Author : Jayant Sinha

Published on Nov 23, 2021 Updated 0 Hours ago

आने वाले दशक में विकास और समृद्धि हासिल करने के लिए हरित बदलाव को ध्यान में रखते हुए अपने विकास मॉडल में सुधार करना बेहद ज़रूरी है.

भारत का निर्णायक दशक

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यह लेख हमारी निबंध श्रृंखला – शेपिंग आवर ग्रीन फ्यूचर: पाथवेज़ एंड पॉलिसीज़ फॉर नेट ज़ीरो ट्रांसफॉर्मेशन का हिस्सा है.


प्रस्तावना

कोरोना महामारी के धीमे पड़ने के साथ ही अर्थव्यवस्था की गिरी हुई सेहत तेज़ी से सुधर रही है, ऐसे में भारत के विकास एजेंडे को अब दो महत्त्वपूर्ण क्षेत्रों की ओर ध्यान देना होगा: जलवायु परिवर्तन एवं रोजगार सृजन. इन दो लक्ष्यों की पूर्ति के लिए अगला दशक निर्णायक सिद्ध होगा. पहले लक्ष्य के लिए लिए आवश्यक है कि हम जीवाश्म ईंधन आधारित ऊर्जा स्रोतों पर अपनी निर्भरता पूरी तरह समाप्त करते हुए, आर्थिक गतिविधियों को मौसम के नए बिगड़ते पैटर्न के अनुकूल बनाना होगा. वहीं दूसरे लक्ष्य से जुड़ी तात्कालिकता भारत के युवाओं के लिए हर साल उच्च गुणवत्ता वाली लाखों नौकरियों के सृजन की जरूरत को रेखांकित करती है. भारत को अपने युवाओं के लिए रोज़गार के साधन उपलब्ध कराने की जरूरत है, जबकि उसके साथ ही ‘डीकार्बोनाइज़ेशन (यह वातावरण में कार्बन उत्सर्जन को कम करने की प्रक्रिया है, विशेष रूप से CO2 के उत्सर्जन को कम करना)’ की तरफ़ हमें तेज़ी से मुड़ना होगा. इन चुनौतियों का सामना करने में अगर हम नाकाम रहे तो इसका परिणाम विनाशकारी होगा, जहां बड़े स्तर पर प्रवासी गतिविधियां शहरों के लिए असंतुलनकारी सिद्ध होंगी और सामाजिक स्तर पर वर्ग संघर्ष बढ़ेगा. आने वाले सालों में भारत द्वारा उठाए गए कदम ये तय करेंगे कि के उसका विकास मॉडल सतत रूप से सभी के लिए  होगा? चुनाव कठिन हैं, लेकिन उसके परिणाम प्रबल हैं.

भारत कीडीकार्बोनाइज़ेशनसे जुड़ी यात्रा

बड़े स्तर पर डीकार्बोनाइज़ेशन यानी कार्बन उत्सर्जन की मात्रा को कम करने की कोशिशों से जुड़ी नीतियों को अपनाना स्थायी समृद्धि के लक्ष्य के लिए महत्त्वपूर्ण है. भारत अन्य देशों की तुलना में 2015 के पेरिस समझौते से जुड़े कार्बन लक्ष्यों को पूरा करने की दिशा में बेहतर स्थिति में है. जीडीपी के आधार पर भारत में कार्बन उत्सर्जन की मात्रा को देखें तो 2005 के स्तर की तुलना में 39 फीसदी की गिरावट दर्ज की गई है जबकि समझौते के अनुसार 2030 तक 33 से 35 प्रतिशत गिरावट का लक्ष्य रखा गया था. हालांकि भारत की जीडीपी तेज़ी से बढ़ रही है और कई अध्ययनों ने ये दर्शाया है कि भारत में ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन लगातार बढ़ता जा जायेगा और 2050 तक उसका उत्सर्जन 6 से 8 अरब टन कार्बन उत्सर्जन के बराबर होगा.[i]

जीडीपी के आधार पर भारत में कार्बन उत्सर्जन की मात्रा को देखें तो 2005 के स्तर की तुलना में 39 फीसदी की गिरावट दर्ज की गई है जबकि समझौते के अनुसार 2030 तक 33 से 35 प्रतिशत गिरावट का लक्ष्य रखा गया था.

अंतर-सरकारी जलवायु परिवर्तन पैनल (इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज: आईपीसीसी) का कहना है कि वैश्विक औसत तापमान में पूर्व-औद्योगिक स्तरों की तुलना में 1.5 डिग्री सेल्सियस से अधिक की वृद्धि को रोकने के लिए ये आवश्यक है कि दुनिया को 2050 तक नेट ज़ीरो कार्बन के लक्ष्य तक पहुंचना होगा यानी कार्बन उत्सर्जन शून्य करना होगा. संयुक्त राज्य अमेरिका सहित सौ से अधिक देशों ने 2050 तक नेट ज़ीरो कार्बन के लक्ष्य के लिए हामी भरी है. चीन ने घोषणा की है कि वह 2060 तक नेट ज़ीरो के लक्ष्य तक पहुंचेगा. इस वैश्विक लक्ष्य तक पहुंचने के लिए भारत को अपने वर्तमान विकास मॉडल में पूर्ण रूप से परिवर्तन करते हुए डीकार्बोनाइज़ेशन के लिए अनुकूलित मॉडल को अपनाना होगा. वर्तमान में भारत प्रतिसाल 3.5 अरब टन कार्बन समतुल्य ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन करता है, जिसमें कृषि आधारित गतिविधियों से हुए उत्सर्जन का हिस्सा 1 अरब टन है. इसलिए, भारत को या तो कम कार्बन उत्सर्जन आधारित अर्थव्यवस्था को अपनाना होगा, जो प्रति साल 3 से 4 अरब टन कार्बन उत्सर्जन पर स्थिर रहे या फिर उसे 2050 तक नेट ज़ीरो कार्बन के महत्त्वाकांक्षी लक्ष्य को पूरा करने की दिशा में काम करना होगा. भारत के पास ये सुविधा है कि वह नेट ज़ीरो कार्बन के अपने लक्ष्य को 2050 की बजाय 2060 तक हासिल कर सकता है. वास्तव में 2047 यानी आज़ादी के सौवें साल तक नेट ज़ीरो कार्बन लक्ष्य को हासिल करना कहीं बड़ी और प्रेरणादायी उपलब्धि होगी.

