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भारत के लिए जीका एक स्पष्ट खतरे के तौर पर उभर रहा है, ऐसे में रोग निगरानी और नियंत्रण की हमारी व्यवस्था को माइक्रोसेफेली (सर के बहुत छोटे हो जाने की बीमारी) और दिन में काटने वाले मच्छरों के आतंक की दोहरी समस्या से दो-चार होना है।
कुछ हफ्ते पहले तक जीका वायरस के भारत में पुष्ट मामले गिने-चुने ही थे, मगर हाल ही में इनकी ज्यादा हो गई। शुरूआती पुष्ट मामलों में 80 फीसदी से ज्यादा राजस्थान के जयपुर के स्थानीय प्रकोप के हैं। अब तक गुमनाम तरीके से मौजूद जीका अब अपनी ओर खूब ध्यान खींच रहा है।
स्थिति का आकलन करने और इसे नियंत्रित करने के लिए एक के बाद एक कई उपाय किए जा रहे हैं। तेजी से उभरते इस प्रकोप को ध्यान में रख कर दिल्ली में 8 अक्तूबर को एक उच्च स्तरीय तकनीकी बैठक बुलाई गई। अगले दिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने राजस्थान में इसके प्रकोप पर समीक्षा तलब की। आम लोगों में भय न पैदा हो, इसलिए केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री ने व्यक्तिगत तौर पर मीडिया को उन प्रयासों की जानकारी दी जो इसे काबू करने के लिए उठाए जा रहे हैं। साथ ही उन्होंने बताया कि केंद्र की ओर से राजस्थान सरकार को इस लिहाज से क्या मदद प्रदान की जा रही हैं। इस समय तो जीका के मौजूदा केंद्र राजस्थान पर ही पुरा ध्यान केंद्रित है, लेकिन ताजा प्रकोप को अलग-थलग रूप से रख कर देखा गया और सिर्फ इसे नियंत्रित करने के उपायों पर ही ध्यान दिया गया तो यह बहुत बड़ी गलती होगी। इसकी बजाय भारत में सबसे अहम और बार-बार होने वाली मच्छर जनित बीमारियों मलेरिया, डेंगू और चिकनगुनिया को ले कर भी गंभीर और सतत प्रयास करने होंगे। मलेरिया, डेंगू और चिकनगुनिया के साथ ही इस फेहरिश्त में शामिल हुई सबसे ताजा मच्छर जनित बीमारी जीका बेहद अलग और जटिल है। जीका के विशिष्ट लक्षणों और प्रवृत्ति को ध्यान में रखते हुए इससे जूझने के लिए दूसरी मच्छर जनित बीमारियों के मुकाबले ज्यादा सघन उपाय करने की जरूरत है।
जहां इस समय जीका के केंद्र राजस्थान पर ही पूरा ध्यान है, लेकिन ताजा प्रकोप को अलग-थलग रूप से रख कर देखा गया और सिर्फ इसे नियंत्रित करने के उपायों पर ही ध्यान दिया गया तो यह बहुत बड़ी गलती होगी। इसकी बजाय भारत में सबसे अहम और बार-बार होने वाली मच्छर जनित बीमारियों मलेरिया, डेंगू और चिकनगुनिया को ले कर भी गंभीर और सतत प्रयास करने होंगे।
जीका का मामला पहली बार 1947 में अफ्रीका के युगांडा में दर्ज किया गया था। लगभग आधी सदी तक यह वायरस बहुत कम चर्चा में रहा। पिछले दशक तक भौगोलिक रूप से इसका प्रभाव और प्रसार अफ्रीका, एशिया व पश्चिमी पैसिफिक के द्वीपों के कुछ क्षेत्रों तक रहा। जीका के प्रकोप का खतरा और साथ ही इसके कंजेनाइटल और मस्तिष्क संबंधी प्रभाव का पता 2015-16 के दौरान लगा। इस दौरान इसने सीमाएं पार की और ब्राजील में दाखिल हो गया। ज्यादा संभावना है कि यह संक्रमित यात्रियों की वजह से फैला होगा जिसे बाद में दिन में काटने वाले एडिस मच्छरों ने और प्रसारित कर दिया। खास तौर पर नवजात बच्चों में इस बीमारी