यूनाइटेड नेशंस फ़्रेमवर्क कन्वेंशन फ़ॉर क्लाइमेट चेंज (UNFCCC) के तहत हाल ही में कॉन्फ़्रेंस ऑफ़ पार्टीज़ (COP) का 26वां सम्मेलन आयोजित किया गया. सम्मेलन के 10वें दिन परिवहन से जुड़ा मुद्दा ख़ासतौर से चर्चा के लिए सामने आया. एक जानकारी के मुताबिक ग्रीन हाउस गैस (GHG) के उत्सर्जन में परिवहन क्षेत्र का योगदान तक़रीबन 25 फ़ीसदी है. COP26 में यातायात क्षेत्र से ताल्लुक़ रखने वाले तमाम किरदारों ने परिवहन से जुड़े COP26 घोषणापत्र पर दस्तख़त किए. ग़ौरतलब है कि विश्व बिरादरी ने ग्लोबल वॉर्मिंग के चलते वैश्विक तापमान में बढ़ोतरी के दायरे को 1.5 डिग्री तक सीमित रखने का लक्ष्य रखा है. लिहाज़ा परिवहन क्षेत्र से जुड़े घोषणापत्र को भी इस लक्ष्य के साथ तालमेल बिठाते हुए तैयार किया गया है. इस पर अनेक देशों, शहरों, ऑटोमोबाइल कंपनियों, वित्तीय संस्थाओं और तमाम दूसरे किरदारों ने सहमति जताई है.
परिवहन क्षेत्र से जुड़े घोषणापत्र और COP26 सम्मेलन में इलेक्ट्रिक वाहनों के इस्तेमाल को बढ़ावा देने का विचार पेश किया गया. इसके साथ ही 2040 तक जीवाश्म ईंधन पर आधारित वाहनों की बिक्री को चरणबद्ध रूप से ख़त्म करने का खाका भी सामने रखा गया.
परिवहन क्षेत्र से जुड़े घोषणापत्र और COP26 सम्मेलन में इलेक्ट्रिक वाहनों के इस्तेमाल को बढ़ावा देने का विचार पेश किया गया. इसके साथ ही 2040 तक जीवाश्म ईंधन पर आधारित वाहनों की बिक्री को चरणबद्ध रूप से ख़त्म करने का खाका भी सामने रखा गया. दुनिया में आटोमोबाइल सेक्टर की अगुवाई करने वाले देशों के लिए तो 2035 तक ही इस लक्ष्य को हासिल कर लेने की बात कही गई. हालांकि इस लक्ष्य को हासिल करने के रास्ते में कुछ दिक़्क़तें और बंदिशें हैं. सबसे पहली बात तो ये है कि दुनिया की दो सबसे बड़ी ऑटोमोबाइल कंपनियां और ऑटोमोबाइल सेक्टर के तीन सबसे बड़े बाज़ार- अमेरिका, जर्मनी और चीन ने इस घोषणापत्र पर दस्तख़त ही नहीं किए हैं. साफ़ ज़ाहिर है कि कार्बन उत्सर्जन का एक बड़ा स्रोत इन घोषणाओं के दायरे में ही नहीं है.
दूसरे, कई विशेषज्ञों और पर्यावरण कार्यकर्ताओं ने COP के आयोजन और परिवहन से जुड़ी घोषणाओं को लेकर गहरी चिंता जताई है. ख़ासतौर से ई-मोबिलिटी से जुड़े विचार को लेकर उनके मन में कई तरह की आशंकाएं हैं. उनके विचार से परिवहन से जुड़े खाके में ई-मोबिलिटी पर ज़रूरत से ज़्यादा ज़ोर दिया गया है. उनका मानना है कि ये तौर-तरीक़ा और इस पूरी क़वायद का दायरा सामाजिक और आर्थिक रूप से समावेशी नहीं है. कई विशेषज्ञों ने इसे उच्चवर्गीय सोच की उपज करार दिया है.
सम्मेलन में सतत या टिकाऊ गतिशीलता से जुड़े तंत्र के कुछ बेहद अहम कारकों के बारे में कोई ठोस चर्चा ही नहीं की गई. इनमें सक्रिय परिवहन, सार्वजनिक यातायात और आवागमन के ग़ैर-मोटर साधन जैसे पैदल चलना और साइकिल शामिल हैं.