नेट ज़ीरो कार्बन का लक्ष्य और दिशा

नेट ज़ीरो कार्बन के लक्ष्य को हासिल करने के लिए आवश्यक है कि कानूनी रूप से बाध्यकारी एक समय सीमा का निर्धारण किया जाए. ऐसे किसी लक्ष्य को संसद में पारित करने के बाद, 2050 तक नेट ज़ीरो कार्बन के लक्ष्य को हासिल करने के लिए सभी मंत्रालयों और राज्य सरकारों को अपने अधिकार क्षेत्रों से जुड़े वार्षिक कार्बन बजटों को परिभाषित करना होगा. कार्बन उत्सर्जन में तीव्र बढ़ोतरी और उसके बाद उसमें नाटकीय गिरावट को सुनिश्चित करने के लिए समन्वित नीतियों और कार्रवाईयों की जरूरत है. इसके अलावा, एक बार लक्ष्य निर्धारित हो जाने के बाद केंद्र और राज्य सरकारों को इसकी निगरानी और अनुपालन के लिए आवश्यक क्षमता में तेज़ी से विकास करना होगा. भारत को 21वीं सदी के मध्य तक नेट ज़ीरो के लक्ष्य को पूरा करने के लिए खरबों डॉलर का हरित निवेश करना होगा. कानूनी रूप से बाध्यकारी नेट ज़ीरो लक्ष्य और सहायक सरकारी नीतियां एक साथ मिलकर हरित प्रौद्योगिकियों और उपकरणों में भारी निवेश का कारण बन सकती हैं. जिसके परिणामस्वरूप बिजली उत्पादन, आवागमन, निर्माण, रियल स्टेट, कृषि, सीमेंट, स्टील और कई अन्य उद्योगों का पूरी तरह कायाकल्प हो जायेगा. गौरतलब है कि निजी क्षेत्रों द्वारा नियंत्रित इन सभी उद्योगों में ये परिवर्तन निजी क्षेत्रों की पूंजी द्वारा ही संचालित किया जायेगा.

वास्तव में, अगर भारत पर्याप्त वैश्विक पूंजी को आमंत्रित करने में सफ़ल हो जाता है तो विकास एवं उत्सर्जन दर में कमी की बाध्यता के बीच किसी क़िस्म का समझौता नहीं होता. 

बड़े स्तर पर किया गया हरित निवेश आर्थिक विकास को तीव्र गति प्रदान करते हुए उच्च गुणवत्ता वाली नौकरियों का सृजन करेगा. वास्तव में, अगर भारत पर्याप्त वैश्विक पूंजी को आमंत्रित करने में सफ़ल हो जाता है तो विकास एवं उत्सर्जन दर में कमी की बाध्यता के बीच किसी क़िस्म का समझौता नहीं होता. इसके अलावा, हरित निवेश के लिए आवश्यक है कि भारतीय उद्योग सबसे अधिक प्रतिस्पर्धी, उन्नत प्रौद्योगिकियों और व्यवसाय मॉडल में निवेश करें, जो न सिर्फ भारत को ग्रीन फ्रंटियर (दीर्घकालिक और स्थाई समृद्धि) के रूप स्थापित कर सकता है बल्कि उसे बनाए रखने में भी मदद कर सकता है.

कूटनीतिक रूप से देखा जाए तो 21वीं सदी के मध्य तक कानूनी रूप से बाध्यकारी नेट ज़ीरो लक्ष्य को पूरा करके भारत वैश्विक स्तर पर अपनी साख को मजबूत कर सकता है और जिसके कारण बड़े स्तर पर सहयोगी प्रौद्योगिकी हस्तांतरण और वैश्विक व्यापार समझौतों को बल मिलेगा. इसके अलावा, वैश्विक पूंजी के लिए भारत की हरित निवेश के लिए एक अनुकूल राष्ट्र में छवि मज़बूत होगी. निवेश जोखिम को कम करने और वैश्विक पूंजी को आकर्षित करने के लिए एक स्थिर सरकारी ढांचे के साथ-साथ स्पष्ट नीतिगत कार्रवाईयों की आवश्यकता होगी.

कम कार्बन उत्सर्जन की दिशा

नेट ज़ीरो कार्बन आधारित इस महत्त्वाकांक्षी परिवर्तन के विपरीत, भारत कम कार्बन उत्सर्जन वाले एक विकासशील ढांचे का भी चुनाव कर सकता है. पेरिस समझौते के अतिरिक्त जलवायु परिवर्तन पर अन्य सभी अंतर्राष्ट्रीय समझौते वैश्विक स्तर पर हरित परिवर्तन के लिए समान लेकिन सकारात्मक विभेद आधारित जिम्मेदारियों की बात करते हैं, जहां विकासशील देशों की तुलना में धनी देशों पर इसकी जवाबदेही ज्यादा है. कूटनीतिक रूप से देखें तो भारत 2050 तक नेट ज़ीरो कार्बन उत्सर्जन का लक्ष्य हासिल करने के लिए बाध्य नहीं है; बल्कि इसे लेकर वो लचीला रुख अपना सकता है. 2030 तक कार्बन उत्सर्जन के चरम पर पहुंचने के बजाय, भारत 2050 या 2060 में कार्बन उत्सर्जन के उच्चतम स्तर तक पहुंच सकता है. उसके बाद स्थिर कार्बन उत्सर्जन दर को बनाए रखते हुए भारत 2080 तक (या उसके बाद तक) कम कार्बन उत्सर्जन की ओर बढ़ना शुरू कर सकता है.

अतीत में, डीकार्बोनाइज़ेशन आधारित अधिकांश विकास मॉडल के केंद्र में केवल ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन और उनमें कम करने से जुड़ी नीतियां ही रही हैं. 

कम कार्बन उत्सर्जन की दिशा में, भारत हर क्षेत्र के लिए स्पष्ट लक्ष्य तय कर सकता है. उदाहरण के लिए सौर ऊर्जा के लिए 450 गीगावाट के लक्ष्य या भवन दक्षता मानकों को तय करना. इनके कारण प्रति यूनिट जीडीपी पर कार्बन उत्सर्जन की तीव्रता में धीरे-धीरे कमी आएगी. डीकार्बोनाइज़ेशन से जुड़ा विकास मार्ग निजी क्षेत्र को उनकी निवेश योजनाओं के लिए एक स्पष्ट निर्देश प्रदान कर सकता है, और भारत कोयले से चलने वाले बिजली संयंत्रों और डीजल ट्रकों जैसे कई उच्च कार्बन स्रोतों को बंद करने की दिशा में धीमी गति से आगे बढ़ सकता है. निवेश आवश्यकताओं में कमी के साथ, भारत धीरे-धीरे कोयला खनन और इस्पात उत्पादन जैसे उच्च कार्बन उद्योगों में शामिल लोगों को धीरे-धीरे प्रतिस्थापित करने में सक्षम होगा.

