Published on Feb 01, 2018 Updated 0 Hours ago

तमिलनाडु इस देश में ‘नोट के बदले वोट ('कैश-फॉर-वोट)’ के रूप में होने वाले अपनी तरह के सबसे विकृत चुनावी भ्रष्टाचार के केंद्र में रहा है।

आर्थिक सुधारों के दौर में पनपता रहा है चुनावी भ्रष्टाचार!

आर्थिक सुधारों एवं चुनावों में होने वाले भ्रष्टाचार को एक-दूसरे से जोड़ना भले ही असंगत और नामुनासिब प्रतीत होता हो, लेकिन भारतीय परिस्थितियों में जमीनी सच्‍चाई यही है कि इन दोनों का एक-दूसरे से गहरा नाता है। अत: ऐसे में इस लाजि‍मी, लेकिन अदृश्य आपसी नाता को जल्‍द-से-जल्‍द स्‍वीकार कर लेने और इस दिशा में पुरजोर ढंग से साहसिक कदम उठाने से ही इस बुराई का खात्‍मा किया जा सकता है। यह बुराई तमिलनाडु जैसे ‘प्रबुद्ध’ राज्य की राजनीति में पहले ही काफी गहराई तक घर कर चुकी है।

सामाजिक न्याय एवं शिक्षा-आधारित रोजगार योग्‍य क्षमता सुनिश्चित करने के साथ-साथ रोजगार-केंद्रित ज्‍यादा परिवारिक आय के सृजन में भी अग्रणी होने के बावजूद तमिलनाडु इस देश में ‘नोट के बदले वोट (कैश-फॉर-वोट)’ के रूप में होने वाले अपनी तरह के सबसे विकृत चुनावी भ्रष्टाचार के केंद्र में रहा है। उल्‍लेखनीय है कि देश में जिस समय आर्थिक सुधारों का आगाज हुआ था ठीक उसी समय के आसपास इस बुराई का चलन भी शुरू हुआ था। इस चुनावी भ्रष्‍टाचार की शुरुआत ‘चुनाव-91’ के तुरंत बाद हुए उप-चुनावों से उस समय हुई थी जब अन्नाद्रमुक सुप्रीमो जयललिता मुख्यमंत्री थीं और जिन्‍होंने अपने घोर प्रतिद्वंद्वी मूल द्रमुक को धूल चटा दी थी। दरअसल, हमारे देश ने पहली गलती उसी समय कर दी थी क्‍योंकि वह अधिकारों एवं नियमों को लागू करने के बजाय मुख्य निर्वाचन आयुक्त टी एन शेषन द्वारा और उनके अधीन लागू व्यापक चुनावी सुधारों के कारण इसे ठीक से समझ नहीं पाया था।

चुनाव से जुड़े और चुनाव आयोग (ईसी) की सक्रि‍य कार्रवाई वाले भ्रष्टाचार विरोधी अभियान का फोकस बिहार एवं उत्‍तर प्रदेश जैसे ‘अप्रबंधनीय’ राज्यों पर था, जहां बाहुबल का भय दिखाकर बूथ कैप्चर करना आम बात थी। इसमें एक नया आयाम इन राज्‍यों के साथ-साथ मध्य भारत में आसपास के राज्यों में भी वामपंथी उग्रवाद के जोर पकड़ने के कारण जुड़ रहा है। यह इंगित करने के लिए पर्याप्त है कि जन प्रतिनिधित्व अधिनियम में अब भी ऐसे अनेक प्रावधान हैं जिनके तहत ‘बूथ-कैप्चरिंग’ की स्थिति में मतदान/चुनाव को निरस्‍त या रद्द करने का अधिकार चुनाव आयोग को दिया गया है, लेकिۨन ‘नोट के बदले वोट’ के खतरे से निजात पाने का कोई भी प्रावधान नहीं है।

बड़ी चालाकी से बूथ-हेराफेरी

यही कारण है किۨ जब चुनाव आयोग ने चुनाव-2016 के अंतर्गत तमिलनाडु के दो निर्वाचन क्षेत्रों में हुए मतदान को रद्द कर दिया और इसके बाद अप्रैल 2017 में जयललिता की ‘आर के नगर विधानसभा सीट’ पर हुए उप-चुनाव, जो उनकी मृत्यु के बाद उत्‍पन्‍न रिक्ति के मद्देनजर कराया गया था, में प्रथम बार उप-चुनाव को रद्द कर दिया तो यह चुनाव आयोग को मिले विशिष्‍ट अधिकारों के साथ-साथ संबंधित कानून और संविधान की इस तरह की धाराओं के तहत ही संभव हो पाया था। एक तरह से सभी ने इसे आम जनता की राय और चुनाव आयोग द्वारा अंतिम क्षणों में किۨए गए फैसले को चुनौती देने की स्थिति में उच्‍च न्‍यायालय द्वारा राजनीतिक दलों एवं उम्मीदवारों की मान्‍यता रद्द किۨए जाने के भय का नतीजा बताया।

