Published on Nov 11, 2020 Updated 0 Hours ago

राजनीतिक दलों और आम जनता ने बिहार चुनाव में पूरे उत्साह के साथ भाग लेकर ये साबित किया है कि भारत में लोकतंत्र की जड़ें कितनी गहरी हैं.

भारत में कोविड-19 की महामारी के दौर में चुनाव कराने की चुनौतियां

कोविड-19 महामारी ने जिस तरह अचानक पूरी दुनिया पर धावा बोला, उसने मानव के सार्वजनिक जीवन के हर पहलू को अस्त-व्यस्त कर दिया है. सबसे अहम बात तो ये है कि इस घातक वायरस के ख़तरे के जल्द ख़त्म होने की संभावना बेहद कम है. क्योंकि, दुनिया के कई हिस्सों में इस महामारी के प्रकोप के दूसरी या तीसरी लहर भी देखने को मिल रही है. वहीं, इससे छुटकारा दिलाने के लिए जिन वैक्सीन का इंतज़ार है, उनकी पक्के तौर पर कामयाबी की ख़बरें नहीं आ रही हैं.

ऐसे हालात में जैसे जैसे ज़रूरी सेवाएं और आर्थिक गतिविधियां दोबारा पटरी पर आ रही हैं. वैसे वैसे आम जीवन धीरे-धीरे इस नए हालात के हिसाब से ख़ुद को ढालने में जुटा हुआ है. जहां पर रोज़मर्रा की ज़िंदगी की गतिविधियों का नई पाबंदियों के साथ तालमेल बैठाने का प्रयास हो रहा है. हालांकि, हालात सामान्य बनाने की ये प्रक्रिया बेहद सावधानी से की जा रही है. लोगों की सुरक्षा के लिए ज़रूरी उपायों पर ज़ोर दिया जा रहा है. क्योंकि नए कोरोना वायरस का ख़तरा टला नहीं है. ऐसी ही नियमित गतिविधि, पूरी दुनिया के लोकतांत्रिक देशों में चुनाव कराने की है.

लोकतांत्रिक चुनावों की प्रकृति ऐसी है कि इन्हें कोविड-19 जैसी बेहद संक्रामक महामारी के दौर में कराना बहुत बड़ी चुनौती का काम है. क्योंकि चुनाव में सघन रूप से जनसंवाद होता है. जनसंचार का कार्य होता है. ऐसे में आशंका इस बात की होती है कि चुनाव प्रचार के दौरान सोशल डिस्टेंसिंग और भीड़ जुटने से रोकने जैसी सावधानियों का पालन कर पाना क़रीब-क़रीब असंभव हो जाता है. और अगर इस मामले में सख़्ती की जाए, तो बिना किसी मुश्किल के चुनाव संपन्न कराना संभव नहीं हो सकता.

चूंकि महामारी का दौर जारी है, तो इसी बीच में चुनाव कराना बहुत बड़ा जोखिम लेने जैसा है. लेकिन, चुनाव कराने आवश्यक भी हैं. क्योंकि किसी भी जागरूक लोकतांत्रिक देश में चुनाव के ज़रिए ही सरकार की जवाबदेही सुनिश्चित होती है.

भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में चुनाव कराने का मतलब है एक साथ कई चुनौतियों का सामना करना. इसकी बड़ी वजह ये है कि दुनिया के तमाम लोकतांत्रिक देशों के बीच भारत में मतदाताओं की संख्या सबसे अधिक है. अब चूंकि महामारी का दौर जारी है, तो इसी बीच में चुनाव कराना बहुत बड़ा जोखिम लेने जैसा है. लेकिन, चुनाव कराने आवश्यक भी हैं. क्योंकि किसी भी जागरूक लोकतांत्रिक देश में चुनाव के ज़रिए ही सरकार की जवाबदेही सुनिश्चित होती है. लोकतंत्र के माध्यम से जिस उत्तरदायी प्रशासनिक व्यवस्था का संचालन करने का वादा किया जाता है, उसकी पूर्ति नियमित रूप से चुनाव करा कर ही हो सकती है.

बिहार विधानसभा चुनाव

कोविड-19 की महामारी को देखते हुए चुनाव आयोग ने कुछ राज्यसभा सीटों और विधान परिषद् सीटों के चुनाव को कुछ दिनों के लिए स्थगित किया था. हालांकि, बाद में कुछ राज्यों में ये चुनाव करा लिए गए थे. लेकिन, नियमित चुनावी प्रक्रिया और इन छोटे-मोटे चुनावों में फ़र्क़ ये है कि राज्यसभा और विधान परिषद के चुनावों में लोगों की भागीदारी सीमित संख्या में होती है. ऐसे में स्वास्थ्य के इस विकट संकट के दौरान इन चुनावों का संचालन करना तुलनात्मक रूप से काफ़ी आसान था. लेकिन, कोविड-19 की महामारी के दौरान बिहार में विधानसभा चुनाव, लोकतांत्रिक प्रक्रिया की पहली सबसे बड़ी चुनौती थे.

