Author : Samir Saran

Published on Feb 05, 2022 Updated 0 Hours ago

भारत अपनी ‘आर्थिक संरचना’ को इन नई हक़ीक़तों के हिसाब से किस तरह ढालेगा और ‘महासागरों पर दादागीरी रोकने की अपनी प्रतिबद्धता’ को कैसे लागू करेगा, यही बात नए क्षेत्रों की अगुवाई की भारत की क्षमता तय करेगी.

75 वर्ष का भारत: नैतिकता, अर्थव्यवस्था और मिसाल

ये लेख हमारी सीरीज़, इंडिया@75: एस्पिरेशंस, एंबिशंस और एप्रोचेज़ पर संपादक की टिप्पणी है.


जब 2020 के दशक की शुरुआत हुई, तो अनदेखे संकटों और अभूतपूर्व उठा-पटक से थके और बेज़ार अंतरराष्ट्रीय समुदाय ने उम्मीद की थी कि एक स्थिर शुरुआत होगी. मगर ये उम्मीद ज़्यादा समय तक क़ायम नहीं रह सकी. कोविड-19 की महामारी आज भी दुनिया के तमाम देशों और महाद्वीपों पर एक सा क़हर बरपा रही है. ये महामारी इंसानों की जान ले रही है, और सरकारों को मुश्किल में डाले हुए है. महामारी की शुरुआत के दो बरस से भी ज़्यादा अरसा बीत जाने के बाद आज ये बिल्कुल साफ़ होता जा रहा है कि हमें इस वायरस के साथ जीने की आदत डालनी पड़ेगी, क्योंकि ये बार बार रूप बदलकर अब एक मौसमी बीमारी बनने की तरफ़ बढ़ रहा है. अब एक ‘नया दौर’ आ रहा है, जब कोविड-19 महामारी से समुदाय, देश और महाद्वीप छिन्न-भिन्न नहीं होंगे. हालांकि, दुनिया में वैक्सीन के असमान वितरण के चलते आने वाले समय में इस वायरस के कम घातक वेरिएंट सामने आने की आशंका बनी रहेगी.

अब एक ‘नया दौर’ आ रहा है, जब कोविड-19 महामारी से समुदाय, देश और महाद्वीप छिन्न-भिन्न नहीं होंगे. हालांकि, दुनिया में वैक्सीन के असमान वितरण के चलते आने वाले समय में इस वायरस के कम घातक वेरिएंट सामने आने की आशंका बनी रहेगी.

अंतरराष्ट्रीय समुदाय को नए विचारों की ज़रूरत

लेकिन, कोविड-19 द्वारा हमें अपने रहन सहन के तौर-तरीक़ों पर क्रांतिकारी ढंग से दोबारा नज़र डालने और इसमें बदलाव लाने पर मजबूर करने से पहले से ही, दुनिया पर एक ख़ास तरह की थकन तारी होने लगी थी. सत्ता के संतुलन में भौगोलिक और पीढ़ियों में एक बार होने वाले बदलाव आ रहे थे. तकनीक पर आधारित इनोवेशन की तेज़ रफ़्तार और दुनिया के अस्तित्व के लिए ख़तरा बन चुकी जलवायु परिवर्तन जैसी चुनौतियों ने मिलकर मौजूदा अंतरराष्ट्रीय नियमों और संस्थाओं की इनसे लड़ने की शक्ति निचोड़ डाली थी. तमाम चुनौतियों ने अगर इन संस्थाओं को ख़त्म नहीं किया, तो बौना और कमज़ोर ज़रूर बना दिया था. अब इस महामारी ने इन सभी नियमों और संस्थाओं को तहस-नहस कर डाला है. हम ये तो नहीं कह सकते कि ज़रूरत कितने प्रतिशत की है, मगर आज अंतरराष्ट्रीय समुदाय को: नए विचारों, नए सहारों और मशाल धारकों की ज़रूरत है, जो भूमंडलीकरण में नई जान डाल सकें और वैश्विक सहयोग को और मज़बूती दे सकें.

