Author : Satish Misra

Published on Jan 29, 2019 Updated 0 Hours ago

पिछले चुनाव की गणना के आधार पर लगाया गया अनुमान अक्सर गलत साबित होता है और इसलिए सपा-बसपा गठबंधन के प्रभाव को समझने के लिए मौजूदा जमीनी वास्तविकताओं पर करीब से नज़र डालना जरूरी है।

उत्तर प्रदेश में त्रिकोणीय चुनावी संघर्षः किसका फायदा और किसका नुकसान?

शनिवार, 12 जनवरी 2019 को सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश की दो क्षेत्रीय पार्टियों — बहुजन समाज पार्टी (बसपा) और समाजवादी पार्टी (सपा) ने यह स्पष्ट कर दिया कि दोनों पार्टियाँ आने वाले आम चुनावों में संयुक्त रूप से लड़ते हुए प्रत्येक 38 सीटों पर चुनाव लड़ने जा रही हैं।

बसपा सुप्रीमो मायावती और सपा प्रमुख अखिलेश यादव ने एक संयुक्त प्रेस कॉन्फ्रेंस को संबोधित करते हुए कहा कि कांग्रेस उनके गठबंधन का हिस्सा नहीं बनने जा रही है और इस तरह संघर्ष को त्रिकोणीय बना दिया। दोनों नेताओं ने यह भी घोषणा की कि वे अमेठी और रायबरेली में अपनी पार्टी के उम्मीदवारों को कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी और यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी के लोकसभा क्षेत्र में नहीं उतारेंगे।

बसपा सुप्रीमो मायावती और सपा प्रमुख अखिलेश यादव ने एक संयुक्त प्रेस कॉन्फ्रेंस को संबोधित करते हुए कहा कि कांग्रेस उनके गठबंधन का हिस्सा नहीं बनने जा रही है और इस तरह संघर्ष को त्रिकोणीय बना दिया।

पश्चिमी उत्तर प्रदेश आधारित राष्ट्रीय लोक दल (रालोद) भी एक सप्ताह के भीतर ही गठबंधन का हिस्सा बन गया जो काफी हद तक इस क्षेत्र के वर्चस्व वाले जाट समुदाय का प्रतिनिधित्व करता है। रालोद मंजूर कुल 38 सीटों में से चार या तीन सीटों पर सपा के साथ चुनाव लड़ सकती है, जबकि दो या एक सीट पर वह स्वतंत्र रूप से लड़ेगी।

यहां यह स्मरण किया जा सकता है कि 2014 के चार पक्षीय लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने कुल 80 सीटों में से 71 संसदीय सीटें जीती थीं जिससे भगवा पार्टी को अभूतपूर्व बहुमत मिला था। विपक्षी दलों- कांग्रेस, बसपा, सपा और राष्ट्रीय लोक दल (रालोद) को जबरदस्त हार का सामना करना पड़ा था जिसमें सपा को पांच, कांग्रेस को 2, बसपा और रालोद को कुछ नहीं मिला था। शेष बची दो सीटें भाजपा के एनडीए साथी ‘अपना दल’ के पास चली गईं थीं।

बसपा और सपा दोनों ही अपने-अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं क्योंकि अगर गठबंधन 50 से अधिक सीटें नहीं जीतता है तो मायावती के साथ-साथ अखिलेश के राजनीतिक करियर और महत्वाकांक्षाओं को भी बड़ी चुनौतियों का सामना करना पड़ सकता है। मायावती 2012 से सत्ता से बाहर हैं और बसपा ने 2014 की लोकसभा में एक भी सीट नहीं जीती है और 2017 के विधानसभा चुनावों में केवल 19 सीटें जीत सकीं।

अखिलेश को भी अपने चाचा शिवपाल यादव के रूप में गंभीर चुनौती का सामना करना पड़ रहा है जिन्होंने अपने भतीजे से रास्ते जुदा होने के बाद एक अलग पार्टी बनाई है जिससे पूर्व मुख्यमंत्री को लगातार परेशानी का सामना करना पड़ रहा है। आगामी लोकसभा चुनावों में खराब प्रदर्शन के बाद बड़ी संख्या में पार्टी और कैडर के नेता उन्हें छोड़कर उनके चाचा के पास जा सकते हैं।

2014 में सपा और बसपा, जिन्हें क्रमशः 22.2 प्रतिशत और 19.6 प्रतिशत मतदान प्राप्त हुए थे, के एक साथ आने से भाजपा के लिए एक गंभीर चुनौती खड़ी हो गई थी जिसे 42.3 प्रतिशत मत मिला था। 2017 के राज्य विधानसभा चुनावों में, दोनों को संयुक्त रूप से 44.2 प्रतिशत मतदान मिला था, जबकि सर्वाधिक 384 सीटें जीतने के बावजूद भाजपा को प्राप्त मतदान 36.2 प्रतिशत था।

