Published on May 31, 2022 Updated 18 Hours ago

टेक्नोलॉजी- पर्यावरण और जलवायु के लिए वरदान या अभिशाप?

#Climate Change: तक़नीक के ज़रिए जलवायु परिवर्तन से जुड़ी समस्याओं का समाधान जुटाने की क़वायद

ये लेख कॉम्प्रिहैंसिव एनर्जी मॉनिटर: इंडिया एंड द वर्ल्ड सीरीज़ का हिस्सा है.


टेक्नोलॉजी: एक समस्या

पर्यावरण की दुर्दशा और मानव जीवन पर उसके प्रभावों को लेकर 1960 के दशक में रेचल कार्सन की धमाकेदार क़िताब ‘द साइलेंट स्प्रिंग‘ सामने आई थी. इसमें लोगों को ये समझाने की कोशिश की गई कि ‘प्रकृति पर नियंत्रण एक ऐसी शब्दावली है जिसे अहंकार वाली अवस्था में गढ़ा गया है, जो जीव विज्ञान और दर्शनशास्त्र के उस पुरातनपंथी युग में सामने आया था जब ये माना जाता था कि क़ुदरत का वजूद इंसान की सहूलियत के लिए है.’ शायद ही ये कोई इत्तेफ़ाक़ था कि कार्सन की क़िताब सामने आने के बाद पर्यावरणीय आंदोलन और ईंधन संकट एक ही वक़्त पर देखने को मिले. ईंधन की तेज़ी से बढ़ती मांग और उससे भी ज़्यादा तेज़ गति से तेल और प्राकृतिक गैस के भंडारों में आ रही गिरावट, इन दोनों घटनाओं के पीछे के साझा मौलिक कारण रहे थे. उत्पादन के नज़रिए से तेल और गैस के भंडारों में कमी आने से नए सिरे से कोयले पर निर्भरता लाज़िमी हो गई. साथ ही तट से दूर खुले समुद्र में और सुनसान जंगली इलाक़ों में तेल और गैस की खोज को बढ़ावा मिला. 

उत्पादन की बढ़ती लागतों से पार पाने के लिए बड़े पैमाने पर टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल शुरू किया गया. ईंधन तंत्र के विशाल आकार, ईंधन स्रोतों पर उनके प्रभाव और कुल मिलाकर उनसे पैदा होने वाले कचरे के प्रवाह से विकास की संभावित सीमाओं को लेकर शिक्षा जगत में चौतरफ़ा बहस छिड़ गई.

उत्पादन की बढ़ती लागतों से पार पाने के लिए बड़े पैमाने पर टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल शुरू किया गया. ईंधन तंत्र के विशाल आकार, ईंधन स्रोतों पर उनके प्रभाव और कुल मिलाकर उनसे पैदा होने वाले कचरे के प्रवाह से विकास की संभावित सीमाओं को लेकर शिक्षा जगत में चौतरफ़ा बहस छिड़ गई. 1972 में क्लब ऑफ़ रोम द्वारा प्रकाशित अध्ययन से इस चर्चा को हवा मिली थी. 1979 में थ्री माइल द्वीप पर परमाणु संयंत्र में हुए हादसे और 1970 से 1980 के बीच तेल रिसाव की अनेक घटनाएं आम जनता को ये समझाने के लिए काफ़ी थीं कि ‘टेक्नोलॉजी’ ही पर्यावरण की दुर्दशा का मुख्य कारण है. उस कालखंड में संचालित पर्यावरण आंदोलन में क्रांतिकारी सामाजिक बदलाव लाने की कोशिश हुई. इसके तहत ख़ुद से फ़ैसले लेने की बढ़ती क़वायदों, ईंधन के उत्पादन और इस्तेमाल के विकेंद्रीकरण और निर्णय लेने की प्रक्रिया के विकेंद्रीकरण पर ज़ोर दिया गया. बहरहाल इस मुहिम से उस समय की आर्थिक, संस्थागत और सामाजिक व्यवस्था के सामने ख़तरे पैदा होने लगे. लिहाज़ा बीतते वक़्त के साथ-साथ इसे ‘आर्थिक कट्टरतावाद‘ क़रार देते हुए समाज के हाशिए पर डाल दिया गया. 