डीकार्बोनाइज़ेशन आधारित विभिन्न विकास मॉडल

डीकार्बोनाइज़ेशन से जुड़ा कौन सा मॉडल भारत के लिए बेहतर होगा? अलग- अलग डीकार्बोनाइज़ेशन आधारित विकास प्रणालियों का मूल्यांकन करने के लिए विस्तृत ऊर्जा प्रणालियों और आर्थिक मॉडलिंग की आवश्यकता होती है. अतीत में, डीकार्बोनाइज़ेशन आधारित अधिकांश विकास मॉडल के केंद्र में केवल ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन और उनमें कम करने से जुड़ी नीतियां ही रही हैं. हालांकि, भारत के लिए उसके आर्थिक प्रभावों को समझना भी ज़रूरी है. डीकार्बोनाइज़ेशन आधारित विकास मॉडलों के कारण देश की जीडीपी (सकल घरेलू उत्पाद) किस तरह प्रभावित होगी? अलग-अलग क्षेत्रों में नौकरियां कैसे प्रभावित होंगी? सरकारी करों और राजस्व पर क्या प्रभाव पड़ेगा? क्या भारत के भुगतान संतुलन में सुधार होगा? किन क्षेत्रों में निवेश की आवश्यकता होगी, निवेश का आकार कितना बड़ा होना चाहिए और इसकी समयसीमा क्या होगी? क्या हाइड्रोकार्बन के उत्सर्जन में कमी से वायु प्रदूषण में कमी आयेगी? अगले एक दशक में डीकार्बोनाइज़ेशन के लिए भारत की रणनीति क्या होनी चाहिए? ये कुछ महत्त्वपूर्ण सवाल हैं, जो भारत द्वारा सतत एवं समावेशी आर्थिक विकास का लक्ष्य हासिल करने और उसे समझने के लिए ज़रूरी हैं.

पिछले कुछ सालों में, तीन स्वतंत्र विशेषज्ञ समूहों (विश्व संसाधन संस्थान, द क्लाइमेट पॉलिसी लैब एट द फ्लेचर स्कूल एट टफ्ट्स यूनिवर्सिटी, और कैंब्रिज इकोनोमेट्रिक्स इन कैंब्रिज, यूके) ने भारत के लिए डीकार्बोनाइज़ेशन आधारित विभिन्न मॉडलों का मूल्यांकन किया है. इन विशेषज्ञ समूहों ने विस्तृत ऊर्जा मॉडलों का निर्माण किया है और उन्हें इनपुट-आउटपुट आधारित मैक्रोइकोनॉमिक्स मॉडलों के साथ एकीकृत किया है. उन्होंने इन मॉडलों की वास्तविक ऐतिहासिक आंकड़ों के साथ जांच की है ताकि अलग अलग-स्तरों पर अनुकूल परिणाम हासिल किए जा सकें.[ii] हालांकि, ऐसे दीर्घकालिक मॉडल का उपयोग पूर्वानुमान लगाने या मजबूत भविष्यवाणियां करने के लिए नहीं किया जाता है. बल्कि, इसके बजाय, उनका उद्देश्य यह बताना है कि ऊर्जा के उपयोग, ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन, परिवहन संसाधन, औद्योगिक विकास, रोजगार सृजन, और सार्वजनिक और निजी क्षेत्र के निवेश जैसे कई आयामों के आपसी संबंधों को देखते हुए भविष्य में किस तरह की परिस्थितियां खड़ी हो सकती हैं. कई दशकों तक इन क्षेत्रों के बीच आपसी संबंधों को लेकर किसी तरह के अनुमान नहीं लगाए जा सकते, लेकिन विभिन्न संभावनाओं को समझने के दृष्टिकोण से ये महत्त्वपूर्ण है. इसके अलावा, ऐसी कई प्रतिकूल परिस्थितियां हैं, जिसके आश्चर्यजनक परिणाम हो सकते हैं और उन्हें समझने में ये मॉडल सहयोग करते हैं. उदाहरण के लिए, अगर वायु प्रदूषण से जुड़ी स्वास्थ्य लागत कम होती है, तो जीडीपी दर में वृद्धि दर्ज की जा सकती है.

डीकार्बोनाइज़ेशन से जुड़े प्रमुख नीतिगत परिवर्तन

अब तक किए गए तमाम अध्ययनों में विभिन्न डीकार्बोनाइज़ेशन मॉडलों की जांच की गई है. प्रत्येक कम कार्बन उत्सर्जन आधारित मॉडल (जिसमें नेट ज़ीरो कार्बन मॉडल भी शामिल है) की तुलना एक संदर्भ परिदृश्य के साथ की गई है, जिसके कुछ अपने विशिष्ट गुण (या वेरिएबल) हैं. सबसे महत्त्वपूर्ण बात है कि इसमें भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए कोरोना महामारी से पूर्व आर्थिक वृद्धि दरों को आधार माना गया है. इसलिए, इस परिदृश्य में भारतीय अर्थव्यवस्था का आकार 2020 से लेकर 2050 तक 5 प्रतिशत की चक्रवृद्धि वार्षिक वृद्धि दर के साथ बढ़कर लगभग 150 खरब अमेरिकी डॉलर (डॉलर की विनिमय दर का आधार साल 2018 है) हो जाता है. इस परिदृश्य में मानकर चला गया है कि इस बीच अब कोई दूसरी वैश्विक महामारी नहीं आयेगी, जलवायु परिवर्तन का कोई प्रभाव नहीं होगा, और कोई विपरीत वैश्विक परिस्थितियां (जैसे आर्थिक मंदी या युद्ध) नहीं जन्म लेंगी. फिर भी, पिछले कुछ दशकों में, भारत ने कई वैश्विक संकटों और आर्थिक मंदी का सामना किया है.

यूरोपीय संघ ने प्रस्तावित किया है कि 2035 के बाद वो केवल शून्य-उत्सर्जन आधारित वाहनों की बिक्री की अनुमति देगा. भारत उस साल ये तय कर सकता है कि वह आवागमन के लिए सौ फीसदी इलेक्ट्रिक या जैव ईंधन या हरित हाइड्रोजन आधारित वाहनों को अनिवार्य कर रहा है

इसके अलावा, भले ही इस परिदृश्य में उन सभी हरित नीतियों को शामिल किया गया है, जिसकी भारत सरकार पहले ही घोषणा कर चुकी है, इसके बावजूद 2050 तक भारत 7 अरब टन कार्बन अनुकूलित ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन करेगा, और उत्सर्जन की दर चरम पर पहुंच कर घटने की बजाय प्रति साल बढ़ती जायेगी. अक्षय ऊर्जा स्रोतों के जरिए बिजली उत्पादन की दर बढ़कर कुल उत्पादन का 69% हो जायेगी. सौर ऊर्जा आधारित बिजली उत्पादन क्षमता बढ़कर 430 गीगावाट हो जाती है, लेकिन कोयला आधारित बिजली संयंत्र अभी भी 200 गीगावॉट पर स्थिर हैं. नई बिक्री में इलेक्ट्रिक वाहनों की हिस्सेदारी करीब 30-35 फीसदी है।

