Published on Dec 17, 2022 Updated 0 Hours ago
Pakistan: नए आर्मी चीफ़ के सामने है देश में स्थिरता सुनिश्चित करने की कठिन ज़िम्मेदारी!

जनरल सैयद आसिम मुनीर ने पाकिस्तान के 17वें सेना प्रमुख का कार्यभार ग्रहण कर लिया है. जनरल मुनीर ऐसे सैन्य अधिकारी हैं, जिन्हें पाकिस्तान की दो शक्तिशाली ख़ुफ़िया एजेंसियों- इंटर-सर्विसेज इंटेलिजेंस (ISI) और मिलिट्री इंटेलिजेंस का नेतृत्व करने का असाधारण पेशेवर अनुभव हासिल है. उन्होंने जनरल क़मर जावेद बाजवा की जगह ली है, जो पाकिस्तान के सेना प्रमुख के रूप में छह साल के लंबे कार्यकाल के बाद हाल ही में 29 नवंबर को रिटायर हुए हैं. जनरल मुनीर ने ऐसे वक़्त में पाकिस्तानी सेना की कमान संभाली है, जब पाकिस्तान में नागरिक-सैन्य संबंध बेहद नाज़ुक दौर से गुजर रहे हैं. उनके पूर्ववर्ती सेना अध्यक्ष राजनीतिक और आर्थिक तौर पर इतनी ज़्यादा गड़बड़ियां विरासत में छोड़कर गए हैं, जिन्हें दुरुस्त करने की ज़िम्मेदारी जनरल मुनीर के कंधों पर है. सुरक्षा के मोर्चे पर नज़र डालें तो हथियारबंद संगठन तहरीक़-ए-तालिबान पाकिस्तान (टीटीपी) द्वारा 28 नवंबर को 'अनिश्चितकालीन' युद्धविराम को समाप्त करने की घोषणा कर अपने अंदाज़ में जनरल मुनीर का स्वागत किया गया है, इसके साथ ही इस आतंकी गुट द्वारा पूरे पाकिस्तान में हमले करने का आह्वान भी किया गया. जनरल मुनीर के समक्ष ऐसी सभी प्रकार की चुनौतियों का समाधान तलाशने का कठिन का कार्य है.

जनरल मुनीर ने ऐसे वक़्त में पाकिस्तानी सेना की कमान संभाली है, जब पाकिस्तान में नागरिक-सैन्य संबंध बेहद नाज़ुक दौर से गुजर रहे हैं. उनके पूर्ववर्ती सेना अध्यक्ष राजनीतिक और आर्थिक तौर पर इतनी ज़्यादा गड़बड़ियां विरासत में छोड़कर गए हैं, जिन्हें दुरुस्त करने की ज़िम्मेदारी जनरल मुनीर के कंधों पर है.

सेना की धूमिल छवि

पाकिस्तान के नए COAS यानी चीफ़ ऑफ़ आर्मी स्टाफ के रूप में जनरल मुनीर को सेना की सार्वजनिक तौर पर ख़राब हो चुकी छवि को सुधारने पर काम करना होगा. उनके पूर्ववर्ती जनरल बाजवा ने कई विवादास्पद निर्णय लिए और देश की राजनीति में सक्रिय रूप से दख़ल दिया, जिसने सेना की 'तटस्थ' छवि को धूमिल करने का काम किया है. इसके अतिरिक्त, सभी पार्टियों के नेताओं, जैसे कि पाकिस्तान मुस्लिम लीग (पीएमएल-एन) सुप्रीमो नवाज़ शरीफ़ और पाकिस्तान तहरीक़-ए-इंसाफ़ (पीटीआई) के नेता व पूर्व प्रधानमंत्री इमरान ख़ान ने जनरल बाजवा और अन्य शीर्ष सैन्य अधिकारियों पर नागरिक संस्थानों को खत्म करने का और देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था को कमज़ोर करने का आरोप लगाया है.

