे कराकर ये जान लिया था कि उसके कर्मचारियों के बीच क्वारंटीन के दौर का नकारात्मक असर दिख रहा है. उनके जज़्बातों पर बुरा प्रभाव पड़ा है. [17] अपने कर्मचारियों के सहयोग के लिए सेल्सफोर्स ने रोज़ ही अपने कर्मचारियों को ‘बी वेल’ कॉल सेवा की शुरुआत की. जिसमें कर्मचारियों को वर्चुअल ध्यान और दिमाग़ी वर्ज़िश की सेवाएं उपलब्ध कराईं. सेल्सफोर्स के अधिकारियों की टीम अपने 50 हज़ार कर्मचारियों से बात करने के लिए हर हफ़्ते फ़ोन करती है. इसके अलावा, कंपनी अपने कर्मचारियों की मानसिक सेहत के लिए थ्राइविंग माइंड के नाम से कार्यक्रम चलाती है, जिसमें कर्मचारियों की मानसिक और भावनात्मक ज़रूरतों का ध्यान रखा जाता है. उन्हें भावनात्मक रूप से मज़बूत बनने में सहयोग किया जाता है. उनके तनाव के कारण समझ कर उन्हें दूर करने की चेष्टा की जाती है. जिससे उनकी चिंताओं का उचित प्रबंधन हो सके. ये सुविधा हर कर्मचारी और उसके परिवार को मुफ़्त में दी जा रही है. सेल्सफोर्स की प्रोडक्ट की वाइस प्रेसिडेंट मेरेडिथ, फ्लिन-रिप्ली इस बारे में विस्तार से बताया कि रोज़ ऑफ़िस न आने, तय समय पर काम न ख़त्म होने और ऐसे दौर में रहने जिसमें समय का कोई अंदाज़ा ही न हो, तो इसके क्या दुष्प्रभाव हो सकते हैं. दफ़्तर में लोग अपने साथियों से तरह-तरह की बात कर लेते हैं. ऑफ़िस के गॉसिप शेयर कर लेते हैं. जो घर में काम करते हुए संभव नहीं था. जापान और हॉन्गकॉन्ग जैसे देशों में, जहां रहने की जगहें बहुत छोटी होती हैं, वहां ये तनाव और भी बढ़ जाता है. ऐसे में सेल्सफोर्स की प्रोडक्ट टीम ने अपने उत्पाद संबंधी समाधान में तनाव की ऐसी छोटी-छोटी वजहों पर भी गौर किया. फिर घर से काम कर रहे कर्मचारियों के लिए थोड़ी-थोड़ी देर पर कंप्यूटर छोड़कर खड़े होने के लिए एलर्ट भेजने शुरू किए. जिससे कि वो थोड़ी देर ब्रेक लेकर टहल फिर लें. या वर्चुअल दुनिया में ख़ज़ाने की तलाश, या वर्चुअल गॉसिपिंग के मौक़े भी कर्मचारियों को उपलब्ध कराए गए. जिससे कि उन्हें दफ़्तर के अनुभव की कमी कम से कम खले. [18] भारत में भी सेल्सफोर्स की सीईओ अरुंधति भट्टाचार्य ने बार बार इस बात पर ज़ोर दिया है कि वो सही माध्यमों के ज़रिए काम और घर के जीवन में उचित संतुलन बना सकते हैं. कंपनी ने भारतीय कर्मचारियों के लिए भी उनकी अच्छी मानसिक सेहत को प्राथमिकता बनाया है. [19]

यहां ये याद रखना बेहद ज़रूरी है कि इस समझदारी के केंद्र में वो मानसिक और भावनात्मक उठा-पटक होनी चाहिए, जिससे इस महामारी के दौर में लोग गुज़र रहे हैं. घर और दफ़्तर के बीच का फ़ासला मिट जाना, फ़ोन पर किसी व्यक्ति के हर समय उपलब्ध होने की सोच, हर सेक्टर में काम का बोझ बढ़ा है. ये ख़ास तौर से व्हाइट कॉलर

कर्मचारियों के बीच लचीलेपन को परखने और भविष्य की ज़रूरतों के हिसाब से उनके कौशल का आकलन करने के अलावा, ये बात भी ज़रूरी है कि इसे संगठन की निर्णय लेने की प्रक्रिया और संरचना का हिस्सा बनाया जाए. ऐतिहासिक रूप से किसी भी संगठन की संरचना के नियम, उसके रोज़मर्रा के काम-काज और कंपनी की कार्य संस्कृति को पुरुषों ने ही तय किया है. जबकि निर्णय लेने और नेतृत्व की प्रक्रिया से महिलाओं को अलग ही रखा गया है. ऐसे में भले ही महिलाओं को कई क़ानूनी अधिकार और नौकरियों में विस्तार के मौक़े मिले हैं. लेकिन, लैंगिक भूमिकाओं में कोई ख़ास बदलाव देखने को नहीं मिला है. महिलाओं के कौशल और उनकी क्षमताओं के सीमित होने साथ-साथ उन पर घरेलू ज़िम्मेदारियों का बोझ होने का असर ये हुआ है कि वो नौकरियों में ज़्यादा प्रगति नहीं कर पाती हैं. इस महामारी ने एक बार फिर दिखाया है कि महिलाओं की तरक़्क़ी में कौन सी बातें बाधा बनती हैं. लेकिन, इसी वजह से महिलाओं की प्रगति की राह में आने वाली इन चुनौतियों पर दोबारा ध्यान केंद्रित हुआ है. इसकी बड़ी वजह ये है कि घर से काम करने के कारण, पुरुषों को भी महिलाओं जैसी समस्याओं से बड़े पैमाने पर दो-चार होना पड़ा है.

