Published on Oct 16, 2023 Updated 0 Hours ago
‘लड़खड़ाती भू-राजनीति का नया शब्दकोष!’

साल 2023 को पूरा होने में बस एक चौथाई तिमाही बची है. इस बचे हुए वक़्त में एक शब्द ऐसा है, जिसे मरियम-वेबस्टर डिक्शनरी में वर्ड ऑफ ईयर 2023 के तौर पर जगह मिल सकती है. वो शब्द है- जियोशेमिटिक्स (Geoshamitics).

इसको इन शब्दों में परिभाषित किया जा सकता है: ‘किसी एक देश का ऐसा बर्ताव या काम जिसमें वो किसी अन्य देश को सार्वजनिक रूप से शर्मिंदा करने को औज़ार की तरह इस्तेमाल करके उसका भू-राजनीतिक लाभ उठाने की कोशिश करे.’

जियोशेमिटिक्स, ज़्यादातर किसी ऐसे बचकाने नेता का दांव होता है, जिसे ख़ुद के महान होने का गुमान होता है. लेकिन, कभी कभार ये सत्ता के दबे-छुपे नस्लवाद को भी ज़ाहिर करता है.

प्राथमिक तौर पर तो इसे स्थानीय सियासी फ़ायदे के लिए इस्तेमाल किया जाता था. लेकिन, अब जियोशेमिटिक्स का जितना इस्तेमाल घरेलू राजनीति में ध्यान भटकाने के लिए किया जाता है, उतना ही वैश्विक राजनीति में दबदबा क़ायम करने के लिए पहला दांव चलने में हो रहा है. अक्सर वही देश इस औज़ार का इस्तेमाल करते हैं, जो अपने यहां हो रहे जुर्मों को छुपाना चाहते हैं. जियोशेमिटिक्स असल में मूर्खता को हथियार की तरह इस्तेमाल करना है. डीप स्टेट का इस्तेमाल करके विरोधियों को शर्मिंदा करने के लिए, कोई भी देश जियोशेमिटिक्स के तहत असल में मीडिया और थिंक टैंको की ‘विश्वसनीयता’ का प्रयोग अपनी सरकार की धोखेबाज़ी पर पर्दा डालने के लिए करता है. इसका नतीजा ये होता है कि विरोधी देश को कमज़ोर और अपरिपक्व साबित करने में मदद मिलती है.

जियोशेमिटिक्स, ज़्यादातर किसी ऐसे बचकाने नेता का दांव होता है, जिसे ख़ुद के महान होने का गुमान होता है. लेकिन, कभी कभार ये सत्ता के दबे-छुपे नस्लवाद को भी ज़ाहिर करता है. एक मूर्ख जनरल जब किसी को शर्मिंदा करने की कोशिश करता है, तो वो ऐसा मोर्चा बन जाता है, जिसके इर्द गिर्द भेड़ियों और उनके जैसे मूर्ख साथियों के समूह जमा होकर दुश्मन पर मिलकर वार करते हैं. इसका संदेश बिल्कुल साफ़ होता है: ‘हम गोरे जंगली ऐसे ही हैं. तुम सारी ‘अश्वेत नस्लो’ हमारी बात मान जाओ वरना अंजाम भुगतने के लिए तैयार रहो.’

जियोशेमिटिक्स के विचार की पैदाइश शायद शीत युद्ध के दौर की है जब बड़ी ताक़तों के बीच मुक़ाबला, वार्ता से ज़्यादा आरोप प्रत्यारोप के ज़रिए होता था. संवाद के कूटनीतिक माध्यमों के अभाव की वजह से झूठे बखान के ज़रिए संचार में हेरा-फेरी को औज़ार बनाने का चलन बढ़ता गया. इल्ज़ाम लगाना ही संवाद का नया माध्यम बन गया.