नीतिगत हस्तक्षेपों के प्रभाव का मूल्यांकन करने के लिए, बड़े स्तर पर कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन कम करने (डीकार्बोनाइज़ेशन) से जुड़ी प्रौद्योगिकी लागत को सामान्य परिदृश्य में प्रौद्योगिकी पर किए गए निवेश के बराबर रखा गया है. यह भी निवेश की आवश्यकता के दृष्टिकोण से एक रूढ़िवादी धारणा हो सकती है. हरित प्रौद्योगिकियों को और अधिक तेज़ी से अपनाने से अर्थव्यवस्थाओं का आकार (स्केल, लर्निंग एंड नेटवर्क इफेक्ट्स: लागत प्रभाव, डाटा और नेटवर्क प्रभाव) बढ़ने की संभावना होगी, जिसके कारण संदर्भ परिदृश्य की तुलना प्रौद्योगिकी लागत और भी कम हो जायेगी. लागत में गिरावट होने का परिणाम सकारात्मक होगा और हरित प्रौद्योगिकियों के बाज़ार में तेज उछाल दर्ज किया जायेगा. हालांकि इन द्वितीयक प्रभावों को इन अध्ययनों में शामिल नहीं किया गया है.

ये मॉडल हमें दर्शाते हैं कि भारत में डीकार्बोनाइज़ेशन की गति तेज़ करने के लिए (जिसमें नेट ज़ीरो कार्बन के परिदृश्य को भी शामिल किया गया है) चार प्रमुख नीतिगत परिवर्तनों की आवश्यकता है. सबसे पहले, बिजली उत्पादन प्रणाली में परिवर्तन करते हुए उसे केवल नवीकरणीय स्रोतों पर निर्भर बनाना होगा. वर्तमान में, भारत में 40 प्रतिशत कार्बन उत्सर्जन ताप विद्युत केंद्रों द्वारा किया जाता है. आने वाले कुछ दशकों में, भारत को नए कोयला संयंत्रों का निर्माण रोकना होगा और साथ ही मौजूदा ताप विद्युत संयंत्रों को बंद करना होगा. इसके अलावा, बड़े पैमाने पर बिजली के भंडारण और उसकी दूरस्थ निष्कासन के लिए, उत्पादन प्रणाली के साथ-साथ उसकी ट्रांसमिशन और वितरण प्रणालियों को फिर से तैयार करना होगा.

दुनिया भर में कार्बन-मूल्य निर्धारण प्रक्रिया को बदलकर सकारात्मक विभेदीकरण के सिद्धांत पर आधारित किया जा सकता है ताकि सबसे पहले भारत एवं अन्य विकासशील देशों में डीकार्बोनाइज़ेशन प्रौद्योगिकियों में निवेश करने के लिए बाज़ार प्रोत्साहन को सुनिश्चित किया जा सके 

दूसरा, भारत को पेट्रोल और डीजल वाहनों को शून्य-उत्सर्जन वाहनों में बदलने संबंधी नीतिगत फैसला लेना पड़ सकता है. यूरोपीय संघ ने प्रस्तावित किया है कि 2035 के बाद वो केवल शून्य-उत्सर्जन आधारित वाहनों की बिक्री की अनुमति देगा. भारत उस साल ये तय कर सकता है कि वह आवागमन के लिए सौ फीसदी इलेक्ट्रिक या जैव ईंधन या हरित हाइड्रोजन आधारित वाहनों को अनिवार्य कर रहा है, लेकिन ये फैसला जल्दी लिया जाना चाहिए ताकि वाहन-निर्माता कंपनियों को इस परिवर्तन के लिए आवश्यक तैयारी और योजना के लिए समय मिल सके. वर्तमान में, फेम (इलेक्ट्रिक वाहनों का तेज़ी से विनिर्माण और उपयोग) और पीएलआई (प्रोडक्शन लिंक्ड इंसेंटिव) योजना भले ही अच्छी हों, लेकिन बड़े स्तर पर डीकार्बोनाइज़ेशन के लिए, इससे भी कहीं तेज गति से परिवर्तन की आवश्यकता है. वर्तमान में उपलब्ध प्रौद्योगिकी के अनुसार बड़े वाणिज्यिक वाहनों और हवाई जहाजों को या तो जैव ईंधन या हरित हाइड्रोजन की ज़रूरत होगी.

तीसरा, जीवाश्म ईंधन के औद्योगिक और वाणिज्यिक उपयोग (सीमेंट, स्टील और उर्वरक उद्योगों में) को कार्बन उत्सर्जन व्यापार प्रणाली (कार्बन एमिशन ट्रेडिंग सिस्टम) के माध्यम से धीरे-धीरे प्रतिबंधित करना होगा. ऐसी प्रणाली के तहत, हर कंपनी (मान लीजिए जिसका राजस्व 250 करोड़ से अधिक है) को जलवायु पर प्रभाव संबंधी पूरी जानकारी देनी पड़ेगी और उन्हें कार्बन उत्सर्जन संबंधी एक अनुमति पत्र दिया जायेगा, जिसके तहत उन्हें अपने कार्बन उत्सर्जन को एक निश्चित सीमा के भीतर रखना होगा. अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय रिपोर्टिंग मानक (IFRS) पहले से ही इस दिशा में काम कर रहा है. यूरोप ने हमें ये दिखाया है कि ये हर कंपनी को एक निश्चित कार्बन क्रेडिट/भत्ता (कार्बन एलाउंस) देकर और फिर धीरे-धीरे इस भत्ते को कम करके इसे लागू किया जा सकता है. कंपनियां या तो जीवाश्म ईंधन के उपयोग में कटौती करना शुरू कर सकती हैं या ऐसी अन्य कंपनियों के साथ समझौता कर सकती हैं, जिनके पास अधिशेष कार्बन उत्सर्जन क्रेडिट है. इसके अलावा, कार्बन सीमा करों से बचने के लिए भारत की कार्बन व्यापार प्रणाली को यूरोपीय संघ और अन्य देशों के अनुरूप ढालना होगा. दुनिया भर में कार्बन-मूल्य निर्धारण प्रक्रिया को बदलकर सकारात्मक विभेदीकरण के सिद्धांत पर आधारित किया जा सकता है ताकि सबसे पहले भारत एवं अन्य विकासशील देशों में डीकार्बोनाइज़ेशन प्रौद्योगिकियों में निवेश करने के लिए बाज़ार प्रोत्साहन को सुनिश्चित किया जा सके. जिसके परिणामस्वरूप डीकार्बोनाइज़ेशन के लिए वित्तीय प्रवाह की दिशा को विकासशील देशों की ओर मोड़ा जा सकता है, जो कि समान लेकिन सकारात्मक विभेद आधारित जवाबदेही के जलवायु न्याय सिद्धांत के अनुकूल है. कार्बन मूल्य निर्धारण और कार्बन उत्सर्जन व्यापार की वैश्विक प्रणाली को आयत करों एक साथ जोड़ना होगा ताकि सभी देशों के लिए समान अवसर उपलब्ध किए जा सकें.