कोविड-19 के कारण कामकाजी लोगों का एक बड़ा वर्ग घर पर रहने को मजबूर हुआ. ऐसे में उन्हें घर और दफ़्तर की दोहरी ज़िम्मेदारी का बोझ एक साथ उठाना पड़ा. इसमें बच्चों और बुज़ुर्गों की देखभाल, बीमार लोगों का ख्याल रखना और घर के दूसरे काम निपटाने की ज़िम्मेदारियां निभाने जैसे काम थे. इसी कारण से लोगों को महिलाओ की चुनौतियों का एहसास हो सका है. भले ही ज़्यादातर कंपनियों ने महामारी का हमला होते ही, ज़्यादातर लोगों को घर से काम करने का प्रस्ताव दिया हो. लेकिन, कर्मचारियों का अनुभव एक जैसा नहीं रहा. घर से काम करना, अलग-अलग सामाजिक, आर्थिक और पेशेवर वर्गों के बीच अलग तजुर्बा रहा है. चूंकि, कामकाजी महिलाओं को ही घर का अधिकतर काम करना पड़ता है. बच्चों, बुज़ुर्गों और बीमार लोगों का ख्याल रखना पड़ता है. ऐसे में केवल उन्हीं लोगों को घर से काम करने के मौक़े दिए गए, जो ज़्यादा तनख़्वाह वाले थे और व्हाइट कॉलर नौकरियां करते थे. घरेलू काम-कामकाज जैसे काम, जो घर बैठकर नहीं किए जा सकते. या फिर असंगठित और अस्थायी नौकरियों वाले काम में मज़बूत सामाजिक सुरक्षा पर ज़ोर देने की ज़रूरत महसूस हुई. जैसे कि पेड लीव और सामाजिक सुरक्षा के दूसरे उपाय. इन बुनियादी उपायों को करने के साथ-साथ, घर पर रह कर काम करने वालों के अपने अनुभवों की भी समीक्षा होनी चाहिए. इससे उनकी स्टीरियोटाइप सोच और महिलाओं के प्रति दूसरे पूर्वाग्रह दूर करने में मदद मिलेगी. फिर चाहे वो कंपनी में महिलाओं को सशक्त बनाने या फिर उनकी नुमाइंदगी बढ़ाने की बात ही क्यों न हो. [20]

इस दिशा में पहला क़दम ये हो सकता है कि महिलाओं को बराबरी का दर्जा और मौक़ा देने की राह में आने वाली अड़चनें दूर की जाएं. कंपनियों के भीतर महिलाओं को बराबरी के पैमाने पर मापा जाए. इस प्रक्रिया से महिलाओं को बराबरी के अवसर देने की दिशा में प्रगति का भी आकलन किया जा सकेगा. इस काम को कंपनी में अज्ञात सर्वे के तौर पर किया जा सकता है. महिलाओं से पूछा जा सकता है कि क्या उन्हें काम और तरक़्क़ी के बराबर के अवसर मिलते हैं. उनके अनुभवों की समीक्षा की जानी चाहिए. ठीक ऐसा ही काम सेल्सफोर्स ने वर्ष 2015 में किया था जिससे कि पुरुष और महिला कर्मचारियों की सैलरी की समीक्षा की गई थी. कंपनी ने पुरुषों और महिलाओं के वेतन में फ़र्क़ को लेकर इंटरनल ऑडिट कराया था जिससे पता चला कि महिलाओं और पुरुषों की तनख़्वाह में काफ़ी अंतर था. और ये अंतर कंपनी के अलग-अलग विभागों और क्षेत्रों में बिल्कुल मुखर तौर पर ज़ाहिर था. इसके बाद अगले चार वर्षों में सेल्सफोर्स कंपनी ने समान काम के लिए पुरुषों और महिलाओं को समान वेतन देने के लिए 1.03 करोड़ डॉलर ख़र्च किए थे. लैंगिक, नस्ल और जातीय आधार पर होने वाले भेदभाव भी कंपनी ने दूर किए. जिन लोगों को इस बदलाव का लाभ मिला, उनमें 39 प्रतिशत महिलाएं थीं, जबकि 54 प्रतिशत पुरुष थे. जबकि कर्मचारियों की नस्ल और जाति के चलते बनाए गए ऐसे संतुलन की भागीदारी सात प्रतिशत थी. इससे ये पता चलता है कि युवा महिला कर्मचारियों को काम के बराबरी के अवसर देने की कितनी सख़्त आवश्यकता है. जो सब पर बराबरी से लागू होती है. सिर्फ़ महिलाओं या पुरुषों पर नहीं. और हां, ये बदलाव शीर्ष नेतृत्व के स्तर से शुरू होना चाहिए.

अगर कोई महिला कर्मचारी, अपने घर के बच्चों, बुज़र्गों या बीमार लोगों का ख्याल रखती है, तो इससे उसकी प्रगति नहीं बाधित होनी चाहिए. दफ़्तरों में पुरुषों और महिलाओं के वेतन में अंतर नहीं होना चाहिए. और महिलाओं को कुछ गिनी चुनी भूमिकाओं तक ही नहीं सीमित करना चाहिए. 

