Author : Satish Misra

Published on May 08, 2019 Updated 0 Hours ago

प्रियंका की मोदी के खिलाफ़ वाराणसी से चुनाव लड़ने की अटकलों की शुरुआत तब हुई जब उन्होंने कार्यकर्ताओं से पूछा कि वाराणसी से चुनाव लड़ लूं.

लोकसभा चुनाव 2019: पहेली बनी प्रियंका गांधी, क्या बन पाएंगी यूपी में मोदी का ‘जवाब’?

मौजूदा आम चुनाव में वाराणसी से प्रत्याशी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सामने अपनी नई-नई  नियुक्त महासचिव और पूर्वी उत्तर प्रदेश की 40 लोकसभा सीटों की प्रभारी प्रियंका गांधी वाड्रा को चुनाव में न उतारकर कांग्रेस ने मीडिया को अटकलें लगाने मौका तो दिया ही उन्हें आलोचना का भी पर्याप्त अवसर दे दिया है.

वैचारिक झुकाव के कारण बहुत से लोगों के लिये ये एक मायूसी भरी ख़बर थी, वहीं कईयों के लिए ये ख़ुशी का कारण भी बना. इन लोगों ने तो आगे बढ़कर यह भी ऐलान कर दिया कि प्रियंका ने पार्टी कार्यकर्ताओं की उम्मीदों को बढ़ाने के बाद, हार के डर से चुनावी मैदान छोड़ दिया. एक कमेंटटेटर ने कहा कि, अंतत: प्रियंका गांधी की तरफ से कुछ था ही नहीं, उन्होंने पहले मजाक किया, संकेत दिए और अंत में कहा कि वे चुनाव नहीं लड़ेंगी.

कुछ ऐसे लोग भी थे, जिन्होंने मोदी से आमने—सामने की लड़ाई को पार्टी के संकल्प को कमज़ोर करने की कोशिश के रूप में देखा. कुछ ने देश की सबसे पुरानी पार्टी की जानकारी के  अभाव में फैसला लेने की प्रक्रिया को ही विश्वासघात से लेकर स्वार्थ प्रेरित होने तक की बात कहते हुए पार्टी आलाकमान को बीजेपी के रास्ते पर चलने की नसीहत दे दी.

मीडिया की अटकलों के बावजूद भी प्रियंका गांधी कई दशकों से एक चुनौती बनी हुईं हैं. जब भी चुनाव होते हैं तो मीडिया हमेशा ऐसे सवाल करना शुरु कर देती है कि वे सक्रिय राजनीति में कब आएंगी.  इस साल जनवरी में काँग्रेस प्रमुख राहुल गांधी ने अपनी बहन प्रियंका गाँधी वाड्रा के साथ पूर्व केंद्रीय मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया को पार्टी का महासचिव नियुक्त किया, जो पूर्वी और पश्चिमी उत्तर प्रदेश की विशिष्ट ज़िम्मेदारियों के साथ-साथ बहुत ही महत्वपूर्ण माने जाने वाली उत्तर-प्रदेश राज्य में पार्टी की अपील को व्यापक स्तर तक पहुँचाने की कोशिश करेंगे. उत्तरप्रदेश राज्य संसद में 80 सांसदों को भेजता है.

चुनावी सुविधा के चलते  देश के सबसे बड़े राज्य को दो भागों में बाँट दिया गया है और प्रत्येक नए नियुक्त हुए महासचिव को 40 लोकसभा सीटों के लिए विशिष्ट जिम्मेदारी सौंपी गई है.  जिसके तहत इन महासचिवों को कुछ ज़िम्मेदारियाँ सौंपी गई हैं. इन ज़िम्मेदारियों में पार्टी संगठन को मजबूत करने के साथ-साथ चुनाव में भी सफलता की अपेक्षा की गई थी. ये सब कुछ तब हो रहा था जब परदे के पीछे कांग्रेस नेताओं और एसपी-बीएसपी गठबंधन के बीच अनौपचारिक बातचीत चल रही थी.