भारत के चुनाव आयोग ने बिहार में विधानसभा चुनाव कराने के लिए अक्टूबर से नवंबर तक का समय तय किया था. बिहार में विधानसभा के लिए मतदान तीन चरणों में-28 अक्टूबर, 3 नवंबर और 7 नवंबर को कराए गए. जबकि वोटों की गिनती का काम दस नवंबर को हुआ. भारत के चुनाव आयोग ने महामारी के दौरान, बिहार में विधानसभा चुनाव कराने के लिए दक्षिण कोरिया, सिंगापुर और दूसरे देशों की सफलता से सबक़ लिया है. इसीलिए चुनाव आयोग ने बिहार में विधानसभा चुनाव के लिए बेहद सख़्त दिशा-निर्देश जारी किए. जिससे कि चुनाव प्रक्रिया के दौरान कोरोना वायरस के प्रकोप को बहुत अधिक फैलने से रोका जा सके.

भारत के चुनाव आयोग ने महामारी के दौरान, बिहार में विधानसभा चुनाव कराने के लिए दक्षिण कोरिया, सिंगापुर और दूसरे देशों की सफलता से सबक़ लिया है. इसीलिए चुनाव आयोग ने बिहार में विधानसभा चुनाव के लिए बेहद सख़्त दिशा-निर्देश जारी किए. जिससे कि चुनाव प्रक्रिया के दौरान कोरोना वायरस के प्रकोप को बहुत अधिक फैलने से रोका जा सके.

चुनाव के दौरान आयोग ने बहुत कड़े दिशा निर्देश जारी किए थे, जिनका पालन करना न केवल प्रचार के दौरान करना था. बल्कि, वोट डालने की प्रक्रिया के दौरान भी कोरोना गाइडलाइंस का पालन करना ज़रूरी था. प्रचार के लिए चुनाव आयोग ने वर्चुअल रैलियों और नेताओं व जनता के बीच संवाद के लिए ऑनलाइन राजनीतिक प्रक्रिया को बढ़ावा देने की बात कही थी. जिसमें सोशल मीडिया के ज़्यादा से ज़्यादा उपयोग को प्रोत्साहन देने का काम किया गया था.

बड़ी जनसभाओं और रोड शो के लिए भी जनता की सीमित भागीदारी और वाहनों की गिनी-चुनी संख्या को ही इजाज़त दी गई थी. जिसमें चुनाव आयोग ने सभी राजनीतिक दलों से सोशल डिस्टेंसिंग के नियमों और दो गाड़ियों के बीच उचित दूरी जैसे नियमों का कड़ाई से पालन करने को कहा था. इसके अलावा घर घर जाकर चुनाव प्रचार करने के लिए भी सख़्त नियम बनाए गए थे. इसमें सीमित संख्या में ही नेताओं और कार्यकर्ताओं को शामिल होने की इजाज़त दी गई थी. और उनसे मिलने वाले लोगों की संख्या भी कम रखने को कहा गया था.

मतदान की प्रक्रिया के लिए भी कई ख़ास प्रावधान किए गए थे. मतदान केंद्रों की संख्या और मतदान कर्मियों की संख्या, दोनों को ही पहले की तुलना में काफ़ी बढ़ाया गया था. हर मतदान केंद्र में अधिकतम मतदाताओं की संख्या को भी कम कर दिया गया था. जिससे पोलिंग बूथ पर वोट देने वालों की भारी भीड़ न जमा हो जाए. हर वोटर की थर्मल स्कैनिंग, और EVM के इस्तेमाल के लिए उन्हें दस्ताने भी उपलब्ध कराए गए थे.

हर पोलिंग बूथ पर पर्याप्त मात्रा में हैंड सैनिटाइज़र, साबुन, पानी और अन्य ज़रूरी सामान की उपलब्धता सुनिश्चित की गई थी. जिससे कि मतदान कराने वालों और वोट डालने वालों, दोनों को कोविड-19 संबंधी गाइडलाइंस का पालन करने में दिक़्क़त न हो. और उनकी स्वास्थ्य और सुरक्षा का ख्याल रखा जा सके. मतदान के आख़िरी घंटे में कोविड-19 के मरीज़ों और क्वारंटीन किए गए लोगों के मतदान करने के लिए भी विशेष व्यवस्था की गई थी. इसके अलावा, चुनाव आयोग ने उन लोगों के लिए डाक से वोट डालने की भी व्यवस्था की थी, जो शारीरिक रूप से कमज़ोर हैं और जिनकी सेहत को लेकर ख़तरा ज़्यादा था. जैसे कि दिव्यांग और बुज़ुर्ग मतदाता. 