पिछले चुनाव की गणना के आधार पर लगाया गया अनुमान अक्सर गलत साबित होता है और इसलिए सपा-बसपा गठबंधन के प्रभाव को समझने के लिए मौजूदा जमीनी वास्तविकताओं पर करीब से नज़र डालना जरूरी है।

कांग्रेस को गठबंधन का हिस्सा न बनाकर, बसपा सुप्रीमो ने एक सुविचारित राजनीतिक जोखिम लिया है। कांग्रेस को कोई राजनीतिक स्थान नहीं देने के उनके निर्णय का लक्ष्य दोहरे उद्देश्यों को प्राप्त करना है। पहला, उनकी नजर प्रधानमंत्री की कुर्सी पर टिकी हैं और ऐसा वह तभी कर सकती हैं जब वे उत्तर प्रदेश से अधिकतम सीटें जीतें। दूसरा, अपनी सौदेबाजी की ताकत को मजबूत करने के लिए उन्हें कांग्रेस को नीचे रखना है।

दोनों पक्षों में हुई बातचीत का हिस्सा रहे अंदरूनी सूत्रों का कहना है कि प्रारंभ में अखिलेश यादव कांग्रेस को विपक्षी गठबंधन के भीतर रखने के लिए बहुत इच्छुक थे। मायावती इसका विरोध कर रही थीं। उन्होंने सपा प्रमुख को आश्वस्त किया कि देश के सबसे पुराने दल को साथ लाना व्यर्थ है।

कांग्रेस से दूरी बनाए रखने के पीछे मायावती का तर्क है कि बसपा और सपा के वोट बंट जाते हैं, जबकि कांग्रेस का वोट उनके गठबंधन सहयोगियों को नहीं मिलता है। गठबंधन से कांग्रेस को फायदा होता है। उनकी एक और दलील यह है कि अगर उत्तर प्रदेश में कांग्रेस मजबूत होती है तो हम (सपा और बसपा) इस प्रक्रिया में कमजोर हो जाएंगे। इसके अलावा, ऐसा समझा गया है कि उन्होंने सपा नेता को बताया कि मजबूत की तुलना में कमजोर के साथ बातचीत करना आसान है।

कांग्रेस से दूरी बनाए रखने के पीछे मायावती का तर्क है कि बसपा और सपा के वोट बंट जाते हैं, जबकि कांग्रेस का वोट उनके गठबंधन सहयोगियों को नहीं मिलता है।

मायावती ने आगे कहा कि कांग्रेस और भाजपा का मतदाता आधार कई मायनों में सामान्य है क्योंकि दोनों ही उच्च जातियों द्वारा पसंद की जाती हैं। यदि कांग्रेस बड़ी संख्या में सीटों पर चुनाव लड़ रही है, तो वह सपा-बसपा के उम्मीदवारों को फायदा पहुंचाने वाले भाजपा के वोटों को खा जाएगी।

विपक्षी गठबंधन में कांग्रेस को शामिल नहीं करने के मायावती के तर्कों के बावजूद, बसपा-सपा गठबंधन ने राज्य में भाजपा को राहत की सांस दी है, क्योंकि भगवा पार्टी के लिए त्रिकोणीय संघर्ष एक सीधी लड़ाई की तुलना में कहीं बेहतर है।

जबकि सीधी लड़ाई में, भाजपा की 2014 में प्राप्त 71 सीटों से लगभग एक दर्जन तक सिमट जाने की संभावना थी, अब केंद्र के साथ-साथ राज्य में भी सत्तारूढ़ पार्टी एक बड़े पैमाने पर त्रिकोणीय संघर्ष में दो दर्जन लोकसभा सीटें जीत सकती है।

यह देखा गया है कि मतदाता हाल-फिलहाल में विधानसभा चुनावों और राष्ट्रीय चुनावों में अलग-अलग तरह से अपने मत का प्रयोग करते हैं। इसलिए, यह समझना गलत होगा कि भाजपा को हराने के लिए मतदाता सपा-बसपा गठबंधन की ओर झुकेंगे। मतदाता, जो निराश हैं, बल्कि जिनका भाजपा से मोहभंग हो गया है, वे कांग्रेस को चुनना पसंद करेंगे। यह अल्पसंख्यक मतदाताओं पर अधिक लागू होता है, उनके आकलन के अनुसार, कांग्रेस ही एकमात्र दल है जो भाजपा को सत्ता में आने से रोक सकती है।