कामकाज के स्थल के भविष्य को ध्यान में रखने के लिए इस बात को भी स्वीकार करना होगा कि घर और दफ़्तर की पुरानी परिकल्पनाओं को हमें त्यागना होगा. क्योंकि, घर और दफ़्तर पर कर्मचारी बिल्कुल अलग-अलग तरह के तजुर्बे हासिल करते हैं. कोविड-19 की महामारी के बाद ऐसे अनुभवों को काफ़ी तवज्जो दी जाने लगी है. इस महामारी के कारण, किसी कंपनी के भीतर निर्णय लेने की नियमित रूप से चली आ रही प्रक्रिया में बदलाव आया है. पहले जहां ज़्यादा पढ़े लिखे, अमीर और गोरे लोग ही निर्णय लेने की प्रक्रिया अपने हाथ में रखते थे. वहीं, महिलाएं दफ़्तर का काम निपटाने के बाद दोबारा अपने घरेलू काम वाली भूमिका में लौट जाती थीं. उनसे अपेक्षा की जाती थी कि वो अपनी घर और दफ़्तर की ज़िम्मेदारियों में वही संतुलन बना कर रखें, जैसा पहले से करती आ रही थीं.

कामकाज के स्थल को ज़्यादा विविधतापूर्ण बनाने की प्रक्रिया से ये अधिक समानता वाला, समावेशी और सुरक्षित कार्यालय बनता है. और ये कोई एक बार उठाया जाने वाला क़दम भी नहीं है. ये एक लगातार चलने वाली प्रक्रिया है, जिसकी नियमित रूप से समीक्षा होती रहनी चाहिए. गड़बड़ियों की शिकायत की व्यवस्था होनी चाहिए. विविधता को बढ़ावा देने वाले क़दम उठाए जाने चाहिए. सत्ता के असंतुलन को दूर करने के लिए कर्मचारियों और अधिकारियों को ज़रूरी प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए. जिस सोच से समस्याएं खड़ी होती हैं, उनसे छुटकारा पाने और अंतर्निहित पूर्वाग्रहों से भी मुक्ति पाने का समय है.

ऐसे में भविष्य के दफ़्तर कैसे दिखने चाहिए? फ्यूचर ऑफ़ वर्क के अपने रिसर्च में जोसलिन फ्राय सुझाव देती हैं कि कंपनियों को अपने यहां ऐसा माहौल विकसित करना चाहिए कि उनके यहां काम करने वालों की प्रगति की राह में वही बाधाएं न खड़ी हों, जो दशकों से कामकाजी लोगों के बीच चली आ रही हैं. [21] और जिनसे महिलाओं की प्रगति में बाधा आती है. उनके लिए अवसर कम होते हैं. उन्हें वेतन भी कम मिलता है. जोसलिन कहती हैं कि काम-काज की जगह कोई भी हो, वहां भेदभाव नहीं होना चाहिए. अगर कोई महिला कर्मचारी, अपने घर के बच्चों, बुज़र्गों या बीमार लोगों का ख्याल रखती है, तो इससे उसकी प्रगति नहीं बाधित होनी चाहिए. दफ़्तरों में पुरुषों और महिलाओं के वेतन में अंतर नहीं होना चाहिए. और महिलाओं को कुछ गिनी चुनी भूमिकाओं तक ही नहीं सीमित करना चाहिए. जहां पर उन्हें कम तनख़्वाह वाले काम करते रहने को मजबूर रखा जाए. जहां उनकी प्रगति ही न हो. अधिक व्यापक रूप से कहें तो, किसी कंपनी की संस्कृति ऐसी होनी चाहिए, जहां विविधता भरी संभावनाओं के विकास की आज़ादी हो, प्रबंधन का नेतृत्व और कर्मचारियों के बीच तालमेल को बढ़ावा दिया जाए. और हर कर्मचारी की ज़रूरत और समस्याओं को दूर करने का ध्यान रखा जाए.

एक ज़माने में घर से काम करने के विकल्प को जहां हर कंपनी अवास्तविक और अव्यवहारिक कह कर ख़ारिज करती थी. वहीं, कोविड-19 के दौर में कंपनियों ने अपना धंधा जारी रखने के लिए कर्मचारियों को घर से काम करने की सहूलियत देना, सबसे आसान विकल्प समझा. 

कामकाज और ऑफ़िस की परिकल्पना को नए सिरे से तैयार करना

जब वर्ष 2020 की शुरुआत में कोविड-19 की महामारी ने पूरी दुनिया पर धावा बोला, तो ज़्यादातर जगहों पर ये माना गया कि दूर बैठ कर काम करना ही इस महामारी के संक्रमण को बचाने का सबसे अहम तरीक़ा हो सकता है. लोगों के बीच नज़दीकी संवाद को कम से कम किया गया. वर्ष 2020 के पहले नौ महीनों के दौरान देखा गया कि कंपनियों और कारोबार के अलग-अलग क्षेत्रों के काम करने के तरीक़े में व्यापक बदलाव आया है. हर उद्योग ने धंधे के पारंपरिक तौर तरीक़ों का परित्याग किया, और दूर बैठ कर काम करने यानी कर्मचारियों को घर से काम करने की छूट दी.

धीरे-धीरे लोग काम पर लौटने लगे हैं. अब हर कंपनी ये सवाल उठा रही है कि क्या घर से काम करना ही ‘न्यू नॉर्मल’ होगा? क्या कंपनियों को स्थायी तौर पर काम के हाइब्रिड मॉडल को अपनाना होगा. जहां कुछ कर्मचारी ऑफ़िस आकर काम करेंगे, तो कुछ घर से ही काम निपटाएंगे. इसके लिए कंपनियां स्वयं को कैसे तैयार करेंगी? और इससे कंपनियों के रोज़मर्रा के काम पर क्या असर पड़ेगा?

