Published on Sep 29, 2021 Updated 0 Hours ago

जलवायु परिवर्तन और ऊर्जा स्रोतों में बदलावों के हिसाब से सबसे व्यस्त साल की शुरुआत के पहले ऐसा ढांचा सचमुच एक ऐसा बदलाव सुनिश्चित करेगा जिसमें सामाजिक, पर्यावरण और आर्थिक न्याय को केंद्र में रखा जाता है.

एक ‘न्यायपूर्ण बदलाव’: क्या भारत का हरित परिवर्तन समावेशी है?
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ऊर्जा निर्माण के लिए जैव-स्रोतों से आगे निकलकर स्वच्छ ऊर्जा की ओर बढ़ने की प्रक्रिया पहले से जारी है. इस प्रयास में ऊर्जा के ग़ैर-जैव स्रोतों जैसे नवीकरणीय ऊर्जा का बोलबाला है. भारत ऊर्जा के स्रोतों में बदलाव से जुड़ी इस यात्रा में बहुत तेज़ गति से आगे बढ़ रहा है. इस बदलाव को पुख़्ता करते कई अहम सबूत हमारे सामने मौजूद हैं.

12 अगस्त 2021 को भारत ने 100 गीगावाट की नवीकरणीय ऊर्जा निर्माण की स्थापित क्षमता का मुकाम पार कर लिया. इस कामयाबी के साथ ही भारत में ऊर्जा निर्माण की कुल स्थापित क्षमता में नवीकरणीय स्रोतों का हिस्सा तक़रीबन 26 प्रतिशत तक पहुंच गया है. अगर अन्य ग़ैर-जैव आधारित संसाधनों से हासिल ऊर्जा जैसे परमाणु और पनबिजली को भी इसमें जोड़ दिया जाए तो देश में ऊर्जा निर्माण की कुल स्थापित क्षमता में से ग़ैर-जैव आधारित स्रोतों का हिस्सा 39 प्रतिशत तक पहुंच जाता है. ये आंकड़ा दुनिया के देशों द्वारा जलवायु से जुड़ी कार्रवाई के लिए प्रस्तुत राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान (एनडीसी) में रखे गए 40 प्रतिशत के लक्ष्य के बेहद क़रीब है.

इसमें कोई शक़ नहीं है कि पहले के मुक़ाबले भारत अपने लक्ष्य के बेहद क़रीब आ गया है. हालांकि इसके बावजूद परिवर्तन के केंद्र में आम जनता को रखते हुए ‘न्यायपूर्ण बदलाव’ को सुविधाजनक बनाने वाला ढांचा यहां अब भी मोटे तौर पर नदारद है. 

​इसमें कोई शक़ नहीं है कि पहले के मुक़ाबले भारत अपने लक्ष्य के बेहद क़रीब आ गया है. हालांकि इसके बावजूद परिवर्तन के केंद्र में आम जनता को रखते हुए ‘न्यायपूर्ण बदलाव’ को सुविधाजनक बनाने वाला ढांचा यहां अब भी मोटे तौर पर नदारद है. दूसरी ओर ऐसा लगता है कि नीति निर्माता, पर्यावरण से जुड़े कार्यकर्ता, सेक्टर से जुड़े विशेषज्ञ और तमाम दूसरे प्रासंगिक किरदार आंकड़ेबाज़ियों और अनुमानों में ही उलझे हैं. वो बस ऊर्जा स्रोतों में बदलाव से जुड़ी मौजूदा यात्रा की कामयाबियों को मापने की जुगत में ही लगे हुए हैं.

नीचे के टेबल में वैश्विक और राष्ट्रीय स्तर पर ऊर्जा से जुड़े इन बदलावों पर कुछ अहम मात्रात्मक आंकड़ों का ब्योरा दिया गया है.

