Author : Sandip Sen

Published on May 21, 2018 Updated 0 Hours ago

क्या जल संरक्षण के कानून उन क्षेत्रों के लिए सख्त हैं जहां पानी बचत की संभावना बेहद कम है?

भारतीय कृषि क्षेत्र में पानी का उपयोग अनियंत्रित और अप्रभावी क्यों?

2011 की जनगणना के दौरान, भारत पानी की कमी वाले देशों के समूह में शुमार हो गया। किसी भी देश को पानी की कमी वाला देश तब माना जाता है, जब उसके यहां पानी की प्रति व्यक्ति उपलब्धता घटकर 1,700 क्यूबिक मीटर से भी कम हो जाती है। प्रति व्यक्ति पानी की उपलब्धता, जो इस सदी के पहले दशक में 15% तक घटकर 1545 क्यूबिक मीटर प्रति व्यक्ति रह गई थी, इन गर्मियों में घटकर 1,400 क्यूबिक मीटर प्रति व्यक्ति से नीचे चली जाएगी। हालांकि पिछले कुछ वर्षों से पानी की कमी की दर कम हुई है, लेकिन अब भी हमारे द्वारा इस्तेमाल किए जाने वाले पानी की मात्रा, प्रकृति द्वारा की जा रही उसकी भरपाई से कई गुणा ज्यादा है और यही खतरे की बात है। अगर हमने से इस चलन को पलटने के लिए जल्द ही सुधार के उपाय न किए, तो हम अपनी आने वाली पीढ़ी के लिए कष्टकारी विरासत छोड़ जाएंगे।

 केंद्रीय जल आयोग के अनुसार, वर्ष 2000 में उपयोग किए गए कुल पानी का 85.3% अंश खेती-बाड़ी के काम में इस्तेमाल में लाया गया था। वर्ष 2025 तक इसके घटकर 83.3% तक रह जाने की संभावना है। भारत खेती-बाड़ी के काम में इस्तेमाल किए जा रहे पानी के संरक्षण पर बिल्कुल भी धन खर्च नहीं कर रहा है। हैरत की बात यह है कि पानी का संरक्षण उद्योग और उपयोगिता क्षेत्रों में किया जाता है, जबकि दोनों ही देश में पानी की कुल मात्रा के 5% से भी कम अंश का उपयोग करते हैं।

कृषि क्षेत्र में जल संरक्षण संबंधी कानून नदारद हैंक्योंकि किसान प्रतिष्ठित वोट बैंक हैं। दूसरी ओरउन क्षेत्रों में जल संरक्षण के कानून सख्त हैंजहां बचत की संभावना बेहद कम है।

सरकारें, राज्य और केंद्र दोनों ही परम्परागत रूप से करदाताओं के धन को प्रवाहित सिंचाई के लिए उदारता के साथ खर्च करती आई हैं। वित्त मंत्री ने 2016 के बजट में भारत में पानी की कमी वाले जिलों में 99 सिंचाई परियोजनाओं के लिए 86,500 करोड़ रुपये प्रदान करने की प्रतिबद्धता व्यक्त की थी। इससे जिलों में पानी का अभाव दूर करने में मदद नहीं मिली, क्योंकि सिंचाई की नहरें प्रभावी नहीं रहीं। वे खेतों तक पहुंचाए जाने वाले पानी की तुलना में, चार गुना ज्यादा पानी नदियों से ग्रहण करती हैं। बेहतरीन मामलों में भी पानी के उपयोग की दक्षता 30% से कमी रही है और खराब मामलों में यह आंकड़ा इससे भी आधा रहा है। इसके अलावा, ऐतिहासिक रूप से भी, धूमधाम से शुरु होने वाली सिंचाई परियोजनाओं में से लगभग एक तिहायी पूरी ही नहीं हो सकीं।

केंद्रीय कृषि मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार, भारत की महत्वपूर्ण 140 मिलियन हैक्टेयर कृषि भूमि में से 48.6% की सिंचाई होती है। पंजाब और हरियाणा, उत्तराखंड तथा पश्चिमी उत्तर प्रदेश के खेत, जहां सिंचाई की नहरों की बहुतायत है, वहां हिमालयी नदियों के पानी का बहुत ज्यादा इस्तेमाल होता है। इससे निचले हिस्से में पानी के प्रवाह में कमी आई है और नदियों के मैदानी इलाकों तक पहुंचते-पहुंचते पानी की कमी में इजाफा हुआ है। कावेरी और गोदावरी बेसिनों में इसी तरह के हालात रहे हैं। इसके परिणामस्वरूप, बुंदेलखण्ड, मराठवाड़ा और दक्खन क्षेत्र पानी की बेहद कमी वाले इलाके हैं। यदि कृषि में पानी का दक्षतापूर्वक इस्तेमाल किया गया होता, तो कावेरी जल बंटवारे को लेकर तमिलनाडु और कर्नाटक के बीच लम्बी कानूनी लड़ाई तथा राजनीतिक विवाद शुरु होने की नौबत ही न आती।

