ये लेख हमारी सीरीज़, पाकिस्तान: दि अनरेवलिंग का ही एक हिस्सा है.
पाकिस्तान में 9 मई और उसके बाद के दिनों में हुई घटनाओं पर छाया घना कोहरा तेज़ी से साफ़ हो रहा है. इमरान ख़ान की गिरफ़्तारी के बाद पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ (PTI) ने जिस जाहिलाना तरीक़े से हिंसा को भड़काया और फिर उसे क़ुदरती प्रतिक्रिया बताने की कोशिश की, उसके नतीजे भी सामने आ रहे हैं. तहरीक-ए-इंसाफ़ के सियासी पतझड़ के दिन शुरू हो चुके हैं और उसके पतन के दिन बेहद क़रीब आ रहे हैं.
ऐसा लगता है कि लाहौर में जिन्ना हाउस पर हुए हमले की गुत्थी सुलझा ली गई है. पता चला है कि जिस दिन वहां पर हमला हुआ, उस दिन लाहौर के तत्कालीन कोर कमांडर लेफ्टिनेंट जनरल सलमान फैयाज़ ग़नी को साफ़ तौर से निर्देश दिया गया था कि वो लाहौर कैंट पर हमला करने वाली हिंसक भीड़ को रोकें. लेकिन, जनरल सलमान ग़नी- जो इमरान ख़ान के जाने माने मुरीद या पाकिस्तानी सोशल मीडिया के मुताबिक़ ‘इमरानदार जनरल’ हैं, और पहले भी इमरान ख़ान के ख़िलाफ़ कार्रवाई करने में हिचक दिखा चुके थे- वो एक बार फिर कार्रवाई करने से डर गए. मिसाल के तौर पर इससे पहले जब PTI के कार्यकर्ता ज़िल्ले शाह की हत्या के बाद विरोध प्रदर्शन भड़क उठे थे, तब तो जनरल सलमान फ़ैयाज़ ग़नी ने अपने मातहतों को इस बात के लिए फटकार तक लगाई थी कि आख़िर उन्होंने प्रदर्शनकारियों को रोका क्यों.
जिन्ना हाउस पर हमले के तुरंत बाद पाकिस्तान के सेनाध्यक्ष जनरल आसिम मुनीर ने ज्वाइंट चीफ्स ऑफ स्टाफ कमेटी के प्रमुख जनरल साहिर शमशाद मिर्ज़ा से सलाह मशविरा किया, जिसके फ़ौरन बाद जनरल ग़नी को उनके पद से हटा दिया गया. इसके बाद, जनरल ग़नी के दो मातहत अधिकारियों, मुख्य रूप से उनके दो जनरल ऑफिसर कमांडिंग ने उनकी फोन कॉल का जवाब नहीं दिया. इसके चलते पैदा हुई ग़फ़लत में भीड़ जिन्ना हाउस में घुस गई और लूटपाट की. पाकिस्तानी फ़ौज की जिस संस्थागत एकजुटता में इमरान ख़ान ने सेंध लगाने की कोशिश की थी, उसमें इस घटना से बड़ी दरार पड़ गई थी. लेकिन, जनरल ग़नी को बर्ख़ास्त किए जाने के बाद फ़ौज इस मुश्किल के सामने संभल गई. हालांकि, फ़ौज की एकजुटता इस वक़्ते बेहद नाज़ुक बुनियाद पर टिकी है.
‘प्रोजेक्ट इमरान ख़ान’
इमरान ख़ान ने फ़ौज की संस्थागत एकजुटता को लगभग तबाह कर डाला है- तफ़्तीश से पता चला है कि फ़ौज के ठिकानों पर इमरान समर्थकों के हमले, ख़ुद फ़ौज के भीतर से मिली मदद की बिनाह पर किए गए थे. ख़ुद सेना के भीतर से लोगों ने हमला करने के ठिकाने तय करने, वहां तक पहुंचने का रास्ता बताने, हमला करने के लिए दाख़िल होने और फिर वहां से सुरक्षित भाग निकलने में भीड़ की मदद की थी. आरोप है कि इन हमलों के असली मास्टरमाइंड, ISI के पूर्व प्रमुख रिटायर्ड लेफ्टिनेंट जनरल फ़ैज़ हमीद थे. अब फ़ौज के भीतर मौजूद ‘इमरानदार’ जनरलों को अलग-थलग किया जा रहा है. सितंबर महीने में जब सेनाध्यक्ष जनरल आसिम मुनीर को कोर कमांडर की अगली पीढ़ी को तैनात करने का मौक़ा मिलेगा, तब ये सफ़ाई अभियान शायद पूरा हो जाएगा.