आज जब ये सदी अपनी दूसरी दहाई पूरी कर चुकी है, तो इस दशक में भविष्य की विश्व व्यवस्था को आकार देने और आने वाले दशकों की दशा दिशा तय करने में भारत की महत्वपूर्ण भूमिका की अनदेखी कोई मूर्खतापूर्ण मूल्यांकन ही कर सकता है. इस लेख के ज़रिए हमारी कोशिश ये है कि हम मौजूदा भारतीय कूटनीति को चलाने वाले विचारों और नैतिक मूल्यों को समझ सकें; दुनिया से संवाद के भारत के तरीक़ों और मानकों की पड़ताल कर सकें; और, एक अग्रणी ताक़त के रूप में भारत की भूमिका की भविष्यवाणी कर सकें.

हम ये तो नहीं कह सकते कि ज़रूरत कितने प्रतिशत की है, मगर आज अंतरराष्ट्रीय समुदाय को: नए विचारों, नए सहारों और मशाल धारकों की ज़रूरत है, जो भूमंडलीकरण में नई जान डाल सकें और वैश्विक सहयोग को और मज़बूती दे सकें.

दुनिया के साथ भारत के संबंधों के आकार

इंडिया@75: एस्पिरेशंस, एंबिशंस और एप्रोचेज़, शीर्षक के अंतर्गत ओआरएफ ने 18 ऐसे निबंध जुटाए हैं, जिन् दुनिया के सबसे ज़हीन लोगों में से कुछ ने लिखा है. इन निबंधों को लिखने वालों में पूर्व राष्ट्राध्यक्ष और शासनाध्यक्ष, सांसद, अंतरराष्ट्रीय संगठनों के प्रमुख, कारोबार जगत के अग्रणी और मीडिया व अकादेमिक क्षेत्र के विशेषज्ञ शामिल हैं. इन सबने दुनिया के अलग अलग क्षेत्रों के साथ भारत के संबंधों के आकार लेने, वैश्विक प्रशासन के नए क्षेत्रों के साथ भारत के संवाद और उन इंसानी ज़रूरतों का अध्ययन किया है, जिन्हें भारत के उभार को परिभाषित करना ही चाहिए.

कुछ विद्वानों ने ये पूर्वानुमान लगाया है कि भारत के लिए आगे का सफर आसान होगा, या फिर भारत की छुपी हुई और विरासत में मिली चुनौतियों की अनदेखी की जा सकती है. हालांकि, इनमें से ज़्यादातर का मूल्यांकन यही है कि भारत के लिए आने वाला समय अनिश्चितता और अशांति का होगा. अमृता नार्लिकर ने अपने लेख की शुरुआत वैश्विक मामलों पर आगाह करने वाले शब्दों से की है. वो लिखती हैं कि ‘बहुपक्षीय वाद आज अभूतपूर्व संकटों का सामना कर रहा है. इन संकटों को हम संबंधित देशों के घरेलू हालात में बहुपक्षीयवाद के उन बुनियादी उसूलों पर उठते सवालों और बहुपक्षीय संगठनों में अटकी हुई वार्ताओं की शक्ल में देख रहे हैं.’ हालांकि, वो आगे ये भी तर्क देती हैं कि ये वैश्विक संकट भारत के लिए अवसरों से भरपूर है. सी. राजा मोहन इस बात से सहमत होते हुए ज़ोर देकर कहते हैं कि उठा-पटक का ये दौर भारत को एक अवसर प्रदान करता है कि वो अकेले ही सारा बोझ उठाने का लालच छोड़कर सक्रियता से अन्य ताक़तों के नए गठबंधन और आम सहमति बनाए. हालांकि, वो तर्क देते हैं कि ये इस बात पर निर्भर करेगा कि भारत कितनी फ़ुर्ती से अपनी पारंपरिक विश्वदृष्टि को नए सिरे से ढाल पाता है.

