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पर्यावरण बदलाव की ज़ोख़िमों के अलावा भरोसेमंद आंकड़ों के अभाव में किसानों को कर्ज और फसल बीमा मिलने में भी तमाम मुश्किलें होती हैं. ऐसे में सैटस्योर और मैंटल लैब्स जैसी स्टार्टअप अब मिट्टी की उपज क्षमता और मौसम में बदलावों का सही आंकड़ा जमा करने में लगी है.
तेज़ी से आर्थिक आधुनिकीकरण की बदौलत पिछले कुछ वर्षों में भारतीय अर्थव्यवस्था ने आठ फ़ीसदी की दर से विकास की नई ऊंचाईयों को हासिल किया. फिर भी ग़रीबी उन्मूलन और खाद्य सुरक्षा के लक्ष्य को पूरा करने की कोशिशों में खेती की भूमिका बेहद अहम रही. इस सत्य के बावज़ूद की भारतीय कामगारों की कुल तादाद के क़रीब 41 फ़ीसदी लोग खेती किसानी से जुड़े हैं कृषि क्षेत्र का देश की जीडीपी में महज़ 15 फ़ीसदी योगदान है. और तो और किसान तमाम चुनौतियों का सामना करने पर मज़बूर हैं. यहां तक कि किसानों के पास कृषि संबंधी जानकारी की कमी है तो उनके सामने बाज़ार से जुड़ने के तरीक़ों का भी अभाव है. सच्चाई तो ये भी है कि खेत से चम्मच (फ़ार्म से फ़ोर्क) तक के मौज़ूदा वैल्यू चेन में कई ख़ामियां हैं, ज़्यादा लंबा होने के साथ-साथ इसमें कई लोगों के हित साधने का सवाल भी आता है जिसके चलते आख़िर में किसानों के पास ज़्यादा कुछ नहीं बच जाता. दूसरी ओर ढांचागत सुविधाओं की कमी और मंडी व्यवस्था ऐसी है कि किसानों को उनके उत्पाद का सही मूल्य नहीं मिल पाता है जिससे खेती के बाद उनकी उपज से उन्हें भारी नुक़सान सहने पर मज़बूर होना पड़ता है.
इसके साथ ही कृषि विकास का पर्यावरण पर भी असर पड़ता है. भारत 2,299 मिलियन टन कार्बन डाईऑक्साइड का उत्सर्जन करता है जिसमें खेती और मवेशियों का क़रीब पांचवां हिस्सा शामिल है. ज़्यादातर कृषि ग्रीनहाउस गैस का उत्सर्जन उत्पादन के पहले चरण में होता है जिसमें खेती से जुड़ी चीजें जैसे पानी, खाद और कीटनाशक दवाईयों का इस्तेमाल, खेती से जुड़े उपकरणों, मिट्टी में गड़बड़ी, सिंचाई और अवशिष्ट प्रबंधन शामिल है.
साल 1891 से 2009 के बीच भारत ने 23 बार गंभीर सूखा का सामना किया है और हर बार पिछले सूखे की तुलना में इसकी तीव्रता ज़्यादा रही है. इस तरह के मौसम में तेज़ बदलाव के चलते फसलों की पैदावार को भारी नुक़सान पहुंचता है.
यही नहीं कृषि क्षेत्र पर पर्यावरण बदलाव के तहत बार-बार होने वाले सूखे, गर्म हवाओं और अनियमित बारिश का भी प्रतिकूल असर पड़ता है. तापमान में संभावित बदलाव, अवक्षेपण और कार्बन डाईऑक्साइड की सघनता का असर फसल के उत्पादन पर होता है. मौसम वैज्ञानिकों की मानें तो भारत में मौसम में बदलाव की वज़ह से तापमान में परिवर्तन की संभावना ज़्यादा है जिसके चलते जाड़े के दिनों में गर्मी के मौसम के मुक़ाबले ज़्यादा गर्मी का अनुभव होगा. साल 1891 से 2009 के बीच भारत ने 23 बार गंभीर सूखा का सामना किया है और हर बार पिछले सूखे की तुलना में इसकी तीव्रता ज़्यादा रही है. इस तरह के मौसम में तेज़ बदलाव के चलते फसलों की पैदावार को भारी नुक़सान पहुंचता है. इसके साथ ही भारत के पर्यावरण और सामाजिक परिवेश पर पहले से ही बढ़ती आबादी, आर्थिक और उद्योगीकरण के विस्तार का अतिरिक्त भार है.