श्रेणी ब्योरा आकलन/आंकड़े
भारत के लिए लक्ष्य जीडीपी में उत्सर्जन के स्तर को 2030 तक 2005 के स्तर पर लाना उत्सर्जन की प्रबलता 33 प्रतिशत से 35 प्रतिशत
कुल स्थापित ऊर्जा निर्माण क्षमता में ग़ैर-जैव स्रोतों का हिस्सा 40 प्रतिशत
वन क्षेत्र और पेड़ों का दायरा बढ़ाकर कार्बन सिंक की क्षमता निर्माण 2.5-3 अरब टन कार्बन डाईऑक्साइड
2030 तक तैनात की जाने वाली नवीकरणीय ऊर्जा क्षमता 450GW
निवेश /वित्त जीडीपी में उत्सर्जन की सघनता को एनडीसी के लक्ष्य के हिसाब से 33-35 प्रतिशत तक घटाने के लिए ज़रूरी फ़ंड की आवश्यकता 2.5 खरब अमेरिकी डॉलर
आने वाले दो दशकों में भारत के लिए ज़रूरी स्वच्छ ऊर्जा तकनीकी को हासिल करने के लिए ज़रूरी वित्त अगले दो दशकों में 1.4 खरब अमेरिकी डॉलर
2030 तक नवीकरणीय ऊर्जा क्षेत्र में भारत के लक्ष्य को हासिल करने के लिए ज़रूरी निवेश 500 अरब अमेरिकी डॉलर
कुल 35 गीगावाट क्षमता वाले 25 साल से पुराने कोयला परिसंपत्तियों को बंद करने से होने वाली बचत 377.5 अरब रुपए
रोज़गार के आकलन जलवायु नीतियां अपनाए जाने से जैव ईंधन आधारित उद्योगों में 2030 तक वैश्विक रोज़गारों में कटौती 60 लाख
उचित जलवायु नीतियां अपनाए जाने पर 2030 तक वैश्विक रोज़गार निर्माण

2.4 करोड़

(नवीकरणीय क्षेत्र में 25 लाख नौकरियों समेत)

भारत के कोयला सेक्टर में रोज़गार पाने वाले लोगों की संख्या 1.2 करोड़
भारत के नवीकरणीय सेक्टर में रोज़गार पाए लोगों की संख्या (नवीकरणीय ऊर्जा के क्षेत्र में 2017 तक केवल प्रत्यक्ष नौकरियां) 4.3 लाख
2030 तक भारत द्वारा 450GW नवीकरणीय ऊर्जा क्षमता की तैनाती से रोज़गार निर्माण 5 लाख
एक “आशावादी मगर यथार्थपरक परिदृश्य” में 2042 तक भारत के नवीकरणीय ऊर्जा क्षेत्र में रोज़गार में बढ़ोतरी 45 लाख

अहम सवाल

हालांकि केवल इन आंकड़ों से ज़मीनी स्तर पर लोगों के जीवन से जुड़ी मुख्य चुनौतियों और सामने उभरकर आने वाले उनके प्रभावों की व्याख्या नहीं की जा सकती. इस संदर्भ में प्रक्रियाओं और इरादों के बारे में कई अहम सवाल खड़े होते हैं. ये प्रश्न किसी भी तरह के परिवर्तनकारी बदलावों या परिवर्तन से जुड़े विभिन्न किरदारों के क्रियाकलापों को संचालित करने वाले तंत्र से जुड़े होते हैं. इनमें से कुछ सांकेतिक सवाल नीचे दिए गए हैं:

*इस बदलाव का साझा, सामूहिक रूप से विचारा गया नतीजा क्या होगा?

*बदलाव की कामयाबी को मापने के मुनासिब पैमाने क्या हैं ताकि सोचे-विचारे गए नतीजों के मुक़ाबले उनकी तरक्की मापी जा सकती?

*इन पैमानों के संदर्भ में मौजूदा किरदारों, प्रक्रियाओं और इरादों का क्या प्रदर्शन रहा है?

*ये परिवर्तन मौजूदा परिस्थितियों की चुनौतियों से कैसे निपट सकता है? साथ ही बदलाव से हासिल अवसरों को कैसे अपने फ़ायदे में कर सकता है?

*बदलाव की सहजता की पड़ताल करने के लिए किस तरह की संस्थागत और प्रक्रियागत व्यवस्थाओं की ज़रूरत है? इतना ही नहीं किसी तरह के संभावित अनचाहे नतीजों से निपटने का तरीका क्या है?