तीसरा, कई जलवायु कार्यकर्ताओं ने COP26 में केवल घोषणाओं और प्रतिबद्धताओं पर ही ज़ोर दिए जाने को लेकर अपनी नाख़ुशी जताई है. उनका साफ़ तौर से मानना है कि जलवायु से जुड़े वैज्ञानिक दृष्टिकोण के हिसाब से अब घोषणाओं की नहीं बल्कि तत्काल ठोस क़दम उठाने की ज़रूरत है.
आख़िरी बात ये कि सम्मेलन में सतत या टिकाऊ गतिशीलता से जुड़े तंत्र के कुछ बेहद अहम कारकों के बारे में कोई ठोस चर्चा ही नहीं की गई. इनमें सक्रिय परिवहन, सार्वजनिक यातायात और आवागमन के ग़ैर-मोटर साधन (non-motorised means of transportation) जैसे पैदल चलना और साइकिल शामिल हैं. हालांकि, ये बात सही है कि सम्मेलन में परिवहन जगत के महत्वपूर्ण और कार्बन सघन क्षेत्रों जैसे हवाई यातायात और समुद्री जहाज़ों के बारे में विस्तार से चर्चा की गई.
ये तमाम मसले नीतिगत स्तर पर मौजूद तमाम तरह की चुनौतियों की ओर इशारा करते हैं. नीति-निर्माता और प्रभावशाली तत्व ‘टिकाऊ परिवहन’ को एक ख़ास नज़रिए से देखते हैं. यातायात से जुड़े पूरे इकोसिस्टम में नीतियों, व्यवहारों और योजनाओं में टिकाऊ तौर-तरीक़ों को बढ़ावा देने में ऐसी ही धारणाएं जुड़ गई हैं. दरअसल इलेक्ट्रिक वाहनों को इस क्षेत्र से जुड़े तमाम पुराने और लंबित ढांचागत मसलों के समाधान के लिए रामबाण के तौर पर पेश किया जा रहा है. ज़ाहिर है इन तमाम मसलों से निपटने में इलेक्ट्रिक वाहनों की क्षमता को ज़रूरत से ज़्यादा बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया जा रहा है. दूसरी ओर जिन क्षेत्रों में ये ज़्यादा बड़ी भूमिका निभा सकते हैं वहां इनकी अनदेखी हो रही है. इनमें 2W और 3W शामिल हैं.
इलेक्ट्रिक गतिशीलता पर अटकी बदलाव की सुई
यक़ीनन ये बात सच है कि कई देशों में नीतिगत लहज़ों में सतत या टिकाऊ परिवहन का मतलब इलेक्ट्रिक गतिशीलता ही हो गया है. ये एक चिंताजनक घटनाक्रम है. यहां हमारे सामने एक बुनियादी चुनौती है. दरअसल ई-मोबिलिटी की ओर बदलाव तो व्यापक व्यवस्थागत परिवर्तनों के तमाम कारकों में से सिर्फ़ एक कारक है. जलवायु के अनुकूल, सामाजिक और पर्यावरणीय लिहाज़ से टिकाऊ और मज़बूत परिवहन तंत्र खड़ा करने के लिए ये निहायत ज़रूरी है. जैसा कि कई विशेषज्ञों बार-बार कह रहे हैं, जलवायु के मोर्चे पर प्रभावी कार्रवाई के लिए हमें गतिशीलता से जुड़े पूरे इकोसिस्टम में सिर्फ़ बदलाव नहीं बल्कि व्यवस्थागत तौर पर आमूल-चूल परिवर्तन लाने की दरकार है. इसके मायने ये हैं कि हर नए वाहन के तौर पर इलेक्ट्रिक वाहन उतारना और आंतरिक दहन वाले इंजन-आधारित वाहनों को चरणबद्ध रूप से सड़क से हटाना ही पर्याप्त नहीं होगा.