विदेश नीति के कुछ मामलों में चुनाव की जो झिझक भारत में पहले दिखती थी, अब उसकी जगह क्रांतिकारी फ़ैसले लेने में भारत तत्परता से तैयार दिखता है 

वहीं, हर्ष वी. पंत इस निबंध में लिखते हैं कि भारत की विश्वदृष्टि में बदलाव का ये काम पहले ही शुरू हो चुका है, क्योंकि, ‘विदेश नीति के कुछ मामलों में चुनाव की जो झिझक भारत में पहले दिखती थी, अब उसकी जगह क्रांतिकारी फ़ैसले लेने में भारत तत्परता से तैयार दिखता है, क्योंकि अपनी अंदरूनी क्षमता के विकास से भारत का आत्मविश्वास बढ़ा है और वो बाहरी साझेदारियों का भी बेहतर ढंग से इस्तेमाल करने को तैयार दिखता है.’

अब जब दुनिया की ताक़त की धुरी अटलांटिक व्यवस्था से दूर खिसक रही है, तो पुरानी शक्तियों और उभरती हुई ताक़तों के साथ भारत के संवाद में नए गुण दिखने लगे हैं और इसी क्षेत्र में भारत की नई बाहरी साझेदारियां भी तेज़ी से आकार ले रही हैं. इन बदलावों के केंद्र में तेज़ी से आकार ले रहा हिंद-प्रशांत का विचार है, जिसके बारे में प्रेमेशा साहा कहती हैं कि वो पूर्वी अफ्रीका से पूर्वी प्रशांत क्षेत्र तक के समुदायों, बाज़ारों और देशों को एक सामरिक भौगोलिक इलाक़े की डोर में बांध देगा. क्वामे ओविनो कहते हैं कि भारत अपनी ‘आर्थिक संरचना’ को इन नई हक़ीक़तों के हिसाब से किस तरह ढालेगा और ‘महासागरों पर दादागीरी रोकने की अपनी प्रतिबद्धता’ को कैसे लागू करेगा, यही बात नए क्षेत्रों की अगुवाई की भारत की क्षमता तय करेगी.

‘बहुपक्षीय वाद आज अभूतपूर्व संकटों का सामना कर रहा है. इन संकटों को हम संबंधित देशों के घरेलू हालात में बहुपक्षीयवाद के उन बुनियादी उसूलों पर उठते सवालों और बहुपक्षीय संगठनों में अटकी हुई वार्ताओं की शक्ल में देख रहे हैं.’ 

लेकिन, नई भौगोलिक संरचनाओं को आकार देने के लिए भारत को कुछ पुराने संबंधों का प्रबंधन भी करना होगा. हिंद प्रशांत क्षेत्र को बिल्कुल अलग करके नहीं देखा जा सकता है. इसके बाज़ार और समुदाय भी बड़ी तेज़ी से यूरेशिया के विशाल महाद्वीप के साथ जुड़ रहे हैं. स्टीवेन ब्लॉकमैन्स अफ़सोस जताते हैं कि भारत और यूरोपीय संघ के रिश्तों में एक व्यापक यूरेशिया में लोकतांत्रिक और नियमों पर आधारित व्यवस्था को मज़बूती देने की जो संभावना है, उस हिसाब से ये संबंध कामयाबी नहीं हासिल कर सके हैं. सोलोमन पैसी और एंजेल एपोस्टोलोव बड़े साहसिक तरीक़े से भारत और नैटो के बीच एक संवाद की संभावनाएं तलाशने का तर्क देते हैं, जिससे ये ज़ाहिर होता है कि दुनिया का मानसिक नक़्शा कितने व्यापक स्तर और तेज़ी से बदल रहा है.