ऐसा लगता है कि स्वच्छ ऊर्जा की ओर क़दम बढ़ाने की मौजूदा प्रक्रिया के पीछे “कोयला बुरा है, हरित स्रोत बेहतरीन हैं” की सोच काम कर रही है. कोयला खदान संघों, कोयला कंपनियों और कोयला-आधारित ऊर्जा क्षेत्र से जुड़े तमाम दूसरे किरदारों ने इस मानसिकता को लेकर अपनी नाख़ुशी जताई है

मौजूदा रणनीति

भारत में ऊर्जा बदलाव से जुड़ी मौजूदा रणनीतियों की बात करें तो इस संदर्भ में पड़ताल के सबसे पहले बुनियादी बिंदु पर ही विभाजन दिखना शुरू हो जाता है. देश में राष्ट्रीय स्तर पर अमल में लाए जा रहे ऊर्जा परिवर्तनों के स्वरूप, आकार और प्रकृति को लेकर विभिन्न किरदारों में भारी मतभेद और अव्यवस्था नज़र आती है. अंधाधुंध तरीके से नवीकरणीय ऊर्जा क्षमता का ऊंचा से ऊंचा स्तर हासिल करने की क़वायद जारी है. पर्यावरणवादी समूहों, स्थानीय समुदायों और कई बार तो ऊर्जा क्षेत्र के विशेषज्ञों ने भी इसको लेकर अपनी-अपनी चिंताएं ज़ाहिर की हैं. ऐसा लगता है कि स्वच्छ ऊर्जा की ओर क़दम बढ़ाने की मौजूदा प्रक्रिया के पीछे “कोयला बुरा है, हरित स्रोत बेहतरीन हैं” की सोच काम कर रही है. कोयला खदान संघों, कोयला कंपनियों और कोयला-आधारित ऊर्जा क्षेत्र से जुड़े तमाम दूसरे किरदारों ने इस मानसिकता को लेकर अपनी नाख़ुशी जताई है. ज़ाहिर है कि निवेश से जुड़ी नई कामयाबियों और नवीकरणीय ऊर्जा की लगातार बढ़ती क्षमताओं का जश्न मनाते वक़्त नाराज़गी भरे इन स्वरों को या तो जानबूझकर किनारे रखा जाता है या फिर उन्हें वाजिब अहमियत ही नहीं दी जाती. ज़ाहिर है कि ऊर्जा से जुड़े परिवर्तनों की योजनाएं बनाने और उनकी व्याख्या किए जाने के बेहद शुरुआती दौर में ही सामाजिक संवाद का अभाव दिखाई देता है. दरअसल ऐसा लगता ही नहीं है कि अतीत में कभी इस तरह का संवाद हुआ है.