की वजह से होने वाली जटिलताओं को देखते हुए स्वास्थ्य क्षेत्र में खतरे की घंटी बज गई साथ ही इसने विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्लूएचओ) को भी 1 फरवरी 2016 को जीका को लोक स्वास्थ्य संबंधी अंतरराष्ट्रीय आपात चिंता (पीएचईआईसी) घोषित करने को मजबूर कर दिया। इसके बाद एक दीर्घकालिक जीका रणनीतिक प्रतिक्रिया योजना तैयार की गई। इसके तहत सदस्य देशों को अपील की गई कि वे राष्ट्रीय स्तर पर अपने प्रयासों को मजबूत करें और साथ ही आपस में साझेदारी को भी बढ़ाएं ताकि टीके और इलाज को ले कर बेहतर विकल्प तलाशे जा सकें।
जीका बेहद जटिल और खतरनाक है। कई बार यह गर्भवती महिलाओं में संक्रमित व्यक्ति में बहुत साधारण, नगण्य या पूरी तरह से अदृष्य लक्षणों के साथ मौजूद रह सकता है, लेकिन नवजात बच्चों को बहुत गंभीर रूप से प्रभावित कर सकता है। जीका कई तरह से फैलता है जिसमें यौन संबंध भी एक है। जीका संक्रमित पांच वयस्कों में से सिर्फ एक को ही ऐसे लक्षण होते हैं जिनसे इसकी पहचान की जा सके, जैसे बुखार, फुंसी, जोड़ों में दर्द और कंजेक्टिवाइटिस।
जीका के कारण, प्रसार और नतीजों को ले कर सेल-लेवल बायोलॉजी की ज्यादा समझ अब तक पैदा नहीं हो सकी है, लेकिन नवजात बच्चों में जन्मजात गड़बड़ियों और जानलेवा परिस्थितियों के जीका के साथ संबंध को साबित करने के मजबूत साक्ष्य हैं और इसे डब्लूएचओ ने माना भी है। इनमें गंभीर असामान्यता के विकसित होने की स्थिति माइक्रोसेफेली (जिसका शाब्दिक अर्थ है छोटा सर) सबसे अहम हैं। माइक्रोसेफेली वाले बच्चों में सेंसोरिन्यूरल, मोटर और विकास संबंधी समस्याएं हो सकती हैं।
वैश्विक अलर्ट को देखते हुए भारत ने 2016 में ही निगरानी संबंधी गतिविधियां शुरू कर दी। शुरुआत में देश में प्रवेश के रास्तों पर आऩे वालों की जांच पर जोर था। खास तौर पर प्रभावित देशों से लौट रहे लोगों पर नजर होती थी। भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद (आईसीएमआर) और नोडल एजेंसी राष्ट्रीय विषाणुरोग संस्थान (एनआईवी) ने मानव और मच्छरों में सर्विलेंस की प्रक्रिया से आगे बढ़ कर केंद्रीय स्तर पर जांच की क्षमता विकसित की और साथ ही संक्रामक रोग शोध प्रयोगशाला (वीडीआरएल) के शुरू हो रहे नेटवर्क के तहत क्षेत्रीय प्रयोगशालाओं को तैयारी संबंधी सहयोग उपलब्ध करवाने में जुट गए।
हालांकि भारत में जीका की उपस्थिति 1960 के दशक से ही दर्ज की गई है, लेकिन यह वायरस आयसोलेट नहीं किया जा सका, जिस वजह से इसकी महामारीकारक उपस्थिति भी नहीं आंकी जा सकी।
गुजरात के अहमदाबाद में छानबीन के तहत 2016 के अंत और 2017 की शुरुआत के बीच जीका के तीन मामले आए। इन मरीजों में लक्षण बहुत सामान्य थे। हैरानी की बात यह थी कि तीनों ही मामले स्थानीय थे, जिनके प्रभावित देशों की यात्रा का कोई इतिहास नहीं था। इससे लग रहा था कि समुदाय में ही यह वायरस फैल रहा है।
