Author : Mohammed Soliman

Expert Speak Raisina Debates
Published on May 10, 2024 Updated 0 Hours ago

इज़रायल और हमास के बीच चल रहे मौज़ूदा संघर्ष ने हमारा ध्यान फिर इस बात की तरफ दिलाया है कि अगर मध्य-पूर्व में स्थायी शांति और सुरक्षा चाहिए तो फिलीस्तीन समस्या का कोई ना कोई समाधान निकालना होगा. फिलीस्तीन के लोगों को कम से कम एक ऐसा राजनीतिक मंच देना होगा जो उन्हें उनके वाज़िब हक़ दिला सके.

पुराने मतभेद या अब्राहम समझौता: मध्य-पूर्व के देश किस दिशा में जाएंगे?

मध्य-पूर्व के देश इस वक्त ख़ुद को एक असमंजस में, चौराहे पर खड़ा पा रहे हैं. हालांकि, इज़राइल-गाज़ा युद्ध की दुखद छाया का असर अभी तक अब्राहम समझौते और दूसरे मंचों पर नहीं पड़ा है. अमेरिका की मदद से मध्य-पू्र्व के देशों के बीच जो समझौते हुए थे, वो क्षेत्रीय सहयोग और आर्थिक संबंधों को मज़बूत बनाने  में ठोस भूमिका निभा रहे हैं. इतना ही नहीं इज़रायलइंडिया, यूएस और यूनाइडेट अरब अमीरात के बीच हुए I2U2 समझौते, इंडिया-मिडिल-ईस्ट-यूरोप कॉरिडोर (IMEC) और इज़रायल, इजिप्ट, मोरक्को, बहरीन, अमेरिकी और यूएई की सदस्यता वालेनेगेव फोरमने गाज़ा में जारी मौजूदा संकट से जिस तरह ख़ुद को बचा रखा है, उससे भी ज़ाहिर होता है कि ये समझौते समय की कसौटी पर ख़रे उतर रहे हैं. इन समझौते और मंचों ने इज़रायल की तरफ से की जा रही गंभीर सैनिक कार्रवाई और उसमें आम नागरिकों की बड़ी संख्या में हुई मौतों के बावजूद मध्य-पूर्व क्षेत्र में हालात को बिगड़ने से बचाया है

अमेरिका की मदद से मध्य-पू्र्व के देशों के बीच जो समझौते हुए थे, वो क्षेत्रीय सहयोग और आर्थिक संबंधों को मज़बूत बनाने में ठोस भूमिका निभा रहे हैं.

हूती विद्रोहियों ने लाल सागर में अपने हमले तेज़ कर दिए हैं. इराक और जॉर्डन में भी हूती विद्रोही अमेरिकी प्रतिष्ठानों पर हमले कर रहे हैं. इज़रायल और हिज़बुल्लाह के बीच भी झड़प बढ़ी हैं. इन सब घटनाओं ने इस क्षेत्र के देशों को डरावने संदेश दिए हैंईरान अपनी ताकत के दम जिस तरह इस क्षेत्र में सत्ता पर कब्ज़ा करना चाह रहा है, उसने सिर्फ मध्य-पूर्व के देशों के अस्तित्व पर ख़तरा उत्पन्न किया है बल्कि मध्य-पूर्व में एकता के किसी भी महत्वाकांक्षी सपने की राह में रोड़े भी पैदा कर दिए हैं. इसके अलावा इज़रायल-गाज़ा युद्ध ने इस क्षेत्र में एक ऐसे क्षेत्रीय ढांचे की आवश्यकता पर भी ज़ोर दिया है, जो दीर्घकालिक सुरक्षा का माहौल तैयार करे और फ़िलीस्तीन के नागरिकों की राजनीतिक आवाज़ बन सके. अगर ऐसा हो पाया तो फिर यहां हिंसा और क्षेत्रीय विघटन में कमी सकती है.

मिस्र का रुख़


गाज़ा संघर्ष के दौरान मिस्र ने अपने रुख़ में एक बेहद नाजुक संतुलन बनाकर रखा. एक तरफ उसने इज़रायल के साथ अपने मज़बूत सुरक्षा और ख़ुफिया संबंधों को जारी रखा, दूसरी तरफ उसने फ़िलीस्तीन के नागरिकों के प्रति अपनी एकजुटता दिखाई. मिस्र ने फ़िलीस्तीन के लोगों को गाज़ा से निष्काषित कर सिनाई प्रायद्वीप में भेजने की इज़रायल की कोशिशों का भी विरोध किया. मिस्र के राष्ट्रपति अब्देल फतेह अल सिसी की प्राथमिकता ये है कि क्षेत्रीय संघर्ष में उलझे बगैर वो अपने देश में आंतरिक स्थिरता बनाए रखें. कई दशकों से मिस्र का यही सुरक्षा सिद्धांत रहा है. गाज़ा में चल रहे युद्ध और क्षेत्रीय स्तर पर तनाव के बावजूद सऊदी अरब ने भी ये संकेत दिए हैं कि वो इज़रायल के साथ अपने संबंधों को सामान्य बनाने का इच्छुक है

अमेरिका के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार जेक सुलिवन ने वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम में कहा था कि 7 अक्टूबर के बाद अमेरिका की रणनीति ये है कि इज़रायल और सऊदी अरब के रिश्ते सामान्य हों लेकिन अब फ़िलिस्तीनी नागरिकों का मुद्दा भी इससे जुड़ गया है.