हम शायद ये कह सकते हैं कि कोविड-19 के कारण जितनी तेज़ी से घर से काम करने के विकल्प को अपनाया गया, उतनी जल्दी किसी और प्रक्रिया को स्वीकार करने की मिसाल नहीं दिखती. एक ज़माने में घर से काम करने के विकल्प को जहां हर कंपनी अवास्तविक और अव्यवहारिक कह कर ख़ारिज करती थी. वहीं, कोविड-19 के दौर में कंपनियों ने अपना धंधा जारी रखने के लिए कर्मचारियों को घर से काम करने की सहूलियत देना, सबसे आसान विकल्प समझा. शुरुआत में इस विकल्प को शक की निगाह से देखा गया था. आज घर से काम करने का विकल्प, दफ़्तर आकर काम करने की बराबरी की दृष्टि से ही देखा जा रहा है. जॉब पोर्टल, नौकरी डॉट कॉम के अनुसार, लॉकडाउन के दौरान भारत में ऐसी नौकरियों में तीन गुना का इज़ाफ़ा हुआ है, जिसमें लोग घर से ही काम करने वाले कर्मचारियों को नौकरी पर रख रहे हैं. इनमें से आधी नौकरियां बिज़नेस प्रोसेस आउटसोर्सिंग या IT सेक्टर से जुड़ी नौकरियां हैं. [22]

नई व्यवस्था का एक फ़ायदा ये हुआ है कि कॉरपोरेट कल्चर में बदलाव आया है. शीर्ष नेतृत्व और निचले दर्जे के कर्मचारियों के बीच संवाद बढ़ा है. यहां तक कि बहुत से मैनेजर और सीईओ सीधे अपने कर्मचारियों से बात करके उनका हाल-चाल जान रहे हैं. काम की प्रगति पूछ रहे हैं. उनसे संवाद बनाए रखना चाहते हैं. जिससे कि उनके कौशल का बेहतर ढंग से इस्तेमाल कर सकें.

कंपनियों को ये एहसास हो गया है कि भले ही कर्मचारी ऑफ़िस न आएं. वो घर पर वैसे ही काम करेंगे, जैसे ऑफ़िस आकर करते हैं. भले ही उन पर कोई निगरानी न कर रहा हो. कारोबार करने वालों को इस बात का भी एहसास अच्छे से हो गया है कि अगर सही उपकरण, कनेक्टिविटी और अन्य संसाधन मौजूद हों तो काम घर से भी किया जा सकता है. इससे कुशलता और उत्पादकता भी बढ़ती है. इससे कंपनियों के प्रबंधन और कर्मचारियों के बीच भरोसा बढ़ा है.

आगे चलकर कोविड-19 के कारण अर्थव्यवस्था में जो सुस्ती आई है, उससे कंपनियां अपना कारोबार जारी रखने के लिए, अपनी लागत में कटौती करने को मजबूर होंगी. क्योंकि, बहुत से लोगों की रोज़ी रोटी छिन गई है. काम-धंधे बंद हो गए हैं. [23] कई कंपनियों ने अपने कर्मचारियों और ऑफ़िस में कमी करने का एलान किया है. वहीं कई कंपनियां ऐसी हैं, जो अपने कामगारों को अभी एक साल तक और घर से काम करने का प्रस्ताव दे रही हैं. इससे कारोबारी रियल एस्टेट सेक्टर को भारी नुक़सान पहुंचने की आशंका है. [24] जबकि, कर्मचारियों के ऑफ़िस आए बिना भी कंपनियों की उत्पादकता बढ़ी है. ऐसे में ये समय बहुमंज़िला इमारतों और विशेष कारोबारी इलाक़ों का दौर ख़त्म होने की भविष्यवाणी करने का नहीं है. न ही हम ये कह सकते हैं कि अब ज़्यादातर कंपनियां अपने ऑफ़िस पर ताला लगा देंगी और अपने कर्मचारियों से स्थायी तौर पर घर से ही काम करने को कहेंगी.

एक बात स्पष्ट है कि जिन काम-धंधों में कंपनियों के लिए ये ज़रूरी है कि उनके कर्मचारी, दफ़्तर या कारखाने में आकर काम करें. ग्राहकों से मिलें. साथी कर्मचारियों के साथ मिलकर काम करें. उनके लिए काम-काज की जगह की ज़रूरत बनी रहेगी. जिससे कि कर्मचारी सोशल डिस्टेंसिंग के नियमों का पालन करते हुए काम कर सकें. कम से कम कोविड-19 की वैक्सीन तैयार होने तक तो यही हाल रहने वाला है. यानी दफ़्तरों में भीड़ कम होगी. दूसरी बात ये है कि घर से काम करने का विकल्प बहुत आसान और दफ़्तर से काम करने से अच्छा विकल्प नहीं रहा है. बहुत से कर्मचारियों को अपने घर में जगह की कमी से जूझना पड़ा. उन्हें घर की ज़िम्मेदारियों का बोझ भी उठाना पड़ा. बच्चों और बुज़ुर्गों का ध्यान भी रखना पड़ा. सेल्सफोर्स रिसर्च द्वारा कराए गए एक सर्वे के अनुसार, घर से काम करने वाले 64 प्रतिशत लोगों का ये कहना था कि वो दफ़्तर, फैक्ट्री या स्टोर आना चाहते हैं, फिर चाहे कुछ घंटों के लिए ही क्यों न हो. केवल 37 प्रतिशत प्रतिभागियों ने ये कहा कि वो लगातार घर से ही काम करना चाहेंगे. आगे चलकर भी इसी विकल्प को अपनाना चाहेंगे. जबकि, पहले कराए गए ऐसे सर्वे में ज़्यादा लोग वो होते थे, जो घर से काम करने के विकल्प को तरज़ीह देते थे. [25]

