Author : Shoba Suri

Published on Jul 27, 2023 Updated 0 Hours ago

दुनिया के पिछड़े इलाक़े जलवायु परिवर्तन का घातक प्रभाव झेल रहे हैं, जो उनके लिए खाद्य असुरक्षा पैदा कर रही है.  

Climate change and food security: अल्प-विकसित और विकासशील दुनिया में जलवायु परिवर्तन और खाद्य सुरक्षा के सुलगते सवाल!
Climate change and food security: अल्प-विकसित और विकासशील दुनिया में जलवायु परिवर्तन और खाद्य सुरक्षा के सुलगते सवाल!

ये लेख ‘समान’ लेकिन ‘विभिन्न’ उत्तरदायित्व निभाने का लक्ष्य: COP27 ने दिखाई दिशा! श्रृंखला का हिस्सा है.


पूरी दुनिया हालिया इतिहास के सबसे बड़े खाद्य संकट (food crisis) की मार झेल रही है. अगर इस संकट के वाहकों के निपटारे की दिशा में तत्काल क़दम नहीं उठाए गए तो करोड़ों लोग भुखमरी (hunger) की कगार पर आ जाएंगे. इन वाहकों में संघर्ष, जलवायु संकट (climate change) और वैश्विक मंदी (global recession) की आशंकाएं शामिल हैं. इन कारकों के चलते धरती पर सबसे नाज़ुक और कमज़ोर तबक़े की ज़िंदगी दिनों-दिन मुश्किल होती जा रही है और विकास के मोर्चे पर अतीत में हासिल कामयाबियां धूमिल होने लगी हैं. दुनिया में तक़रीबन 82.8 करोड़ लोग भुखमरी का सामना कर रहे हैं. साल 2019 से गंभीर खाद्य असुरक्षा(food insecurity)के शिकार लोगों की तादाद 13.5 करोड़ से बढ़कर 34.5 करोड़ हो गई है. विश्व के 49 अलग-अलग देशों के कुल 4.9 करोड़ लोगों के सामने भूखे पेट सोने के हालात पैदा हो गए हैं.

जलवायु संकट से ज़िंदगी, फ़सल और रोज़ी-रोज़गार बर्बाद हो जाते हैं, नतीजतन लोगों की माली हालत विकट हो जाती है. दुनिया के एक बड़े इलाक़े में संघर्ष और जलवायु परिवर्तन से करोड़ों लोग भुखमरी की कगार पर पहुंच गए हैं.

दरअसल, भूख से जुड़ी इस समस्या की मुख्य वजह संघर्ष है. विश्व में भुखमरी की चपेट में आए 60 प्रतिशत लोग हिंसा-प्रभावित और युद्धग्रस्त इलाक़ों में रह रहे हैं. हथियारबंद टकराव से लोग बेघरबार हो जाते हैं और उनकी आमदनी के ज़रिए तबाह हो जाते हैं. इससे भूख का संकट और संगीन हो जाता है. यूक्रेन संघर्ष इसकी जीती-जागती मिसाल है. जलवायु संकट से ज़िंदगी, फ़सल और रोज़ी-रोज़गार बर्बाद हो जाते हैं, नतीजतन लोगों की माली हालत विकट हो जाती है. दुनिया के एक बड़े इलाक़े में संघर्ष और जलवायु परिवर्तन से करोड़ों लोग भुखमरी की कगार पर पहुंच गए हैं. मध्य अमेरिकी ड्राई कॉरिडोर, हैती से साहेल, मध्य अफ़्रीकी गणराज्य, दक्षिणी सूडान, हॉर्न ऑफ़ अफ़्रीका, सीरिया और यमन से लेकर अफ़ग़ानिस्तान तक फ़ैला ये इलाक़ा“रिंग ऑफ़ फ़ायर” के नाम से जाना जाता है. कोविड-19 महामारी के वित्तीय प्रभावों की वजह से भुखमरी की समस्या रिकॉर्ड ऊंचाई पर पहुंच गई है. 2021 में खाद्य पदार्थों की क़ीमतों में हुई बढ़ोतरी ने निम्न-आय वाले देशों में 3 करोड़ की अतिरिक्त आबादी को खाद्य असुरक्षा के दलदल में धकेल दिया. कई मायनों में ये समस्या खाद्यान्न उत्पादन के मौजूदा तौर-तरीक़ों से जुड़ी है. 2021 में किए गए एक आकलन के मुताबिक ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में वैश्विक कृषि प्रणाली का योगदान तक़रीबन एक तिहाई है. मिथेन गैस के निर्माण और जैव-विविधता के नुक़सान में ऊर्जा उद्योग के बाद कृषि क्षेत्र का ही योगदान बताया जाता है.