बीबीसी को दिए इंटरव्यू में ब्रिटेन में सऊदी अरब के राजदूत ने कहा कि इज़रायल के साथ राजनयिक रिश्ते बढ़ाने में उनके देश की "स्पष्ट रुचि है". हालांकि गाज़ा युद्ध लंबा खिंचने की वजह से अब संबंध सामन्य बनाने में कुछ मुश्किल सकती है क्योंकि सऊदी अरब ने ये शर्त रख दी है कि पहले फ़िलीस्तीन की समस्या का राजनीतिक हल निकालना ज़रूरी है. यही रुख अब अमेरिका में बाइडेन प्रशासन की रणनीति में भी दिखती है. अमेरिका के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार जेक सुलिवन ने वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम में कहा था कि 7 अक्टूबर के बाद अमेरिका की रणनीति ये है कि इज़रायल और सऊदी अरब के रिश्ते सामान्य हों लेकिन अब फ़िलिस्तीनी नागरिकों का मुद्दा भी इससे जुड़ गया है.

खाड़ी क्षेत्र के जिन दूसरे राजशाही वाले देशों (संयुक्त अरब अमीरात और बहरीन) ने अब्राहम समझौते पर दस्तख़त किए थे, वो भी इज़रायल के साथ संबंध सामान्य रखने को लेकर अपनी प्रतिबद्धता दोहरा रहे हैं. ये देश ईरान की बढ़ती क्षेत्रीय महत्वाकांक्षाओं से भी चिंतित हैं. रेचेप तैय्यप एर्दोगन के नेतृत्व में तुर्किये ने इज़रायल के ख़िलाफ सख्त़ रुख़ अपना रखा है. एर्दोगन ने गाज़ा में इज़रायल की सैनिक कार्रवाई की निंदा की है लेकिन ऐसा लग रहा है कि इज़रायल को लेकर तुर्किये सिर्फ ज़ुबानी जमाखर्च कर रहा है क्योंकि उसने इज़रायल जा रहे तेल के जहाजों को रोकने की कोई कोशिश नहीं की. ईरान समर्थित हिज़बुल्लाह विद्रोही संगठन को इज़रायल का कट्टर विरोधी माना जाता है लेकिन उसने भी ख़ुद को 7 अक्टूबर को इज़रायल पर किए गए हमास के हमले से अलग रखा है. हालांकि इज़रायल-लेबनान सीमा पर हिज़बुल्लाह अपने चिर-परिचित हल्के-फुल्के संघर्ष को जारी रखे हुए है. हिज़बुल्लाह की ये कार्रवाई उसके समर्थकों को झांसे में रखती है कि कम से कम वो इज़रायल से लड़ तो रहा है. इससे हिज़बुल्लाह को ये फायदा होता है कि इज़रायल के साथ उसकी बड़े पैमाने पर जंग नहीं होती. हालांकि अगर लंबे वक्त तक ऐसा चलता रहा तो पहले से ही मुश्किलों में आई लेबनान की अर्थव्यवस्था इससे बर्बाद हो सकती है.

ईरान की नीयत और जिस तरह वो मध्यपूर्व क्षेत्र में प्रभाव बढ़ाता जा रहा है, उसने अब्राहम समझौते और I2U2, नेगेव फोरम और IMEC की प्रसांगिकता को और मज़बूत किया है. 

लगातर चल रहा संघर्ष का दौर ये भी दिखाता है कि इस क्षेत्र में ईरान की शक्ति और प्रभाव बढ़ रहा है. ईरान के पास एक साथ कई क्षेत्रों को प्रभावित करने की क्षमता है. ईरान का ये बढ़ा प्रभाव क्षेत्रीय और वैश्विक राजनीति पर गहरा असर डाल सकता है. ईरान ने अपने छद्म संगठनों के दम पर एक साथ कई मोर्चों पर तनाव बढ़ाने में महारात हासिल कर ली है. वो इराक और जॉर्डन में अमेरिकी सेना पर हमले करवाता है. लाल सागर में जहाज़ों के परिचालन में बाधा पैदा करता है. इसने मध्य पू्र्व के देशों में सुरक्षा, आर्थिक विकास और क्षेत्रीय एकता की संभावना को लेकर चिंता पैदा कर दी है. यही वजह है कि गाज़ा युद्ध से पहले ही खाड़ी देशों ने ईरान की तरफ से बढ़ते ख़तरे और उसके बढ़ते प्रभाव को रोकने के लिए इज़रायल के साथ सामरिक सहयोग शुरू कर दिया था. ईरान को रोकने की ये रणनीति अभी भी चल रही है, फिर भले ही गाज़ा में मानवीय संकट बढ़ रहा हो और मारे जाने वाले फिलीस्तीन नागरिकों की संख्या ज़्यादा हो गई हो. ईरान की नीयत और जिस तरह वो मध्यपूर्व क्षेत्र में प्रभाव बढ़ाता जा रहा है, उसने अब्राहम समझौते और I2U2, नेगेव फोरम और IMEC की प्रसांगिकता को और मज़बूत किया है. ये सब कोशिशों तब भी जारी हैं, जब गाज़ा संकट की वजह से अरब की जनता में काफी निराशा है.

