आर्कटिक का क्षेत्र बड़ी तेज़ी से वैश्विक भू-राजनीतिक का प्रमुख बिंदु बनता जा रहा है. इसकी बड़ी वजह वहां की पिघलती बर्फ़ है, जो अवसर भी मुहैया करा रही है और चुनौतियां भी पेश कर रही है. आज जब आर्कटिक की बर्फ़ की चादर सिमट रही है, तो वहां पाए जाने वाले तेल, गैस और दूसरे खनिजों जैसे जो संसाधन अब तक पहुंच से दूर थे, वो अब दोहन के लिए उपलब्ध हो रहे हैं. इसके लालच में बहुत सी बड़ी ताक़तें जैसे कि अमेरिका और रूस उनके दोहन के लिए तत्पर हो रहे हैं. हालांकि, ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन की वजह से धरती की आब-ओ-हवा में जो भारी बदलाव आएगा, उसकी शक्ल में आर्कटिक में मौजूद इन संसाधनों के दोहन की एक क़ीमत मानवता को चुकानी पड़ सकती है. आर्कटिक समुद्र में बर्फ़ की मोटी चादर, इस धरती की जलवायु को जो संरक्षण प्रदान करती है, उसको गंवाने की इंसान को भारी क़ीमत चुकानी पड़ सकती है. क्योंकि आर्कटिक की बर्फ़ पिघलने पर तबाही मचाने वाली ग्लोबल वार्मिंग की रफ़्तार और तेज़ हो जाएगी.
आर्कटिक समुद्र में बर्फ़ की मोटी चादर, इस धरती की जलवायु को जो संरक्षण प्रदान करती है, उसको गंवाने की इंसान को भारी क़ीमत चुकानी पड़ सकती है. क्योंकि आर्कटिक की बर्फ़ पिघलने पर तबाही मचाने वाली ग्लोबल वार्मिंग की रफ़्तार और तेज़ हो जाएगी.
आर्कटिक क्षेत्र के इन आयामों का सामरिक निर्णय प्रक्रिया के नज़रिए से विश्लेषण करने पर हमें आर्कटिक क्षेत्र को जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों से बचाने के लिए सामूहिक सहयोगात्मक प्रयासों और बर्फ़ पिघलने की वजह से देशों द्वारा व्यक्तिगत स्तर पर नए संसाधनों के दोहन के पैदा होने वाले अवसरों के बीच संतुलन बनाने की आवश्यकता रेखांकित होती है. तार्किक सोच ये कहती है कि दुनिया भर का अस्तित्व बचाने की सार्वजनिक भलाई के लिए, सभी देशों को चाहिए कि वो आपस में मिलकर ऐसे क़दम उठाएं, जिससे आर्कटिक क्षेत्र को लंबी अवधि के लिए संरक्षित किया जा सके.
पिघलती बर्फ़ एक समस्या
इसके आयाम समझने के लिए हमें सबसे पहले आर्कटिक क्षेत्र के प्रमुख किरदारों की पहचान करनी होगी. इनमें सबसे पहले तो आर्कटिक परिषद के सदस्य देश आते हैं. ये उन देशों की सरकारें हैं, जो आर्कटिक क्षेत्र से जुड़े हैं और इनमें अमेरिका, रूस, नॉर्वे, फिनलैंड, स्वीडन, डेनमार्क, कनाडा और आइसलैंड शामिल हैं. इसके बाद आर्कटिक के उभरते हुए देशों का नंबर आता है. ये ग्लोबल साउथ के वो देश हैं, जिनकी दिलचस्पी आर्कटिक की नीतियों में बढ़ती जा रही है. इनमें चीन शामिल है, जो आर्कटिक के संसाधनों तक पहुंच हासिल करना चाहता है और इसीलिए चीन ने ख़ुद को ‘आर्कटिक के क़रीब’ का देश घोषित कर दिया है. इसके बाद भारत जैसे देश हैं, जिन्हें आर्कटिक की समुद्री बर्फ़ के पिघलने और इसका सीधा संबंध भारत में मानसून की अस्थिरता से जोड़ने को साबित करने वाले वैज्ञानिक तथ्यों को लेकर चिंता सता रही है.