अध्ययनों ने हमें ये दर्शाया है कि डीकार्बोनाइज़ेशन से जुड़े परिदृश्य संदर्भ परिदृश्य की तुलना में सकल घरेलू उत्पाद में प्रति साल एक से चार प्रतिशत की वृद्धि करते हैं

आख़िर में, भारत को अपने कार्बन टैक्स का पुनर्गठन करना होगा. वर्तमान में, केंद्र और राज्य सरकार मिलकर पेट्रोल, डीजल, विमानन ईंधन, प्राकृतिक गैस और कोयले पर खरबों रुपए टैक्स ले रहे हैं. इसके साथ ही, यात्री किराए में छूट देने के लिए भारतीय रेलवे ने कोयले की ढुलाई का शुल्क काफ़ी ज्यादा बढ़ा दिया है. इन विभिन्न करों और शुल्कों ने बाज़ार की हालत काफ़ी खस्ता कर दी है. अगले कुछ सालों में, ईंधन करों को जीएसटी ढांचे के भीतर लाया जाना चाहिए, और राजस्व तटस्थता सुनिश्चित करते हुए कराधान को युक्तिसंगत बनाया जाना चाहिए. दीर्घकालिक रूप से देखें, तो जैसे ही इन ईंधनों का उपयोग घटेगा, टैक्स संग्रहण में भी कमी आयेगी और राजस्व तटस्थता को सुनिश्चित करने के लिए कार्बन टैक्स के स्तर को धीरे-धीरे बढ़ाना होगा. इसलिए कार्बन टैक्स को वैश्विक कार्बन-व्यापार प्रणाली के साथ भी जोड़ना होगा

जैसे-जैसे भारत नेट ज़ीरो कार्बन की ओर बढ़ेगा, हाइड्रोकार्बन उत्पादों का आयात[iii] भी घटेगा, जिससे ऊर्जा सुरक्षा में सुधार होगा. कोयला भारत का सबसे प्रमुख जीवाश्म ईंधन है. जैसे-जैसे कोयला संयंत्र बंद होंगे और उसके व्यापार से जुड़े लोग इस क्षेत्र से बाहर जाने लगेंगे, कोयले का उपयोग अपने आप गिरने लगेगा. भारत के पास कोयले पर अपनी निर्भरता को दूर करने के लिए अभी कुछ दशक बाकी हैं, ऐसे में भारत इस उद्योग में लगे हुए सभी प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष कर्मचारियों की आजीविका संबंधी सुरक्षा सुनिश्चित कर सकता है. सौर ऊर्जा, स्वास्थ्य, कपड़ा, कृषि प्रसंस्करण और ऐसे ही अन्य उद्योगों की स्थापना के जरिए विस्थापित कर्मचारियों/श्रमिकों को जरूरी रोज़गार मुहैया कराए जा सकते हैं. इसके अलावा, कोयला खनन से जुड़े सभी नकारात्मक प्रभावों जैसे प्राकृतिक आवासों का विनाश, प्रदूषण और अपराध, पारंपरिक व्यवसायों का विनाश आदि पर रोक लगाई जा सकेगी.

संभावनाओं का द्वार है नेट ज़ीरो कार्बन लक्ष्य

अब तक किए गए सभी अध्ययन इस बात की पुष्टि करते हैं कि भारत के लिए डीकार्बोनाइज़ेशन से जुड़े सभी परिदृश्य संदर्भ परिदृश्य तुलना में कहीं बेहतर हैं. जैसा कि पहले कहा जा चुका है, डीकार्बोनाइज़ेशन से जुड़े इन परिदृश्यों में ये नहीं माना गया है कि संदर्भ परिदृश्य की तुलना में डीकार्बोनाइज़ेशन से जुड़े परिदृश्यों में हरित प्रौद्योगिकियों में कोई सुधार होता है.

हरित प्रौद्योगिकियों पर आधारित सबसे नए और विकसित उद्योग (जैसे सोलर बैटरी, इलेक्ट्रिक वाहन, प्लांट प्रोटीन और जैव ईंधन) ही ग्रीन फ्रंटियर को निर्धारित करेंगे, जो दुनिया में सबसे कुशल और प्रतिस्पर्धी कंपनियों का प्रतिनिधित्व करते हैं. 

इन परिदृश्यों में विभिन्न हरित प्रौद्योगिकियों की लागत को स्थिर रखा गया है; केवल मूल्य निर्धारण (विभिन्न कराधान नीतियों के माध्यम से) और उपयोग (प्रतिबंधों और छूट के माध्यम से) संबंधी बदलाव किए गए हैं. ये बदलाव अर्थव्यवस्था में प्रौद्योगिक परिवर्तन के लिए पर्याप्त हैं, जिससे कार्बन उत्सर्जन में भारी कमी आती है.[iv] ये उत्सर्जन अध्ययन में ली गई समयसीमा के भीतर वर्तमान के स्तर पर बने रहते हैं.

भारत के लिए डीकार्बोनाइज़ेशन का हर परिदृश्य, जिसमें भारत के कार्बन उत्सर्जन में कटौती करने से लेकर 2050 तक नेट ज़ीरो कार्बन के लक्ष्य तक सभी परिदृश्य शामिल हैं, संदर्भ परिदृश्य की तुलना में बेहतर परिणाम देता है. जिसमें जीडीपी, रोजगार सृजन, अर्थव्यवस्था में निवेश में वृद्धि और ऊर्जा आयातों में कमी दर्ज की गई है. इसके साथ ही वायु प्रदूषण से होने वाली मौतों की संख्या में भी भारी कमी आती है. इसका आर्थिक पहलू काफ़ी सरल है. हरित प्रौद्योगिकियां अब जीवाश्म ईंधन आधारित प्रौद्योगिकियों की तुलना में अधिक लागत प्रभावी हैं. हरित प्रौद्योगिकियों में भारी निवेश स्वाभाविक रूप से उच्च जीडीपी दर, अधिक रोज़गार-सृजन ऊर्जा आयातों में कमी जैसे परिणामों के साथ-साथ कार्बन उत्सर्जन और वायु प्रदूषण में कमी जैसी उल्लेखनीय उपलब्धियों को जन्म देगा.