सितंबर ही वो महीना होगा, जब पाकिस्तान की अदालतों में बैठे कुछ ‘इमरानदार’ जजों की भी विदाई हो जाएगी. वैसे भी, तहरीक-ए-इंसाफ़ के कार्यकर्ताओं ने जिस तरह गुंडागर्दी की थी, उसके बाद से ज़्यादातर लोगों के बीच इमरान ख़ान के लिए हमदर्दी लगभग ख़त्म हो चुकी है. एक ख़ास तरह की बेशर्मी भी देखने को मिल रही है; शायद यही वजह है कि तहरीक-ए-इंसाफ के बड़े नेताओं और पूर्व कैबिनेट मंत्रियों को अदालत से रिहाई के आदेश के बाद भी बार-बार गिरफ़्तार किया जाता रहा. जब से पाकिस्तान के सत्ताधारी लोकतांत्रिक गठबंधन (PDM) के नेता मौलाना फ़ज़लुर्रहमान ने सुप्रीम कोर्ट के बाहर धरना दिया है, तब से पाकिस्तान की अदालतों के सुर भी मद्धम पड़ गए हैं. फिर भी, न्यायपालिका पर दबाव बनाने के लिए पाकिस्तान की नेशनल असेंबली में मुख्य न्यायाधीश जस्टिस उमर अता बंदियाल के ख़िलाफ़ एक न्यायिक अपील पर बहस चल रही है. इसी बीच, पाकिस्तान के तंत्र को दोबारा एकजुट करने की कोशिश का संकेत तब मिला, जब कोर कमांडर की एक विशेष बैठक बुलाई गई. इसके बाद प्रधानमंत्री की अध्यक्षता वाली नेशनल सिक्योरिटी कमेटी ने 9 मई को हिंसा करने वाली भीड़ के साथ साथ, इसकी साज़िश रचने और लोगों को हिंसा के लिए भड़काने वालों से सख़्ती से निपटने का फ़ैसला किया. जिन लोगों का हिंसा में हाथ रहा था, उनके ख़िलाफ़ बड़े पैमाने पर क़ानूनी कार्रवाई की जा रही है. पंजाब और ख़ैबर पख़्तूनख़्वाह सूबों में सेना को तैनात कर दिया गया है. सिंध में भी फ़ौज से मदद मांगी गई है और लगभग 5000 लोगों को गिरफ़्तार किया गया है. ऐसा लग रहा है इमरान ख़ान के ख़िलाफ़ भी आर्मी एक्ट के तहत मुक़दमा चलाया जाएगा. इसका मतलब है कि कोर्ट मार्शल की कार्यवाहियों को सामान्य अदालतों में चुनौती नहीं दी जा सकेगी. ‘प्रोजेक्ट इमरान ख़ान’ के ख़ात्मे का बिगुल बज चुका है; उनके इर्द गिर्द शिकंजा कसता ही जा रहा है.