यूक्रेन पर रूस के आक्रमण के बाद पश्चिमी देशों ने रूस का बहिष्कार कर दिया है. इस वजह से आर्कटिक काउंसिल का ज़्यादातर काम अटका पड़ा है. स्वीडन और फिनलैंड के नैटो में शामिल होने की वजह से पश्चिमी देशों और रूस के बीच विभाजन की ये खाई और भी चौड़ी हो गई है. इससे आर्कटिक काउंसिल में ‘पश्चिमी देश बनाम बाक़ी देश’ का बंटवारा हो गया है. तार्किक तौर पर ये बात आर्कटिक काउंसिल के सभी सदस्यों के हित में होगी कि यूक्रेन की वजह से आर्कटिक में तनाव को और बढ़ने न दें.
रूस के लिए आर्कटिक के अड्डों और खनिजों तक पहुंच के लिए संसाधन और सैनिक तैनात करने से एक और मोर्चा खुल जाता है, जिसकी हिफ़ाज़त उसे नैटो से करनी होगी. पहले से ही नाज़ुक इलाक़े के सैन्यीकरण से समुद्री बर्फ़ के पिघलने की गति और तेज़ होगी. इससे यूक्रेन में युद्ध कर पाने की रूस की क्षमता और कमज़ोर हो जाएगी. क्योंकि, रूस पहले ही यूक्रेन युद्ध के बेनतीजा जारी रहने की वजह से पहले ही मुश्किल में है. रूस के पास अपने दम पर आर्कटिक के संसाधनों का दोहन कर पाने की क्षमता का अभाव भी है. इसकी वजह से रूस को उत्तरी सागर के समुद्री रास्तों को खोलने में सहायता के लिए भारत और चीन से बर्फ़ तोड़ने वाले जहाज़ मांगने पड़े हैं. ऐसे में आर्कटिक के संसाधनों की तलाश और उनके दोहन की होड़ शुरू करने से रूस, आर्कटिक क्षेत्र के अपने समकक्ष देशों की तुलना में पिछड़ जाएगा. क्योंकि, आर्कटिक के बाक़ी देश रूस की तरह व्यापक व्यापारिक प्रतिबंधों के शिकार नहीं हैं. ऐसे में उनके लिए बिना किसी समस्या के आर्कटिक में काम करने के उपकरण हासिल हो सकेंगे. वहीं दूसरी तरफ़ अगर रूस सीमित स्तर पर भी आर्कटिक के संरक्षण के लिए काम करता है, तो इससे विश्व मंच पर रूस को कुछ हद तक वैधता मिल सकेगी. वैसे तो ऐसे क़दम से रूस, यूक्रेन पर हमले के दाग़ तो नहीं धो सकेगा. मगर, इससे रूस को एक बार फिर आर्कटिक के प्रशासन में एक साझीदार के तौर पर स्थापित करने की बुनियाद ज़रूर स्थापित होगी.
अगर मानवीय गतिविधियों और जलवायु परिवर्तन की वजह से आर्कटिक में स्थायी तौर पर जमी बर्फ़ पिघली, तो वातावरण में ग्रीनहाउस गैसों का भारी तादाद में उत्सर्जन होगा. इससे ग्लोबल नॉर्थ के देशों को अपने यहां ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन बहुत भारी तादाद में कम करना होगा.