अध्ययनों ने हमें ये दर्शाया है कि डीकार्बोनाइज़ेशन से जुड़े परिदृश्य संदर्भ परिदृश्य की तुलना में सकल घरेलू उत्पाद में प्रति साल एक से चार प्रतिशत की वृद्धि करते हैं. यहां तक कि रोज़गार सृजन में भी संदर्भ परिदृश्य की तुलना 5 से 8 प्रतिशत की वृद्धि होती है. अगले 30 सालों में 50 लाख से एक करोड़ लोगों की जान वायु प्रदूषण से बचाई जा सकती है.

इसके साथ ही, भारत के ऊर्जा आयात में कमी लाते हुए हर साल सैकड़ों अरब डॉलर की बचत होती है, क्योंकि जीवाश्म ईंधन को अक्षय ऊर्जा, हरित हाइड्रोजन और जैव ईंधन द्वारा प्रतिस्थापित किया जाता है. इन लक्ष्यों को हासिल करने के लिए भारत को प्रतिसाल 5 से 10 अरब अमेरिकी डॉलर का अतिरिक्त निवेश करना पड़ेगा. ये निवेश तब 2030 तक बढ़कर प्रति साल 20-50 अरब अमेरिकी डॉलर हो जाते हैं. संदर्भ परिदृश्य की तुलना में निवेश के स्तर में बढ़ोतरी केवल 2030 के दशक में शुरू होती है, जब परिवहन बेड़े को इलेक्ट्रिक वाहनों से बदला जाता है. अंततः, नेट ज़ीरो कार्बन परिदृश्य का परिणाम ये दर्शाता है कि भारत को 2050 तक शून्य उत्सर्जन दर हासिल करने के लिए प्रति साल जीडीपी का 3 प्रतिशत और निवेश करना होगा.

अगले कुछ दशकों में, भारत को ग्रीन फ्रंटियर देशों में शामिल होने के लिए खरबों डॉलर की वाणिज्यिक पूंजी, अरबों डॉलर की प्रभाव पूंजी और सैकड़ों अरबों डॉलर के सार्वजनिक धन की आवश्यकता होगी. इतने बड़े स्तर पर धन जुटाने के लिए भारत को घरेलू और अंतर्राष्ट्रीय सभी स्तरों पर निवेश को आकर्षित करना होग

इन अध्ययनों ने ये सिद्ध किया है कि हरित प्रौद्योगिकियां जीवाश्म ईंधनों की तुलना में अर्थव्यवस्था में उच्च उत्पादन का स्तर बनाए रखते हुए कहीं अधिक लागत प्रभावी होती हैं. इस बात को नोट करने की जरूरत है कि भारत की प्रतिद्वंदी अर्थव्यवस्थाएं हरित उद्योगों में भारी भरकम निवेश करेंगी; वास्तव में जर्मनी, अमेरिका और चीन में पहले ही हरित परिवर्तन की शुरुआत हो चुकी है. हरित प्रौद्योगिकियों पर आधारित सबसे नए और विकसित उद्योग (जैसे सोलर बैटरी, इलेक्ट्रिक वाहन, प्लांट प्रोटीन और जैव ईंधन) ही ग्रीन फ्रंटियर को निर्धारित करेंगे, जो दुनिया में सबसे कुशल और प्रतिस्पर्धी कंपनियों का प्रतिनिधित्व करते हैं. भारत को भी इस ग्रीन फ्रंटियर में शामिल होना होगा क्योंकि न सिर्फ ये इसकी अर्थव्यवस्था के डीकार्बोनाइज़ेशन में मदद करेगा बल्कि अन्य प्रमुख अर्थव्यवस्थाओं के साथ प्रतिस्पर्धा में भी सहयोग करेगा. इसलिए, डीकार्बोनाइज़ेशन का रास्ता न सिर्फ भारत की अर्थव्यवस्था और स्वास्थ्य के लिए बेहतर है बल्कि विश्व व्यापार एवं राजनीति में प्रतिस्पर्धा के लिए भी आवश्यक है. नेट ज़ीरो कार्बन का सपना भारत के लिए नई संभावनाओं का द्वार है.

नेट ज़ीरो कार्बन लक्ष्य के लिए आवश्यक वित्तपोषण

अगले कुछ सालों में भारत के कुल निवेश का बड़ा हिस्सा डीकार्बोनाइज़ेशन प्रक्रिया को गति प्रदान करने के लिए खर्च किया जायेगा. उदाहरण के लिए, अंतरराष्ट्रीय ऊर्जा संघ (आईईए) का अनुमान है कि अगले दो दशकों में भारत को केवल हरित ऊर्जा प्रौद्योगिकियों में ही करीब 14 खरब अमेरिकी डॉलर का निवेश करना पड़ेगा. अगर इसे संदर्भ के साथ देखें तो वित्तीय साल 2021 में भारत की कुल जीडीपी 27 खरब अमेरिकी डॉलर है. हाल ही में उद्घोषित प्रधानमंत्री गतिशक्ति निवेश योजना का आकार 100 लाख करोड़ रुपए (या लगभग 13 खरब अमेरिकी डॉलर) है.

व्यावसायिक पूंजी ही वैश्विक अर्थव्यवस्था का इंजन है और इसका आकार सार्वजनिक पूंजी या प्रभाव पूंजी (इंपैक्ट कैपिटल, ऐसी पूंजी जिसका विभिन्न कंपनियों, संस्थाओं या परियोजनाओं में इस आधार पर निवेश किया जाता है कि वह पूंजी सामाजिक या पर्यावरण संबंधी परिवर्तन में सहायक होने के साथ-साथ निवेश पर उच्च लाभ भी देगी.) की तुलना में कई गुना ज्यादा है. इसलिए, बड़े बाजारों को ढूंढ़ने और वहां टिकने यानी उच्च लाभ दर पैदा करने के लिए हरित निवेशों को पारंपरिक निवेशों (जो हरित ऊर्जा पर आधारित नहीं हैं) से कड़ी प्रतिस्पर्धा करनी होगी. आमतौर पर, जब कोई नई और आकर्षक तकनीक बाज़ार में प्रवेश करती है, तो वाणिज्यिक निवेशक उसमें निवेश के लिए कड़ी प्रतिस्पर्धा करते हैं क्योंकि उन्हें ये उम्मीद होती है कि समय के साथ उस तकनीक की लागत में नाटकीय गिरावट आएगी. जिसके कारण वो तकनीक बाज़ार में टिक पाती है और निवेशकों को उच्च लाभ की गारंटी देती हैं. आविष्कारकों और इंजीनियरों की कड़ी मेहनत का लाभ हरित प्रौद्योगिकियों को मिल रहा है.