वैसे तो इसे ‘थिरुमंगलम मॉडल’ बताया गया और इसका स्‍थान हाल ही में आर के नगर मॉडल ने ले लिया है, जिसके तहत लगभग एक दशक पहले प्रति वोट हजारों रुपये बांट कर सैकड़ों वोटों को छल से हासिल कर लिया गया था, लेकिۨन यह सब ‘शेषन युग’ के दौरान ही शुरू हो गया था। दरअसल, इस दौरान चुनाव आयोग के जांच अधिकारी के समक्ष सैकड़ों वैध मतदाताओं द्वारा ‘बड़ी चालाकी से बूथ-हेराफेरी’ किۨए जाने का आरोप लगाने के बावजूद आयोग ने राजधानी चेन्नई के अभिजात वर्ग वाले मायलापुर निर्वाचन क्षेत्र में पुनर्मतदान कराने से साफ इनकार कर दिया था। इन मतदाताओं ने व्यक्तिगत रूप से कुछ ‘अनाम’ व्यक्तियों’ के कारण अपना मताधिकार खोने का आरोप लगाया था जिन्होंने कुछ मामलों में तो कतार में वैध मतदाताओं से महज कुछ ही आगे खड़े होकर वोट डाल दिया था। चुनाव आयोग ने अपने फैसले में कहा किۨ वैसे तो वैध मतदाताओं से छल होने के मामले संभवत: सही साबित पाए गए हैं, लेकिۨन इसके बावजूद अंतिम आंकड़ों में उन मतों को जोड़ने और घटाने पर भी चुनावी नतीजे (सत्तारूढ़ अन्‍नाद्रमुक की जीत) में व्‍यापक अंतर देखने को नहीं मिलेगा, इसलिए पुनर्मतदान नहीं होगा।

मायलापुर से पहले और उसके बाद भी सत्‍तारूढ़ अन्‍नाद्रमुक के राज में कांचीपुरम, गुम्मिडीपूंडी एवं सैदापेट निर्वाचन क्षेत्रों और नि:संदेह जयललिता के अंडिपत्‍ती निर्वाचन क्षेत्र में हुए उपचुनाव में भी कुछ ऐसा ही देखने को मिला था। सुप्रीम कोर्ट द्वारा ‘तांसी भूमि सौदा मामले’ में जयललिता को क्‍लीन चिट देने के बाद अंडिपत्‍ती निर्वाचन क्षेत्र में उपचुनाव कराया गया था जिसमें उन्‍हें जीत हासिल हुई थी। इसी तरह सत्‍तारूढ़ द्रमुक के राज में थिरुमंगलम, मद्रास ईस्ट और पेनागाराम में हुए चुनाव में उसे कुछ इसी तरह से जीत मिली थी। इस आधार पर यदि देखा जाए तो दिसंबर, 2017 में आर के नगर विधानसभा सीट पर हुए उपचुनाव में पिछले दो दशकों में पहली बार ऐसा देखा गया किۨ सत्तारूढ़ दल (जयललिता की मृत्‍यु के पश्‍चात अन्‍नाद्रमुक) को बुरी तरह से मुंह की खानी पड़ी है। इस उपचुनाव में अन्‍नाद्रमुक से विद्रोह करने वाले टी टी वी दिनकरण, जिन्‍हें चुनावी कानूनों के तहत ‘स्वतंत्र उम्‍मीदवार’ घोषित किया गया था, विजयी घोषित किए गए, लेकिۨन इसके साथ ही वह इस बार स्‍वयं पर अधिकतम चुनावी हेराफेरी की तोहमत लगाए जाने से बच नहीं पाए। ऐसे में इस तथ्य की अनदेखी नहीं की जानी चाहिए।

अनगिनत आकांक्षाओं वाली पीढ़ियां

आजादी से पहले मद्रास प्रेसीडेंसी के दिनों से लेकर मौजूदा तमिलनाडु तक के कर्ता-धर्ता एक चुनाव के बाद दूसरे चुनाव में आम जनता के एक वर्ग के बाद दूसरे वर्ग के सर्वांगीण विकास के लिए सामाजिक न्याय पर अमल करने हेतु कानूनी और वैध खींच-तान करने में सबसे आगे रहे हैं। आजादी के बाद नि:शुल्क शिक्षा की शुरुआत करने, फि‍र इसके बाद आजादी-पूर्व शुरू की गई प्रयोगात्मक मुफ्त भोजन योजना का रातों-रात विस्तार कर देने, इसके पश्‍चात विद्यार्थियों से जुड़ी सब्सिडी जैसे मुफ्त किताबें एवं पोशाक (यूनिफॉर्म), साइकिल एवं लैपटॉप देने और इसके साथ ही उचित अंतराल एवं उचित समय पर अप्रत्‍याशित ढंग से कई बार व्यावसायिक शिक्षा के अलाभकर विस्तार से तरह-तरह की आकांक्षाएं रखने वाली पीढ़ियों का सृजन हो गया है।

