हिंदुस्तान में इन दिनों सभी नेता एक दूसरे पर कीचड़ उछालने की रेस में लगे हैं और सभी का मकसद एक ही लगता है, जब आपका विरोधी नीचे गिरे तो आप और नीचे गिर जाएँ. जहाँ तक भाषा की स्तर की बात है, होड़ लगी है कि कौन कितना नीचे गिर सकता है. नौबत ये है कि अब किसी को कुछ भी कहने में कोई झिझक नहीं. व्यक्तिगत हमले आम बात है और मर्यादा की सीमा कब और कहाँ पीछे छूट जाती है इसकी किसी को सुध नहीं है.
हाल ही में चुनाव प्रचार के दौरान जब प्रधानमंत्री मोदी ने पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गाँधी को भ्रष्टाचार के मुद्दे पर चुनावी जंग में घसीट लिया तो कहा गया कि उन्होंने मर्यादा की एक तय सीमा को लांघ दिया है. किसी ऐसे शख्स़ को चुनावी जंग में घसीटना सही नहीं जो अपने बचाव के लिए इस दुनिया में नहीं है.
राहुल गाँधी ने चुनाव प्रचार के दौरान राफेल विमान सौदे में हुए भ्रष्टाचार को लेकर, “चौकीदार चोर है” का नारा खूब लगाया, लेकिन इस चौकीदार चोर है का जवाब आख़िरकार प्रधानमंत्री मोदी ने अपने अंदाज़ में प्रतापगढ़ की रैली में दे ही दी. बोफोर्स-गन की ख़रीद में हुए भ्रष्टाचार पर निशाना साधते हुए पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गाँधी की मिस्टर क्लीन की छवि को तार-तार करते हुए प्रधानमंत्री मोदी ने कहा की कि उनका कार्यकाल और जीवन दोनों ही भ्रष्टाचार के आरोपों के साथ ख़त्म हुआ. वो भ्रष्टाचारी नंबर वन थे.
अपने आप में ये टिपण्णी अशोभनीय लगती है. इस से सभ्य समाज की भावनाओं को ठेस भी पहुंची. ये कहा गया कि इस से ख़ासतौर पर प्रधानमंत्री के पद की गरिमा कम हुई है.
लेकिन, प्रधानमंत्री मोदी के बचाव में आये लोगों ने सवाल उठाए कि जब इंदिरा गाँधी की शहादत के बावजूद आपातकाल और ऑपरेशन ब्लू-स्टार पर कांग्रेस से सवाल पूछे जाते हैं, जब सावरकर को राष्ट्रद्रोही बताया जा सकता है तब दिवंगत होने के कारण राजीव गाँधी क्यूँ आलोचना से परे रहें.
ये बात तार्किक हो सकती है, लेकिन इस तर्क से जो ग़लत है वो सही नहीं बन जाता और न ही दो ग़लत मिल कर एक सही बनाते हैं.
मोदी यहीं नहीं रुके, आलोचना हुई तो उनके हमले और तेज़ हुए. उन्होंने कहा की नामदार मुझ पर सेना के नाम पर वोट मांगने का आरोप लगाते हैं, लेकिन गाँधी परिवार के लिए तो पूरी नौसेना खड़ी थी.
प्रधानमंत्री ने बताया है की कैसे गाँधी परिवार की सेवा में नौसेना का विक्रांत जहाज़ तैनात था. लेकिन, उसी पल नौसेना के कई पूर्व वरिष्ठ अधिकारी जैसे एडमिरल रामदास और वाइस एडमिरल पसरीचा ने सामने आकर प्रधानमंत्री के दावे को झूठ बताया.
वैसे विपक्ष को ये याद रखना चाहिए कि जब चुनावी माहौल में हमले किये जायेंगे तो फिर पलटवार भी होगा. और इस पलटवार में मर्यादा का ख्य़ाल किसी ने नहीं रखा है. शायद वो संस्कृति और तहज़ीब ही अब हमारे सार्वजनिक जीवन का हिस्सा नहीं रही है.
वैसे भी सियासत का माहौल अब ऐसा है कि किसी भी आलोचना के जवाब में नेता सीधे व्यक्तिगत हमले करते हैं. चाहे वो मायावती हों, ममता हों, लालू या अखिलेश. प्रधानमंत्री ने अलवर बलात्कार कांड पर मायावती के दलित हितैषी होने पर जैसे ही सवाल उठाया, मायावती ने मोदी के दलित प्रेम को ड्रामेबाज़ी तो करार दिया ही साथ ही बेहद नीचे स्तर का व्यक्तिगत हमला करते हुए बात उनकी पत्नी तक ले गयीं. यहाँ तक कह गयीं की बीजेपी की महिला नेता उनके पतियों के पीएम मोदी के करीबी होने से घबराती हैं. उनका कहना है कि उन महिलाओं को डर है कि कहीं पीएम मोदी उन्हें भी, उनकी पत्नी जसोदा बेन की तरह अपने पतियों से अलग ना करवा दें.