ग्रीन फ्रंटियर देशों में डीकार्बोनाइज़ेशन से जुड़ी प्रौद्योगिकियों का उदाहरण लेते हैं. नवीकरणीय ऊर्जा अब कोयला आधारित ऊर्जा स्रोत की तुलना में कहीं सस्ती है. मौजूदा ऊर्जा तंत्रों को नवीकरणीय स्रोतों में परिवर्तित करने की दर की चाहे उपयोगिता के आधार पर या फिर खुदरा आधार पर देखें, ये अंतिम उपभोक्ताओं के लिए आर्थिक रूप से व्यवहार्य है और इसके साथ ही निवेशकों को उनकी पूंजी पर उचित लाभ की गारंटी भी देती है. आंतरिक दहन इंजन वाले वाहनों की तुलना में इलेक्ट्रिक वाहनों के स्वामित्व की कुल लागत काफी कम है, और बैटरी की कीमतों में कमी और बैटरी-चार्जिंग की बेहतर सुविधा के विकास के साथ-साथ इलेक्ट्रिक वाहनों के रखरखाव की लागत और भी कम होती जा रही है. प्रोटीन के पारंपरिक स्रोतों (जैसे दूध, अंडा और मांस) की तुलना में पादप-आधारित प्रोटीन की लागत कम है, इससे औद्योगिक पशुपालन की आवश्यकता कम हो जाती है, जो बड़े पैमाने पर मीथेन का उत्सर्जन करते हैं. इसलिए नवीकरणीय ऊर्जा, इलेक्ट्रिक वाहन और पादप आधारित प्रोटीन बड़े उद्योगों में तब्दील हो रहे हैं, जहां प्रतिद्वंदिता में तेज़ी से वृद्धि हो रही है और हर एक भारी वाणिज्यिक निवेश को आकर्षित कर रहा है. सरकार की भूमिका ये है कि वह एक स्थिर और सहयोगी नीतिगत माहौल को बनाए रखे और बाज़ार को नियंत्रण मुक्त करे यानी बाज़ार शक्तियों को और उभारे ताकि बाज़ार और प्रतिस्पर्धा के जरिए भारत ग्रीन फ्रंटियर देशों में शामिल हो सके. वास्तव में, यह संभव है कि भारत में हरित प्रौद्योगिकियों को अपनाने की लागत विश्व में सबसे कम हो सकती है, क्योंकि भारत ने पहले ही दूरसंचार, फिनटेक, और ई-कॉमर्स के क्षेत्र में अभूतपूर्व विकास किया है.

भारत के लिए अगला दशक अपने विकास पथ को स्थापित करने में निर्णायक होगा: ऐसे में क्या भारत ग्रीन फ्रंटियर की दौड़ में जा रहा है या फिर वह एक बार फिर वैश्विक पिछड़ेपन के लिए तैयार हो रहा है? 

कुछ हरित प्रौद्योगिकियां ग्राहकों में विश्वास पैदा करने और बाज़ार में अपनी जगह बनाने के दृष्टिकोण से अभी अपने शुरुआती चरण में हैं. उदाहरण के लिए अपतटीय पवन ऊर्जा, बैटरी स्टोरेज, हरित हाइड्रोजन, जैव ईंधन, कार्बन अवशोषण तकनीक, नई परमाणु विखंडन और संलयन प्रौद्योगिकियां. ये प्रौद्योगिकियां बहुत महंगी हैं, या फिर उनमें वाणिज्यिक निवेश का जोखिम अभी भी बहुत अधिक है. हालांकि, भविष्य में जब वे वाणिज्यिक स्तर पर अनुकूल हो जाएंगी, तब वे डीकार्बोनाइज़ेशन की दिशा में काफ़ी महत्त्वपूर्ण साबित हो सकती हैं. इस प्रकार, ऐसी प्रौद्योगिकियों को विशुद्ध रूप से बाजार की ताकतों द्वारा निर्देशित करने की अनुमति देना भारत के डीकार्बोनाइज़ेशन लक्ष्यों के पक्ष में काम नहीं कर सकता है, जो अभी अपने विकास के शुरुआती चरण में हैं और उनमें निवेश करना जोख़िम भरा है. सरकारों और बाज़ार ताकतों को उसकी लागत को कम करने और नए हरित उद्योगों की स्थापना के लिए मिलकर काम करना होगा. उन मामलों में, जहां किसी नई तकनीक या विचार में निहित संभावनाएं जोखिम भरी हैं या फिर उन्हें अपनाने की लागत बहुत ज्यादा (महंगी) है, वहां उसे पायलट योजनाओं के तौर पर या मॉडल के रूप में उसके प्रदर्शन का मूल्यांकन करना निजी उद्योगों के लिए एक सीख भरा अनुभव हो सकता है, वहीं नीति-निर्माताओं और नियामकों के लिए नीति-निर्माण के स्तर पर ये काफ़ी महत्त्वपूर्ण साबित हो सकता है.

भारत सरकार के पास हरित उद्योगों की स्थापना हेतु नीतिगत परिवर्तनों और वित्तपोषण से जुड़े कई साधन हैं. उदाहरण के लिए, वह: (1) पायलट परियोजनाओं या मॉडल के रूप में प्रदर्शन के प्रारंभिक पूंजीगत व्यय का वहन कर सकता है, (2) पूंजी या परिचालन लागत के कुछ हिस्से पर छूट की पेशकश कर सकता है, (3) अंतिम उत्पाद को अनिवार्य बना सकता है या फिर उसकी बिक्री के लिए प्रोत्साहित कर सकता है, (4) विभिन्न देशों के बीच प्रौद्योगिकी हस्तांतरण पहलों की शुरुआत या उसके लिए दबाव बना सकता है, (5) नई तकनीक से जुड़े बुनियादी ढांचे का निर्माण या उसका वितरण कर सकता है. हरित उद्योग की स्थापना में तीन अलग-अलग तरह के प्रभाव पूंजी प्रदाता सहायक सिद्ध हो सकते हैं, जो सरकार और बाज़ार शक्तियों के पूरक के रूप में अपनी भूमिका निभा सकते हैं. सबसे पहले, विकसित देश, जो नई प्रौद्योगिकियों के व्यावसायीकरण हेतु अपनी पूंजी (अनुदान, सहायता, ऋण, इक्विटी) का निवेश कर रहे हैं. दूसरा, परोपकारी पूंजी है, जो दीर्घकालिक सामाजिक प्रभाव से संबंधित है और केवल वित्तीय लाभ को देखकर पूंजीगत निवेश का निर्णय नहीं लेती है. तीसरा, ऐसी संस्थाएं, जो नेट ज़ीरो के लक्ष्य के प्रति प्रतिबद्ध हैं, इसलिए वे हरित निवेश कर रही हैं.