नोट: जियोशेमिटिक्स, झूठे व्याख्यान गढ़ने से बिल्कुल अलग है. फेक नैरेटिव तो अब ऐसा खेल बन गया है, जिसे सभी देश खेलते हैं और इसमें कोई किसी से कम नहीं है. फेक नैरेटिव के पीड़ित या तो कोई इंसान व्यक्तिगत तौर पर बनता है या फिर मीडिया कंपनियां, जो कुछ समय के लिए अपनी विश्वसनीयता गंवा बैठती हैं.

इसके उलट, जियोशेमिटिक्स (Geoshamitics) अधिक जटिल है. ये एक सीधा इल्ज़ाम होता है, जो कोई देश दूसरे पर लगाता है. फिर चाहे वो प्रवक्ता के ज़रिए हो, विदेश मंत्री या फिर बेहद दुर्लभ स्थिति में सरकार के मुखिया द्वारा किसी अन्य देश की नीयत या फिर कृत्य पर लगाया जाता है. जियोशेमिटिक्स का गंवारूपन, कूटनीति के सलीक़े को छुपा देता है.

इन सभी दांव-पेंचों में जो एक बात समान है वो ये है कि इन देशों के बीच या तो संवाद के कूटनीतिक माध्यम बिल्कुल ही नहीं हैं, या हैं भी तो बेहद कमज़ोर. जिन देशों के बीच कूटनीतिक प्रतिनिधित्व है भी, वो आवश्यक पैमाने पर तो खरे उतरते हैं. लेकिन, संवाद को आगे बढ़ाने के लिए अपर्याप्त बने रहते हैं.

अदृश्य संवाद

कूटनीति एक प्रौढ़ और दिखाई देने वाला अदृश्य संवाद होता है. दो देश आपस में बात करते हैं. वो बातचीत से आगे की दशा-दिशा तय करते हैं. जैसे G20 का शिखर सम्मेलन हुआ, उस तरह अगर ये बातचीत सार्वजनिक रूप से होती है, तो मोटी मोटी बातों को बयान में शामिल करके उसके बाद में जारी किया जा सकता है. जबकि ठोस बातचीत उस कार्यक्रम से आगे जारी रहती है. जब कोई एक देश अपनी घरेलू राजनीति का लाभ उठाने के लिए इस गोपनीय बातचीत को सार्वजनिक करता है और अपने बचकाने विचारों को सबके सामने व्यक्त कर देता है, तो इसे जियोशेमिटिक्स कहा जाता है.

वैसे तो जियोशेमिटिक्स आम तौर पर पश्चिमी देशों का बर्ताव होता है. लेकिन ये सिर्फ़ वहीं तक सीमित नहीं है. हाल ही में कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रुडो ने भारत के ख़िलाफ़ जो बयान दिए, वो इसकी ताज़ा मिसाल भर है. लेकिन, भारत के पड़ोस में पाकिस्तान का नेतृत्व भी कश्मीर के बहाने 1947 से ही जियोशेमिटिक्स का इस्तेमाल करता रहा है. कनाडा और चीन भी उसी तर्ज पर भारत के विरुद्ध आतंक को शर्मिंदा करने के हथियार के रूप में इस्तेमाल करते रहे हैं. उत्तर कोरिया, ईरान, रूस और चीन नियमित रूप से अमेरिका के ख़िलाफ़ यही करते रहे हैं और ख़ुद अमेरिका भी ऐसा करता आया है; चीन, दक्षिणी चीन सागर के इर्द-गिर्द बसे देशों, जापान और ताइवान के ख़िलाफ़ जियोशेमिटिक्स को हथियार बनाता रहा है, तो, अमेरिका इसको क्यूबा और वेनेज़ुएला के ख़िलाफ़. यूक्रेन रूस के विरुद्ध और पाकिस्तान, अफ़ग़ानिस्तान के ख़िलाफ़… ये लिस्ट बहुत लंबी है और लगातार बढ़ती जा रही है.

