Author : Rasheed Kidwai

Published on Sep 28, 2018 Updated 0 Hours ago

इस्लाम के अनुसार, तीन तलाक (मानक प्रक्रिया होने के बावजूद) सबसे घृणित और निंदनीय कार्य है।

तीन तलाक: विधि आयोग धर्म के आधार पर संशोधन का पक्षधर

हाल ही में विधि आयोग की ओर से ‘पारिवारिक कानून में सुधार’ विषय पर जारी परामर्श पत्र में कहा गया है कि पारिवारिक कानून में सुधार पर नीति के रूप में चर्चा करने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि यह व्यक्तियों की धार्मिक संवेदनाओं के विपरीत होगा। इसमें प्रत्येक नागरिक के धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार की रक्षा किए जाने की जरूरत पर भी बल दिया गया है।

भारत सरकार ने जून 2016 को विधि आयोग को सन्दर्भ के माध्यम से समान नागरिक संहिता से सम्बंधित मामलों का समाधान करने का दायित्व सौंपा था। विधि आयोग ने इस अवसर का इस्तेमाल कर लम्बे अरसे से भारत में पर्सनल लॉ और समान नागरिक संहिता से जुड़े प्रश्नों को लेकर व्याप्त संशयात्मक स्थिति को दूर करने की कोशिश की। एक ही बार में तीन तलाक, बहुविवाह प्रथा और निकाह हलाला को लेकर जारी कानूनी लड़ाइयों के संदर्भ में परामर्श पत्र की टिप्पणियां महत्वपूर्ण हैं, क्योंकि विधि आयोग ने किसी तरह के व्यापक बदलावों की सिफारिश नहीं की है।

भारत में, भारतीय मुसलमानों के लिए इस्लामिक कानून संहिता तैयार करने के उद्देश्य से 1937 में मुस्लिम पर्सनल लॉ (शरीयत) अनुप्रयोग अधिनियम पारित किया गया। उस समय ब्रिटिश हुक्मरानों ने भारत में अपने शासन के दौरान यह सुनिश्चित करने का प्रयास किया कि भारतीयों पर उनके सांस्कृतिक मानदण्डों के अनुरूप ही शासन किया जाये। 1937 से शरीयत अनुप्रयोग अधिनियम (जिसे बहुत से मुसलमान उत्कृष्टता से कोसों दूर मानते थे) मुस्लिम समाज के विवाह, तलाक, विरासत और पारिवारिक सम्बधों के पहलुओं को अधिदेशित करता था। कानून में कहा गया है कि निजी विवाद में राज्य हस्तक्षेप नहीं करेगा। 2011 की जनगणना के आंकड़ों के अनुसार, मुसलमानों में तलाक की दर 0.56 फीसदी थी, जबकि हिंदुओं में तलाक की दर 0.76 फीसदी थी, जो मुसलमानों से अधिक थी।

भारत मेंभारतीय मुसलमानों के लिए इस्लामिक कानून संहिता तैयार करने के उद्देश्य से 1937 में मुस्लिम पर्सनल लॉ (शरीयत) अनुप्रयोग अधिनियम पारित किया गया। उस समय ब्रिटिश हुक्मरानों ने भारत में अपने शासन के दौरान यह सुनिश्चित करने का प्रयास किया कि भारतीयों पर उनके सांस्कृतिक मानदण्डों के अनुरूप ही शासन किया जाये।

विधि आयोग ने समान नागरिक संहिता (यूसीसी) के बारे में महत्वपूर्ण टिप्पणी करते हुए इस बात पर बल दिया कि देश के सभी नागरिकों के लिए एक समान कानून लागू होना न तो अनिवार्य है न ही वांछित। इसकी बजाय, उसने समाज में महिलाओं से भेदभाव समाप्त करने तथा दीवानी कानूनों को महिलाओं और पुरुषों दोनों के लिए उपयुक्त बनाने के लिए हिन्दू, मुस्लिम, और क्रिश्चियन पर्सनल लॉ में धर्म के अनुसार संशोधन करने की सिफारिश की है।