कृषि पर असर

दुनिया की आबादी का तक़रीबन 80 फ़ीसदी हिस्सा सब-सहारा अफ़्रीका, दक्षिण एशिया और दक्षिण पूर्व एशिया में निवास करता है. यहां खेतीबाड़ी के काम में लगेपरिवारतंगहालहैं और बेहद नाज़ुक हालात में जी रहे हैं. ये इलाक़े जलवायु परिवर्तन के चलते फ़सल ख़राब होने और अकाल से जुड़े ख़तरों की ज़द में हैं. मौसम के अल-नीनो रुझान से पैदा भयंकर सूखे की वजह से करोड़ों लोगों के ग़रीबी के मकड़जाल में फंसने की आशंका है. फ़िलीपींस और वियतनाम जैसे अपेक्षाकृत ऊंची आय वाले देशों में भी अल नीनो के चलते जीडीपी, उपभोग और पारिवारिक आय में गिरावट का ख़तरा है. इससे ग़रीबी उन्मूलन और खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने की क़वायद को चोट पहुंच सकती है. कई इलाक़ों में पानी की ज़बरदस्त किल्लत के चलते सीमित जल संसाधन से गुज़ारा हो रहा है. यहां जलवायु परिवर्तन का कृषि उत्पादन पर धीरे-धीरे ऐसे ही नकारात्मक प्रभाव पड़ता रहेगा. मौसम के उग्र तेवरों के चलते बाढ़,विनाशकारीआंधी-तूफ़ान, भीषण गर्मी जैसी आपदाएं बढ़ती जाएंगी. फ़सल ख़राब करने वाले कीट-पतंगों और बीमारियों में भी लगातार बढ़ोतरी की आशंका है.

बढ़ते तापमान, पानी की किल्लत, सूखा, सैलाब और वातावरण में कार्बन डाइऑक्साइड की ऊंची सघनता के चलते दुनिया भर में खाद्यान्न उत्पादन प्रभावित हो रहा है. मौसम के उग्र तेवर, पौधों में लगने वाली बीमारियों और वैश्विक जल संकट की वजह से हाल के वर्षों में मक्के और गेहूं की उत्पादकता में गिरावट आई है. खाद्य और कृषि संगठन के मुताबिक अफ़्रीका के साहेल क्षेत्र में खाद्यान्नों की पैदावार में उतार-चढ़ाव की 80 प्रतिशत वजह जलवायु में होने वाला परिवर्तन है. बांग्लादेश और वियतनाम जैसे देशों में खाद्य सुरक्षा के मोर्चे पर एक और चुनौती समुद्र-जल का बढ़ता स्तर है. वियतनाम के मेकॉन्ग डेल्टा क्षेत्र के पानी में डूबने का असर विनाशकारी हो सकता है. दरअसल,इस देश में चावल के कुल उत्पादन का आधा हिस्सा यहीं उपजता है.

खाद्य और कृषि संगठन के मुताबिक अफ़्रीका के साहेल क्षेत्र में खाद्यान्नों की पैदावार में उतार-चढ़ाव की 80 प्रतिशत वजह जलवायु में होने वाला परिवर्तन है. बांग्लादेश और वियतनाम जैसे देशों में खाद्य सुरक्षा के मोर्चे पर एक और चुनौती समुद्र-जल का बढ़ता स्तर है.

ज़ाहिर तौर पर जलवायु परिवर्तन के चलते खाद्य फ़सलोंके उत्पादन में गिरावट आने से इंसानों के लिए खाद्य पदार्थों की उपलब्धता में कमी आ रही है. हालांकि आपूर्ति और मांग से जुड़ी इस सीधी क़वायद के प्रभाव भारी-भरकम हैं. जलवायु से जुड़ी किसी घटना (बड़ी या छोटी) के चलते खाद्य प्रणाली के किसी एक हिस्से में अड़चन आने से महंगाई बढ़ सकती है. पिछले 2 वर्षों मेंकोविड-19 के चलते विदेश व्यापार में खलल आने से हम ऐसी रुकावटों से दो-चार हो चुके हैं. निम्न और मध्यम-आय वाले 20 देशों में किए गए एक अध्ययन के मुताबिक एक शहरी परिवार अपनी आमदनी का औसतन 50 प्रतिशत से भी ज़्यादा हिस्सा खान-पान पर ख़र्च करता है. ग़रीब देशों में ये अनुपात 75 प्रतिशत तक चला जाता है. इन हालातों के चलते भोजन के लिए नक़दी पर निर्भरता, स्थायी आय और सस्ती खाद्य वस्तुएं, सेहतमंद आहार तक पहुंच बनाने की क़वायद को प्रभावित करने वाले 2 अहम कारक बन गए हैं. शहरी माहौल में खाद्य सुरक्षा पर इनका सीधा प्रभाव पड़ता है.