इन सभी दांव-पेंचों में जो एक बात समान है वो ये है कि इन देशों के बीच या तो संवाद के कूटनीतिक माध्यम बिल्कुल ही नहीं हैं, या हैं भी तो बेहद कमज़ोर. जिन देशों के बीच कूटनीतिक प्रतिनिधित्व है भी, वो आवश्यक पैमाने पर तो खरे उतरते हैं. लेकिन, संवाद को आगे बढ़ाने के लिए अपर्याप्त बने रहते हैं. ये भू-राजनीतिक गतिरोध की स्थिति होती है. जिन देशों के बीच राष्ट्रीय हित, देशों के अहंकार से ऊपर होते हैं, वहां पर जियोशेमिटिक्स ज़मीनी सबूतों के साथ साथ चलती है. मिसाल के तौर पर अमेरिका और चीन या फिर यूरोपीय संघ (EU) और रूस, जहां चीन की हुआवेई कंपनी द्वारा तकनीकी घुसपैठ करने या फिर रूस द्वारा अन्य देशों के चुनाव में दख़लंदाज़ी करने को सबूत के तौर पर इस्तेमाल किया जाता है.

ख़तरनाक आतंकियों का तुष्टिकरण करके सत्ता में बने रहना अलग बात है; और ये सुनिश्चित करना अलग बात है कि आतंक के वही  सांप अपने पालने वालों के भक्षक न बन सकें. पाकिस्तान ये सबक़ सीख रहा है. कनाडा को भी सीखना होगा.

लोकतांत्रिक देशों के समुदाय और स्वतंत्रता का मूल्य समझने वाले दोस्त देशों के बीच, जियोशेमिटिक्स की कोई गुंजाइश नहीं रहती है. बढ़ती अंतरराष्ट्रीय अराजकता के बीच इन रिश्तों, और ख़ास तौर से ट्रिलियन डॉलर से अधिक वाले लोकतांत्रिक देशों के संबंधों को और मज़बूत करने की ज़रूरत है. इसका ये मतलब नहीं है कि इन देशों के रिश्तों में कोई समस्या नहीं है. भारत को अमेरिका और यूरोपीय संघ से कई शिकायतें और समस्याएं हैं और वो उनको सुधारने की कोशिश भी कर रहा है. भारत का इंडोनेशिया के साथ भी तनाव था, जो उसने दूर कर लिया है. ऑस्ट्रेलिया के साथ अपने रिश्तों को भी भारत नई ऊंचाइयों पर ले जा रहा है. सऊदी अरब जैसे ग़ैर लोकतांत्रिक देशों के साथ मिलकर भारत, इस्लामिक आतंकवाद की फंडिंग के मलबे का सफाया कर रहा है. रूस के साथ भारत अपने तेल और सैन्य हथियारों के हितों का संतुलन बनाने में जुटा हुआ है. यहां तक कि खुले तौर पर दुश्मन देश चीन के साथ भी भारत सीमा पर तो तनकर खड़ा है. फिर भी दोनों देशों के बीच व्यापार बढ़ता जा रहा है. इन तनावों को लेकर जो बातचीत पर्दे के पीछे चल रही है, उसे कभी सार्वजनिक नहीं किया जाता. भारत किसी और देश को निशाना बनाने के लिए कभी भी जियोशेमिटिक्स का इस्तेमाल नहीं करता. लेकिन, अगर उस पर हमला होता है, तो वो अपने पास उपलब्ध सारे सबूतों के साथ इन आरोपों का जवाब देता है.

चूंकि, पश्चिमी देशों ने पहले के दौर में जियोशेमिटिक्स को अपने हित में बख़ूबी इस्तेमाल किया है. इसलिए, अभी भी उनको यही लगता है कि आज के दौर में या फिर भविष्य में भी ये दांव कारगर साबित होगा. हालांकि, ये बदलती हुई भू-राजनीतिक परिस्थितियों को लेकर उनकी अज्ञानता का परिचायक है. धन संपत्ति के मामले में भले ही पश्चिमी देशों का समूह अभी भी सबसे अमीर हो. लेकिन, आज का पश्चिमी जगत अपने ही बनाए हुए विरोधाभासों का शिकार है. ख़ुद को तबाह करने वाली अप्रवासी नीतियां, भरे पेट नागरिकों का ध्यान भटकाने वाले आत्मघाती लैंगिक भेद-भाव, अपने आप घटती प्रजनन दर और आत्ममुग्धता वाली राजनीति, जिसने सैन फ्रांसिस्को जैसे शानदार शहर को दोज़ख़ में तब्दील कर दिया है.