नई व्यवस्था का एक फ़ायदा ये हुआ है कि कॉरपोरेट कल्चर में बदलाव आया है. शीर्ष नेतृत्व और निचले दर्जे के कर्मचारियों के बीच संवाद बढ़ा है. यहां तक कि बहुत से मैनेजर और सीईओ सीधे अपने कर्मचारियों से बात करके उनका हाल-चाल जान रहे हैं. काम की प्रगति पूछ रहे हैं. उनसे संवाद बनाए रखना चाहते हैं. जिससे कि उनके कौशल का बेहतर ढंग से इस्तेमाल कर सकें.

इसके साथ ही साथ, ये परिवर्तन अपने साथ कुछ चिंताएं भी  लेकर आया है. काम-काज के स्थल की निगरानी में बहुत अधिक वृद्ध हुई है. उत्पादकता के लिए किसी की मौजूदगी को पैमाना बनाने वाली कंपनियां अब घर से काम करने वाले कर्मचारियों के स्क्रीन टाइम का आकलन कर रही हैं. वो ये हिसाब लगा रही हैं कि किसने कितनी देर की-बोर्ड पर उंगलियां चलाईं. [26] और इसी से उसकी प्रोडक्टिविटी तय की जा रही है. ये न केवल कर्मचारियों की निजता के अधिकारों के लिहाज़ से नुक़सानदेह है. बल्कि, इससे कर्मचारियों के हौसलों पर भी विपरीत प्रभाव पड़ता है. इससे कर्मचारियों की एंग्ज़ाइटी बढ़ सकती है. इसके अलावा साथी कर्मचारियों से नज़दीकी न होने, आपसी संवाद न होने के कारण नए लोगों को कंपनी के आचार-विचार से तालमेल बैठाने में दिक़्क़त पेश आ रही है. क्योंकि नए कर्मचारी केवल अधूरे तौर पर ही कंपनी का हिस्सा बन पा रहे हैं. वहीं, मौजूदा कर्मचारी जो अपने साथियों से बातचीत के ज़रिए ब्रेनस्टॉर्मिंग करते हैं, तनाव कम करते हैं और काम को बेहतर बनाते हैं, उन्हें भी अकेलेपन से दिक़्क़तें आ रही हैं.

वहीं, दफ़्तर में कर्मचारी और उनकी बेहतरी और उनके अनुभव को ही कोविड-19 के बाद के दौर में नए दफ़्तरों के निर्माण का आधार बनाया जा रहा है. जैसे-जैसे कंपनियां दोबारा अपने ऑफ़िस खोल रही हैं. कर्मचारियों को घर से दफ़्तर बुला रही हैं, तो उन्हें अलग-अलग तरह की पेचीदा समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है. अभी भी बहुत से देशों में नए कोरोना वायरस के संक्रमण के नए मामले लगातार बढ़ रहे हैं. ऐसे में बहुत से देशों की सरकारें अस्थायी लॉकडाउन का सहारा ले रही हैं. सार्वजनिक परिवहन को बंद रखा जा रहा है. ज़ाहिर है इससे शुरुआती दौर में कंपनियों को दफ़्तर में कम कर्मचारियों से ही काम चलाना होगा. उन्हें चरणबद्ध तरीक़े से ऑफ़िस खोलना होगा. एक दौर में जहां दफ़्तर का माहौल खुला खुला होता था. वहीं अब उसे कांच और प्लास्टिक से विभाजित किया जा रहा है. कर्मचारियों के लिए अलग-अलग डेस्क बनाई जा रही हैं. निकलने और ऑफ़िस के अंदर दाख़िल होने के अलग-अलग रास्तों का प्रयोग किया जा रहा है. ऑफ़िस के भीतर आने और जाने के लिए अलग-अलग रास्ते बनाए जा रहे हैं. ऐसा फर्नीचर लगाया जा रहा है, जिससे चलने में परेशानी न हो. ऐसे में सुरक्षित और आपसी सहयोग के लिए तैयार दफ़्तर तैयार करने में तकनीक और अच्छी डिज़ाइन की भूमिका महत्वपूर्ण होगी. इसमें कर्मचारियों के आराम और अच्छे अनुभव का भी ध्यान रखना ही होगा. उनके कल्याण और आराम के लिए डेस्क बुकिंग जैसी सुविधाएं देनी होंगी. शिफ्ट का मैनेजमेंट इस तरह करना होगा कि लोगों का काम प्रभावित न हो और तनाव भी न बढ़े. लोगों की हाज़िर लगाने और डेटा पर आधारित एचआर के काम और फैसलों और ऑफ़िस मैनेजर के काम में भी तकनीक की भूमिका महत्वपूर्ण होगी.