टेक्नोलॉजी: एक समाधान

आज का जलवायु अभियान उतना क्रांतिकारी न होकर कहीं ज़्यादा व्यावहारिक और नीतियों से संचालित है. समाज के लिए विकल्पों की तलाश करने की बजाए ये समाज के भीतर ही विकल्पों को ढूंढने की क़वायद पर ज़ोर देता है. पर्यावरण की दुर्दशा से जुड़ी समस्या से निपटने के लिए ये टेक्नोलॉजी के ज़रिए ही उपायों की तलाश पर भरोसा करता है. इस नज़रिए की जड़ ‘हमारा साझा भविष्य‘ नाम की रिपोर्ट में ढूंढा जा सकता है. 1987 में जारी इस दस्तावेज़ को ब्रंटलैंड रिपोर्ट के नाम से भी जाना जाता है. इस रिपोर्ट का निष्कर्ष था कि सकारात्मक भविष्य के लिए आर्थिक वृद्धि और पर्यावरण संरक्षण को इंसानी समाज के लिहाज़ से और अनुकूल बनाना होगा. पर्यावरण और अर्थव्यवस्था के बीच के इस समझौते को ‘टिकाऊ विकास‘ का नाम दिया गया. उसके बाद से मानव समाज ऐसे आदर्श हालात की प्राप्ति के लिए टेक्नोलॉजी के आसरे रहने लगा है. आबादी और समृद्धि में बढ़ोतरी के रास्तों में बदलाव लाने के लिए मानवीय बर्तावों को बदलना बेहद कठिन है. इन्हीं मुश्किलों को देखते हुए ऐसे तौर-तरीक़े को मुनासिब बताया गया. दरअसल, जलवायु को लेकर हुए अध्ययनों में अंधकार और उदासी भरे भविष्य का पूर्वानुमान लगाया गया था. लिहाज़ा पर्यावरण और जलवायु के प्रभावशाली समूहों द्वारा तकनीकी ‘जुगाड़ों’ (भले ही वो अस्थायी हों) को ही सांत्वना और उम्मीद के इकलौते साधन के तौर पर देखा जाने लगा. 

साल 1800 से साल 2000 के वैश्विक आय (जीडीपी, सकल घरेलू उत्पाद) में 70 गुणा बढ़ोतरी हुई. ऊर्जा के उपभोग और कार्बन उत्सर्जन में इस अनुपात में इज़ाफ़ा देखने को नहीं मिला. निश्चित रूप से इसमें टेक्नोलॉजी की एक बड़ी भूमिका रही है.

साल 1800 से साल 2000 के वैश्विक आय (जीडीपी, सकल घरेलू उत्पाद) में 70 गुणा बढ़ोतरी हुई. ऊर्जा के उपभोग और कार्बन उत्सर्जन में इस अनुपात में इज़ाफ़ा देखने को नहीं मिला. निश्चित रूप से इसमें टेक्नोलॉजी की एक बड़ी भूमिका रही है. इस कालखंड में विश्व में ऊर्जा के उपभोग में 35 गुणा, कार्बन के उत्सर्जन में 20 गुणा और दुनिया की आबादी में 20 गुणा बढ़ोतरी हुई. पूंजी से और ज़्यादा पूंजी निर्माण और उसके नतीजे के तौर पर औद्योगिक उत्पादन में भारी-भरकम इज़ाफ़े की क़वायद आबादी में तेज़ी से हुई बढ़ोतरी पर भारी पड़ी है. ऊर्जा के उपयोग में कार्यकुशलता लाने की दिशा में काफ़ी तरक़्क़ी हासिल हुई है. ऐसा टेक्नोलॉजी और ज्ञान के व्यवस्थित प्रयोग से ही संभव हो सका है. 

