Author : Roshani Jain

Published on May 04, 2024 Updated 0 Hours ago

बंगाल की खाड़ी के क्षेत्र में मानवीय सहायता और आपदा राहत की ज़्यादातर गतिविधियों के निपटारे के लिए किसी एक देश पर निर्भर रहने के बदले एक एकीकृत क्षेत्रीय दृष्टिकोण अपनाया जाना चाहिए.

बंगाल की खाड़ी इलाके के लिए एक क्षेत्रीय आपदा राहत रणनीति की तैयारी

बंगाल की खाड़ी का क्षेत्र विनाशकारी चक्रवातों, नियमित बाढ़ एवं कटाव और पानी की असुरक्षा से प्रभावित है. इस क्षेत्र के चार देश- भारत, बांग्लादेश, म्यांमार और थाईलैंड- प्राकृतिक आपदाओं को लेकर दुनिया के 10 सबसे ज़्यादा संवेदनशील देशों में शामिल हैं. पारिस्थितिक चक्रों (इकोलॉजिकल साइकल) में भारी अंतर का इस इलाके में पर्यावरण और सुरक्षा- दोनों से जुड़े परिणामों पर असर पड़ता है. जैसे-जैसे जलवायु से जुड़ी परिस्थितियां बिगड़ती है, वैसे-वैसे किसी भी देश की घरेलू अस्थिरता सरहद के पार तक पहुंचने का ख़तरा होता है और इस तरह पूरा क्षेत्र अस्थिर हो जाता है

प्राकृतिक आपदाएं संचार की लाइन में भी रुकावट डालती हैं जिसकी वजह से बचाव अभियान बाधित होते हैं. आपदाएं पानी की सप्लाई को भी दूषित कर सकती हैं और उपजाऊ ज़मीनों को बर्बाद करते हुए फसल चक्र को बिगाड़ सकती हैं.

वैसे तो पिछले दो दशकों के दौरान बंगाल की खाड़ी के तटीय देशों ने अपनी आपदा से जुड़ी तैयारियों में काफी प्रगति की है लेकिन उसका असर सीमित रहा है. इस क्षेत्र में सुरक्षा से जुड़ा कोई विशेष एजेंडा नहीं है जो प्राकृतिक आपदाओं की साझा दुर्दशा को स्वीकार करता हो. ये वर्तमान में गायब हो चुकी समझ से पैदा हुआ है कि सभी तटीय देशों में प्राकृतिक आपदाओं का बोझ विवाद के एक मूल स्रोत से उत्पन्न होता है यानी पर्यावरण से जुड़े संतुलन में गड़बड़ी. साझा बोझ के लिए साझा प्रतिक्रिया की आवश्यकता होती है और इस तरह एक व्यापक अलग-अलग देशों का आपदा राहत प्राधिकरण और टास्क फोर्स समय की मांग है

हालात को समझिए 

इस क्षेत्र की जियोमॉर्फोलॉजी (भू-आकृति विज्ञान) के कारण दुनिया के किसी भी अन्य हिस्से की तुलना में यहां सबसे तेज़ चक्रवाती तूफान आते हैं. पश्चिम बंगाल आपदा प्रबंधन विभाग के अनुसार पिछले 200 वर्षों में दुनिया में आई 23 बड़ी चक्रवाती आपदाओं में से 20 इस क्षेत्र में आई हैं. इस क्षेत्र को परेशान करने वाली दूसरी आपदाएं हैं बार-बार आने वाली बाढ़ और सूखा, हिमालय में भूस्खलन, तटीय कटाव और मैंग्रोव को नुकसान. ये कोई नई समस्या नहीं है लेकिन मानवजनित (एंथ्रोपोजेनिक) तनाव और जलवायु परिवर्तन के दीर्घकालिक प्रभाव इस क्षेत्र में महसूस की जाने वाली दुर्दशा को और बढ़ा रहे हैं. इनमें समुद्र के बढ़ते स्तर एवं तापमान की समस्या, हीट वेव (झुलसती गर्मी) की तीव्रता में बढ़ोतरी, समुद्र का अम्लीकरण (पानी ख़राब होने की प्रक्रिया) और समुद्री उत्पादकता में गिरावट शामिल हैं