इसके बाद उपहास उड़ाए जाने वाले ‘मुफ्त राज’ का आगमन हुआ जिसमें महिलाओं को अपने घरेलू कामकाज में सहूलियत के लिए एलपीजी कनेक्शन दिए गए और अपने स्वयं के कामकाज निपटाने के बाद शाम में गृहिणियों के लिए उपलब्ध सीमित समय में घरों पर मनोरंजन हेतु निःशुल्क टीवी सेट दिल खोल कर बांटे गए, जिसने तमिलनाडु के नई पीढ़ी के युवाओं का आकर्षण सांसारिक वस्‍तुओं की तरफ काफी बढ़ा दिया है। हालांकिۨ, यह माना जा रहा है किۨ इसमें उनकी शिक्षा आधारित रोजगार योग्‍य क्षमता और हासिल रोजगारों का भी काफी योगदान रहा है। इसके बाद कई वर्षों तक अपेक्षा से काफी कम बारिश होने और इसके परिणामस्वरूप सूखा पड़ने और इसके साथ ही बिजली एवं पानी की भारी किल्‍लत के कारण आर्थिक सुधारों के युग में तेज़ी से औद्योगीकरण करने के शुरुआती वादों को टालना पड़ गया। यही नहीं, पड़ोसी राज्यों के साथ दशकों पुराने कावेरी एवं मुल्लापेरियार विवादों ने लोगों की समस्याओं को और ज्‍यादा बढ़ा दिया। इन्‍हीं परिस्थितियों में ‘नोट के बदले वोट’ जैसे तरीकों से रातों-रात पैसा कमाने के प्रलोभन चुनावी परिदृश्य पर हावी हो गए हैं। यही नहीं, धीरे-धीरे इस तरह के प्रलोभनों की बारंबरता के साथ-साथ इनके तहत लुटाई जाने वाली धनराशि भी बढ़ती चली गई है।

इसे न्यायोचित नहीं ठहराया जा रहा है, लेकिन फर्ज कीजिए यदि पांच मतदाताओं के एक परिवार को किसी एक दिन वोट डालने के बदले में कमोबेश 1 लाख रुपये ऐसे समय में मिल जाएं जब शेष सरकारी अमले, संवैधानिक योजना और देश या राज्य को खुशहाल बनाने से जुड़ी सारी उम्मीदें नाकाम हो जाएं तो वैसी स्थिति में मतदाताओं को ‘प्रभावित’ करने के लिए इस तरह का प्रलोभन देना एक उभरती वास्तविकता है। यहां पर यह इंगित करने के लिए पर्याप्त है कि एक कुली की बेटी एस अनिता, जिसने योग्यता के आधार पर एकसमान ढंग से मेडिकल कॉलेज में प्रवेश के लिए अदालत के निर्देश पर आयोजित किए गए ‘नीट’ में विफल होने के बाद आत्महत्या कर ली थी, के दो भाई अपनी इच्‍छा-शक्ति‍ के बल पर व्यावसायिक पाठ्यक्रमों की पढ़ाई कर रहे थे। चाहे कुछ भी हो, अकेले इस मामले से उन लोगों की आंखें खुल जानी चाहिए जो किसी अन्‍य तरीके से देश के इन हिस्‍सों में रहने वाली ‘आकांक्षी पीढ़ी’ की उम्‍मीदों को समझ पाने/सराहना करने में असमर्थ हैं।

तमिलनाडु के उदाहरण को अपनाते हुए देश के बाकी हिस्सों में ‘सामाजिक न्याय’ जिस तरह से अपनी जड़ें जमा रहा है उससे इस आशंका को बल मिल रहा है कि तीन या चार दशक बाद जब बड़े पैमाने पर स्वचालन (ऑटोमेशन) के कारण देश के बाकी हिस्सों में प्रवेश और उभरते स्तरों पर लोग अपनी नौकरियां गंवाने लगेंगे तो वैसी स्थिति में व्‍यापक परिवर्तनों के चलते एक ऐसा समाज उभर कर सामने आएगा जो या तो चुनावी राजनीति में ‘तमिलनाडु मॉडल’ को अपनाना पसंद करेगा या वामपंथी उग्रवाद एवं अन्‍य तरह की उग्रवादी गतिविधियों में लिप्‍त होने पर विवश हो जाएगा, जैसा कि मध्य और उत्तर भारत में देखने को मिल रहा है। ऐसा नहीं है कि इनमें से किसी एक का स्‍थान कोई दूसरा ले लेगा, बल्कि ‘दूर’ बैठे दिल्ली दरबार के जागने और इससे छुटकारे के लिए सरकार द्वारा साफ-सफाई अभि‍यान शुरू करने से पहले ही इन दोनों विकृतियों द्वारा भारतीय व्यवस्था एवं योजना पर हावी हो जाने का अंदेशा है। यही नहीं, सरकार का साफ-सफाई अभियान संभवत: एक बार फि‍र अपने लक्ष्‍य से भटक जाएगा।