देखा जाए तो इस तरह के आरोप लगाना पाकिस्तान में कोई असामान्य घटना नहीं हैं, लेकिन इस बार जो एक अलग चीज़ देखने को मिली, वो थी जनरल बाजवा की खुलेआम हस्तक्षेपवादी नीति को लेकर वहां की आवाम के भीतर बड़े पैमाने पर पनपा आक्रोश. कई अवसरों पर इमरान ख़ान के समर्थकों ने पीटीआई सरकार को 'अनैतिक रूप से' बेदख़ल करने के लिए सेना के शीर्ष अधिकारियों को अपशब्द कहे और सेना की बिल्डिंग व दफ़्तरों के बाहर विरोध प्रदर्शन किया. ज़ाहिर है कि पाकिस्तान में अपनी असीमित शक्तियों को न्यायसंगत ठहराने के लिए अपने अनुकूल जनभावनाएं सेना के लिए बेहद अहम हैं. 1947 में पाकिस्तान की स्वतंत्रता के बाद से ही वहां की सरकारों और राजनेताओं पर अक्षम और भ्रष्ट होने का तमगा लगता रहा है, जबकि देखा जाए तो पाकिस्तानी सेना ने खुद को सार्वजनिक आलोचना से बचाकर रखा है, फिर चाहे सेना ने यह अपने बल के बूते किया हो, या फिर राजनीतिक जोड़-तोड़ के ज़रिए. इसलिए, इसमें कोई हैरानी नहीं होगी, अगर जनरल बाजवा हाल ही में उनके और उनके परिवार के सदस्यों के विरुद्ध लगाए गए भ्रष्टाचार के आरोपों के बाद साफ बच निकलते हैं.

हालांकि, पाकिस्तान डेमोक्रेटिक मूवमेंट (पीडीएम) की 'इंपोर्टेड सरकार' और सेना में मौज़ूद उसके कथित 'समर्थकों' के ख़िलाफ़ इमरान ख़ान के अभियान ने सेना के विरुद्ध आवाम में इतना गुस्सा भर दिया है, जितना पहले कभी नहीं देखा गया. राजनीतिक संकट के अलावा जनरल बाजवा के कार्यकाल में मीडिया पर बड़े पैमाने पर शिकंजा कसा गया, पत्रकारों और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को निशाना बनाकर हमले किए गए और बलूच एवं पश्तून जैसे जातीय अल्पसंख्यकों के जबरन लापता होने के मामलों में बढ़ोतरी देखी गई. पिछले छह वर्षों में नागरिकों के विरुद्ध सेना की अलोकतांत्रिक गतिविधियों के कई उदाहरणों ने सैन्य प्रतिष्ठान की सार्वजनिक छवि को और नुकसान पहुंचाया है. एक हिसाब से सेना की छवि इतनी अधिक ख़राब हो चुकी है कि उसे ठीक करना असंभव सा प्रतीत हो रहा है.

 

 

नागरिक-सैन्य तनाव

 