दरअसल ई-मोबिलिटी की ओर बदलाव तो व्यापक व्यवस्थागत परिवर्तनों के तमाम कारकों में से सिर्फ़ एक कारक है. जलवायु के अनुकूल, सामाजिक और पर्यावरणीय लिहाज़ से टिकाऊ और मज़बूत परिवहन तंत्र खड़ा करने के लिए ये निहायत ज़रूरी है
असलियत ये है कि पूरा परिवहन तंत्र ही ढांचागत मसलों से जूझ रहा है. व्यस्त ट्रैफ़िक, यातायात के घंटे, बुनियादी ढांचे की गुणवत्ता, आवागमन का ख़र्च वहन करने की क्षमता, परिवहन के साधनों तक पहुंच और यातायात से जुड़ी समस्याओं के समाधानों का समावेशी स्वरूप जैसे मसले इस क्षेत्र के लिए सबसे अहम मुद्दे हैं. अगर वाहनों का पूरा बेड़ा भी बिजली से संचालित होने लगे तो भी ये तमाम मसले जस की तस बने रहेंगे. ऐसे में साफ़ है कि पूरे परिवहन तंत्र में आमूलचूल बदलाव लाने के तरीक़ों पर सोच-विचार करना और उनपर अमल करना बेहद अहम हो जाता है.
सही मायनों में टिकाऊ परिवहन व्यवस्था हासिल करने के लिए आवश्यक रणनीति बनाने के साथ-साथ योजनागत और नीति-आधारित समाधानों पर अमल करना ज़रूरी है. इसके लिए एक व्यापक दृष्टिकोण अपनाना होगा. पूरी परिवहन व्यवस्था को स्पष्ट रूप से समझने और टिकाऊ विकास के नज़रिए से तमाम उपाय करने की ज़रूरत है. मिसाल के तौर पर सड़क पर चलने वाले वाहन, सड़क, रेल, हवाई और जलमार्ग से जुड़े क्षेत्र में परिवहन का बुनियादी ढांचा, ऑटोमोबाइल विनिर्माण, सार्वजनिक यातायात, मार्केट डीलरशिप, साझा परिवहन सेवा प्रदाता, मरम्मत और रखरखाव से जुड़ा नेटवर्क और ऐसे ही दूसरे तत्व मिलकर पूरा परिवहन इकोसिस्टम तैयार करते हैं. इनके साथ-साथ विभिन्न प्रकार के यात्री, पैदल चलने और साइक्लिंग के ज़रिए सक्रिय आवागमन, ज़रूरी रसद और वस्तुओं पर आधारित मांग भी इस पूरे तंत्र का अहम हिस्सा हैं. परिवहन क्षेत्र का टिकाऊ रूप से कायापलट करने के लक्ष्य को साकार करने के लिए इन तमाम पहलुओं को ध्यान में रखने की ज़रूरत है.
आर्थिक रूप से टिकाऊ तौर-तरीक़ों का मतलब यही है कि तमाम किरदारों के लिए परिवहन क्षेत्र के घटनाक्रम ‘वाजिब’ आर्थिक फ़ायदे का सौदा साबित हों. उपभोक्ताओं के लिए इसके मायने कम ख़र्च, वहन करने की क्षमता, पहुंच और अच्छी गुणवत्ता वाली परिवहन सेवा हो सकती है.
इसके साथ ही टिकाऊ विकास के विचार को समझने और उससे जुड़े तौर-तरीक़ों की पड़ताल के लिए एक व्यापक ढांचा खड़ा करना और समग्र दृष्टिकोण अपनाना बेहद ज़रूरी है. प्रभावी रूप से परिवहन क्षेत्र की तस्वीर बदलने में ये मददगार साबित होंगे. दरअसल परिवहन क्षेत्र को टिकाऊ बनाने का मतलब सिर्फ़ वाहनों के बेड़े को बिजली से चलने वाले वाहनों में बदलना भर नहीं है. इस पूरी प्रक्रिया में परिवहन व्यवस्था को सामाजिक और आर्थिक रूप से हाशिए पर रह रहे समूहों, महिलाओं, बच्चों और बुज़ुर्ग लोगों के लिए ज़्यादा समावेशी बनाने की क़वायद भी शामिल है. इसके साथ ही पूरे तंत्र को जलवायु परिवर्तनों के हिसाब से ज़्यादा लचीला बनाने की प्रक्रिया भी इसी क़वायद का हिस्सा होना चाहिए.