पश्चिमी जगत की दादागीरी

अगर, भारत जैसे देशों के साथ अंतरराष्ट्रीय स्तर पर संवाद के लिए पश्चिमी जगत के पास जियोशेमिटिक्स ही इकलौता ज़रिया बच रहा है, तो भविष्य अंधकारमय है. ऊपरी तौर पर क़ानून के राज वाला मुखौटा पहनने और अपने यहां आतंकवादियों की पनाहगाहों में क़ानून तोड़ने का सिलसिला अब आगे चलता रहने वाला नहीं है. आतंकवादियों द्वारा दिए जाने वाले नफ़रती भाषणों को बोलने की आज़ादी का कवच पहनाने से भी काम नहीं चलने वाला. अगर ऐसा ही है, तो फिर भारतीयों की ये सोच सही साबित होती है कि पश्चिमी जगत की दादागीरी, उसके दबदबे और और दूसरों को नीचा दिखाने की आदत का रूस और चीन जिस तरह जवाब देते हैं, वो बिल्कुल जायज़ और तथ्यात्मक रूप से सही है. शायद ये पश्चिमी जगत के गुमान भरी नींद से जागने का वक़्त है.

जब पश्चिमी जगत अपनी अंदरूनी राजनीति से निपटने में नाकाम होने के कारण, वोट हासिल करने के लिए जियोशेमिटिक्स को संवाद का हथियार बनाने की कोशिश करे, तो फिर वो घरेलू राजनीतिक मजबूरियों का कूड़ेदान बन जाता है. पश्चिमी जगत का ये पाखंड पूरी दुनिया को साफ़ साफ़ दिखाई दे रहा है. दूसरे को मूल्यों का प्रवचन देना और ख़ुद अपने हित साधने के लिए कुछ भी कर गुज़रने का दोहरापन अब चलने वाला नहीं है. ख़तरनाक आतंकियों का तुष्टिकरण करके सत्ता में बने रहना अलग बात है; और ये सुनिश्चित करना अलग बात है कि आतंक के वही  सांप अपने पालने वालों के भक्षक न बन सकें. पाकिस्तान ये सबक़ सीख रहा है. कनाडा को भी सीखना होगा.

जैसे जैसे पश्चिमी जगत भीतर से कमज़ोर होगा, वैसे वैसे जियोशेमिटिक्स और मारकर भाग निकलने जैसे हथियारों को भारत जैसे उभरते हुए देश, उनके सिर उठाने से पहले कुचल देंगे. क्योंकि, भारत जैसी उभरती ताक़तें इन जैसे नेताओं, उनके आतंकवादी वोट बैंक और उनकी दहशतगर्दी वाले नैरेटिव के सख़्त विरोधी हैं. चूंकि ट्रुडो के बयान का कड़ा विरोध हुआ और एक भी भारतीय नागरिक ने कनाडा के रुख़ का समर्थन नहीं किया. इसे देखते हुए क्या हम ये मान लें कि ट्रुडो का बयान जियोशेमिटिक्स की आख़िरी मिसाल होगा? अगर पश्चिमी जगत में ज़रा भी अक़्ल बची है, तो ऐसा ही होना चाहिए. वरना, दुनिया में ऐसे नेता भरे पड़े हैं, जो दूसरों को नैतिकता का पाठ पढ़ाएं और आतंकवाद का समर्थन करते हुए जियोशेमिटिक्स का खेल खेलें.

तब तक, शायद मरियम वेबस्टर की डिक्शनरी, जियोशेमिटिक्स को 2023 का वर्ड ऑफ दि ईयर घोषित कर सकती है.

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