इन सभी विश्लषणों को एक बात एक डोर में पिरोने वाली है: अमेरिका और चीन के साथ भारत के बदलते हुए रिश्तों में दिलचस्पी. आख़िर इस सदी के मध्य तक ये तीनों देश दुनिया की तीन सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाएं जो बन जाएंगे. उठा-पटक से भरा ये दशक इन तीनों ताक़तों के बीच के रिश्तों के आयामों को केंद्र में आता हुआ देखेगा. दिन ब दिन आक्रामक और विस्तारवादी होते चीन से निपटने की कोशिश कर रहा अमेरिका, भारत को इस मामले में अपना साझीदार मानता है. जेन हॉल ल्यूट तर्क देती हैं कि भारत ‘ये समझ चुका है कि चीन का मुख्य सामरिक लक्ष्य एशिया में सबसे महत्वपूर्ण सुरक्षा शक्ति के रूप में अमेरिका की जगह लेना है.’ इसमें कोई दो राय नहीं कि भारत के चुनाव अमेरिका और चीन के बीच ताक़त के संतुलन को तय करेंगे. मगर, संभावना इस बात की ज़्यादा है कि अंतरराष्ट्रीय मामलों में भारत अपना अलग रास्ता अख़्तियार करेगा.

‘भारत को तेज़ी से हो रहे जियोपॉलिटिकल बदलावों के हिसाब से ख़ुद को ढालने के बजाय, इन बदलावों को ही अपने हिसाब से आकार देने की तैयारी करनी चाहिए.’

बहुपक्षीयवाद को तरज़ीह

ओआरएफ की विशिष्ट फेलो राजेश्वरी पिल्लई राजगोपालन बाहरी अंतरिक्ष से जुड़ी अंतरराष्ट्रीय वार्ताओं में भारत के बर्ताव को सबसे बड़ी मिसाल के तौर पर पेश करती हैं. संयुक्त राष्ट्र के सरकारी विशेषज्ञों के समूह (UN GGE) का मामला हो या फिर यूरोपीय संघ के कोड ऑफ़ कंडक्ट (EU CoC) का सवाल- भारत ने एक तरफ़ तो बहुपक्षीयवाद को तरज़ीह दी है, वहीं पूरी ताक़त से ऐसे बर्ताव का विरोध किया है जो ‘बुनियादी तौर पर अस्थिरता फैलाने वाला’ है. मैं इस सूची में साइबर प्रशासन और ख़ास तौर से उभरती तकनीकों से जुड़े भारत के संवाद का विषय भी जोड़ना चाहूंगा. हालांकि, तकनीकी व्यवस्थाएं बड़ी तेज़ी से बदल रही हैं. लेकिन भारत ने अपनी डिजिटल अर्थव्यवस्था के लिए ऐसे नियम बनाने की कोशिश की है, जो उसके विकास संबंधी हित साधने के काम आ सकें और आपसी निर्भरता को भी बचाए रख सकें. जैसा कि त्रिशा रे लिखती हैं, ‘भारत को तेज़ी से हो रहे जियोपॉलिटिकल बदलावों के हिसाब से ख़ुद को ढालने के बजाय, इन बदलावों को ही अपने हिसाब से आकार देने की तैयारी करनी चाहिए.’ अन्य लोग हमें याद दिलाते हैं कि अभी बहुत कुछ किया जाना बाक़ी है. रेनाटो फ्लोरेस अपील करते हैं कि भारत को RCEP से ख़ुद को अलग करने के फ़ैसले से सबक़ लेना चाहिए. उसे अपनी पारंपरिक झिझक को छोड़कर बहुपक्षीय व्यापार के अग्रणी समर्थक के तौर पर उभरना चाहिए.

पूरी दुनिया के हित में भारत का सबसे महत्वपूर्ण योगदान तो अपने देश के नागरिकों को टिकाऊ रोज़ी-रोज़गार देना और जलवायु परिवर्तन के ख़िलाफ़ इसकी जंग होंगे. ज़ाहिर है ऊमेन कुरियन और शोभा सूरी अपने विश्लेषण की शुरुआत इस प्रस्ताव से करते हैं कि स्थायी विकास के वैश्विक लक्ष्यों (SDG) के एजेंडे की कामयाबी या नाकामी लगभग पूरी तरह से भारत के अपने लक्ष्य हासिल करने पर निर्भर करेगी. जैसा कि, ख्वोर स्वी खेंग और के. श्रीनाथ रेड्डी बताते हैं,