उद्योग धंधों को वापस पटरी पर लाने के लिए सरकार की तरफ़ से नीतियों में सुधार की कोई मांग लंबे समय से नहीं की गई है. सरकार ने हाल ही में कृषि संबंधी तीन कानूनों को पास किया है जिसका मक़सद किसानों की स्थिति में सुधार लाना है. इन तीनों प्रस्तावित कानूनों में सबसे ज़्यादा महत्वपूर्ण बदलाव कृषक उत्पादन व्यापार और वाणिज्य अध्यादेश 2020 के ज़रिए लाया जाना है जिसका लक्ष्य राज्य द्वारा या राज्य के नियंत्रण वाली मंडियों द्वारा किसानों की उपज की ख़रीद बिक्री पर एकाधिकार को ख़त्म करना है. इस अध्यादेश के द्वारा स्थानीय तौर पर खरीददारों के पंजीकृत होने की शर्त को ख़त्म कर किसानों की उपज की अंतर्राज्यीय ख़रीद बिक्री पर लगी रोक को भी ख़त्म करना है.
हालांकि, इन कानूनों को लेकर कुछ किसान संगठनों में भारी नाराज़गी है. कृषि कानूनों का विरोध करने के लिए पानी की बौछारों, पुलिस के डंडे और आंसू गैस के गोलों की परवाह किए बग़ैर हज़ारों किसान देश की राजधानी दिल्ली की तरफ कूच कर चुके हैं. इस बीच देश की सबसे बड़ी अदालत सुप्रीम कोर्ट ने सरकार द्वारा प्रस्तावित तीनों कृषि कानूनों के अमलीकरण पर रोक लगा दी है. हालांकि, कुछ लोग इस बात को लेकर अपनी सहमति व्यक्त कर सकते हैं कि देश में कृषि से जुड़े कानून – कुछ तो इतने पुराने हैं जो साल 1950 और 1960 के समय के हैं जब देश में अभाव और राज्य नियंत्रित समाजवाद का जोर था – उनमें आधुनिकीकरण होना चाहिए.
ऐसे में यह बेहद प्रासंगिक होगा कि कृषि कानूनों को लेकर जो किसानों का विरोध है उसे देश में मौज़ूदा कृषि नीतियों के आलोक में परखा जाए. राजधानी दिल्ली की सीमा पर विरोध प्रदर्शन कर रहे ज़्यादातर प्रदर्शनकारी वो किसान हैं जो देश के खास अनाज उत्पादन वाले क्षेत्र से ताल्लुक़ रखते हैं, और जिन्होंने सरकार द्वारा सप्लाई की गई बिजली के ज़रिए असीमित मात्रा में भूमिगत जल का दोहन किया, सब्सिडी पर मुहैया कराई गई बीज और खाद का इस्तेमाल धड़ल्ले से किया. ये किसान भारी मात्रा में धान और गेहूं की फसल उपजाते हैं जिसे सरकार हर साल ‘खाद्य सुरक्षा’ के नाम पर एक सुनिश्चत मूल्य अदा करके ख़रीदती है और हर साल इस उपज की ख़रीद के लिए सरकार 25 बिलियन अमेरिकी डॉलर ख़र्च करती है. लेकिन यह नीति ज़्यादा दिनों तक नहीं चल सकती. इसके साथ ही यह उत्पादन की पुरानी तक़नीक़ — जो खाद, पानी, कीटनाशक दवाइयों के ग़लत प्रबंधन से जुड़ा है – को बढ़ावा देती है. इसका प्रतिकूल असर प्राकृति संसाधनों पर पड़ता है और इससे कार्बन फुटप्रिंट भी पैदा होते हैं.
किसानों के लिए डिज़िटल प्लेटफॉर्म जैसे पटना स्थित डीहाट बिचौलियों पर प्रतिस्पर्धा का दबाव बना सकते हैं और किसानों की बाज़ार तक सीधी पहुंच को सुनिश्चित कर सकते हैं. यह विशेष तौर पर ज़्यादा महत्वपूर्ण है क्योंकि कोरोना संक्रमण के चलते परंपरागत बाज़ार से जुड़ी व्यवस्थाएं भी कमोबेश प्रभावित हुई हैं.
कृषि सुधार से जुड़ी बहस और विवाद के बीच जलवायु परिवर्तन का मुद्दा नीतियों के स्तर पर बिल्कुल गौण हो जाता है. ऐसे में भारत के डिजिटल ग्रीन इकोनॉमी के ऐतिहासिक महत्व के दृष्टिकोण में ना सिर्फ अधिक बारिश, गर्मी, कीटनाशक दवाइयां, ओलावृष्टि, बाढ़, सूखा और समुद्र जल स्तर के लगातार बढ़ने से कई इलाक़ों के डूबने के ज़ोख़िम के ख़िलाफ़ किसानों की दृढता शामिल है बल्कि इसमें पारिस्थितिकी संतुलन पर बढ़ता दबाव जो परंपरागत कृषि उत्पादन से जुड़ी प्रक्रियाओं के चलते पैदा हो रहा है वो भी शामिल है. कृषि से जुड़ी कई ऐसी तक़नीक़ (एग्रीटेक) हैं जिनका इस्तेमाल कर पर्यावरण बदलाव के एजेंडे को सकारात्मक तौर पर पूरा किया जा सकता है.