मरुस्थलीय देशों ने खेती-बाड़ी में पानी के उपयोग में कटौती की है

तो,भारत अपने जल संकट का समाधान कैसे करेगा? और वह गरीबों को नुकसान पहुंचाए बिना ऐसा कैसे करेगा?

ऐसा नहीं है कि समाधान ही उपलब्ध न हों। पानी की कमी वाला इस्राइल जैसा देश, जहां जलवायु परिवर्तन की विकट परिस्थितियां हैं, आज वहां आवश्यकता से अधिक पानी मौजूद है। जहां एक ओर, सभी को लगता है कि इस इस्राइल में आए इस बदलाव का कारण उसके विशाल विलवणीकरण संयंत्र या डीसैलिनैशन प्लांट्स हैं, लेकिन ये महज इस कहानी का एक हिस्सा भर हैं। वर्ष 2008 में, ‘उपजाऊ अर्धचंद्राकार’ क्षेत्र से सटा पश्चिम एशिया का यह देश दशक भर से सूखे का सामना कर रहा था। उस समय, इस्राइल को महसूस हुआ कि उसके खेतों की ओर जाने वाले पानी की मात्रा अप्रत्याशित रूप से अधिक है। उसकी सबसे बड़ी ताजे पानी की झील सी ऑफ गेलिली का जल स्तर ब्लैक लाइन से कुछ इंच ऊपर था। यदि उसका जलस्तर इस निशान से नीचे चला जाता, तो झील में लवण की मात्रा इतनी ज्यादा बढ़ जाती कि ताजे पानी का यह स्रोत हमेशा के लिए नष्ट हो जाता। इस्राइल ने पानी की राशनिंग करने जैसा अलोकप्रिय, लेकिन आवश्यक कदम उठाया तथा उपजाऊ क्षेत्र में रहने वाले ज्यादातर किसानों की उस साल की फसल चौपट हो गई। इस कदम की राजनीतिक जटिलताएं भी थीं। लेकिन पूरे इस्राइल में बड़े पैमाने पर विज्ञापन अभियान चलाकर लोगों को बताया गया कि जल संकट किस हद तक देश को प्रभावित कर रहा है तथा इससे कैसे निपटा जाना चाहिए। इसके बाद राष्ट्रव्यापी स्तर पर जागरूकता अभियान चलाया गया।

उस साल के दौरान, सिंचाई का तरीका भी बदल गया। इस्राइल ने सिंचाई के लिए पुन:चक्रित (या रीसाइकल्ड) और हल्के खारे पानी का इस्तेमाल करना शुरु कर दिया। आज, इस्राइल के 80% अपशिष्ट जल को खेतीबाड़ी के काम में लाने के लिए रीसाइकल्ड किया जाता है। इससे दोहरी समस्याओं का समाधान होता है। खारे पानी के शोधन पर लागत कम आती है। यह पानी खेती के लिए तो अच्छा है, लेकिन और ज्यादा शोधन के बिना इंसान के काम आने लायक नहीं है। महत्वपूर्ण बात यह है कि उसे खेतों में इस्तेमाल के लिए रीसाइकल्ड अपशिष्ट जल मिल जाता है और गाद ताजे पानी के स्रोतों को दूषित भी नहीं कर पाती।

इस्राइल ने सिंचाई के लिए रीसाइकल्डहल्के खारे पानी का इस्तेमाल करना शुरू कर दिया। आजइस्राइल के 80% अपशिष्ट जल को कृषि के इस्तेमाल के लिए रीसाइकल्ड किया जाता है।