चुनाव में संवाद की विषम व्यवस्था

तमाम सावधानियों के बावजूद, बिहार में राजनीतिक दलों के सामने 9 करोड़ मतदाताओं को आकर्षित करने की चुनौती थी. और, चुनाव आयोग को भी इतने ही वोटर्स के मतदान की व्यवस्था करनी थी. इसीलिए, उपरोक्त सावधानियों के बावजूद, चुनाव प्रक्रिया का संचालन बहुत बड़ी चुनौती बन गया. क्योंकि, किसी भी लोकतंत्र में आदर्श चुनावी प्रक्रिया की पहली शर्त पारदर्शी और निष्पक्ष चुनाव होते हैं.

आज फ़ेक न्यूज़ भी बहुत बड़ी चुनौती है. ऐसे में कोई दल अगर नफ़रत भरा और भड़काऊ एजेंडे वाला चुनाव प्रचार करता है. तो पहले से ही विभाजित सोशल मीडिया पर फ़ेक न्यूज़ के माध्यम से जनता को और उकसाए जाने की आशंका भी है. ऐसे में सोशल मीडिया के कंटेंट पर नियंत्रण रखने और उसके रेग्यूलेट करने की ज़रूरत है. 

उदाहरण के लिए बिहार एक ऐसा राज्य है, जहां केवल 37 प्रतिशत लोगों के पास ही इंटरनेट की सुविधा है. और केवल 27 प्रतिशत आबादी के पास ही स्मार्टफ़ोन हैं. ऐसे में जैसा कि पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त एस. वाय. क़ुरैशी ने कहा कि बिहार में राजनीतिक संवाद और चुनाव प्रचार के लिए ऑनलाइन माध्यम की पहुंच बेहद सीमित स्तर पर ही हो सकती थी.

ऐसे हालात में दूसरी तरह की तकनीकों और मज़बूत प्रचार नुस्खों की ज़रूरत होती है, जो नेताओं को जनता तक पहुंचा सकें. जैसे कि-होलोग्राम. ऐसे उन्नत किस्म की तकनीक से चुनाव प्रचार में ख़र्च भी बहुत अधिक आता है. और तकनीकी जानकारी और संसाधनों की भी ज़रूरत होती है. ज़ाहिर है, इन शर्तों को पूरा करने के लिए राष्ट्रीय स्तर की पार्टियों के पास प्रचुर मात्रा में संसाधन होते हैं. वहीं क्षेत्रीय दलों और छोटी पार्टियों के पास संसाधनों का अभाव होता है. 

ग़लत सूचनाओं पर आधारित विकल्प

इससे भी अहम बात ये है कि सोशल मीडिया और दूसरे वर्चुअल माध्यमों के ज़रिए, इतने बड़े पैमाने पर प्रचार और संवाद से राजनीतिक दलों के बीच संतुलन बनाए रख पाना मुश्किल होता है. क्योंकि भारत में डिजिटल संसाधनों की उपलब्धता के मामले में बहुत बड़े पैमाने की असमानता देखी जाती है. इसके अलावा, इस महामारी के दौरान संसाधनों और पहुंच बनाने के मामले में राजनीतिक दलों के बीच के फ़र्क़ को देखते हुए, इस बात की भी पर्याप्त आशंका होती है कि मतदाताओं को कुछ दलों के वादों और दावों की जानकारी प्राप्त नहीं हो पाती. इससे सूचनाओं के प्रवाह में असंतुलन बन जाता है. और इसका नतीजा ये भी होता है कि कुछ ख़ास दलों के राजनीतिक संवाद से वोटर अधिक प्रभावित हो जाते हैं. वहीं, कुछ दल अपनी बात मतदाताओं तक पहुंचा पाने में असमर्थ और असफल साबित होते हैं. इसका प्रभाव नतीजों के तौर पर दिखता है.

मतदाताओं से ये अपेक्षा की जाती है कि वो अपनी जानकारी और मैदान में उतरे सभी राजनीतिक दलों और प्रत्याशियों के वादों के आधार पर उचित उम्मीदवार का चुनाव करें. लेकिन, अगर चुनाव प्रचार के दौरान राजनीतिक दलों के बीच ऐसी असमानता रहती है, तो उससे सभी प्रत्याशियों को जनता को आकर्षित करने के समान अवसर नहीं मिलने. प्रचार में इस असंतुलन का असर नतीजों की शक्ल में सामने आने की आशंका बलवती होती है.