नई-नई कृषि तक़नीक़ से जुड़ी कई ऐसी कंपनियां मौज़ूदा समय में अपना विस्तार कर चुकी हैं जो किसानों को उनकी उपज का बेहतर मूल्य दिलाने में सहयोग कर सकती हैं. कई ऐसे फर्म हैं जो खेती की उपज से जुड़े सप्लाई चेन के पुराने मॉडल में एक प्रभावी वितरण प्रणाली के ज़रिए बदलाव लाने की कोशिशों में जुटे हैं जिससे मौज़ूदा वैल्यू चेन में बिचौलियों की संख्य़ा में कमी आए और किसानों का फ़ायदा बढ़ाया जा सके. दूसरे फर्म फार्मों के जियो-टैग, फसलों की देखभाल और उत्पादन की समीक्षा करने के लिए सैटेलाइट और ड्रोन तक की मदद ले रहे हैं. कुछ कंपनियों ने राज्य नियंत्रित मंडी व्यवस्था से इतर किसानों और उपभोक्ताओं से सीधे तौर पर जुड़ने के लिए कई ऑनलाइन ट्रेडिंग प्लेटफॉर्म को अस्तित्व में लाया है. किसानों के लिए डिज़िटल प्लेटफॉर्म जैसे पटना स्थित डीहाट बिचौलियों पर प्रतिस्पर्धा का दबाव बना सकते हैं और किसानों की बाज़ार तक सीधी पहुंच को सुनिश्चित कर सकते हैं. यह विशेष तौर पर ज़्यादा महत्वपूर्ण है क्योंकि कोरोना संक्रमण के चलते परंपरागत बाज़ार से जुड़ी व्यवस्थाएं भी कमोबेश प्रभावित हुई हैं. (उदाहरण के तौर पर जब देश भर में लॉकडाउन लगाया गया तो कई अति-उत्साही पुलिस अधिकारियों ने खाद्य सामग्रियों से लदे ट्रकों को बीच में ही रोक दिया जिसके चलते खेत से शहरी इलाकों में आने वाली वस्तुओं की सप्लाई बुरी तरह प्रभावित हुई). इस तरह के फर्म सप्लाई चेन की ऐसी स्थिति में भी किसानों को उनकी उपज का ज़्यादा मूल्य मिल सके उसमें सहयोग करने में पीछे नहीं हैं. इस तरह ये फर्म किसानों को पर्यावरण बदलाव के ख़िलाफ़ मज़बूती प्रदान करने में भी सहयोग दे रहे हैं.
भारतीय फर्म कृषि से जुड़े कुछ दूसरे उद्योगों जैसे फ्रेशवाटर एक्वाकल्चर का भी विस्तार करने में जुटे हुए हैं. उदाहरण के तौर पर चेन्नई स्थित एक्वाकनेक्ट नाम की कृषि तक़नीक़ से जुड़ी स्टार्टअप कंपनी मशीन लर्निंग और आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस का इस्तेमाल कर रही हैं जिससे किसानों को चारे के इस्तेमाल और विकास से जुड़ी संभावनाओं के साथ साथ फसल को कीड़े मकोड़ों से होने वाली बीमारियों के सही प्रबंधन की जानकारी दी जा सके. एक्वाकनेक्ट कंपनी के लोग किसानों को संसाधनों के इस्तेमाल (बीज, पानी) के वक़्त से ही जीएचजी उत्सर्जन में कमी लाने, भूमिगत जल की बर्बादी रोकने, चारे के भरपूर इस्तेमाल से प्रदूषण पर लगाम लगाने और झींगा की तरह की मछली से बायोमास के संरक्षण को बढ़ावा देने में सहयोग करते हैं.
पर्यावरण बदलाव की ज़ोख़िमों के अलावा भरोसेमंद आंकड़ों के अभाव में किसानों को कर्ज और फसल बीमा मिलने में भी तमाम मुश्किलें होती हैं. ऐसे में सैटस्योर और मैंटल लैब्स जैसी स्टार्टअप अब मिट्टी की उपज क्षमता और मौसम में बदलावों का सही आंकड़ा जमा करने में लगी है जिससे खेती से जुड़े वास्तविक जोख़िम का आकलन किया जा सके. फसल नुक़सान की स्थिति में बर्बादी कितना हुआ है इसका सही आकलन सैटेलाइट और ड्रोन द्वारा एकत्रित किए गए रियल टाइम डाटा से किया जा सकता है. जलवायु परिवर्तन के प्रतिकूल प्रभावों के ख़िलाफ़ छोटे किसानों में दृढता पैदा करने लिए यह बेहद आवश्यक है कि सभी की पहुंच तक और क़िफ़ायती कर्ज की उपलब्धता के साथ फसल बीमा की सुविधा को व्यवस्थित किया जा सके.