रोज़गारों की निष्पक्ष पड़ताल

संबंधित लोगों के जीवन की गुणवत्ता के प्रदर्शन के संदर्भ में मात्रात्मक आंकड़े अक्सर भ्रामक पाए गए हैं. मिसाल के तौर पर कई रिपोर्टों में इस बात पर ज़ोर दिया गया है कि स्वच्छ ऊर्जा की ओर आगे बढ़ने से पैदा हुए हरित रोज़गार कोयला उद्योग में गंवाई गई नौकरियों के मुक़ाबले बहुत ज़्यादा होंगे. हालांकि इस संदर्भ में एक अहम विभाजनकारी तथ्य पर ग़ौर करने की ज़रूरत है. दरअसल इस तरह का निष्कर्ष निकालते हुए ये मान लिया जाता है कि हर प्रकार का हरित रोज़गार एक समान रूप से सम्मानजनक होगा. आम समझ तो ये कहती है कि नवीकरणीय ऊर्जा परियोजनाओं में पैदा हुए ज़्यादातर रोज़गार निर्माण कार्य से जुड़े होंगे. इस प्रकार का रोज़गार मौसमी, अनिश्चित और बेहद जोखिम भरा होता है. ऐसी नौकरियां असंगठित स्वभाव की होती हैं. इनमें सामाजिक सुरक्षा का अभाव होता है. इतना ही नहीं अक्सर ऐसे रोज़गारों में बाल श्रम, आधुनिक बंधुआ मज़दूरी और इसी प्रकार के दूसरे तौर-तरीक़ों का बोलबाला होता है. हालांकि यहां इन बातों का ये मतलब नहीं है कि कोयला-आधारित रोज़गारों के साथ इस तरह के मसले जुड़े हुए नहीं थे, लेकिन घटिया किस्म के रोज़गारों को उतने ही ख़राब या बदतर किस्म के रोज़गारों के साथ बदले जाने का जश्न मनाना ‘सामाजिक न्याय’ के लिए हानिकारक है. बदलाव के न्यायपूर्ण ढांचे में हम इसी लक्ष्य की तलाश में हैं. टिकाऊ और सतत वित्त को आगे बढ़ाने वाली पूरी लॉबी को अपने निवेश से पैदा हुई नौकरियों की गुणवत्ता पर पूरी गंभीरता से निगरानी रखनी चाहिए. महज़ नवीकरणीय ऊर्जा परियोजना होने भर से ही अच्छी-तनख़्वाह वाली नौकरी की गारंटी नहीं हो जाती. न ही बस इतने भर से कौशल और आय की बढ़ोतरी का भरोसा होता है. और तो और इस बात की भी गारंटी नहीं होती कि ऐसा रोज़गार काम से जुड़े जोखिमों से सुरक्षित होगा. ज़रूरी नहीं है कि ऐसी नौकरियां कामगारों के बीच सामूहिकता को भी बढ़ावा दे. दरअसल कामगारों का सम्मानजनक जीवन सुनिश्चित करने के लिए उनतक सामाजिक सुरक्षा का जाल पहुंचाना ज़रूरी होता है. केवल नवीकरणीय ऊर्जा परियोजना का नाम मिल जाने से इस तरह की ज़रूरतें पूरी नहीं होती. वहीं दूसरी ओर पर्यावरण के मोर्चे पर कोयला क्षेत्र को खलनायक बता देने का मतलब ये नहीं है कि रोज़गारों, आजीविका और समुदायों से जुड़े उनके प्रभावों को हमेशा अच्छे या बुरे के चश्मे से देखा जाए. ऊर्जा क्षेत्र में उभरते नवीकरणीय सेक्टर और ढलते कोयला सेक्टर में रोज़गारों की निष्पक्ष पड़ताल करने की ज़रूरत है. इस तरह की क़वायद के ज़रिए ऊर्जा क्षेत्र से जुड़े इकोसिस्टम की फिर से कल्पना करते वक़्त पुरानी व्यवस्था की बुराइयों को दूर कर उन्हें दोहराए जाने की संभावनाओं को टाला जा सकता है.

 ऊर्जा क्षेत्र में उभरते नवीकरणीय सेक्टर और ढलते कोयला सेक्टर में रोज़गारों की निष्पक्ष पड़ताल करने की ज़रूरत है. 

इसके अलावा एकाकी रूप से सिर्फ़ मात्रात्मक संकेतकों का सहारा लेने पर कुछ दूसरे डरावने तथ्यों पर ज़रूरी तवज्जो नहीं हो पाती. इनमें पारदर्शिता और जवाबदेही का अभाव शामिल है. इतना ही नहीं स्वच्छ ऊर्जा की ओर आगे बढ़ने से जुड़ी निर्णय प्रक्रिया में सामाजिक भागीदारी की बात पर भी पूरा ध्यान नहीं दिया जाता. इसी प्रकार आधे-अधूरे विश्लेषणों से मौजूदा कोयला और कोयला आधारित ऊर्जा बेड़े को कार्बन-मुक्त बनाए जाने पर भी समुचित रूप से ज़ोर नहीं दिया जाता. ज़मीनी तौर पर आने वाली कई ख़बरों के मुताबिक देश के कई हिस्सों में सौर और पवन ऊर्जा से जुड़ी अनेक परियोजनाओं के लिए ज़मीन अधिग्रहण करने की प्रक्रियाओं में सार्वजनिक चिंताओं और जन भागीदारी की उपेक्षा की जाती रही है. स्थानीय स्तर पर लोगों को शायद ही किसी निजी या सार्वजनिक परियोजना के बीच का बुनियादी फ़र्क़ भी पता होता है. इस तरह की अज्ञानता ख़ासतौर से तब ज़्यादा नज़र आती है जब उनकी ज़मीन का अधिग्रहण करने वाली इकाई ख़ुद राज्यसत्ता हो. अक्सर जानकारी के इस अभाव का बेजा इस्तेमाल कर निजी क्षेत्र से जुड़ी पार्टियां अपना उल्लू सीधा करती हैं. वो स्थानीय लोगों की आवाज़ दबाने की जुगत करती रहती हैं. कई बार इसके लिए वो क़ानून और स्थानीय पुलिस तक का इस्तेमाल करती हैं. भूमि अधिग्रहण या परियोजना निर्माण के दौरान उभरने वाले किसी तरह के मतभेद या प्रतिरोध से ऐसे ही तौर-तरीक़ों से निपटा जाता है.