दरअसल, टिप्पणी किसी बयान के समय सभी नेता ये भूल जाते हैं की अब कोई ऐसा शख्स़ सामाजिक जीवन में शायद ही हो जिस का दामन बेदाग़ है, कीचड उछाला जाएगा, तो छीटें खुद पर भी पड़ेंगे.
कुछ दिनों पहले जब समाजवादी पार्टी के नेता आज़म खान ने जयाप्रदा के ख़ाकी अंडरवियर की बात की थी तो लगा था की सियासी बयानबाजी का स्तर अब इससे ज्य़ादा नीचे नहीं जा सकता है, लेकिन उस के बाद से ये सिलसिला थमा नहीं. आम आदमी पार्टी की उम्मीदवार आतिशी के खिलाफ अभद्र टिपण्णी की गई. ये अफ़सोस की बात है कि इस लोकसभा चुनाव में जो सुनाई दे रहा है वो नफ़रत से भरी बंटवारे की ज़ुबाँ हैं. विरोधियों के लिए हर कोई गंदी से गंदी भाषा के इस्तेमाल से बिलकुल परहेज़ नहीं कर रहे. भाषा और मुद्दों के लिहाज़ से ये अब तक का सबसे बदनाम चुनाव कहा जा सकता है.
आप सब ने एआईबी नाम के प्रोग्राम के बारे में सुना होगा जो बेबाक़ और कई बार फूहड़ भाषा के इस्तेमाल के लिए जाना जाता है. लोकसभा चुनाव में इस्तेमाल होने वाली भाषा इस कार्यक्रम को भी चुनौती दे रही है.
सियासत का स्तर दो क़िस्म से गिरा है. एक तरफ मुद्दे और व्यक्तिगत हमले दूसरी तरफ भाषा, ऐसी भाषा जिसे दोहराने में भी सभ्य समाज को शर्म आनी चाहिए. पप्पू, नामदार, एक्सपायरी बाबू, स्पीड ब्रेकर, ज़हर की शीशी उसकी कुछ मिसाल हैं. मोदी के खिलाफ इस्तेमाल की गई गालियों की फ़ेहरिस्त लंबी है जो उनके समर्थकों ने तैयार कर के रखी है. वो सवाल पूछ रहे हैं जब किसी कोर्ट से दंगों में मोदी की संलिप्ता साबित नहीं हुई थी तो क्यूँ सोनिया गाँधी ने साल 2007 में मोदी को मौत का सौदागर कहा था, पिछले 17 सालों में प्रधानमंत्री मोदी पर ज़हर की खेती का आरोप का लगा और उन्हें नीच किस्म का आदमी बताया गया. हमारे सामने हिंसक भाषा की मिसाल भी एक नहीं कई हैं. जब अमित शाह बीजेपी अध्यक्ष होने के नाते नागरिकों के रजिस्टर बनाने की बात करते हैं और कहते हैं कि वो हर उस घुसपैठिये को देश के बाहर निकालेंगे जो जैन, बौद्ध, सिख़ या हिन्दू नहीं है तो ये संविधान की धर्मनिरपेक्ष भावना के खिलाफ़ एक समुदाय को निशाना बनाने का संदेश देता है. जब मेनका गाँधी एक धर्म के लोगों से ये ऑन-रिकॉर्ड कहती हैं कि अगर आप हमें वोट नहीं देंगे तो हमसे काम की उम्मीद मत रखिये, कांग्रेस के नवजोत सिंह सिद्धू मुसलमानों से सीधे धर्म का हवाला देते हुए वोट की अपील करते हैं तो ये साफ़ है अब किसी तरह की धर्मनिरपेक्षता का पर्दा भी बाकी नहीं रह गया है.
विरोधियों के खिलाफ अपशब्द और एक दूसरे पर व्यक्तिगत हमला, ये लगता है नए भारत की नयी तहज़ीब है जिसके सामने हम सब ने सिर झुका लिया है. अगर ये ही नया सामान्य है तो हमें इस पर चिंता करने की ज़रूरत है. इस तरह के बयान समाज में बातचीत के स्तर में भारी गिरावट की तरफ इशारा करते हैं . क्या दोनों ही तरफ से ये जीत का विश्वास है, जो ये घमंड जगा रहा है या फिर हार का खौफ़ जो उन्हें इतना नीचे गिरा रहा है.
सियासतों का मिज़ाज बदलेगा, नेता आते और जाते रहेंगे लेकिन उनके शब्द और उससे मिलता संदेश हमेशा याद किया जाएगा. क्या वो मर्यादा बनाए रखने के लिए याद किये जायेंगे या मर्यादा तोड़ने के लिए ये उन्हें तय करना है.
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