भारत में जीका की मौजूदगी 1960 के दौरान ही दर्ज की गई है, लेकिन यह वायरस आयसोलेट नहीं किया जा सका, जिस वजह से इसकी महामारीकारक उपस्थिति भी नहीं आंकी जा सकी। इसके साथ ही यह भी सच है कि जीका की गैर-मौजूदगी का कभी कोई प्रमाण भी नहीं रहा, क्योंकि भारत में निगरानी व्यवस्था एकदम पक्की नहीं और अभी विकसित ही हो रही है। समुदाय स्तर पर किए गए अध्ययन के तहत पिछले दो साल के दौरान लिए गए हजारों नमूनों से समुदाय के अंदर वायरस के निम्न स्तर के प्रसार के संकेत मिलते हैं। हालांकि, भारतीय शोधकर्ताओं ने 2017 में जीका के खामोश प्रवाह के बारे में चेतावनी दी थी और साथ ही इसके बड़े स्तर पर प्रकोप की भी आशंका जताई थी। ऐसी ही स्थिति वर्ष 2000 के दौरान महाराष्ट्र में चिकनगुनिया के दुबारा उभार के दौरान भी पैदा हुई थी, जब यह लगभग एक दशक की शांति के बाद फिर आ खड़ा हुआ था। तब ऐसा माना जा रहा था कि यह भारत से गायब हो चुका है।
भारत में जीका वायरस के स्ट्रेन अफ्रीका और एशिया के दूसरे देशों के ज्यादा आक्रामक स्ट्रेन से काफी अलग है, लेकिन इसके प्रसार के सारे कारक मौजूद हैं। भारत में गंदगी भरे इलाकों की वजह से एडिस मच्छरों के लिए काफी अनुकूल परिस्थितियां हैं। जेनेटिक म्यूटेशन भी वायरस के मजबूत होने के लिए जरूरी परिस्थिति उपलब्ध करवाती है। पूरे भारत के शहरी इलाकों में महामारी का रूप ले चुके डेंगू के बढ़ते मामलों को देखते हुए और एडिस मच्छरों के पनपने की जगहों के बढ़ने के कारण राजस्थान में जीका के प्रकोप के ताजा मामले को अलग-थलग रख कर नहीं देखा जा सकता। यह पूरी समस्या का एक छोटा सा हिस्सा हो सकता है, जिसको प्रभावी रूप से नहीं निपटा गया तो बहुत भयावह रूप ले सकता है।
डब्लूएचओ के मुताबिक 2017 में 86 देशों में जीका की उपस्थिति दर्ज की गई, जिनमें भारत भी शामिल है। भारत को श्रेणी 2 में रखा गया है। यह श्रेणी उनके लिए होती है जिन क्षेत्रों में निरंतर प्रसार के प्रमाण नहीं हों। श्रेणी 1 के ब्राजील और दक्षिण एशियाई देशों में फैले प्रकोप की अवधि के दौरान प्रभावित लोगों की संख्या सैकड़ों-हजारों में थी। ये ऐसे देश हैं जिनकी आबादी कुछ बड़े भारतीय राज्यों के जितनी है। इसलिए अगर इसको ले कर तुरंत सक्रियता नहीं दिखाई गई तो भारत के श्रणी 1 में शामिल हो जाने का खतरा है। श्रेणी 1 में वे क्षेत्र रखे जाते हैं, जहां प्रसारण जारी हो और इंट्रोडक्शन और री-इंट्रोडक्शन हो रहा है। ऐसा हुआ तो भारत को अचानक हजारों मामलों को संभालना होगा।
जीका की समय से पहचान करना एक बड़ी चुनौती है। चूंकि जीका के पांच में से एक मामले में ही थोड़े-बहुत लक्षण दिखाई देते हैं, खुद से इसका पता करना लगभग असंभव होता है। जीका के प्रभावित लोगों में से 50 फीसदी मामलों में लक्षण डेंगू वायरस के जैसे ही होते हैं इसलिए रैपिड टेस्टिंग किट में क्रास रिएक्टिविटी का काफी अवसर रहता है। देख-भाल की जगह पर इसकी पहचान नहीं हो सकती, यहां तक कि जिनको इसके लक्षण हैं और जिनको मेडिकल देख-भाल पहले से मिल रही है उनमें भी जीका की पहचान आसान नहीं है। रीयल टाइम पॉलीमरस चेन रिएक्शन (आरटी-पीसीआर) की आधुनिक मोलेक्युलर जांच ही इसका एकमात्र विश्वसनीय विकल्प है। नमूने लेने का भी एक खास समय होना चाहिए। संक्रमण होने के 4-5 दिन के बाद इसे लिया जाए। इसी तरह आरटी-पीसीआर वाली सरकार की ओर से चिह्नित शीर्ष प्रयोगशाला तक इसे सुरक्षित रूप से पहुंचाया जाना होता है। इसलिए जीका की समय से पहचान कर समय से इसके प्रकोप को रोकना एक बड़ी चुनौती है। शुरुआती जांच के लिए ऐसे मरीज बड़ी संख्या में प्राइवेट क्षेत्र में जाते हैं, साथ ही सामान्य लक्षणों में कई बार लोग डॉक्टर के पास नहीं भी जाते हैं। ऐसे में प्रकोप की आशंका को रोकने के लिहाज से निगरानी तंत्र अभी अपर्याप्त है।