सांस्कृतिक इतिहासकार लियो मार्क्स की दलील है कि वैचारिक, नैतिक, धार्मिक और सौंदर्य शास्त्र से जुड़े कारकों की भी पर्यावरण से जुड़ी समस्याओं से निपटने की क़वायद में अपनी भूमिका होती है. हालांकि, इन कारकों की भूमिका को लेकर हमारी अधूरी समझ के चलते विज्ञान और टेक्नोलॉजी की ओर हमारा झुकाव और बढ़ जाता है. हमारे समाज में वैज्ञानिक जानकारी और तकनीक पर भरोसा इतनी मज़बूती से जुड़ा है कि पर्यावरणीय समस्याओं का नाम उनके जैवभौतिकी लक्षणों के ऊपर तय किया जाता है. इस सिलसिले में ‘मिट्टी के कटाव’ या ‘अम्लीय बरसात’ की मिसाल दी जा सकती है. वैज्ञानिकों और तकनीकी विशेषज्ञों से इनका समाधान मुहैया कराने की उम्मीद की जाती है. मार्क्स का विचार है कि अगर समाज के रूप में टेक्नोलॉजी पर हमारी निर्भरता कम होती तो हम ‘ग्रीनहाउस प्रभावों’ से जुड़ी शब्दावली से बच सकते थे. इसकी बजाए हमारे सामने ‘वैश्विक कचरा मैदानों की समस्या‘ खड़ी होती. अगर ‘जलवायु परिवर्तन’ की बजाए ‘वातावरण का औपनिवेशीकरण’ चुनिंदा शब्दावली होती तो जलवायु से जुड़ी बहस की शर्तें आर्थिक और तकनीकी कार्यकुशलता की बजाए सामाजिक न्याय से तय होतीं. 

टेक्नोलॉजी की हिमायत करने वाले पर्यावरण आंदोलन के चलते 1970 के कट्टर पर्यावरणवादी अब अपना चोला बदलकर प्रतिरोधी-विशेषज्ञ बन गए हैं. वो उसी औद्योगिक ढांचे से अपने विचार जुटा रहे हैं जिसने एक प्रदूषित और विभाजित दुनिया तैयार कर दी है. वो पर्यावरणीय टकरावों के समाधान के तौर पर विज्ञान, तकनीक और विशेषज्ञों की अगुवाई वाली प्रक्रिया को ही आगे बढ़ाते हैं. इससे अंदरुनी सामाजिक विरोधाभास हाशिए पर चले जाते हैं. उद्योग और पारिस्थितिकी का संगम तैयार करने के लिए वैज्ञानिक पड़ताल की एक नई क़वायद तैयार की गई है. इसे ‘औद्योगिक पारिस्थितिकी‘ के नाम से जाना जाता है. इसका मक़सद उत्पादन और उपभोग में संसाधनों के इस्तेमाल की गहनता को न्यूनतम स्तर पर लाना है. इस परिपाटी के तहत पर्यावरणीय प्रभावों को कम करने के लिए टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल किया जाता है. ये सैद्धांतिक तौर पर ज़्यादा आबादी की समस्या से निपटने में कारगर होने के साथ-साथ अधिक समृद्ध लोगों के प्रभावों से भी पार पा सकता है. 

टेक्नोलॉजी की हिमायत करने वाले पर्यावरण आंदोलन के चलते 1970 के कट्टर पर्यावरणवादी अब अपना चोला बदलकर प्रतिरोधी-विशेषज्ञ बन गए हैं. वो उसी औद्योगिक ढांचे से अपने विचार जुटा रहे हैं जिसने एक प्रदूषित और विभाजित दुनिया तैयार कर दी है. 