सरसरी तौर पर टिकाऊ विकास को पर्यावरण, समाज और आर्थिक स्वरूपों में देखा जा सकता है. पर्यावरण के मोर्चे पर टिकाऊ तौर-तरीक़ों में वाहनों और जीवनचक्र संबंधी दूसरे उत्सर्जनों को कम करने की जद्दोजहद के साथ-साथ कई और प्रयास भी आते हैं. इनमें जलवायु परिवर्तन के हिसाब से ख़ुद को ढालने, जैव विविधता संरक्षण, विभिन्न प्रकार के प्रदूषणों पर नियंत्रण, सर्कुलर इकॉनोमी और पूरी परिवहन व्यवस्था से जुड़े तमाम पर्यावरण-संबंधी कारक शामिल हैं. परिवहन क्षेत्र में सामाजिक निरंतरता के अपने मायने हैं. अपनी दैनिक ज़रूरतों और आजीविका के लिए परिवहन क्षेत्र पर कामगारों और समुदायों की निर्भरता रहती है. पर्यावरण के मोर्चे पर टिकाऊ गतिविधियों जैसे इलेक्ट्रिक गतिशीलता की ओर आगे बढ़ने के क्रम में इन कामगारों और समुदायों का ध्यान रखने की ज़रूरत है. आर्थिक रूप से टिकाऊ तौर-तरीक़ों का मतलब यही है कि तमाम किरदारों के लिए परिवहन क्षेत्र के घटनाक्रम ‘वाजिब’ आर्थिक फ़ायदे का सौदा साबित हों. उपभोक्ताओं के लिए इसके मायने कम ख़र्च, वहन करने की क्षमता, पहुंच और अच्छी गुणवत्ता वाली परिवहन सेवा हो सकती है. कारोबार जगत और निवेशकों के लिए ये मुनाफ़े और निवेश के बदले हासिल होने वाला रिटर्न हो सकता है. राज्यसत्ता के लिए इस पूरी क़वायद के मायने राजस्व का स्थायी प्रवाह सुनिश्चित करना होगा. बहरहाल जब ये नाज़ुक संतुलन टूटता है तब किसी एक का लालच दूसरे किरदारों जैसे उपभोक्ताओं (ख़ासतौर से आर्थिक रूप से कमज़ोर वर्गों) को गुणवत्ता से समझौता कर सबसे सस्ते विकल्प की ओर आगे बढ़ने की मजबूरी बन जाता है.
भारत के कई हिस्सों में निम्न आय वर्ग वाले परिवार अपनी आमदनी का एक बड़ा हिस्सा सार्वजनिक परिवहन पर ख़र्च करते हैं. अक्सर ये ख़र्च उनकी आमदनी का 10 प्रतिशत होता है तो कुछ मामलों में ये 35 फ़ीसदी से भी ज़्यादा हो जाता है. परिवहन के क्षेत्र में सही मायनों में टिकाऊ विकास के लक्ष्य तभी हासिल हो सकते हैं जब उत्सर्जन को कम करने के साथ-साथ ग़रीब परिवारों को सस्ती और कम क़ीमत पर परिवहन सुविधाएं मुहैया हो जाएं.