ग़रीबी का बढ़ता मकड़जाल

जलवायु परिवर्तन से खाद्य उत्पादन की मात्रा और गुणवत्ता, दोनों प्रभावित होती है. इनसे भुखमरी और कुपोषण के हालात पर असर पड़ता है. अध्ययनों के अनुसार जिन पौधों में CO2 का स्तर ऊंचा होता है, उनमें प्रोटीन, ज़िंक और आयरन की मात्रा कम हो जाती है. अनुमान के मुताबिक 2050 तक दुनिया की 17.5 करोड़ आबादी को ज़िंक की कमी का सामना करना पड़ सकता है. इसके अलावा 12.2 करोड़ लोगों में प्रोटीन की भी कमी हो सकती है. जलवायु परिवर्तन का पेड़-पौधों पर आधारित आहार व्यवस्था की गुणवत्ता के साथ-साथ पशुओं पर भी प्रभाव पड़ता है. खाने-पीने, तगड़े होने और मांस, अंडे और दूध के उत्पादन के लिए ये पशु उन्हीं संसाधनों का प्रयोग करते हैं जिनपर ख़ुद इंसान भी निर्भर है. सूखे से जुड़े तमाम तरह के नुक़सानों में गाय-भैंस, बकरियों और दूसरे पालतू पशु-पक्षियों का हिस्सा 36 प्रतिशत और फ़सलों का 49 प्रतिशत है. इसी तरह मौसम के उग्र तेवरों (ख़ासतौर से दक्षिणपूर्व एशिया जैसी जगहों में) से मछलियों की आबादी पर भी ख़तरा मंडरा रहा है.

खाद्य और कृषि संगठन के मुताबिक निम्न और मध्यम-आय वाले देशों में किसानों द्वारा पैदा खाद्य पदार्थों का लगभग एक तिहाई हिस्सा खेत और बाज़ार के बीच ही बर्बाद हो जाता है. इसी तरह उच्च-आय वाले देशों में बाज़ार और खाने की मेज़ के बीच भी इतनी ही मात्रा में खाद्य वस्तुएं नष्ट हो जाती हैं. ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में खाद्य प्रणाली का हिस्सा फ़िलहाल 21-37 प्रतिशत है. ज़ाहिर है खाद्य पदार्थों की बर्बादी जलवायु के विनाशकारी संकट और खाद्य असुरक्षा को और विकराल बना देती है.

पैदावार में गिरावट से और भी ज़्यादा लोग ग़रीबी के मकड़जाल में फंस जाएंगे. दुनिया में खाद्य-असुरक्षा से सबसे ज़्यादा प्रभावित देशों में ख़ासतौर से ऐसे हालात नज़र आ सकते हैं. पूर्वानुमान के मुताबिक 2030 तक सिर्फ़ अफ़्रीका में ही 4.3 करोड़ लोग ग़रीबी में गुज़र-बसर कर रहे होंगे. जलवायु परिवर्तन का वैश्विक खाद्य प्रणाली पर घातक असर होता है. हालात बदतर होने पर भूख और कुपोषण की मार झेल रहे लोगों के लिए नुक़सान की आशंकाएं और बढ़ जाती हैं. 2030 तक ‘भुखमरी ख़त्म करने’ से जुड़े सतत विकास लक्ष्यों को हासिल करने के लिए जलवायु परिवर्तन की वजहों का निपटारा करना होगा. ख़ासतौर से सियासी और नीतिगत स्तर पर ऐसी क़वायद करनी होगी. इस संकट से सबसे ज़्यादा प्रभावित इलाक़ों (ऐसे क्षेत्र जहां ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन अपेक्षाकृत कम होता है) की मदद के लिए हमें जलवायु के मोर्चे पर न्यायपूर्ण व्यवस्था को शीर्ष प्राथमिकता देनी होगी.

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