कांग्रेस  के शीर्ष नेतृत्व को बीएसपी सुप्रीमो मायावती की अनिच्छा की  पूरी जानकारी थी. इसके बावजूद वे (यूपी में) एसपी-बीएसपी गठबंधन के साथ कांग्रेस को शामिल करना चाहते थे. दुनिया भर मौजूद राजनीतिक प्रणाली के मूलभूत  संचालन सिद्धांतों  में से एक यह है कि — हर  राजनीतिक दल अपनी तमाम विचारधारा से जुड़े दावों के बावजूद अपने निजी हितों का नुकसान नहीं कर चाहती है. बीजेपी को हराने के लक्ष्य को नज़र में रखते हुए उन्होंने कांग्रेस पार्टी के  के  या गठबंधन में रहकर  चुनाव लड़ने की दोनों संभावनाओं  को ध्यान में रखा.

प्रियंका की मोदी के खिलाफ़ वाराणसी से चुनाव लड़ने की अटकलों की शुरुआत तब हुई जब उनसे उनकी ही पार्टी के एक कार्यकर्त्ता ने पूछा कि क्या वे रायबरेली से चुनाव लड़ने जा रही हैं जहाँ से उनकी माँ सोनिया गांधी वर्तमान सांसद हैं? तब उन्होंने पलट-कर कार्यकर्ताओं से  पूछा कि, “वाराणसी से क्यों नहीं.”

राहुल गाँधी ने मीडियाकर्मियों को  गोलमोल जवाब देकर सस्पेंस बनाये  रखा, किसी भी  कांग्रेसी नेता ने इन संभावनाओं को ख़ारिज करने की कोशिश नहीं की, क्योंकि  इस सब से पार्टी को मीडिया में  सुर्खियां  बटोरने में मदद मिल रही थी.  अगर कांग्रेस इस सस्पेंस को बनाए नहीं रखती तो यह उनकी तरफ़ से एक मूर्ख़तापूर्ण कदम होता.

राजनीतिक लड़ाई में  कार्यनीति और रणनीति के दो सबसे महत्वपूर्ण साधन या हथियार हैं. देश में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के वैचारिक एजेंडे के प्रभावी होने के बाद और गाँधी-नेहरू की विरासत जो कि बहुसंख्यक लोगों के लिए स्वतंत्रता संग्राम की थाती थी, उसके लगातार अवमूल्यन के बाद से ही  राजनीति की दशा  नाज़ुक है और वो अनगिनत चुनौतियों से जूझ रही है.

2014 के लोकसभा चुनावों में अपने ऐतिहासिक रूप से सबसे ख़राब प्रदर्शन के बाद कांग्रेस यदि राष्ट्रीय राजनीति में संविधान, राजनीति और समाज की समावेशी प्रकृति की रक्षा करने में एक सक्रिय  भूमिका निभाने के लिए गंभीर है तो यह ज़रूरी है की वे खुद को और अपनी पुरानी पार्टी को बीजेपी  से मुकाबला करने के लायक मज़बूत बनाएं जो पूरे  देश को हिंदुत्व के एजेंडे पर ले जाना चाहती है.

वाराणसी में जीत  की संभावना  अनिश्चित और अविश्वसनीय नहीं थी और प्रियंका के लिए  एक दूरस्थ  मौक़ा यह भी था कि वे समूचे विपक्ष की संयुक्त उम्मीदवार बन जातीं. इस पृष्ठभूमि में प्रियंका गाँधी वाड्रा का यह स्पष्टीकरण  ज्यादा विश्वसनीय लगता है कि उनका  वाराणसी की एक सीट पर ध्यान केंद्रित करने की तुलना में अंतिम तीन चरणों में होने वाले चुनावों में  पूर्वी उत्तरप्रदेश की 41 लोकसभा सीटों पर खड़े  कांग्रेस उम्मीदवारों की सहायता करना कहीं ज़्यादा ज़रूकी है.

उनका यह व्याख़्यात्मक  अर्थपूर्ण स्पष्टीकरण मीडिया पंडितों द्वारा स्वीकार भी हो भी सकता है और अस्वीकार भी, लेकिन पूर्वी उत्तरप्रदेश में पार्टी द्वारा लाए गए परिणाम और वोटों का प्रतिशत प्रियंका की पहेली कितनी कारगर है इसे समझाने में काफी मददगार साबित होगा.

The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.