पाकिस्तान में निर्वाचित लोकतांत्रिक सरकार को नियंत्रित करने की जनरल बाजवा की रणनीति पर नए सैन्य प्रमुख जनरल मुनीर फिर से विचार कर सकते हैं. शरीफ़ और भुट्टो-ज़रदारी के ख़िलाफ़ एक 'हाइब्रिड शासन' स्थापित करने या एक 'तीसरा' राजनीतिक फ्रंट यानी इमरान ख़ान की पीटीआई को खड़ा करने का पूरा प्रयोग सेना के लिए एक बड़ी मुसीबत साबित हुआ है. इससे भी अहम बात यह है कि स्टेट द्वारा प्रायोजित राजनीतिक अनिश्चितता ने ना सिर्फ़ देश की अर्थव्यवस्था को बुरी तरह से प्रभावित किया, बल्कि पाकिस्तान में नागरिक संस्थानों को भी कमज़ोर कर दिया. वर्ष 2013 में जब पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी की सरकार से नवाज़ शरीफ़ की पीएमएल-एन सरकार को शांति से सत्ता हस्तांतरण हुआ था, तो लोगों में उम्मीद बंधी थी कि पाकिस्तान में लोकतंत्र मज़बूत हो रहा है. हालांकि, वर्ष 2016 में पनामा पेपर्स लीक का मामला सामना आने के बाद भ्रष्टाचार के आरोपों के चलते जिस प्रकार जुलाई, 2017 में नवाज़ शरीफ़ को पाकिस्तान के प्रधानमंत्री पद से अचानक हटना पड़ा, उसने उन सारी उम्मीद को धराशायी कर दिया. शरीफ़ के विरुद्ध क़ानून के मुताबिक़ भ्रष्टाचार के आरोपों के अलावा, पाकिस्तानी सेना ने भी पीएमएल-एन सरकार को कमज़ोर करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई और इमरान ख़ान के लिए वर्ष 2018 के नेशनल असेंबली इलेक्शन में शरीफ़ को सत्ता से बेदख़ल करने के लिए मज़बूत ज़मीन तैयार की.

सोशल मीडिया वेबसाइटों पर सेना के विरुद्ध लगातार उठाए जा रहे सवालों, सेना की गतिविधियों की आलोचना और इमरान ख़ान की तरफ से निरंतर बनाए जा रहे दबाव ने सार्वजनिक तौर पर सेना को अपना पक्ष रखने के लिए मज़बूर किया, जो शायद पहले कभी नहीं हुआ था.

पाकिस्तानी सेना इमरान ख़ान के 'हाइब्रिड शासन' को देश की सत्ता में लाने में क़ामयाब रही और नतीज़तन जनरल बाजवा को नवंबर, 2019 में तीन साल का सेवा विस्तार मिला. शायद यही वो एक बड़ी संभावित वजह थी, जिसके लिए पीटीआई सरकार को पाकिस्तान की सत्ता में लाया गया था. हालांकि, सेना इमरान ख़ान को पूरी तरह से नियंत्रित करने में विफल साबित हुई. ज़ाहिर है कि इमरान ख़ान ने अगस्त, 2018 में प्रधानमंत्री बनने के बाद अपनी ताक़त का इस्तेमाल करना शुरू कर दिया था. यह एक अजीब बात तो ज़रूर थी, लेकिन कोई आश्चर्य की बात नहीं थी कि इमरान ख़ान अपने राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी और पूर्ववर्ती नवाज़ शरीफ़ की तरह ही एक जैसी तक़दीर का और एक जैसे हालात का सामना कर रहे थे. इस सबके बावज़ूद इमरान ख़ान ने एक पूर्व स्टार क्रिकेटर एवं "भ्रष्टाचार-विरोधी योद्धा" के रूप में व्यापक लोकप्रियता के बदौलत उन्हें सत्ता से बेदख़ल करने के सेना के कथित निर्णय को चुनौती दी.

जनरल बाजवा और उनके सैन्य अधिकारियों द्वारा कई मौक़ों पर पीटीआई सरकार को "गैरक़ानूनी तरीक़े से" हटाने और राजनीति में दख़ल देने के आरोपों के ख़िलाफ़ सेना का बचाव किया गया था. इतना ही नहीं, सोशल मीडिया वेबसाइटों पर सेना के विरुद्ध लगातार उठाए जा रहे सवालों, सेना की गतिविधियों की आलोचना और इमरान ख़ान की तरफ से निरंतर बनाए जा रहे दबाव ने सार्वजनिक तौर पर सेना को अपना पक्ष रखने के लिए मज़बूर किया, जो शायद पहले कभी नहीं हुआ था. इन तमाम आरोपों और आलोचनाओं का जवाब देने के लिए आईएसआई के महानिदेशक लेफ्टिनेंट जनरल नदीम अहमद अंजुम ने एक अभूतपूर्व प्रेस कॉन्फ्रेंस आयोजित की, जिसमें उन्होंने इमरान ख़ान द्वारा सेना के विरुद्ध कही जा रही बातों को काउंटर करने का प्रयास किया. इसके अलावा, लेफ्टिनेंट जनरल अंजुम को इमरान ख़ान पर हत्या के प्रयास और केन्या में पीटीआई समर्थक पत्रकार अरशद शरीफ़ की रहस्यमयी हत्या में शामिल होने के गंभीर आरोपों को लेकर भी सेना का बचाव करना पड़ा.