लेकिन इज़रायल-हमास के बीच चल रहे मौज़ूदा संघर्ष ने हमारा ध्यान फिर इस बात की तरफ दिलाया है कि अगर मध्य-पूर्व में स्थायी शांति और सुरक्षा चाहिए तो फिलीस्तीन की इस ऐतिहासिक समस्या का कुछ ना कुछ समाधान निकालना होगा. फिलीस्तीन के लोगों को कम से कम एक ऐसा राजनीतिक मंच देना होगा जो उन्हें उनके वाज़िब हक़ दिला सके. हालात को और बिगड़ने से रोक सके और क्षेत्रीय स्थिरता बनाए रख सके. 7 अक्टूबर को इज़रायल पर हुए हमले ने ये दिखाया कि फिलीस्तीन के मुद्दे को ज़िंदा रखने के लिए हमास किस हद तक जा सकता है. हमास अब क्षेत्रीय और वैश्विक शक्तियों को अपनी प्राथमिकताओं पर दोबारा से विचार करने की चुनौती दे रहा है. I2U2 और IMEC जैसे मंच अब तक इसलिए कामयाब बने हुए हैं क्योंकि फिलीस्तीन उनके लिए चिंता का मुख्य मुद्दा नहीं हैलेकिन हम क्षेत्रीय एकता और इज़रायल-फिलीस्तीन समस्या के व्यावहरिक समाधान के मुद्दे को अलग-अलग करके नहीं देख सकते. हालांकि पिछले कुछ साल में अरब-इज़रायल सहयोग और अब्राहम समझौते ने ये दिखाया है कि अगर यहां क्षेत्रीय एकता कायम की जाए तो इसे सुरक्षा और आर्थिक विकास के मोर्चे पर कितने फायदे हो सकते हैं. हो सकता है कि इन फायदों को बरकरार रखने के लिए इस क्षेत्र के प्रमुख देश स्थायी शांति हासिल करने की दिशा में काम करते रहेंगे.

निष्कर्ष


इस तरह के संकट और वैश्विक मामलों में भारत के बढ़ते असर ने रायसीना डायलॉग जैसे मंच को और भी महत्वपूर्ण बना दिया है क्योंकि यहां आपको दोनों पक्षों की बात सुनने को मिलती है. दुनिया में ऐसे मंच बहुत कम हैं, जहां इज़रायल, ईरान, फिलीस्तीन और दूसरे अरब देशों के लोग एक छत के नीचे आएं और विवादास्पद क्षेत्रीय और वैश्विक मुद्दों पर चर्चा करें. लेकिन वैश्विक स्तर पर भारत के बढ़ते प्रभाव के बीच रायसीना डायलॉग पिछले एक दशक से इस काम को बखूबी अंजाम दे रहा है. अब जबकि हम 2024 में प्रवेश कर चुके हैं. रायसीना डायलॉग फिर से ये मौका दे रहा है कि हम खुले दिल और अच्छी नीयत से हर मुद्दे पर बेहतरीन माहौल में चर्चा कर सकें.

इस मोड़ पर मध्य पूर्व के देश पुराने मतभेदों और अब्राहम समझौते में से किसी एक को नहीं चुन सकते या उन्हें चुनने की अनुमति नहीं दी जाएगी. 

इस मोड़ पर मध्य पूर्व के देश पुराने मतभेदों और अब्राहम समझौते में से किसी एक को नहीं चुन सकते या उन्हें चुनने की अनुमति नहीं दी जाएगी. ऐसे में ये कहा जा सकता है कि इस क्षेत्र का भविष्य इन दोनों बीच अनिश्चित इलाके में हो सकता है. एक तरफ पुराने ज़ख्म और फ़िलीस्तीन में जारी संघर्ष क्षेत्रीय एकता पर पूरी तरह भरोसा नहीं करने देंगे. दूसरी तरफ अब्राहम समझौते,  I2U2 और IMEC से मिलने वाली सुरक्षा और आर्थिक विकास इस क्षेत्र के समृद्ध और सुनहरे भविष्य की झलक पेश करते हैं. ऐसे में आगे का रास्ता निकालने के लिए बातचीत जारी रखनी होगी. जब इस क्षेत्र का लगातार विकास होगा, क्षेत्रीय और महान शक्तियों के बीच चतुराई से बातचीत होगी, तभी इसका कोई समाधान निकलेगा.

 

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