चुनौतियां

टेक्नोलॉजी से उम्मीद की जाती है कि वो 2050 तक ऊर्जा की आपूर्ति को दोगुना करते हुए उत्सर्जन के स्तर को आधे पर ले आएगा. दूसरे शब्दों में ‘टेक्नोलॉजी’ से ये सुनिश्चित करने की आस लगाई जाती है कि वो मौजूदा उत्सर्जन के सिलसिले को 2050 तक आधे स्तर पर ले आएगा. ग़ौरतलब है कि 2050 में उर्जा से जुड़ा उत्सर्जन तक़रीबन 62 Gt CO2 (गीगाटन कार्बन डाइऑक्साइड) तक बढ़ जाएगा. अकेले ऊर्जा से जुड़े उत्सर्जन को घटाकर 14 Gt CO2 सालाना की दर पर लाए जाने की दरकार है. यहां दिक़्क़त ये है कि उत्सर्जन कम करने से जुड़ी क़वायद का ज़्यादातर हिस्सा विकसित देशों की बजाए विकासशील देशों से सामने आना चाहिए. दरअसल वैश्विक स्तर पर कार्बन डाइऑक्साइड के उत्सर्जन में होने वाली बढ़ोतरी का 75 फ़ीसदी हिस्सा विकासशील देशों से होगा. इनमें से 50 फ़ीसदी से भी ज़्यादा हिस्सा अकेले चीन और भारत का होगा. सिर्फ़ OECD देशों में उत्सर्जन को आधा करने से कार्बन डाइऑक्साइड के उत्सर्जन में गिरावट की कुल ज़रूरतों में से महज़ 10 Gt CO2 हिस्सा ही हासिल हो पाएगा. 

अगर OECD देशों का उत्सर्जन घटकर शून्य हो जाए तो भी इससे ज़रूरी तौर पर 48 Gt CO2 उत्सर्जन का महज़ 38 फ़ीसदी हिस्सा ही हासिल हो सकेगा. इस संदर्भ में अहम मसले ये हैं कि क्या टेक्नोलॉजी को लेकर आशावाद जायज़ है या नहीं और विकासशील देश उन तकनीकों की क़ीमत किस तरह से अदा करेंगे जिनपर मुख्य रूप  से विकसित देशों के निजी क्षेत्र का मालिक़ाना क़ब्ज़ा है. 

इन सवालों के जवाब से कुछ असहज कर देने वाली सच्चाइयां बाहर आती हैं. आज इस्तेमाल हो रही ईंधन तकनीकी- जैसे आंतरिक प्रज्ज्वलन इंजन (internal combustion engine) और सिस्टम टर्बाइन का 1880 के दशक में आविष्कार हुआ था. दूसरी ओर परमाणु ऊर्जा उत्पादन और गैस टर्बाइन 1930 के दशक में तैयार किए गए थे. आज विकास के दौर से गुज़र रही किसी भी टेक्नोलॉजी से अगले 2-3 दशकों में इनके टक्कर की किसी तकनीक के विकास की उम्मीद नहीं की जा सकती. उनकी क़ुदरती तरक़्क़ी में रुकावट लाने के मक़सद से भारी-भरकम निवेश की क़वायदों के बग़ैर ऐसा कतई मुमकिन नहीं है. टेक्नोलॉजी के सिलसिले में बदलावों को लेकर नाटकीय दख़लंदाज़ियों की लागत से जुड़े अनुमानों में काफ़ी परिवर्तन आता है. IPCC के मुताबिक 50 अमेरिकी डॉलर प्रति टन कार्बन डाइऑक्साइड की लागत पर उत्सर्जन में 20-38 फ़ीसदी की गिरावट हासिल की जा सकती है. स्टर्न रिपोर्ट में इससे भी ज़्यादा आशावादी अनुमान सामने रखा गया. इसके मुताबिक इसी लागत पर 2050  तक कार्बन डाइऑक्साइड में 70 फ़ीसदी कमी का लक्ष्य हासिल किया जा सकता है. तजुर्बे से हासिल जानकारियों से पता चलता है कि मौजूदा तकनीक के इस्तेमाल से ईंधन क्षेत्र में कार्बन में 70 फ़ीसदी कमी लाने की औसत घटाव लागत तक़रीबन 400 अमेरिकी डॉलर प्रति टन कार्बन के बराबर होगी. मान लेते हैं कि अगर उत्सर्जन घटाने की लागत में कोई कमी नहीं आती है तो उत्सर्जन में कमी लाने से जुड़े कार्यक्रमों की लागत तक़रीबन 800 अरब अमेरिकी डॉलर से 1.2 खरब अमेरिकी डॉलर सालाना हो सकती है. 