जनसंख्या का अधिक घनत्व नुकसान में बढ़ोतरी करता है. इसका ये मतलब है कि अधिक लोगों की जान जाती है और इंफ्रास्ट्रक्चर को काफी नुकसान होता है क्योंकि घरों की संरचना (स्ट्रक्चर) अक्सर कमज़ोर होती है. प्राकृतिक आपदाएं संचार की लाइन में भी रुकावट डालती हैं जिसकी वजह से बचाव अभियान बाधित होते हैं. आपदाएं पानी की सप्लाई को भी दूषित कर सकती हैं और उपजाऊ ज़मीनों को बर्बाद करते हुए फसल चक्र को बिगाड़ सकती हैं. इन सभी का इस क्षेत्र की खाद्य सुरक्षा पर गंभीर असर पड़ता है. अफसोस की बात ये है कि इन मुद्दों का समाधान करने के किसी भी क्षेत्रीय स्तर के प्रयास में बड़ी संस्थागत कमियां हैं. 

संस्थागत प्रतिक्रियाएं

इस क्षेत्र में काम करने वाले प्रमुख बहु-क्षेत्रीय संस्थानों में से एक बे ऑफ बंगाल इनिशिएटिव फॉर मल्टी-सेक्टोरल टेक्निकल एंड इकोनॉमिक कोऑपरेशन (BIMSTEC) है. 1997 में इसकी स्थापना के समय से 2017 और 2020 में दो आपदा प्रबंधन अभ्यास हुए हैं. इन दोनों का नेतृत्व और मेज़बानी भारत ने की. इन अभ्यासों का मकसद क्षेत्रीय प्रतिक्रियाओं को मज़बूत बनाना और सदस्य देशों के बीच तालमेल में सुधार करना है

हालांकि इस क्षेत्रीय संस्था में कुछ उल्लेखनीय कमियां हैं. वित्तीय प्रतिबद्धताओं के नहीं होने की वजह से 2014 तक प्राकृतिक आपदा को लेकर BIMSTEC की प्रतिक्रिया काफी हद तक सुस्त बनी रही. प्राकृतिक आपदा के मामले में अर्ली वार्निंग सिस्टम (पहले चेतावनी देने की प्रणाली) के विकास तक ही प्रगति सीमित रही. BIMSTEC इकलौता संगठन है जिसमें बंगाल की खाड़ी के सभी तटीय देश सदस्य के रूप में मौजूद हैं. ये देखते हुए सक्रिय भागीदारी की कमी इसे क्षेत्र में प्राकृतिक आपदाओं की छाया का पर्याप्त रूप से समाधान करने से रोक रही है.

एक रिपोर्ट से पता चला कि बंगाल की खाड़ी में सकारात्मक परिणाम अंतर्राष्ट्रीय सहयोग और “बड़े देशों” के द्वारा की गई पहल पर निर्भर करता है. 

काउंसिल ऑन फॉरेन रिलेशन (विदेश संबंध परिषद) के सेंटर फॉर प्रिवेंटिव एक्शन (निवारक कार्रवाई केंद्र) के द्वारा प्रकाशित एक रिपोर्ट से पता चला कि बंगाल की खाड़ी में सकारात्मक परिणाम अंतर्राष्ट्रीय सहयोग औरबड़े देशोंके द्वारा की गई पहल पर निर्भर करता है. रिपोर्ट में आगे ये भी कहा गया है कि क्षेत्र में जलवायु सहयोग और सामर्थ्य के निर्माण को लेकर अलग-अलग देशों की बातचीत में खालीपन है. इसका प्रमाण इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि प्राकृतिक आपदाओं के दौरान BIMSTEC या SAARC के किसी भी प्रतिनिधिमंडल को तैनात नहीं किया गया है. 