भारत पहले ही दुनिया की लगभग आधे टीकों का निर्माण कर रहा है और बौद्धिक संपदा के अधिकारों में सुधार की मांग करने वाले अग्रणी देशों में से एक है, जो वैश्विक स्वास्थ्य सुरक्षा के लिए ज़रूरी है. आज कम कार्बन उत्सर्जन की शर्तों के दौर में भारत पर रोज़ी-रोज़गार उपलब्ध कराने के अपने और बाक़ी दुनिया के लक्ष्य हासिल करने की ज़िम्मेदारी होगी. यही वजह है कि जयंत सिन्हा तर्क देते हैं कि अब भारत विकास के लिए सिर्फ़ ‘कृषि से उद्योग’ वाले मॉडल के भरोसे नहीं रह सकता है.

10 ट्रिलियन डॉलर वाली अर्थव्यवस्था बनने का भारत का अपना समानता वाला और समावेशी लक्ष्य तभी हासिल हो सकता है, जब वो SDG का एजेंडा लागू करे. 

इसके बजाय, नीलांजन घोष पुरज़ोर तरीक़े से कहते हैं कि 10 ट्रिलियन डॉलर वाली अर्थव्यवस्था बनने का भारत का अपना समानता वाला और समावेशी लक्ष्य तभी हासिल हो सकता है, जब वो SDG का एजेंडा लागू करे. आदिल ज़ैनुलभाई के हिसाब से ये सभी मक़सद भारत के विशाल डिजिटल इन्फ्रास्ट्रक्चर, इनोवेशन की क्षमताओं और हुनरमंद कामकाजी तबक़े के ज़रिए हासिल हो सकते हैं, क्योंकि भारत चौथी औद्योगिक क्रांति का उपयोग अपने हित में कर रहा है. वहीं, मिहिर शर्मा तर्क देते हैं कि, ‘भारत के हरित परिवर्तन को आगे बढ़ाने का काम इसके अपने नागरिकों के फ़ैसलों और निजी क्षेत्र की ऊर्जा से ही होगा.’

भारत की विदेश नीति की बुनियाद इसकी एक लोकतांत्रिक, मुक्त और बहुलतावादी ऐतिहासिक सभ्यता वाली पहचान से तय होगी. निश्चित रूप से भारत की विदेश नीति के औज़ारों का सबसे महत्वपूर्ण तत्व अपनी सामाजिक एकजुटता को बनाए रखने के साथ साथ आर्थिक तरक़्क़ी और विकास देने की भारत की क्षमता होगी. जैसा कि कनाडा के पूर्व प्रधानमंत्री स्टीफेन हार्पर कहते हैं कि, ‘भारत पूरी दुनिया को अधिक समृद्धि और शांति की ओर ले जाएगा’. निश्चित रूप से इस सीरीज़ के हर लेख के केंद्र में यही जज़्बात है- अपने नागरिकों, अपने क्षेत्र और इस सदी में बाक़ी दुनिया के लिए एक मॉडल के तौर पर भारत के उभार की अहमियत.

भविष्य को आकार देने में योगदान

हम उम्मीद करते हैं कि ये निबंध उन वाद विवादों और परिचर्चाओं को बौद्धिक ताक़त देंगे, जो हमारे साझा भविष्य को आकार देने में योगदान देंगे. जो हमारे सामने खड़ी मौजूदा चुनौतियों का आकलन करेंगे और हमें अब तक के सफ़र से सबक़ सीखने का एक मौक़ा देंगे. निश्चित रूप से 2020 के दशक की दुनिया हमसे बहुत अपेक्षा रखती है. भारत को इन उम्मीदों पर खरा उतरने को तैयार रहना होगा.

The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.

Author

Samir Saran

Samir Saran

Samir Saran is the President of the Observer Research Foundation (ORF), India’s premier think tank, headquartered in New Delhi with affiliates in North America and ...

Read More +