लागत साझा करने के समानता सिद्धांत के तहत विकसित देशों से विकासशील देशों को बड़े पैमाने पर दौलत हस्तांतरित करने की दरकार होगी. अब तक विकसित देश इस विचार का विरोध करते आए हैं. समानता सिद्धांत को सीधे-सीधे लागू करने की क़वायद से लाज़िमी तौर पर विजेता और हारने वाले किरदार सामने आएंगे. इतना ही नहीं, अगर कोई देश समानता सिद्धांत से जुड़ी क़वायद तय कर लेता है तो भी समान रूप से बोझ साझा करने को लेकर देश की चिंताओं और ‘राष्ट्रीय हितों’ को लेकर उसके जानकारी भरे लेखे-जोखे में अंतर की पहचान करना मुश्किल हो जाएगा. 

मौजूदा तकनीक के इस्तेमाल से ईंधन क्षेत्र में कार्बन में 70 फ़ीसदी कमी लाने की औसत घटाव लागत तक़रीबन 400 अमेरिकी डॉलर प्रति टन कार्बन के बराबर होगी. मान लेते हैं कि अगर उत्सर्जन घटाने की लागत में कोई कमी नहीं आती है तो उत्सर्जन में कमी लाने से जुड़े कार्यक्रमों की लागत तक़रीबन 800 अरब अमेरिकी डॉलर से 1.2 खरब अमेरिकी डॉलर सालाना हो सकती है. 

विकसित और विकासशील देशों के अपने-अपने हितों को समाहित करने वाला कोई इकलौता फ़ॉर्मूला तैयार करना नामुमकिन है. विकासशील देशों को अपने वृद्धि दर की चिंता है, वहीं विकसित देश हिस्सेदारी का विस्तार करने और लीकेज घटाने को लेकर फ़िक्रमंद हैं. डायनामिक ग्रेजुएशन फॉर्मूले में इन दोनों के बीच संतुलन बिठाने को लेकर एक हद तक लोचदार व्यवस्था मिलती है. फ़िलहाल विकसित और विकासशील देश चरणबद्ध रूप से बोझ उठाने की व्यवस्था पर रज़ामंद हो गए हैं. दरअसल, ये जलवायु परिवर्तन के मोर्चे पर तकनीकी व्यवस्था वाली प्रतिक्रिया है. पर्यावरण से जुड़ी समस्या के सामाजिक और सियासी निपटारे की क़वायद इस तरह से टल जाएगी पर उनकी ज़रूरतों को ख़त्म नहीं किया जा सकेगा. वैसे तो टेक्नोलॉजी तार्किक और कार्यकुशल लगती है लेकिन अक्सर इसकी दूरदर्शिता कठघरे में खड़ी हो जाती है. दरअसल ये वर्तमान की क़ीमत पर भविष्य की अनदेखी कर रही होती है. 

s

Source: International Energy Agency, Energy Technologies Perspective 2020;
Note: CCUS: Carbon capture, utilisation and storage

The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.

Authors

Akhilesh Sati

Akhilesh Sati

Akhilesh Sati is a Programme Manager working under ORFs Energy Initiative for more than fifteen years. With Statistics as academic background his core area of ...

Read More +
Lydia Powell

Lydia Powell

Ms Powell has been with the ORF Centre for Resources Management for over eight years working on policy issues in Energy and Climate Change. Her ...

Read More +
Vinod Kumar Tomar

Vinod Kumar Tomar

Vinod Kumar, Assistant Manager, Energy and Climate Change Content Development of the Energy News Monitor Energy and Climate Change. Member of the Energy News Monitor production ...

Read More +