इस सभी बातों का नतीज़ा यह हो सकता है कि जनरल मुनीर को घरेलू राजनीति के मामलों में सेना प्रमुख की हैसियत से अपनी भागीदारी को लेकर जनता और राजनेताओं के सवालों और आलोचना का सामना करना पड़ सकता है. ऐसे में जनरल मुनीर नागरिक-सैन्य संबंधों में सुधार को प्राथमिकता दे सकते हैं, जो देश की आर्थिक मज़बूती के लिए बेहद अहम है. इसमें कोई शक नहीं है कि पाकिस्तान में "स्वतंत्र और निष्पक्ष" आम चुनाव सुनिश्चित कराना उनकी सबसे बड़ी परीक्षा होगी. फिलहाल, इमरान ख़ान अपने आक्रामक राजनीतिक अभियान और व्यापक जन समर्थन के बल पर सरकारी संस्थाओं को चुनौती देना जारी रखे हुए हैं, लेकिन यह भी एक सच्चाई है कि पाकिस्तान में अंतिम और असली ताक़त सेना के ही पास है. इसलिए, नए सेना प्रमुख के रूप में जनरल मुनीर ग़ैरज़रूरी विवादों और सार्वजनिक आलोचना से बचने के लिए स्वयं प्रत्यक्ष राजनीति से दूर रह सकते हैं, लेकिन सैन्य प्रतिष्ठान पाकिस्तान की राजनीति में गहराई से शामिल रहेंगे.

 

सेना के आंतरिक मतभेदों को दूर करना

पाकिस्तान के नए COAS अपने कार्यकाल के शुरुआती कुछ महीनों में सेना के भीतर आंतरिक मतभेदों को दूर करने को प्राथमिकता देंगे और अपने सैनिकों का मनोबल बढ़ाएंगे, जो पश्चिमी मोर्चे पर बढ़ने वाली सुरक्षा चुनौतियों का सामना कर रहे हैं. दो शीर्ष जनरल लेफ्टिनेंट जनरल अज़हर अब्बास और लेफ्टिनेंट जनरल फ़ैज़ हमीद, जो सेना प्रमुख बनने की दौड़ में शामिल थे, पहले ही सेवा से ‘ज़ल्दी सेवानिवृत्ति’ की मांग कर चुके हैं. इस घटना से यह तो स्पष्ट हो गया है कि जनरल मुनीर को नया सीओएएस बनाने के निर्णय ने सेना के भीतर संभावित आंतरिक असंतोष की अटकलों को पैदा किया है.

लेफ्टिनेंट जनरल हमीद को इमरान ख़ान का क़रीबी माना जाता है. उन्होंने जून 2019 में जनरल मुनीर (तत्कालीन लेफ्टिनेंट जनरल) को आईएसआई के महानिदेशक के रूप में प्रतिस्थापित किया था, जब इमरान ख़ान ने जनरल मुनीर को आठ महीने के भीतर आईएसआई महानिदेशक के पद से हटा दिया था, वो भी बेहद अनैतिक तरीक़े से. दिलचस्प बात यह है कि अगर पीटीआई सरकार को अप्रैल में सत्ता से नहीं हटाया गया होता तो, लेफ्टिनेंट जनरल हमीद को सेना प्रमुख के लिए शीर्ष दावेदार माना जा रहा था. अतीत के यह मतभेद जनरल मुनीर के लिए सेना प्रमुख के रूप में अपनी शक्ति को मज़बूत करने और देश में स्थिरता लाने के उनके प्रयासों में अवरोध पैदा कर सकते हैं.