आर्कटिक के बाक़ी देशों के लिए आर्कटिक की जलवायु के संरक्षण में सहयोग करने से वो तनाव कम हो सकेगा, जो यूक्रेन युद्ध की वजह से शीर्ष पर पहुंच गया है. अगर ऐसा होता है, तो ये नैटो और अमेरिका के लिए फ़ायदे का सौदा होगा. क्योंकि फिलहाल उनके पास आर्कटिक में रक्षा पंक्ति का अभाव है. सहयोग करके ये देश भारत जैसे उभरते आर्कटिक देशों के साथ मिलकर काम करने के नए अवसर पैदा कर सकेंगे. इसके लिए ये देश आर्कटिक विज्ञान के मामले में नई पहलें कर पाएंगे. इससे भारत और पश्चिमी देशों के बीच संबंध को और मज़बूती होगी और वो चीन का दबदबा कम करने के लिए साझेदारी के नए अवसर भी पा सकेंगे. अधिक ख़ुदग़र्ज़ी की बात करें, तो अगर मानवीय गतिविधियों और जलवायु परिवर्तन की वजह से आर्कटिक में स्थायी तौर पर जमी बर्फ़ पिघली, तो वातावरण में ग्रीनहाउस गैसों का भारी तादाद में उत्सर्जन होगा. इससे ग्लोबल नॉर्थ के देशों को अपने यहां ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन बहुत भारी तादाद में कम करना होगा. और, इसके साथ साथ उन्हें ग्लोबल साउथ के देशों को जलवायु परिवर्तन के बढ़ते दुष्प्रभावों से होने वाले नुक़सान की भरपाई में भी ज़्यादा रक़म ख़र्च करनी होगी. आर्कटिक का संरक्षण करने से आर्कटिक काउंसिल में शामिल पश्चिमी देशों के लिए जीवाश्म ईंधन का इस्तेमाल कम करने और अपना कार्बन उत्सर्जन घटाने की गति धीमी कर पाने के लिए भी अधिक समय मिल सकेगा. हो सकता है कि रूस के साथ सीमित स्तर पर वैज्ञानिक सहयोग करने को लेकर भी कुछ चिंताएं हों. लेकिन, 1970 के दशक में जिस तरह अमेरिका और सोवियत संघ ने अंतरिक्ष विज्ञान के क्षेत्र में सहयोग किया था, उससे एक विभाजित भू-राजनीतिक माहौल में मानवता के साझा हित के लिए बड़ी ताक़तों द्वारा मिलकर काम करने की एक अच्छी मिसाल भी मिलती है. उसी सहयोग की वजह से बाद में जाकर रूस और अमेरिका ने मिलकर इंटरनेशनल स्पेस स्टेशन की स्थापना की थी. आपसी सहयोग का वही ढांचा आज अपनाना आर्कटिक के पश्चिमी देशों के अपने हित में होगा. क्योंकि, ये देश रूस से दूरी बनाए रखते हुए आर्कटिक में रिसर्च की अपनी वैज्ञानिक क्षमताओं का विस्तार कर सकेंगे.
समस्या से उबरने का समाधान
हमें आर्कटिक के उभरते देशों जैसे कि चीन और भारत के नज़रिए से भी तमाम संभावनाओं पर विचार करना होगा. चीन के लिए उसके ‘पोलर सिल्क रोड’ के माध्यम से आर्कटिक क्षेत्र के संसाधनों तक पहुंच बनाने से वैश्विक अर्थव्यवस्था पर चीन द्वारा तुलनात्मक रूप से कहीं अधिक प्रभाव रखने की वजह से पश्चिमी देशों के साथ उसका जो तनाव है, वो और भी बढ़ जाएगा. वहीं दूसरी ओर आर्कटिक के मौजूदा देशों के साथ मिलकर काम करने से चीन ख़ुद को दुनिया में जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभाव कम करने के लिए काम करने वाले एक विश्वसनीय अगुवा के तौर पर स्थापित करेगा और इसका चीन की अर्थव्यवस्था पर भी कोई ख़ास असर नहीं पड़ेगा. आर्कटिक देशों के साथ विज्ञान के क्षेत्र में सहयोग करके चीन आर्कटिक क्षेत्र में रिसर्च करने की क्षमताओं को मज़बूत करके आगे बढ़ा सकेगा. इससे आर्कटिक के प्रशासन और नीति में चीन के लिए नए और स्थायी अवसरों के दरवाज़े भी खुल सकेंगे. ऐसे में आर्कटिक क्षेत्र में सहयोग से चीन ख़ुद को ‘आर्कटिक का क़रीबी’ देश बताने का दावा भी सिद्ध कर पाएगा.