पाकिस्तान की त्रासदी ये है कि अब वहां पर शासन का कोई भी संस्थान ऐसा नहीं बचा है, जो निष्पक्ष या निरपेक्ष हो. न तो अदालतें, न राष्ट्रपति, और यहां तक कि पाकिस्तान की फ़ौज भी नहीं. आज मुल्क की सारी संस्थाएं गहरे सियासी दलदल और ख़ेमेबंदियों में फंसी है. साफ़ दिख रहा है कि इसके कारण पाकिस्तान में सत्ता का निज़ाम अराजकता का शिकार हो चुका है. अपने अहंकार में इमरान ख़ान ने सीधे फ़ौजी ठिकानों पर हमला करवाया, ताकि अपने सबसे बड़े दुश्मन जनरल आसिम मुनीर को संदेश दे सकें; उन्हें ऐसा करने के लिए ख़ुद फ़ौज के भीतर से कुछ लोगों ने चुपके-चुपके भड़काया और शायद इमरान ख़ान को इस बात का यक़ीन था कि वो किसी मुश्किल में पड़े, तो चीफ जस्टिस उन्हें बचा लेंगे, और मुख्य न्यायाधीश जस्टिस बंदियाल ने इमरान के प्रति मुहब्बत और लगाव का खुला इज़हार करते हुए ऐसा किया भी. लेकिन, अब ये बात बिल्कुल साफ़ है कि इमरान ख़ान ने अपने इस दांव के नफ़ा नुक़सान का ग़लत अंदाज़ा लगाया था, और अब हुकूमत पूरी ताक़त से उनके पीछे पड़ गई है.
एक सियासी दल के तौर पर तहरीक-ए-इंसाफ़ इस वक़्त बड़ी मुश्किल में है; उसके नेता पार्टी छोड़ने लगे हैं. कुछ लोगों ने तो अंतरात्मा की आवाज़ पर ये फ़ैसला किया, तो कुछ लोगों ने सॉफ्टवेयर अपडेट के चलते (फ़ौज के इशारे पर) ये क़दम उठाया. कार्यकर्ताओं को भी महसूस हो रहा है कि नेताओं ने उन्हें उनके हाल पर छोड़ दिया है. पार्टी के कई बड़े नेताओं ने 9 मई की घटनाओं की निंदा की है, वहीं कुछ ने अपने इस्तीफ़े सौंप दिए हैं. अब इमरान ख़ान की पार्टी टूटने की चर्चाएं भी चल रही हैं. अपने एक ग़लत क़दम से इमरान ख़ान ने अपनी ज़बरदस्त लोकप्रियता को गंवा दिया है.
प्रोजेक्ट इमरान ख़ान वैसा ही है, जो हम पहले भी कई बार पाकिस्तान की सियासी तारीख़ में देख चुके हैं. क्रिकेट में अपनी लोकप्रियता को देखते हुए, इमरान ख़ान ने सियासी ताक़त की मांग की. पाकिस्तान में सत्ता के ढांचे में फ़ौज़ की अहमियत को देखते हुए, इमरान ख़ान ने फ़ौज की पूंछ पकड़ ली. पाकिस्तानी ख़ुफ़िया एजेंसी ISI और फ़ौज ने भी उन्हें ख़ुशी ख़ुशी बढ़ावा दिया. नतीजा ये कि इमरान के रूप में फ़ौज ने मुल्क के लिए एक बड़ा दानव खड़ा कर दिया. आख़िर आख़िर तक इमरान ख़ान ने अपनी लोकप्रियता का हवाला देते हुए पाकिस्तानी फ़ौज की मदद से सत्ता हासिल करने की कोशिश की. इसकी ताज़ा मिसाल हमें इमरान ख़ान की उस गुहार के तौर पर देखने को मिली, जब उन्होंने जनरल आसिम मुनीर के साथ एक मुलाक़ात करने की अपील की. लेकिन उनकी कोई सुनवाई नहीं हुई. इमरान ख़ान हमेशा ही बड़े बड़े आदर्शों की बातों के बजाय नफ़ा नुक़सान के मुताबिक़ सियासत करते रहे हैं. इमरान ख़ान की असली नीयत हमेशा से, फ़ौज को राजनीति में दख़लंदाज़ी से दूर रखने के बजाय, उसको अपने सियासी मक़सद के लिए इस्तेमाल करने की रही है. उन्होंने अपनी पार्टी के भीतर गुडों और माफ़िया को बढ़ावा दिया, ताकि वक़्त ज़रूरत पर वो कभी अपने सियासी विरोधियों को खलनायक बता सकें. या फिर, बदलते माहौल के मुताबिक़ अपने राजनीतिक फ़ायदे के लिए फ़ौज की छवि को ख़राब करा सकें. इसका नतीजा ये हुआ कि जब इमरान ख़ान सत्ता में आए, तो अपने मक़सद से भटक गए, और पाकिस्तान को रियासत-ए-मदीना बनाने का वो वादा पूरा नहीं कर सके, जिसका ख़्वाब अवाम को दिखाकर वो हुकूमत में आए थे. रियासत-ए-मदीना का सपना धूमिल होते होते आंखों से ओझल हो गया. इमरान ख़ान जैसे अस्थिर और जनवादी नेता को भी ये समझना होगा कि लोकप्रियता पर वैधता की मुहर तभी लगती है, जब वो क़ानून के राज का सम्मान करें.