 

 

आगे का रास्ता

पाकिस्तान के सेना प्रमुख के रूप में जनरल बाजवा का कार्यकाल कई विफलताओं से भरा रहा है. सेना प्रमुख के उनके लंबे कार्यकाल को पाकिस्तान में राजनीतिक अनिश्चितता, डांवाडोल आर्थिक स्थिति और आवाम के बीच बढ़ती सैन्य विरोधी भावनाओं के लिए जाना जाता है. इन सारे मुद्दों को संभालने के अलावा, जनरल मुनीर को इस्लामाबाद और काबुल में तालिबान की अंतरिम सरकार के बीच बढ़ते तनाव के बीच फिर से सिर उठाते आतंकी संगठन टीटीपी जैसी तमाम गंभीर सुरक्षा चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है. महीनों लंबी बातचीत के बाद, टीटीपी यानी तहरीक़े-तालिबान पाकिस्तान ने 28 नवंबर को युद्धविराम वापस लेने का ऐलान कर दिया, क्योंकि पाकिस्तान ने टीटीपी की ख़ैबर पख़्तूनख़्वा के साथ संघीय शासित कबायली इलाक़ों (FATA) के विलय और क़बायली क्षेत्रों से सैनिकों की वापसी जैसी प्रमुख मांगों को ख़ारिज़ कर दिया था. अपने पूर्ववर्तियों की तरह जनरल मुनीर बढ़ते आतंकवाद को नियंत्रित करने और शीर्ष सेना कमांडर के रूप में अपनी ताक़त को मज़बूत करने के लिए पहले वाले FATA रीजन में एक नया आतंकवाद विरोधी अभियान भी शुरू कर सकते हैं.

दोनों पक्षों द्वारा भारत के साथ लगे पूर्वी मोर्चे पर फरवरी, 2021 में युद्धविराम के लिए दोबारा प्रतिबद्धता जताने के बाद से वहां अपेक्षाकृत शांति की स्थित बनी हुई है. फिर भी यह अनुमान लगाना अभी ज़ल्दबाज़ी होगी कि क्या जनरल मुनीर भारत के साथ पूर्व आर्मी चीफ जनरल बाजवा के शांति प्रस्तावों का पालन करेंगे. दो इंटेलिजेंस एजेंसियों के प्रमुख (2019 के पुलवामा फ़िदायीन हमले के दौरान आईएसआई के प्रमुख सहित) और गिलगित-बाल्टिस्तान में एक सेना कमांडर के रूप में तैनाती के अपने अनुभव के आधार पर, यह संभव है कि जनरल मुनीर भारत को लेकर एक आक्रामक नीति अपना सकते हैं.

आख़िर में, ऐसे में जबकि जनरल बाजवा ने जनरल मुनीर के लिए एक बेतरतीब और अस्त-व्यस्त विरासत छोड़ी है, पाकिस्तानी सेना की एक 'बाहरी' ख़तरे की स्थिति में जनता का ध्यान आकर्षित करने और उन्हें एकजुट करने के लिए जांची-परखी रणनीति नए सीओएएस के लिए मददगार साबित हो सकती है. वे इस रणनीति के ज़रिए सेना की सार्वजनिक छवि को सुधारने और अन्य गंभीर मुद्दों को दरकिनार करने का काम कर सकते हैं. ज़ाहिर है कि जब तक ऐसा नहीं होता है, तब तक पाकिस्तान में राजनीतिक उथल-पुथल और सेना व नागरिकों को बीच के संबंधों में तनाव का माहौल यू हीं बना रह सकता है.

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