नीतियों के दृष्टिकोण से कृषि तक़नीक़ से जुड़े लोगों की इसमें सहभागिता बढ़ाने की ज़रूरत है. जबकि स्टार्टअप के लिए कई राज्य सरकारों के पास तय नीतियां हैं लेकिन कृषि तक़नीक़ से जुड़े फर्म के लिए कोई विशिष्ट नीति नहीं है और ऐसा इसलिए है कि लोगों में कृषि और जलवायु परिवर्तन के बीच संबंध की समझ की भारी कमी है.
ये उदाहरण इस बात को साबित करते हैं कि जलवायु परिवर्तन और निरंतरता के लिए कृषि समस्या और समाधान दोनों है तो कृषि से जुड़ी तक़नीक़ की नवीनता भारत को डिजिटल ग्रीन इकोनॉमी के युग में ले जाने में बेहद महत्वपूर्ण है. एग्रीटेक स्टार्टअप ने भी किसानों के लिए एक नए आर्थिक संतुलन का माहौल तैयार किया है जिसके तहत यह सुनिश्चित किया गया है कि जलवायु परिवर्तन का सामना करने के प्रति किसान अब वित्तीय तौर पर पहले के मुक़ाबले ज़्यादा तैयार हैं. हालांकि, सबसे बड़ी चुनौती खेती से जुड़े इन तकनीक़ों को देश के सुदूर इलाक़ों तक पहुंचाने में लगने वाले समय और कोशिशों को लेकर है.
हालांकि, अच्छी ख़बर ये है कि खेती के क्षेत्र में निवेश करने को लेकर हाल में दिलचस्पी बढ़ी है. साल 2019 में 1.9 बिलियन अमेरिकी डॉलर का कुल पूंजी प्रवाह इस बात का सबसे बड़ा सबूत है. हालांकि, इसके लिए सरकार, किसान हित का ध्यान रखने वाले लोग और उन्हें बढावा देने वाली संस्थाओं की ओर से ज़्यादा सहयोगपूर्ण रुख़ अपनाने की ज़रूरत होगी जिससे एक ऐसे पारिस्थितिकि तंत्र का निर्माण किया जा सके जिससे एग्रीटेक समाधानों को ज़्यादा से ज़्यादा विस्तार दिया जा सके.
नीतियों के दृष्टिकोण से कृषि तक़नीक़ से जुड़े लोगों की इसमें सहभागिता बढ़ाने की ज़रूरत है. जबकि स्टार्टअप के लिए कई राज्य सरकारों के पास तय नीतियां हैं लेकिन कृषि तक़नीक़ से जुड़े फर्म के लिए कोई विशिष्ट नीति नहीं है और ऐसा इसलिए है कि लोगों में कृषि और जलवायु परिवर्तन के बीच संबंध की समझ की भारी कमी है. ऐसे में यह ज़रूरी है सरकार कृषि विज्ञान केंद्रों के ज़रिए किसानों तक खेती से जुड़ी नई तकनीकों और नए नए स्टार्टअप की पहुंच को सुनिश्चित करे.
तीनों कृषि कानूनों को लेकर जारी ग़र्मा-गरम चर्चा के बीच यह सत्य है कि ये कानून कृषि क्षेत्र में बदलाव लाने की दिशा में महज़ शुरुआती क़दम भर हैं. दरअसल मौजूदा वक़्त में जो आवश्यक है वह यह है कि कृषि क्षेत्र के परंपरागत उद्योग मॉडल को ज़्यादा आधुनिक बनाकर इसमें डिज़िटल आधारित भूमि की निरंतरता को सुनिश्चित किया जा सके, और इसे अमल में लाने का सबसे बेहतर तरीक़ा यही है कि छोटे किसानों को कृषि से जुड़ी नई तक़नीक़ और बाज़ार की उपलब्धता हासिल हो सके जिससे आख़िर में दो लक्ष्यों की प्राप्ति हो सके – पहला किसानों का लाभ और दूसरा पर्यावरण निरंतरता को बचाने वाली कृषि आधारित अर्थव्यवस्था का निर्माण.
ये लेख — कोलाबा एडिट सीरीज़ का हिस्सा है.
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Kean is an Investment Specialist at the Asian Development Bank. He leads venture investments in the agriculture healthcare financial and clean technology sectors.
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