इस्राइल ने खुले पानी की नहरों की जगह पाइप के जरिए पानी सप्लाई तथा ड्रिप सिंचाई का इस्तेमाल करना भी शुरू कर दिया। इससे आगे चलकर नहरों के पानी से होने वाली सिंचाई की तुलना में तीन-चौथाई पानी की बचत हुई। इसके साथ बारिश के पानी को जमा करने जैसे उपाय भी किए गए, जिनकी बदौलत इस मरुस्थलीय देश में पिछले दशक भर से पानी की खपत नहीं बढ़ी है। ड्रिप सिंचाई में निवेश से पानी और उर्वरक दोनों की कम खपत सुनिश्चित हो सकी है। इसके अलावा, फसलों की उपज प्रवाहित सिंचाई की तुलना में लगभग 15 प्रतिशत अधिक रही है। आज इस्राइल दुनिया में इस्तेमाल किए गए प्रति क्यूबिक मीटर जल से सबसे ज्यादा फसल का उत्पादन करने वाला देश है। जल संरक्षण के कारण उसके यहां पानी की खपत भी नहीं बढ़ रही है। जल संरक्षण के इन उपायों को लागू करने के बाद, इस्राइल ने स्वयं को आवश्यकता से अधिक जल वाला देश बनाने के लिए विशाल विलवणीकरण संयंत्र या या डीसैलिनैशन प्लांट्स भी लगाने शुरु कर दिए।

भारत को रीसाइकलिंग और खेतों में पानी की सप्लाई की नीति दोनों में बदलाव की जरूरत

भारत में जल संकट में कमी लाने के लिए, हमें अपने रीसाइकलिंग और साथ ही साथ पानी की सप्लाई करने के तरीकों में बदलाव लाने होंगे। रीसाइकलिंग वाले पानी को खेती के लिए सप्लाई किए जाने वाले पानी में शामिल करने से दो बड़ी समस्याओं का समाधान हो जाएगा।

वर्तमान में, घरेलू अपशिष्ट जल के कारण होने वाले 75% प्रदूषित जल को शोधित किए बिना ही सीधे जलाशयों और नदियों में छोड़ दिया जाता है। यह उसके 300 शहरों से प्रतिदिन लगभग 40,000 मिलियन लीटर एमएलडी के बराबर है। शोधन के स्तर कम होने के कारण अपशिष्ट जल से सिंचाई करने पर लागत भले ही कम आएगी और साथ ही फसलें बायो-फिल्टर्स का काम करेंगी और अपशिष्ट जल में न्यूट्रिएंट्स होते हैं, लेकिन उसी समय, पानी से हानिकारक जहरीलापन हटाया जाना भी आवश्यक है।

लेकिन भारत के पास अभी तक कृषि अपशिष्ट जल के लिए तकनीकी मानदंड नहीं हैं और न ही ऐसे इस्तेमाल के लिए ट्रीटमेंट प्लांट्स मौजूद हैं।

पिछले दो दशकों से, भारत सरकार हर साल करदाताओं के धन का काफी बड़ा अंश शहरी अपशिष्ट जल की रीसाइकलिंग पर खर्च कर रही है। वह गंगा साथ ही साथ अन्य नदियों की सफाई पर भी बहुत उदारता से धन खर्च कर रही है। सीपीसीबी द्वारा दिसंबर 2015 में सूचीबद्ध किए गए 816 म्यूनिसिपल सीवेज प्लांट्स में से सिर्फ 522 चालू हालत में हैं। इसके बावजूद, पानी की गुणवत्ता ज्यादा से ज्यादा क्लास सी (केवल शोधन और रोगाणुनाशन के बाद पीने योग्य) है। यदि भारत शोधित अपशिष्ट जल की सप्लाई खेतों तक करने की प्रणाली विकसित कर ले,तो सारा शोधित पानी संभवत: कृषि के लिए बेहद उपयुक्त हो सकता है।

खेती-बाड़ी के इस्तेमाल में लाए जाने वाले पानी की मात्रा में कमी लाना महत्वपूर्ण है। अनेक विकसित देश, साथ ही साथ उभरती अर्थव्यवस्था वाले ब्राजील और भारत जैसे देशों ने खुली सिंचाई नहरों के स्थान पर बड़े व्यास वाले पाइपों का विकल्प अपना लिया है।

सिंचाई के लिए मेढ़ वाली नहरों में की तुलना में, बड़े व्यास वाले प्रिफेब्रिकेटेड कंकरीट पाइप सस्ते पड़ते हैं और लगाए भी जल्द जाते हैं। इसके अलावा निकास प्वाइंट ज्यादा नियंत्रित होते हैं। पानी के पाइप के साथ सब्मर्सिबल पम्प्स लगाना संभव नहीं है और इससे भी काफी हद तक पानी और ऊर्जा की बचत होती है।इसके बजाए, ज्यादा दक्ष सौर ऊर्जा वाली ड्रिप सिंचाई किट्स ​विकसित की जा सकती हैं और उन्हें पूरे भारत में बेचा जा सकता है। जिससे किसानों को अपनी फसलों के लिए पानी और ऊर्जा का सर्वोत्तम इस्तेमाल करने का विकल्प मिलेगा।

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