सतत विकास से जुड़े तौर-तरीक़े अपनाना
टिकाऊ तरीक़े से परिवहन क्षेत्र का कायापलट करने के लिए ख़ासतौर से ‘टालो, बदलो और सुधार करो’ का मार्गदर्शक सिद्धांत अपनाया जा सकता है. ‘टालो’ का मतलब ये है कि हमें जहां तक संभव हो लोगों को यातायात टालने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए. मिसाल के तौर पर कामकाज के भावी तौर-तरीक़े और डिजिटल क्रांति के दौर में कार्य-आधारित यात्राओं को काफ़ी हद तक कम करने की संभावना मौजूद हो सकती है. इससे मोटे तौर पर पूरे परिवहन क्षेत्र की कार्यकुशलता में सुधार आता है. ‘बदलाव’ के मायने ये हैं कि जिन हालातों में आवागमन को टालना मुमकिन नहीं हो उनमें टिकाऊ परिवहन अपनाने की क़वायद हो. मसलन, वैसी परिस्थितियों में परिवहन के लिए ज़्यादा कार्यकुशल और टिकाऊ माध्यमों जैसे पैदल चलने, साइकिलिंग या कार्यकुशल सार्वजनिक परिवहन जैसे रेल आदि का सहारा लिया जाए. इससे निहायत ज़रूरी किस्म के आवागमन और हरेक फेरे की कार्यकुशलता पर सकारात्मक प्रभाव पड़ेगा. और आख़िर में ‘सुधार’ के मायने हैं वाहनों की कार्यकुशला बढ़ाने के लिए नीतियों और योजनाओं पर लगातार अमल करने की प्रक्रिया. इनमें कार्यकुशलता से जुड़े मानक, वाहनों के बेड़े के बिजलीकरण और नवीकरणीय या हाइड्रोजन-आधारित वाहनों का एकीकरण शामिल हैं.
दुनिया के शहर आर्थिक वृद्धि और शहरीकरण के प्रधान केंद्र हैं. लिहाज़ा टिकाऊ मानकों पर परिवहन क्षेत्र के कायापलट से जुड़ी क़वायद में भी इनकी अहम भूमिका रहने वाली है. इस सिलसिले में स्थानीय सरकारों, शहरी प्रशासन और ग्राम पंचायतों की क्षमता की निर्णायक भूमिका रहने वाली है.
इस नज़रिए के अलावा इस पूरी प्रक्रिया में आम तौर पर एक बात को ध्यान में रखना बेहद ज़रूरी है. दरअसल परिवहन क्षेत्र में टिकाऊ तौर-तरीक़े अपनाने से जुड़ी इस पूरी क़वायद को आपसी सहभागिता, नीचे से ऊपर की ओर किए जाने वाले प्रयासों और विकेंद्रीकृत तरीक़े से आगे बढ़ाया जाना चाहिए. दुनिया के शहर आर्थिक वृद्धि और शहरीकरण के प्रधान केंद्र हैं. लिहाज़ा टिकाऊ मानकों पर परिवहन क्षेत्र के कायापलट से जुड़ी क़वायद में भी इनकी अहम भूमिका रहने वाली है. इस सिलसिले में स्थानीय सरकारों, शहरी प्रशासन और ग्राम पंचायतों की क्षमता की निर्णायक भूमिका रहने वाली है. सामाजिक और भौगोलिक रूप से अंतिम छोर तक परिवहन सुविधाएं पहुंचाने से जुड़े नेक इरादों के रास्ते में इन प्रशासनिक इकाइयों की कमज़ोरियां बड़ी रुकावट बन सकती हैं. निश्चित रूप से मौजूदा वक़्त में परिवहन एक ऐसी आवश्यकता है जिसकी हरेक को किसी न किसी रूप में ज़रूरत है. यातायात सेवाओं का लाभ उठाने वालों में न सिर्फ़ नीतियों के सक्रिय श्रोता और प्राप्तकर्ता बल्कि योजनाओं और नीतियों को अमल में लाने वाले प्रमुख नीति-निर्माता भी शामिल हैं. परिवहन क्षेत्र के बदलावों का उनपर सीधा असर पड़ता है. लिहाज़ा इस सिलसिले में विकेंद्रीकृत कार्रवाई और भागीदारी वाला रुख़ अपनाया जाना चाहिए.
परिवहन क्षेत्र को पूरी तरह से टिकाऊ विकास के पैमाने पर खरा बनाने के लिए वास्तविक अर्थों में इस क्षेत्र का कायापलट किए जाने की दरकार है. ऐसे में इलेक्ट्रिक वाहनों से इतर समाधानों और रणनीतियों को समझने, तय करने और अपनाए जाने की ज़रूरत है. वैश्विक, राष्ट्रीय, क्षेत्रीय और प्रशासन की विकेंद्रीकृत इकाइयों के स्तर पर ऐसे तौर-तरीक़े अपनाए जाने चाहिए.
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