लॉकडाउन के शुरुआती दौर में सेल्सफोर्स ने ऐसी तकनीक आधारित, डेटा से संचालित और स्थान के भेद से परे मगर, जगह के सही इस्तेमाल के उपकरणों की ज़रूरत का अंदाज़ा लगा लिया था. जिससे कंपनियों और समुदायों को अनलॉक के दौरान दोबारा सुरक्षित रूप से खोला जा सके. वर्क डॉट कॉम ऐसे ही कई तकनीकी समाधानों का और संसाधनों का पूल है, जिसके ज़रिए पूरी दुनिया में कारोबारियों और सामुदायिक नेताओं को अपने कर्मचारियों को नए कौशल सिखाने और कोविड-19 महामारी के बीच में सुरक्षित तरीक़े से दफ़्तर खोलने के तकनीकी समाधान उपलब्ध कराता है. कमांड सेंटर के ज़रिए हर तरह के डेटा के प्रवाह को एक जगह लाकर, काम पर लौटने की तैयारी के संपूर्ण मूल्यांकन का अवसर मिलता है. जिसमें हर लोकेशन, कहर कर्मचारी और आने जाने वालों पर निगाह रखने की व्यवस्था है. इससे कंपनियां उपलब्ध डेटा के आधार पर निर्णय ले पाती हैं. एम्प्लॉयी वेलनेस के माध्यम से कंपनियों को अपने कर्मचारियो के हेल्थ सर्वे करने का मौक़ा मिलता है. जिसके ज़रिए वो ट्रेंड और डेटा के इस्तेमाल पर नज़र रख सकती हैं. और इसके आधार पर कर्मचारियों को काम पर वापस लौटाने संबंधी फ़ैसले कर सकती हैं. शिफ्ट मैनेजमेंट के माध्यम से संगठनों को इस बात में मदद मिलती है कि वो कर्मचारियों को दोबारा इस तरह से दफ़्तर बुलाएं, जिससे ऑफ़िस में भीड़ न इकट्ठी हो जाए. सोशल डिस्टेंसिंग का पालन हो सके. बड़े समूह में कर्मचारी इकट्ठे न हों. और उन्हें नियमित समय पर ब्रेक दिया जा सके. कॉन्टैक्ट ट्रेसिंग के ज़रिए सरकारी और निजी क्षेत्र के लीडर्स को अपने कर्मचारियों के संपर्क में आए लोगों का पता लगाने और उनकी सेहत पर नज़र रखने का आसान तरीक़ा उपलब्ध हो जाता है. इससे संक्रमित लोगों के बारे में जानकारी उपलब्ध हो जाती है. और उनकी निजता का भी सम्मान हो पाता है. ये पता चल जाता है कि कहीं कोई कर्मचारी किसी संक्रामक रोग से तो ग्रस्त नहीं है. कॉन्टैक्ट ट्रेसिंग से संक्रमित लोगों के संपर्क में आए लोगों के विज़ुअल मैप तैयार हो जाते हैं. उनके लोकेशन का पता चल जाता है, जिससे उनके संपर्क में आने वाले संभावित लोगों और बीमारी के प्रकोप फैलने का आकलन किया जा सकता है. इमरजेंसी रिस्पॉन्स मैनेजमेंट के माध्यम से सार्वजनिक स्वास्थ्य संगठनों, सरकारी एजेंसियों और निजी क्षेत्र को हर तरह की आपातकालीन स्थिति का प्रबंधन करने में मदद मिलती है. इससे संक्रमित लोगों की देख रेख और और संसाधनों के वितरण में भी तेज़ी आती है. जिन और बातों पर ध्यान देने की ज़रूरत है, वो हैं लोगों को कौशल विकास की ट्रेनिंग देना. जिससे कर्मचारियों को आउट ऑफ़ बॉक्स प्रशिक्षण दिया जा सके. स्वयंसेवकों का प्रबंधन किया जा सके. और आर्थिक मदद से संगठनों को स्वयंसेवकों के बीच समन्वय करने में मदद मिलती है. फिर जो मदद मिलती है, उसके ऑटोमेशन से स्वयंसेवकों के आपसी सहयोग को बढ़ावा दिया जा सकता है. जिससे उनके काम का प्रभाव व्यापक हो सके.

ये चुनौतियां तो बहुत बड़ी हैं. लेकिन, इनमें भारत को अपनी प्रगति के लिए अवसर भी तलाशने चाहिए, जिससे कि वो नॉलेज इकॉनमी के क्षेत्र में विश्व शक्ति बनने की ओर अग्रसर हो सके. कामकाज के स्थल और स्तर में हो रहे ये परिवर्तन, और नए अवसरों के सृजन में सहायक साबित हो सकते हैं. इसके साथ-साथ कर्मचारियों को भविष्य के लिए तैयार करने का भी काम किया जा सकता है. 