आर्कटिक की समुद्री बर्फ़ की निगरानी करना और उसका वैज्ञानिकों की अगुवाई में संरक्षण करना आर्कटिक क्षेत्र के ही नहीं, बल्कि पूरी धरती के लिए टिकाऊ भविष्य सुनिश्चित करने में मददगार होगा.
भारत के लिए तो आर्कटिक की आब-ओ-हवा के संरक्षण में और भी स्पष्ट रूप से तार्किक हित छुपे हुए हैं. आर्कटिक की जलवायु के संरक्षण के लिए आर्कटिक के देशों के साथ काम करने से भारत की ग्लोबल साउथ के अगुवा होने की छवि और भी मज़बूत होगी. इसके साथ साथ भारत को आर्कटिक के प्रशासन में नई भूमिका भी प्राप्त हो सकेगी. ज़्यादा सीधे तौर पर भारत को ये लाभ होगा कि आर्कटिक की बर्फ़ संरक्षित होने से मॉनसून को बर्फ़ की क्षति की वजह से होने वाले नुक़सान को और बढ़ने से रोका जा सकेगा. भारत के कृषि क्षेत्र को सुरक्षित बनाने के लिहाज़ से मॉनसूनों की स्थिरता बेहद ज़रूरी है. ऐसा करके भारत 2030 तक दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था की तरफ़ आगे बढ़ने के लक्ष्य पर मज़बूती से डटा रहेगा. भारत के पास आर्कटिक विज्ञान और तकनीक का पहले दर्जे का अनुभव है. क्योंकि हाल ही में भारत ने आर्कटिक 2023 के नाम से आर्कटिक क्षेत्र के लिए अपना पहला सर्दियों वाला वैज्ञानिक मिशन भेजा है. इस महारत का जलवायु परिवर्तन के लिए इस्तेमाल और निगरानी करने से आर्कटिक क्षेत्र के प्रशासन में भारत की भूमिका और भी मज़बूत होगी.
आगे की राह
आख़िर में इन सबका नतीजा आर्कटिक की बर्फ़ की चादर को संरक्षित करने के लिए किए जाने वाले सामूहिक उपायों पर निर्भर करता है. संसाधनों के दोहन से हो सकता है कि हमें फ़ौरी तौर पर कुछ लाभ हो जाए. लेकिन हर देश के अपने अपने हित के इस धरती पर पड़ने वाले दूरगामी प्रभाव कहीं ज़्यादा होंगे. ऐसे में आर्कटिक की समुद्री बर्फ़ की निगरानी करना और उसका वैज्ञानिकों की अगुवाई में संरक्षण करना आर्कटिक क्षेत्र के ही नहीं, बल्कि पूरी धरती के लिए टिकाऊ भविष्य सुनिश्चित करने में मददगार होगा.
कुल मिलाकर आर्कटिक क्षेत्र की भू-राजनीति की वजह से जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए सामूहिक प्रयास बेहद आवश्यक हो गए हैं. जलवायु के संरक्षण के लिए एकजुटता भरा रवैया अपनाने से आर्कटिक क्षेत्र के भागीदार देश इन जटिलताओं से पार पा सकेंगे और आर्कटिक क्षेत्र ही नहीं पूरी धरती के लिए स्थायी भविष्य को सुरक्षित किया जा सकेगा.
The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.