‘मानवीय चेहरे के साथ सुधार’

इस संदर्भ में यह इंगित करने की जरूरत नहीं है कि केंद्रीय वित्त मंत्री के रूप में मनमोहन सिंह ने सभी भारतीय आर्थिक और राजनीतिक बुराइयों के इलाज के रूप में आर्थिक सुधारों की शुरुआत की थी, लेकिन जल्द ही उन्‍होंने अपना नजरिया बदलते हुए इसे ‘मानवीय चेहरे के साथ सुधारों’ के रूप में परिभाषित कर दिया। इसके बाद प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी और अब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की भाजपा-एनडीए सरकारों ने ‘भ्रष्ट कांग्रेस’ से विरासत में मिली ‘सब्सिडी योजना’ को अपना लिया है, न केवल इसलिए कि इससे वोट हासिल हुए, बल्कि इसलिए भी कि यह संभवत: भारतीय परिस्थितियों में काम करने की दृष्टि से बिल्‍कुल सही है, जो आजादी के समय नहीं, बल्कि उससे कई पीढ़ियों और सदियों पहले विरासत में मिली हैं।

चाहे कोई कुछ भी कहे, लेकिन सच्‍चाई यही है कि कांग्रेस के ‘समाजवादी मॉडल’ के आलोचक स्‍वयं जब सत्ता में आए, तो वे सब्सिडी के मोर्चे पर और आगे बढ़ते चले गए तथा उन्‍होंने समाजवादी राज से बहने वाले राजनीतिक भ्रष्टाचार को जड़ से खत्म करने के अपने स्वयं के वादों और उम्मीदों को झुठला दिया। अत: कटु सच्‍चाई यही है कि आर्थिक सुधारों से पहले के युग की किसी भी अवधि की तुलना में फि‍लहाल कहीं अधिक भ्रष्टाचार है, क्‍योंकि मतदाता को भी अब एक न्यायसंगत हितधारक बनाया जा रहा है। गनीमत यही है कि मतदाता को बराबरी का या समकक्ष हितधारक नहीं बनाया जा रहा है। संभवत: इस तरह की प्रवृत्ति को भी बूथ-कैप्चरिंग समाप्त करने में चुनाव आयोग की मिली शुरुआती सफलताओं में एक योगदानकर्ता कारक माना जाना चाहिए। यही नहीं, बूथ-कैप्चरिंग को भी अब कहीं और ज्‍यादा वैज्ञानिक तरीके से फिर से अंजाम दिया जाने लगा है क्‍योंकि इलेक्ट्रॉनिक सुविधाओं को अब मतदान प्रक्रियाओं में उतना ही इस्‍तेमाल में लाया जा रहा है जितना कि प्रक्रियाओं में जालसाजी करने में इनका उपयोग किया जा रहा है।

अत: इसका इलाज नए सिरे से चुनाव कानूनों की समीक्षा करने और चुनावी भ्रष्टाचार के ‘तमिलनाडु मॉडल’ पर संशय से देखने में नहीं है, बल्कि सुधारों के बाद आर्थिक विकास के ‘तमिलनाडु मॉडल’ में निहित है, जो अब भी सामाजिक विकास, व्यक्तिगत आकांक्षाओं और ‘वंचित’ विकास के साथ समुचित तालमेल बैठाने में असमर्थ है। इन सभी का प्रवाह सामाजिक न्याय के मुद्दे पर मिली कामयाबी से हो रहा है जिसे देश के बाकी हिस्सों ने धीरे-धीरे एवं विभिन्‍न चरणों में अपना लिया है और यह ठीक भी तो है। अत: 21वीं सदी के भारत के लिए आर्थिक सुधारों और अभीष्ट चुनावी सुधारों दोनों की ही संयुक्त समीक्षा केवल तभी सही ढंग से हो पाएगी जब हमारे यहां लोकतंत्र अनियंत्रित होने के बजाय देश की विविधतापूर्ण आबादी के एक बड़े हिस्‍से को अपने साथ लेकर आगे बढ़ने में सक्षम होगा।

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