निष्कर्ष

कोविड-19 के कारण कंपनियों के सामने जो चुनौतियां खड़ी हो गई हैं. विश्व में जो उथल-पुथल देखी जा रही है. उसे देखते हुए कंपनियां अपने कारोबार में बदलाव लाने के लिए बड़े व्यापक स्तर पर और बहुत अधिक रफ़्तार से प्रयोग कर रही हैं. उद्योग धंधे अपने यहां नीतिगत सुधार कर रहे हैं. अपने कर्मचारियों की संरचना में बदलाव कर रहे हैं. प्रबंधन के नए तरीक़े अपनाए जा रहे हैं. कंपनी की संस्कृति में बदलाव किया जा रहा है. नए बुनियादी ढांचे का विकास किया जा रहा है. लेकिन, मौजूदा संकट से निपटने के लिए सरकार से भी मदद की दरकार है. नीति नियंताओं को चाहिए कि वो उद्यमियों से हाथ मिलाएं और उनकी ज़रूरतें समझने की कोशिश करें. कारोबारियों की आवश्यकताओं को समझकर ही नीति नियंता संबंधित आवश्यक नीतियों का निर्माण कर सकेंगे. और वो क़दम उठा सकेंगे, जिससे अर्थव्यवस्था में नई जान फूंकी जा सके. जो कुछ अहम नीतिगत मसले हैं, जिन पर आगे बढ़ने से पहले तुरंत ध्यान देने की ज़रूरत है, वो इस तरह हैं-हम कैसे नस्ल, जाति, समुदाय, शहरी ग्रामीण और महिला पुरुष के भेद को ख़त्म कर सकते हैं? ऑफ़लाइन काम करने वाले उद्योगों का भविष्य का स्वरूप क्या होगा? ज़्यादा से ज़्यादा लोगों को अपने दायरे में लाने वाले सामाजिक सुरक्षा के उपाय क्या होंगे? किस तरह से उन अस्थायी कर्मचारियों की मदद की जा सकती है, जिन पर इस महामारी का सबसे बुरा असर पड़ा है? हम कैसे नई नई तकनीक तक सबकी समान पहुंच सुनिश्चित कर सकेंगे? और किस तरह से अर्थव्यवस्था में सबको जोड़े रख पाएंगे? वर्चुअल दुनिया को और अधिक सुरक्षित कैसे बनाया जा सकता है? सीमाओं के आर पार सहयोग, दूर बैठ कर काम करने और सबके लिए सस्ती इंटरनेट सेवा की राह में आने वाली बाधाओं को तेज़ी से कैसे दूर किया जा सकता है?

पिछले कुछ महीनों के दौरान ये देखने को मिला है कि भारत सरकार कितनी फुर्ती से तकनीकी जगत की ज़रूरतें समझकर ज़रूरी क़दम उठाने में सक्षम है. घर से काम कराने की कंपनियों की ज़रूरतों को सरकार ने जल्द से जल्द पूरा करने का प्रयास किया है. [27] सही समय पर उपयोगी और सराहनीय क़दम सरकार ने उठाए हैं. जैसे कि, घर से काम करने के नियमों में रियायत देना. ये चुनौतियां तो बहुत बड़ी हैं. लेकिन, इनमें भारत को अपनी प्रगति के लिए अवसर भी तलाशने चाहिए, जिससे कि वो नॉलेज इकॉनमी के क्षेत्र में विश्व शक्ति बनने की ओर अग्रसर हो सके. कामकाज के स्थल और स्तर में हो रहे ये परिवर्तन, और नए अवसरों के सृजन में सहायक साबित हो सकते हैं. इसके साथ-साथ कर्मचारियों को भविष्य के लिए तैयार करने का भी काम किया जा सकता है. ऐसी रिस्किलिंग और अपस्किलिंग के प्रयासों से प्रतिभाओं के नए केंद्र तैयार किए जा सकते हैं. मानवीय पूंजी को अलग-अलग उद्योगों में समय के अनुसार काम करने के लिए तैयार किया जा सकता है. इससे न केवल उन लोगों को मदद मिलेगी, जिनके हाथ से इस महामारी ने काम छीन लिया है. बल्कि, उन लोगों को भी प्रशिक्षण देकर वो अवसर दिए जा सकेंगे, जो अब तक उन्हें प्राप्त नहीं हो सके थे. [28]

भारत को डिजिटल-फर्स्ट भविष्य की तैयारी में निवेश करने की ज़रूरत होगी. अपनी शिक्षा व्यवस्था को नई ज़रूरतों के हिसाब से ढालना होगा. जिसमें तुरंत और आसानी से नए कौशल का प्रशिक्षण दिया जा सके. तमाम क्षेत्रों के शिक्षण संस्थानों को आपस में मिलकर काम करना होगा. तभी भारत चौथी औद्योगिक क्रांति के लिए तैयार हो सकेगा. 

भारत के पास तकनीकी प्रतिभाओं का बड़ा भंडार है. भारत में टेक उद्योग में काम करने वालों की संख्या 45 लाख है. तो इससे भारत की IT इंडस्ट्री को 190 अरब डॉलर सालाना की कमाई होती है. यानी भारत के पास इस उद्योग से जुड़े लोगों के पर्याप्त अनुभवी लोगों का भंडार है जिससे वो सस्ती दरों पर उच्च स्तर की तकनीकी सेवाएं दुनिया को उपलब्ध करा सके. भारत के लिए ये एक अच्छा अवसर है कि वो दूसरे देशों से मिलने वाले काम के अवसरों को हथिया कर अपना विस्तार कर सके. इसके लिए भारत को डिजिटल-फर्स्ट भविष्य की तैयारी में निवेश करने की ज़रूरत होगी. अपनी शिक्षा व्यवस्था को नई ज़रूरतों के हिसाब से ढालना होगा. जिसमें तुरंत और आसानी से नए कौशल का प्रशिक्षण दिया जा सके. तमाम क्षेत्रों के शिक्षण संस्थानों को आपस में मिलकर काम करना होगा. तभी भारत चौथी औद्योगिक क्रांति के लिए तैयार हो सकेगा. भारत को इसके लिए इनोवेशन के ज़रिए नई तकनीक का विकास करना होगा. उभरती हुई तकनीकों जैसे कि आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस, ब्लॉकचेन, शिक्षा की तकनीक और इंटरनेट ऑफ़ थिंग्स के क्षेत्र में निवेश करना होगा.