पाकिस्तानी सेना
जहां तक पाकिस्तानी फ़ौज की बात है, तो अब उसे नए पाकिस्तान की इस तल्ख़ हक़ीक़त को स्वीकार करना होगा. आज पाकिस्तानी आवाम का एक बड़ा तबक़ा, मुल्क पर फ़ौज के शिकंजे को लेकर सवाल उठा रहा है. फ़ौज को ये समझना होगा कि इमरान ख़ान जैसे दानव को तैयार करके उसे हुकूमत में बैठाने के कितने ख़तरनाक नतीजे निकलते हैं; आख़िर में ऐसे लोग न केवल सेना उम्मीदों पर पानी फेरते हैं, बल्कि उसकी हस्ती को भी घायल कर देते हैं. पाकिस्तानी सेना को चाहिए कि वो ‘पाकिस्तान की क्षेत्रीय और वैचारिक सीमाओं की रक्षक’ होने की अपनी भूमिका पर भी फिर से विचार करें. इससे कम आकांक्षाएं भी उसके लिए पर्याप्त होंगी. पाकिस्तान के जनरलों को सरकार और सेना के रिश्तों के बारे में नए सिरे से समझ पैदा करनी होगी कि ‘असैन्य लोग ग़लत होकर भी सही होते हैं. ग़ैर फ़ौजी लोगों को ग़लत होने का हक़ है.’ तभी जाकर अवाम और सत्ता के केंद्र के या फिर तोप की नली से मिलने वाली ताक़त के बीच तनाव कम हो सकेगा.
इस बीच पाकिस्तान, धीरे धीरे आर्थिक तबाही की ओर बढ़ रहा है; उसकी अर्थव्यवस्था की विकास दर बस 0.5 प्रतिशत रह गई है. अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF) से मिलने वाला क़र्ज़ एक सपना बनकर रह गया है. यहां तक कि विदेश में रहने वाले पाकिस्तानी जो रक़म अपने देश भेजा करते हैं, उसमें भी गिरावट आ रही है. ऐसा लगता है कि पाकिस्तान में लगभग सभी लोगों का यक़ीन ख़त्म होता जा रहा है. गृह युद्ध के आसार, संविधान का मज़ाक़ उड़ाना और आर्थिक संकट जैसी मुश्किलें मिलकर, पाकिस्तान को तबाही की ओर ले जा रहे हैं. पाकिस्तान का विचार तो अब दूर की कौड़ी बन चुका है. अब तो उसका अस्तित्व ही ख़तरे में पड़ गया है.
पाकिस्तान से भारत एक सबक़ सीख सकता है; इमरान की पैदा की हुई अराजकता से पश्चिमी मोर्चे पर मिले मौक़े का फ़ायदा उठाकर, वो उत्तरी सीमा पर मौजूद अपने दुश्मन के ख़िलाफ़ मज़बूत मोर्चेबंदी करे. भारत ने जिस तरह सरकार और फ़ौज के बीच आपसी सम्मान का रिश्ता क़ायम करने की अक़्लमंदी दिखाई है, उस तालमेल को आगे बढ़ाते हुए अब हम अपनी साझा शक्ति को और मज़बूत करें और चीन के मुक़ाबले ताक़त के असंतुलन को कम करें. बुद्धिमानी इसी में है कि हम ख़ुद को याद दिलाएं कि, पाकिस्तान तो एक छोटा सा कीड़ा मात्र है. हमको असली ख़तरा तो चीन से है.
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