2004 के लोकसभा चुनाव में, उत्तर प्रदेश के निचले सदन में भाजपा की टैली 29 से गिरकर 10 पर आ गई थी, जबकि सपा ने 35 और बसपा ने 19 सीटें जीती थीं। 2009 के आम चुनावों में, कांग्रेस ने अपनी टैली नौ से बढ़ाकर 21 कर ली थी 2004 में, बीजेपी की टैली 10 पर थी। लोकसभा में बसपा के 20 और सपा के 23 सांसद थे।

2009 में 21 सीटें जीतना एक बार होने वाली परिघटना थी या नहीं, इसका अनुमान लगाना असंभव है। 2014 में, सहारनपुर, गाजियाबाद, लखनऊ, कानपुर, बाराबंकी और खुशीनगर की छः लोकसभा सीटों पर कांग्रेस दूसरे स्थान पर रही थी। ये सीटें भाजपा ने जीती थीं। सपा और बसपा सभी छः सीटों पर कांग्रेस से मतसंख्या में पीछे रहीं थीं।

यह देखा गया है कि मतदाता हाल-फिलहाल में विधानसभा चुनावों और राष्ट्रीय चुनावों में अलग-अलग तरह से अपने मत का प्रयोग करते हैं। इसलिए, यह समझना गलत होगा कि भाजपा को हराने के लिए मतदाता सपा-बसपा गठबंधन की ओर झुकेंगे।

बसपा-सपा गठबंधन जिसमें राष्ट्रीय लोक दल भी एक छोटे सहयोगी दल के तौर पर चार सीटों पर चुनाव लड़ रहा है, की ताकत, मुख्य रूप से यह जातीय पहचान है। एक भावनात्मक चुनाव में या एक उन्मादपूर्ण स्थिति में, जातिगत बाधाएं टूट जाती हैं क्योंकि मतदाता एक कारण या पार्टी या एक नेता को वोट देने के लिए जातिगत विचारों से ऊपर उठ जाता है। 1971, 1984, 1989, 1999 और 2014 के आम चुनावों में जाहिर तौर पर इस प्रकार का मतदान हुआ था जिसके साथ 1977 को मिलाकर देखा नहीं जा सकता है क्योंकि यह लहर विंध्य से आगे नहीं फैली थी। एक लहर या एक निश्चित भावनात्मक मुद्दे की अनुपस्थिति में, मतदान जातिगत सीमाओं के भीतर होता है।

बड़ी संख्या में लोकसभा क्षेत्रों के परिणाम को निर्धारित करने में मुस्लिम मतदाताओं का मतदान संबंधी व्यवहार बहुत मायने रखता है। कांग्रेस को गठबंधन से दूर रखकर, मायावती ने अल्पसंख्यक समुदाय विशेषकर उन मुसलमानों के लिए एक गंभीर दुविधा उत्पन्न कर दी है जो राज्य की आबादी के 19 प्रतिशत से अधिक हैं।

मुस्लिम, मोदी सरकार के लगभग पांच साल और योगी आदित्यनाथ सरकार के दो साल पूरे होने के बाद ऐसी पार्टी को वोट देना चाहेंगे जो भाजपा को हरा सके। हालांकि मुस्लिम मतदाताओं की पहली पसंद कांग्रेस है, लेकिन जहां कांग्रेस भाजपा को हराने की स्थिति में नहीं है, वे सपा-बसपा गठबंधन के उम्मीदवार को वोट देंगे। मुस्लिम समुदाय और सपा-बसपा के बीच विश्वास की कमी है क्योंकि इन दोनों दलों ने अतीत में भाजपा के साथ गठजोड़ किया है।

सपा-बसपा गठबंधन का रालोद के साथ जुड़ना और कांग्रेस का सबसे बड़े राज्य में अधिकांश सीटों पर चुनाव लड़ना, भाजपा के लिए एक बड़ी चुनौती है। चूंकि गठबंधन राज्य विशेष में हैं, इसलिए भाजपा द्वारा एक सामान्य राष्ट्रीय परिकल्पना को गढ़ना असंभव होगा। चुनाव राज्य से जुड़े मुद्दों पर ही लड़ा जाएगा।

भाजपा इस संघर्ष को नरेंद्र मोदी बनाम राहुल गांधी की तरफ मोड़ना पसंद करती, लेकिन अफसोस कि कांग्रेस कई राज्यों में अकेले लड़ रही है। पश्चिम बंगाल में, ओडिशा और उत्तर प्रदेश जैसे कई राज्य हैं जहाँ कांग्रेस भाजपा की पहली प्रतिद्वंद्वी नहीं है।

उत्तर प्रदेश संभवतः एक और प्रधानमंत्री नहीं दे सकता है, लेकिन यह निश्चित है कि उत्तर प्रदेश की यह निश्चित करने में बहुत अहम भूमिका होगी कि कौन अगले पांच सालों के लिए देश का नेतृत्व करेगा।

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