ये टूलकिट कंपनियों की मदद की बस शुरुआती ज़रूरतें पूरी करती है. जिससे कि वो अपने कर्मचारियों और ऑफ़िस को भविष्य के लिहाज़ से तैयार कर सकें. ऐसा लगता है कि अभी कंपनियां हाइब्रिड मॉडल अपनाने को तरज़ीह देंगी. जिसमें घर से काम करने के साथ-साथ दफ़्तर में सीमित स्तर पर काम शुरू करने पर ज़ोर दिया जाएगा. इसके लिए सप्ताह में काम के दिन नियत किए जाएंगे. कामकाजी वर्ग को ऐसे विभाजित किया जाएगा, जिससे किसी एक भौगोलिक क्षेत्र के लोग संक्रमित भी हो जाएं, तो दूसरे क्षेत्र के लोग काम संभाल सकें. गैर ज़रूरी सेवाओं को दूसरी कंपनियों के हवाले किया जाएगा. जिससे कि वो काम दूर से संचालित हो सकें. और उनका ख़र्च भी कम आए. इसके साथ-साथ कंपनियां अपने दफ़्तरों और कारखानों को दूसरी कंपनियों से भी साझा करेंगी, जिससे उनकी अपनी लागत कम हो सके. किराए का बोझ साझा हो सके. रख-रखाव की लागत कम हो सके. कर्मचारियों को काम में लचीलेपन का विकल्प देकर, उन्हें घर से काम करने की सुविधा देने के साथ-साथ कंपनियां, उनके घर के बच्चों और बुज़ुर्गों का ध्यान रखने संबंधी ज़िम्मेदारियां भी साझा करने की कोशिश करेंगी. कर्मचारियों को घर पर काम करने के लिए ज़रूरी व्यवस्था भी कंपनियों की ओर से की जाएगी. इसके अलावा कारोबारियों की ओर से अपने कर्मचारियों की सुरक्षा और उनकी निजता के लिए भी मज़बूत व्यवस्था का विकास किया जाएगा. [29] कोविड-19 ने दुनिया को काम करने का एक नया आयाम उपलब्ध कराया है. ये ऐसा अवसर है जिसमें काम-काज में लचीलेपन के निर्माण की ज़रूरत है. फिर चाहे वो कर्मचारी हों या दफ़्तर.


Endnotes

[1] 94% of MSMEs relied on IT infrastructure during the lockdown to stay afloat: Tally”, Express Computer, September 17, 2020.

[2] Direct Digital Transformation Investment Spending to Approach $7.4 Trillion Between 2020 and 2023; IDC Reveals 2020 Worldwide Digital Transformation Predictions”, IDC, October 31, 2019.

[3] Indian SMBs can account for 30 of India’s public cloud market”, ET Online, September 18, 2020.

[4] Prabhjeet Bhatla, “In the Coming Years, There Will be No Non-Digital Business: Arundhati Bhattacharya”, Entrepreneur, August 24, 2020.

[5] Work.com”, Salesforce.

[6] Kweilin Ellingrud, Rahul Gupta, and Julian Salguero, “Building the vital skills for the future of work in operations”, McKinsey & Company, August 7, 2020.

[7] The Future of Jobs 2018, World Economic Forum.

[8] The Future of Workforce Development, Salesforce Research.

[9] Kweilin Ellingrud, Rahul Gupta, and Julian Salguero, “Building the vital skills for the future of work in operations”, McKinsey & Company, August 7, 2020.

[10] The Future of Workforce Development, Salesforce Research.

[11] Kweilin Ellingrud, Rahul Gupta, and Julian Salguero, “Building the vital skills for the future of work in operations”, McKinsey & Company, August 7, 2020.

[12] Ellingrud et al., Building the vital skills for the future of work in operations

[13] Skill Up for the Future”, Trailhead.

[14] Annual Report 2016-17, Ministry of Skill Development and Entrepreneurship, Government of India.

[15] Jocelyn Frye, “Centering Equity in the Future-of-Work Conversation is Critical for Women’s Progress”, Center for American Progress, July 24, 2020.

[16] Meera Jagannathan, “Advice for Salesforce staff who reported having a mental-health issue – and all workers during the COVID-19 pandemic”, MarketWatch, September 1, 2020.

[17] Jagannathan, Advice for Salesforce staff who reported having a mental-health issue – and all workers during the COVID-19 pandemic

[18] The Future of Work and Workspaces”, Youtube, uploaded by Observer Research Foundation, July 18, 2020.

[19] Sangeet Jain, “The coronavirus has hurtled unprepared economies into the future of work”, Observer Research Foundation, April 29, 2020,

[20] Jocelyn Frye, “Centering Equity in the Future-of-Work Conversation is Critical for Women’s Progress”, Center for American Progress, July 24, 2020.

[21] Frye, Centering Equity in the Future-of-Work Conversation is Critical for Women’s Progress

[22] Work from home jobs increase by 300% in India”, ET Now News, September 8, 2020,

[23] Sangeet Jain, “Reimagining the Future of Workspaces”, Observer Research Foundation, June 1, 2020.

[24] Uri Berliner, “Get a Comfortable Chair Permanent Work from Home is Coming”, NPR, June 22, 2020.

[25] New Survey Data Shows Possible Scenarios for the Future of Offices, Commuting, and Cities”, Salesforce, July 2, 2020.

[26] Sangeet Jain, “Reimagining the Future of Workspaces”, Observer Research Foundation, June 1, 2020.

[27] Government to IT employees: Work from home till December 31”, Moneycontrol News, July 22, 2020.

[28] Preparing for the Future of Work”, World Economic Forum.

[29] Jocelyn Frye, “The Disproportionate Economic Effects of the Coronavirus Pandemic on Women of Color”, Center for American Progress, April 23, 2020.

The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.