इसी प्रकार सार्वजनिक उपयोग वाली ज़मीनों के संदर्भ में जो ‘जनता’ उस भूमि को अपनी आजीविका, खेतीबाड़ी या दूसरे मकसदों के लिए इस्तेमाल कर रही होती है, उससे उनकी भूमि के अधिग्रहण से पहले शायद ही कभी सलाह मशविरा किया जाता हो. विरले ही उन्हें कभी इसके बारे में सूचित किया जाता है. कई मामलों में अगर प्रभावित लोगों से रायशुमारी की भी जाती है, तब भी वो क़ानूनी पेचीदगियों से भरी सुनवाई जैसी बन जाती है. अक्सर इसमें जन प्रतिनिधियों और स्थानीय स्तर पर प्रभाव रखने वाले नेताओं को शामिल किया जाता है. ये लोग ही आम जनता की ओर से राय मशविरे की प्रक्रिया का संचालन करते हैं. हालांकि कई बार ऐसा देखा गया है कि निर्माण या रसद से जुड़े ठेकों जैसे अपने भौतिक लाभ की एवज़ में ऐसे जन प्रतिनिधि या प्रभावशाली लोग निजी कंपनियों के साथ सौदे कर लेते हैं. हाल ही में ऐसे ही एक मामले में सुप्रीम कोर्ट ने राजस्थान के जैसलमेर ज़िले में सौर ऊर्जा प्लांट के लिए दी गई ज़मीन का आवंटन रद्द कर दिया था. उस ज़मीन के सार्वजनिक उपयोग वाली भूमि होने के चलते ऐसा आदेश पारित किया गया. हालांकि स्थानीय लोग अब भी इस मामले में आगे की कार्रवाई नहीं होने की शिकायत कर रहे हैं. साथ ही उनका ये भी कहना है कि संबंधित कंपनी के कर्मचारी और अधिकारी उनको लगातार प्रताड़ित कर रहे हैं. इतना ही नहीं स्थानीय लोगों का ये भी इल्ज़ाम है कि कोर्ट के आदेश के बावजूद स्थानीय प्रशासन निर्माण कार्यों को जारी रखने की क़वायद में लगा है.

हाल ही में ऐसे ही एक मामले में सुप्रीम कोर्ट ने राजस्थान के जैसलमेर ज़िले में सौर ऊर्जा प्लांट के लिए दी गई ज़मीन का आवंटन रद्द कर दिया था. उस ज़मीन के सार्वजनिक उपयोग वाली भूमि होने के चलते ऐसा आदेश पारित किया गया. हालांकि स्थानीय लोग अब भी इस मामले में आगे की कार्रवाई नहीं होने की शिकायत कर रहे हैं. 