भारत की आर्थिक और राजनीतिक प्रमुखता को देखते हुए बंगाल की खाड़ी में मानवीय सहायता और आपदा राहत (HADR) में अधिकतर भागीदारी भारत के द्वारा की जाती है. हालांकि भारत के द्वारा ज़्यादातर मदद द्विपक्षीय व्यवस्थाओं के माध्यम से दी जाती है क्योंकि भारत का बहुपक्षीय HADR योगदान द्विपक्षीय सहायता की तुलना में काफी कम है

भारत का दृष्टिकोण 

बंगाल की खाड़ी के भीतर और उसके आगे आपदा प्रबंधन को लेकरसबसे पहले जवाब देने वालेके रूप में भारत की भूमिका निर्णायक रही है. इस भरोसे के कुछ उदाहरणों में म्यांमार, श्रीलंका, मालदीव और नेपाल में मुहैया कराई गई महत्वपूर्ण राहत और सहायता शामिल हैं. इन अभियानों का समन्वय राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (NDMA) और राष्ट्रीय आपदा मोचन बल (नेशनल डिज़ास्टर रिस्पांस फोर्स यानी NDRF) के द्वारा किया जाता है. भारतीय थलसेना और नौसेना के द्वारा भी इससे जुड़ी महत्वपूर्ण राहत और बचाव की सेवाएं प्रदान की जाती हैं

इस तरह की भागीदारी क्षेत्र में भारत के सॉफ्ट पावर को मज़बूत करती है और ये उसकीपड़ोस सर्वप्रथमऔरएक्ट ईस्ट पॉलिसीकी रणनीतियों को लेकर कूटनीतिक प्रतिबद्धताओं को दर्शाती है. आपदा प्रबंधन को लेकर भारत के दृष्टिकोण को और अधिक निर्धारित करता है उसका समुद्री सिद्धांत यानी सिक्युरिटी एंड ग्रोथ फॉर ऑल इन रीजन (SAGAR). इसके तहत, जैसा कि रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने बताया, भारत साझा ख़तरों जैसे कि प्राकृतिक आपदाओं से निपटने के लिए क्षेत्रीय प्रणालियों के माध्यम से बहुपक्षीय साझेदारियों को मज़बूत करने का लक्ष्य रखता है

भारत एक निष्क्रिय पाने वाले या केवल सहयोग करने वाले देश की तुलना में इस क्षेत्र में सबसे ज़्यादा सहायता और सुरक्षा प्रदान करने वाले देश के रूप में ख़ुद को देखना चाहता है. 

समस्या यहीं पर है. ये स्वीकार करने के बावजूद कि HADR की तैयारी सभी संबंधित पक्षों और देशों के द्वारा एकीकृत कार्रवाई पर निर्भर करती है, बहुपक्षीय रूप से योगदान देने में भारत के झिझक की वजह क्या है? एक संभावित कारण बहुपक्षीय संगठनों के द्वारा प्रदान की जाने वाली वित्तीय और बुनियादी ढांचे से जुड़े समर्थन की कमी हो सकता है. उदाहरण के लिए, BIMSTEC के सचिवालय में कर्मचारियों की काफी कमी है, केवल 10 कर्मचारी हैं और उसका बजट सिर्फ 2,00,000 अमेरिकी डॉलर है. इस तरह की स्पष्ट कमी के साथ BIMSTEC भारत की आपदा राहत तैनाती या सहायता अनुदान की बराबरी के स्तर पर नहीं सकता है. इसे परिप्रेक्ष्य में रखें तो भारत की विदेश विकास सहायता इस वित्तीय वर्ष में 5,000 करोड़ से ज़्यादा थी. दूसरा कारण अपनी छवि के लिए भारत की चिंता है. भारत एक निष्क्रिय पाने वाले या केवल सहयोग करने वाले देश की तुलना में इस क्षेत्र में सबसे ज़्यादा सहायता और सुरक्षा प्रदान करने वाले देश के रूप में ख़ुद को देखना चाहता है. भारत के इस दृष्टिकोण के पीछे चाहे जो भी कारण हो लेकिन ये साफ है कि जलवायु परिवर्तन का मंडराता ख़तरा बहुपक्षीय- जहां लागत और दायित्व को बांटा जा सकता है- की तुलना में द्विपक्षीय दृष्टिकोण का अनुसरण करना महंगा बनाता है. अकेले HADR अभियान का नेतृत्व करने के बढ़ते बोझ को पिछले वित्तीय वर्ष के दौरान भारत के पड़ोसी देशों के लिए रखे गए बजट में कमी और पिछले कुछ वर्षों में भारत के मानवीय योगदान में स्थिरता में देखा जा सकता है