जीका के पुष्ट मामलों के मरीजों को काउंसलिंग की जरूरत होती है। अगर वह प्रजनन आयु वर्ग में है या पहले से ही गर्भवती है तो उसे खास तौर पर परिवार नियोजन को ले कर सलाह दिए जाने की जरूरत है। इसके साथ ही उसे गर्भावस्था संबंधी मामलों के लिए मदद और देख-भाल की भी जरूरत होगी।
निगरानी की चुनौतियों को देखते हुए, गर्भवती महिलाओं को खास तौर पर लक्ष्य करना होगा जो खतरे की जद में सबसे अधिक रहती हैं लेकिन गर्भावस्था के दौरान दी जाने वाली देख-भाल संबंधी व्यवस्था के जरिए उन तक पहुंचा जाना भी संभव है। गर्भावस्था के पूरे समय के दौरान अत्यधिक सावधानी से उनकी निगरानी करनी होगी। इसके लिए जरूरी है कि व्यापक रणनीति तैयार की जाए जिसमें सरकारी और निजी क्षेत्र के विभिन्न विशेषज्ञ शामिल हों। इनमें गर्भ नष्ट होने की समस्या को देखने वाले गायनाकोलॉजिस्ट, अल्ट्रासाउंड करने वाले रेडियोलॉजिस्ट, प्रसव में मदद करने वाले ओब्सटेट्रीसियन और काउंसलर आदि शामिल हैं। जीका की पुष्टि वाले मरीजों को काउंसलिंग की जरूरत होती है। अगर वह प्रजनन आयु वर्ग में है या पहले से ही गर्भवती है तो उसे खास तौर पर परिवार नियोजन को ले कर सलाह दिए जाने की जरूरत है। इसके साथ ही उसे गर्भावस्था संबंधी मामलों के लिए मदद और देख-भाल की भी जरूरत होगी। सबसे महत्वपूर्ण है कि माइक्रोसेफेली वाले बच्चों को लैब जांच और देख-भाल पूरी तरह से उपलब्ध करवानी होगी और इसमें प्राइवेट क्षेत्र के मरीज भी शामिल हों।
ब्राजील में किए गए ताजा अध्ययनों में पाया गया है कि जन्म के समय सामान्य दिखने वाले बच्चों में भी मानसिक बीमारी के लक्षण होते हैं। इससे यह संकेत मिलता है कि जीका की निगरानी व्यवस्था के तहत सिर्फ जन्म के दौरान कंजेनाइटल माइक्रोसेफेली संबंधी सावधानी ही नहीं रखनी चाहिए, बल्कि बच्चे के जन्म के बाद भी लंबी अवधि तक उनकी निगरानी करनी होगी। नवजात को हुई विकास संबंधी गड़बड़ी की देख-भाल की वजह से प्रभावित बच्चों के अभिभावकों को मानसिक और वित्तीय झटका लग सकता है और साथ ही सार्वजनिक क्षेत्र के संसाधन व प्रयास भी इसमें लगाने होंगे।
जीका की खामोश महामारी को कम कर के आंकने के किसी भी प्रयास से ना सिर्फ इससे निपटने का अवसर जाता रहेगा, बल्कि जन्मजात गड़बड़ियों, गर्भ के दौरान इसके प्रसार संबंधी नैतिक परेशानियों और पुनर्वास संबंधी जरूरतों को ले कर चुनौतियां और बढ़ जाएंगी। इस पर काम करने के लिए मच्छरों का नियंत्रण ज्यादा स्मार्ट और आसान विकल्प है।
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Deepesh Vendoti is a former consultant at ORF-Mumbai's HealthInitiative. He is a medical doctor by training and a public healthmanagement graduate from Yale University.
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