स्वच्छ ऊर्जा की ओर रुख़ करने के रास्ते में ये अगली चुनौती से जुड़ता है. नवीकरणीय ऊर्जा को महिमामंडित करने वाले मात्रात्मक संकेतकों के चलते इस तरह की चुनौतियों पर ज़्यादा ध्यान नहीं जाता. अक्सर स्थानीय लोगों को नौकरियों में वरीयता देने का आश्वासन देकर ठगा जाता है. नवीकरणीय ऊर्जा कंपनियां इस तरह के वादे तो करती हैं पर कोई लिखित आश्वासन नहीं देतीं. ज़्यादातर मामलों में ऐसी कंपनियां स्थानीय लोगों को सिर्फ़ अकुशल कार्यों जैसे चौकीदार या सुरक्षा गार्ड के तौर पर नौकरियों पर रखती हैं. कंपनियां अक्सर इस संदर्भ में लिखित नियम-क़ायदों (जबकि स्थानीय लोगों को नौकरियां देने के मामले में वो बिना लिखित वादे के सिर्फ़ ज़ुबानी आश्वासन देते हैं) के साथ सामने आती हैं. इन नियमों को इस तरह से तैयार किया जाता है कि एक बार प्लांट का कामकाज चालू होते ही स्थानीय लोग ख़ुद ब ख़ुद वरीयता प्राप्त सूची से बाहर हो जाते हैं. ये नियम-क़ायदे सेवा से जुड़े बेहद सख़्त गुणवत्ता मानकों (कंपनी के साथ ठेका जारी रखने के लिए हर महीने कार की सर्विसिंग की ज़रूरत जैसे नियम) से जुड़े हो सकते हैं. या फिर नौकरियों से बर्ख़ास्तगी के नियमों में गड़बड़झाले (किसी भी कर्मचारी के ख़िलाफ़ कोई आपराधिक मामला बनाकर उसे नौकरी से निकाल देना) का तरीक़ा अपनाया जाता है. या फिर स्थानीय लोगों को कभी भी पूर्णकालिक स्थायी कर्मचारी के तौर पर बहाल नहीं करने की रणनीति अपनाई जा सकती है. उन्हें हमेशा ही एक ठेकेदार के ज़रिए नौकरी पर रखने की परिपाटी अपनाई जाती है ताकि उन्हें आसानी से किनारे लगाया जा सके या नौकरी से बर्ख़ास्त किया जा सके. लिहाज़ा किसी भी क़ीमत पर मुनाफ़ा कमाने के इरादे से काम करने वाली हरित ऊर्जा परियोजनाएं भी उसी रास्ते पर चलती दिखाई देती हैं जिसपर कई शोषक उद्योग और पूंजीवादी पिछले काफ़ी लंबे समय से चलते आ रहे हैं.

निष्कर्ष

लिहाज़ा ऊर्जा क्षेत्र में होने वाले परिवर्तनों को सचमुच एक ‘न्यायपूर्ण’ बदलाव बनाने के लिए निष्पक्ष, समावेशी और दृढ़ संवादों की ज़रूरत है, ताकि ज़मीन से उठती उन आवाज़ों को सुना जा सके जिनको ऐतिहासिक रूप से अनसुना किया गया है. तमाम दूसरे पक्षों के साथ-साथ कामगारों, पर्यावरणवादी कार्यकर्ताओं, सेक्टर एक्सपर्ट्स, स्थानीय प्रशासन, पुलिस, लाइन विभागों, नोडल एजेंसियों, पावर प्लांट निर्माताओं, सामुदायिक प्रतिनिधियों और थिंक टैंकों को एक मंच पर आकर ऊर्जा क्षेत्र में परिवर्तनों से जुड़े विभिन्न पहलुओं को सामूहिक रूप से आकार देना होगा.

इतना ही नहीं इस सामूहिक सामाजिक संवाद से पहले इससे जुड़े एक-एक किरदार को आत्ममंथन करना होगा. उन्हें अपने-अपने पूर्वाग्रह छोड़ने होंगे. अपने इरादों और मकसदों को साफ़ करना होगा. इसके बाद उन्हें एक-दूसरे की चिंताओं को पूरा ध्यान लगाकर सुनना होगा ताकि इस तरह का संवाद शब्द-युद्ध या ज़ुबानी जंग में न बदल जाए. दरअसल इस पूरी क़वायद का लक्ष्य सकारात्मक और भावी नज़रिए के साथ रणनीति-निर्माण की प्रक्रिया को सिरे चढ़ाना है. इस पूरी प्रक्रिया से ऊर्जा परिवर्तन के न्यायोचित ढांचे के सबसे अहम स्तंभ के बेहतरीन इस्तेमाल को गति मिल सकेगी. वो महत्वपूर्ण स्तंभ है सामाजिक संवाद जिसे अक्सर नज़रअंदाज़ कर दिया जाता है.

जलवायु परिवर्तन और ऊर्जा स्रोतों में बदलावों के हिसाब से सबसे व्यस्त साल की शुरुआत के पहले ऐसा ढांचा सचमुच एक ऐसा बदलाव सुनिश्चित करेगा जिसमें सामाजिक, पर्यावरण और आर्थिक न्याय को केंद्र में रखा जाता है.

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लेखक सार्वजनिक नीति से जुड़े स्वतंत्र सलाहकार हैं जो सतत रूप से या टिकाऊ, समावेशी अर्थव्यवस्था और ठोस या मज़बूत स्वरूपों से जुड़े मुद्दों पर काम कर रहे हैं.

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