अगले कुछ दशकों में, भारत को ग्रीन फ्रंटियर देशों में शामिल होने के लिए खरबों डॉलर की वाणिज्यिक पूंजी, अरबों डॉलर की प्रभाव पूंजी और सैकड़ों अरबों डॉलर के सार्वजनिक धन की आवश्यकता होगी. इतने बड़े स्तर पर धन जुटाने के लिए भारत को घरेलू और अंतर्राष्ट्रीय सभी स्तरों पर निवेश को आकर्षित करना होगा, और इन सभी स्रोतों से पूंजी प्रवाह को और भी गतिशील बनाने के लिए अपनी वित्तपोषण प्रणाली को सुदृढ़ करना होगा.

नेट ज़ीरो रूपांतरण व बदलाव सुनिश्चित करना

डीकार्बोनाइज़ेशन को गहन स्तर पर लागू करने वाली प्रक्रियाएं रेफरेंस पाथवे की तुलना में अधिक रोज़गार पैदा करती हैं. हरित उद्योग ईंधन पर निर्भर उद्योगों की तुलना में अधिक श्रम प्रधान होते हैं. इसलिए, इस क्षेणी में नौकरियों स्तर पर शुद्ध लाभ होता है क्योंकि श्रमिक, जीवाश्म ईंधन पर निर्भर नौकरियों के बजाय हरित ऊर्जा से जुड़ी नौकरियों की दिशा में जाते हैं. इसके अलावा जब सकल घरेलू उत्पाद में वृद्धि होती है तो इस से भी और अधिक नौकरियां पैदा होती हैं. उदाहरण के लिए, कहीं अधिक संख्या में लोग खुदरा उद्योगों में, सरकारी क्षेत्र के लिए और व्यक्तिगत सेवाओं में काम करते हैं.

हरित उद्योगों से जुड़े हस्तांतरण और रूपांतरण में श्रमिकों और उनके परिवारों को नुकसान से बचाने के लिए जल्दी शुरुआत करना महत्वपूर्ण है. यदि भारत के पास बदलाव की योजना बनाने और उसे अमल में लाने के लिए कई दशक हैं, तो इसे धीरे-धीरे और पुन: कौशलीकरण यानी रीस्किलिंग के ज़रिए किया जाना ज़रूरी है. अचानक बदलाव से लाखों कामगारों को नौकरियों के एक तरीके से दूसरे तरीके पर ले जाना मुश्किल हो जाएगा. इसके अलावा, भौगोलिक अव्यवस्थाओं से बचने के लिए सावधानीपूर्वक योजना बनाने की भी ज़रूरत है, क्योंकि हाइड्रोकार्बन अर्थव्यवस्था आम तौर पर ग्रामीण क्षेत्रों में होती है जबकि नई हरित नौकरियां मुख्य रूप से शहरी क्षेत्रों में पैदा हो सकती हैं. वैकल्पिक आजीविका को अब स्थापित किया जाना चाहिए ताकि आज के श्रमिकों के बच्चे भी किसी भी रूप में हाइड्रोकार्बन अर्थव्यवस्था में न जाएं.

भारत के लिए निर्णायक दशक

आज भारत पारंपरिक फार्म-टू-फैक्ट्री विकास मॉडल से छलांग लगा कर सीधे हरित अर्थव्यवस्था की ओर जा सकता है. भारत के लिए अगला दशक अपने विकास पथ को स्थापित करने में निर्णायक होगा: ऐसे में क्या भारत ग्रीन फ्रंटियर की दौड़ में जा रहा है या फिर वह एक बार फिर वैश्विक पिछड़ेपन के लिए तैयार हो रहा है? ग्रीन फ्रंटियर तक पहुंचने के लिए, भारत को सदी के मध्य तक नेट ज़ीरो के लक्ष्य के लिए क़ानूनी रूप से बाध्यकारी तरीके से प्रतिबद्ध होना होगा. भारत को यह सुनिश्चित करना होगा कि निवेशक और उद्यमी स्पष्ट रूप से समझें कि हरित परिवर्तन की ज़रूरत होगी और यही भारत के लिए एक समग्र दिशा है. इसके अलावा, भारत के वैश्विक साझेदार तब प्रौद्योगिकी हस्तांतरण (technology transfers), तरजीही बाज़ार तक पहुंच (preferential market access), मिश्रित पूंजी (blended capital) और दंडात्मक कार्बन आयात शुल्क (punitive carbon import duties) से बचने में मदद के रूप में उसे पूर्ण समर्थन देंगे.

नेट ज़ीरो लक्ष्य घोषित होने के बाद, अगले कुछ सालों में अक्षय ऊर्जा, इलेक्ट्रिक मोबिलिटी, कार्बन ट्रेडिंग सिस्टम और कार्बन टैक्स के लिए सही नीतियां लागू की जानी चाहिए. तेज़ी से आगे बढ़ने के ज़रिए नीति और बाज़ार की बाधाओं से बचा जा सकता है. मौजूदा परिस्थितियों में भविष्य की तुलना में निवेश कम होगा, जब हरित बदलाव अधिक अचानक और असंबद्ध हो जाएगा. जल्दी शुरू करने से व्यवसायों को योजना बनाने और तैयारी करने के लिए पर्याप्त समय मिलेगा. इसके आलावा आज के ईंधन आधारित उद्योगों की मौजूदा संपत्ति का भी पूरा उपयोग किया जा सकता है और समय के साथ उन्हें हटाया जा सकता है. अगर भारत बाद में आगे बढ़ने का इंतज़ार करता है, तो यह क़दम उसके लिए महत्वपूर्ण संपत्तियों के फंसे रह जाने और बड़े पैमाने पर कर्ज़ को निपटाने के जोखिम में डालने जैसा होगा. कुलमिलाकर नीतिगत कार्रवाई का समय आज और अभी है.

किसी भी देश ने एक साथ स्थिरता और समृद्धि को हासिल नहीं किया है. विकसित देश पहले समृद्ध बने और अब अधिक टिकाऊ अर्थव्यवस्था की ओर बढ़ रहे हैं. इस पृष्ठभूमि में, भारत का हरित विकास वास्तव में अद्वितीय होगा. अगले दशक में, देश को पारंपरिक विकास मॉडल से छलांग लगानी चाहिए और अपने लोगों के लिए स्थायी समृद्धि लाना चाहिए. दुनिया में सबसे बड़ा हरित परिवर्तन करके, भारत शून्य-कार्बन पर आधारित समावेशी विकास मॉडल में प्रवेश कर सकता है.

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[i] These modelling studies incorporate India’s goal to install 450 gigawatts of renewable energy by 2030 and all the other green policies announced to date.

[ii] These are completely independent efforts utilising some of the most sophisticated models in the world to study these issues. No other modelling groups appear to have built, tested, or utilised such models to evaluate the economic and health impacts of different decarbonisation pathways for India.

[iii] Over US$150 billion per year of fossil fuels including crude oil, coal, and natural gas are imported every year by India.

[iv] These modelling studies have not evaluated any reduction in agricultural emissions (which account for about 1 billion tonnes on annual carbon-equivalent emissions).

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