निष्कर्ष 

इसका उद्देश्य HADR के क्षेत्र में भारत सरकार और उससे जुड़े संस्थानों के द्वारा दर्ज की गई गंभीर और महत्वपूर्ण प्रगति को कमतर आंकना नहीं है. फिर भी एक द्विपक्षीय रूप-रेखा अंतत: भारत के इरादे के लिए हानिकारक है. सुरक्षा प्रदान करने वाला देश बनने की भारत की महत्वाकांक्षा के अनुरूप उसे क्षेत्र में अपने सुरक्षा एजेंडे को औपचारिक बनाना चाहिए. अपने सैन्य सिद्धांत के आगे सोचते हुए भारत सभी हितधारकों के साथ काम करते हुए इस क्षेत्र के लिए पर्यावरण से जुड़े सुरक्षा संवाद का नेतृत्व कर सकता है. इस तरह के दृष्टिकोण के कई लाभ हैं

सबसे पहले, वो प्राकृतिक आपदाओं के साझा असर से निपटते हुए एक स्टैंडर्ड ऑपरेटिंग प्रोसीजर (मानक संचालन प्रक्रिया या SOP) तैयार करने में मदद कर सकता है. वर्तमान में भारत के भीतर HADR को लेकर निर्णय लेने का काम काफी हद तक अस्थायी है, कई एजेंसियों को अपनी आपदा प्रतिक्रिया के तालमेल की आवश्यकता होती है. इसकी वजह से मदद मुहैया कराने में देरी हो सकती है, साथ ही प्राकृतिक आपदाओं को लेकर नीतिगत कल्पना भी सीमा में बंध जाती है.

आपदाएं सीमाओं का ध्यान नहीं रखती हैं. आपदाएं अलग-अलग भौगोलिक क्षेत्रों के तटों पर रहने वाले लोगों को एक साथ प्रभावित करती हैं. यही वजह है कि इस क्षेत्र में भारत, बांग्लादेश या श्रीलंका को अकेले HADR नीति और संकल्प को नहीं बढ़ाना चाहिए. इसके बदले एक साझा प्राधिकरण (अथॉरिटी) पर्यावरण से जुड़े ख़तरों का जवाब देने और कम करने में ज़्यादा प्रभावी हो सकता है. ये प्राधिकरण तटीय इलाकों में रहने वाले लोगों को चेतावनी, स्थानीय स्तर पर प्रतिक्रिया का समन्वय और आपदा राहत नीति तैयार करने में स्वदेशी ज्ञान का उपयोग कर सकता है

इसके अलावा समानता पर आधारित मंचों में छोटे तटीय देशों के साथ सार्थक ढंग से जुड़कर भारत एकजुट होकर काम करने की अपनी इच्छा का प्रदर्शन कर सकता है. वो क्षेत्रीय प्रभुत्व जमाने वाले देश की तुलना में एक साझेदार के रूप में दिख सकता है. इससे आपसी भरोसा बनाने में मदद मिल सकती है जिसका इस क्षेत्र में सुरक्षा के समीकरण और स्थायी शांति पर काफी असर पड़ सकता है


रोशनी जैन ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन में रिसर्च असिस्टेंट हैं

 

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