इसके अलावा, चुनाव आयोग के लिए भी हर राजनीतिक संवाद पर नज़र बनाए रखना मुश्किल होता है. हर दल के प्रचार अभियान की निगरानी करना वर्चुअल स्तर पर भी बहुत मुश्किल काम होता है. क्योंकि, वर्चुअल दुनिया में एक साथ कई गतिविधियां संचालित की जा सकती हैं. इसीलिए, वर्चुअल चुनाव प्रचार के दौरान, आदर्श आचार संहिता के उल्लंघन की आशंका बढ़ जाती है. राजनीतिक दलों के लिए ऐसा कर पाना आसान इसीलिए होता है, क्योंकि वर्चुअल स्पेस की निगरानी की कोई ठोस व्यवस्था अभी नहीं है.

पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त एस. वाय. क़ुरैशी ने ये भी कहा था कि आज फ़ेक न्यूज़ भी बहुत बड़ी चुनौती है. ऐसे में कोई दल अगर नफ़रत भरा और भड़काऊ एजेंडे वाला चुनाव प्रचार करता है. तो पहले से ही विभाजित सोशल मीडिया पर फ़ेक न्यूज़ के माध्यम से जनता को और उकसाए जाने की आशंका भी है. ऐसे में सोशल मीडिया के कंटेंट पर नियंत्रण रखने और उसके रेग्यूलेट करने की ज़रूरत है. लेकिन, इसमें दिक़्क़त इस बात की है कि स्वतंत्र, निष्पक्ष और शांतिपूर्ण ढंग से चुनाव का संचालन करना चुनाव आयोग के लिए बहुत बड़ी चुनौती बन जाता है. 

आगे का रास्ता क्या है?

इस सच से इनकार नहीं किया जा सकता है कि, महामारी के इस दौर में चुनाव का निर्बाध गति से संचालन करना दुनिया भर के लोकतांत्रिक देशों के लिए बेहद ज़रूरी है. जिससे लोकतंत्र फलता फूलता रहे. अब चूंकि सेहत के आपातकाल के चलते चुनाव प्रक्रिया के निलंबन के पक्ष में भी ठोस तर्क मौजूद हैं. तो, अगर नियमित रूप से चुनाव नहीं होते हैं तो लोकतांत्रिक देशों में भी तानाशाही प्रवृत्तियों और जवाबदेही से महरूम प्रशासनिक व्यवस्था के बेलगाम होने का डर है. ज़ाहिर है, लोकतांत्रिक देशों में नियमित रूप से चुनाव कराना बहुत ज़रूरी है. ख़ास तौर से ऐसी महामारी के दौर में जब लोगों की ज़िंदगी और रोज़ी रोटी को लेकर इतना बड़ा ख़तरा मौजूद हो.

भारत के चुनाव आयोग ने बिहार में विधानसभा चुनावों का सफलता से संचालन करके, ये बात साबित की है कि महामारी जैसे बड़े संकट के दौर में भी भारत में लोकतंत्र का प्रवाह निर्बाध गति से चलता रहा.

लेकिन, चूंकि भारत जैसी बहुत बड़ी आबादी वाले लोकतांत्रिक देशों में चुनाव के दौरान अक्सर बेहद शोर-शराबा और कई बार तो अस्त-व्यस्त राजनीतिक संवाद देखने को मिलता है. इसमें बड़े पैमाने पर जनता की भागीदारी होती है. पक्ष विपक्ष में लामबंदी होती है. ऐसी स्थिति में किसी महामारी के दौर में चुनाव कराना बेहद चुनौतीपूर्ण कार्य बन जाता है. हालांकि, मतदाताओं को चुनाव में पूरे उत्साह के साथ भाग लेने के लिए राज़ी करना है, तो उनका विश्वास जीतने के उपाय भी करने होंगे. भारत के चुनाव आयोग ने बिहार में विधानसभा चुनावों का सफलता से संचालन करके, ये बात साबित की है कि महामारी जैसे बड़े संकट के दौर में भी भारत में लोकतंत्र का प्रवाह निर्बाध गति से चलता रहा.

हालांकि, जैसा कि ऐसे असाधारण अवसरों पर ज़रूरत होती है, तो निष्पक्ष चुनाव के लिए असाधारण उपाय करने की भी ज़रूरत पड़ी. जिससे निष्पक्ष, पारदर्शी और सबके लिए सुरक्षित चुनाव, भारत के मौजूदा हालात में कराए जा सके.

बिहार में चुनाव की सफलता से चुनाव आयोग, राजनीतिक दलों और आम जनता ने साबित किया है कि यहां लोकतंत्र की भावना कितनी बलवती है. और लोकतांत्रिक प्रक्रिया की जड़ें कितनी मज़बूत हैं.

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