आयोग ने मुस्लिम पर्सनल लॉ के बारे में तीन महत्वपूर्ण सिफारिशें की हैं।

  • विरासत कानून को संहिताबद्ध करना: स्पष्टता लाने के लिए सुन्नी और शिया दोनोँ पर लागू समग्र संहिता यानी मुस्लिम विरासत और उत्तराधिकार संहिता निरूपित की जा सकती है। इसमें मुस्लिम पर्सनल लॉ (शरियत) अनुप्रयोग कानून, 1937 का उन्मूलन शामिल होगा। व्यवहारिक सन्दर्भ में, यह राजनीतिक और सामाजिक दोनों स्तरों पर पेचीदा मामला हो सकता है। उल्लेखनीय है कि नेहरू के दौर में मुस्लिम लॉ कमिटी बनाने के विचार से मुस्लिम पर्सनल लॉ (शरीयत) अनुप्रयोग कानून, 1937 साथ ही साथ मुस्लिम विवाह विच्छेद अधिनियम, 1939 को संहिताबद्ध करने के प्रयास किए गए थे, लेकिन समुदाय के भीतर विरोध होने पर यह विचार त्याग दिया गया था। उसके बाद कुरान की आयतों की प्रगतिशील व्याख्या का जिम्मा न्यायपालिका पर छोड़ दिया गया।
  • मुस्लिम विवाह विच्छेद अधिनियम, 1939 में उचित संशोधन के जरिए व्यभिचार को तलाक का आधार बनाया जाना चाहिए। मौजूदा मुस्लिम कानून के अनुसार, पत्नी पति की नपुंसकता, लम्बे अर्से से गुमशुदगी, भरण पोषण करने में नाकामी, वैवाहिक दायित्वों का पालन न करने, सात साल से ज्यादा की कैद होने आदि के आधार पर तो खुला या तलाक ले सकती है, fलेकिन व्यभिचार के आधार पर नहीं। महत्वपूर्ण यह है कि तलाक के लिए महिलाओं और पुरुषों के अधिकार और आधार समान हो। अधिनियम 1939, में तलाक के आधार के तौर पर ‘व्यभिचार’ को भी शामिल किया जाना चाहिए और यह महिलाओं और पुरुषों दोनों के लिए समान रूप से उपलब्ध होना चाहिए।
  • निकाहनामा में ही स्पष्ट होना चाहिए कि बहुविवाह आपराधिक कृत्य है और भारतीय दण्ड संहिता की धारा 494 सभी समुदायों पर लागू होगी। यह सलाह महज दूसरे विवाह की नैतिक स्थिति या एकल विवाह को महिमामण्डित करने के लिए नही दी गई है बल्कि यह इस तथ्य पर आधारित है कि केवल पुरुषों को ही एक से अधिक पत्नियों की इजाजत मिलना अनुचित है। क्योंकि यह मामला उच्चतम न्यायालय में विचाराधीन है, इसलिए आयोग ने अपनी सिफारिश सुरक्षित रखी है।

आयोग के अध्यक्ष न्यायमूर्ति बी एस चौहान ने टिप्पणी की है कि दुनिया के ज्यादातर देश अब मतभेदों को स्वीकार करने की ओर बढ़ रहे हैं। उच्चतम न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश न्यायमूर्ति चौहान ने इस पत्र के परिचय में लिखा है, “महज मतभेदों के होने भर का आशय भेदभाव नहीं है, लेकिन यह सुदृढ़ लोकतंत्र का परिचायक है।”

 विधि आयोग की अन्य महत्वपूर्ण सिफारिशें हैं:

  • विवाह का पंजीकरण अनिवार्य: विधि आयोग ने सुझाव दिया है कि भारत सरकार को जन्म और मृत्यु पंजीकरण अधिनियम में संशोधन करना चाहिए, ताकि आयोग की 270वीं रिपोर्ट साथ ही साथ अनिवार्य विवाह पंजीकरण विधेयक (2017) में की गई सिफारिश पूरी हो सके।
  •  विवाह की स्वीकृति के लिए एक समान आयु: विधि आयोग के अनुसार, पुरुषों और महिलाओं के लिए विवाह की कानूनी आयु भारतीय वयस्कता अधिनियम, 1857 के अनुसार, वयस्कता की आयु की तरह ही एक समान, यानी 18 साल होनी चाहिए। मौजूदा कानून में प्रावधान है कि महिला 18 साल की आयु में विवाह कर सकती है, जबकि पुरुष 21 वर्ष की आयु में विवाह कर सकता है। अन्य बातों के अलावा, आयोग ने कहा कि इस तरह का कानून केवल इसी पुराने ढर्रे को ही आगे बढ़ाने में योगदान देगा कि पत्नी की आयु पति से कम होनी चाहिए।
  • विवाह में सुलह की गुंजाइश नहीं बचने को तलाक का आधार मानना: पति पत्नी के बीच सुलह की कोई गुंजाइश न बचने को तलाक के लिए वैध आधार मानने की सिफारिश की गई है। इससे तलाक की प्रक्रिया में तेजी लाने के लिए जीवनसाथी पर क्रूरता आदि के झूठे आरोप लगाने जैसे मामलों पर काबू पाने में मदद मिलेगी।
  • विवाह और तलाक के समय संपत्ति को जोड़ना: पति पत्नी दोनों विवाह के बाद अर्जित की गई सम्पत्ति में बराबरी के हकदार होने चाहिए। इसका मतलब रिश्ता टूटने पर सम्पत्ति का बिल्कुल समान बंटवारा होना नहीं है और ऐसे मामलों में अदालत का निर्णय बरकरार रखा जाना चाहिए। हालांकि आयोग ने सिफारिश की है कि स्व अर्जित सम्पत्ति को मिलाने के मामले में जीवनसाथी का दोष साबित किए बिना तलाक या नो-फॉल्ट डिवोर्स की उपलब्धता भी होनी चाहिए।
  • कानून को दिव्यांगों के अनुकूल बनाया जाना चाहिए: अन्य बातों के अलावा आयोग ने यह भी सिफारिश की है कि कुष्ठ को तलाक का आधार मानना समाप्त करना चाहिए। व्यापक समावेशी समाज की ओर बढ़ते हुए, आयोग ने यह भी सुझाया है कि उचित संशोधन किए जाने चाहिए ताकि ऐसे लोगों को विवाह करने से रोका न जाए, जिनके रोग का इलाज मुमकिन हो या जिनके रोग को नियंत्रित किया जा सकता हो। ऐसे रोगों को तलाक के आधार की श्रेणी से बाहर किया जाना चाहिए।

विशेष विवाह अधिनियम, 1954 के तहत, 30 दिन के नोटिस की अवधि समाप्त करना : अक्सर इस अवधि का इस्तेमाल सम्बन्धी की निंदा करने में किया जाता है, ताकि उसे विवाह के लिए हतोत्साहित किया जा सके। इन प्रावधानों की समाप्ति के विकल्प के तौर पर सुझाया गया है कि विवाह बंधन में बंधने वाले जोड़े की पुख्ता हिफाजत की जानी चाहिए, क्योंकि वह अंतर्जातीय/दूसरे धर्म के अनुयायी से विवाह न करने की अपने रिश्तेदारों की मांग ठुकरा रहा होता है।

एक ही बार में तीन तलाक के मामले पर, विधि आयोग की रिपोर्ट में टिप्पणी की गई है कि न्यायालयों के बहुत से पिछले निर्णयों में इस भ्रष्ट पद्धति की निंदा की गई और आखिरकार 2017 में इसे रद्द कर दिया गया। उदाहरण के तौर पर, शमीम आरा बनाम उत्तर प्रदेश सरकार के मुकदमे में, न्यायालय ने तीन तलाक के मामले पर विस्तार से विचार किया। उच्चतम न्यायालय ने आगे टिप्पणी की कि एक ही बार में तीन तलाक यानी तलाक-ए-बिद्दत अपने नाम से ही ऐसी पद्धति समझी जाती है, तो भ्रष्ट तरीके के रूप में बनाई गई है और यह पद्धति शरिया के सिद्धांतों और कुरान की आत्मा तथा पैगम्बर(हदीस) की शिक्षाओं के खिलाफ है। इतना ही नहीं, उच्चतम न्यायालय के न्यायधीश न्यायमूर्ति नरिमन ने लिखा कि जो धर्मशास्त्रों के अनुसार बुरा हो, वह अच्छा कानून नहीं बन सकता।

एक ही बार में तीन तलाक के मामले पर, विधि आयोग की रिपोर्ट में टिप्पणी की गई है कि न्यायालयों के बहुत से पिछले निर्णयों में इस भ्रष्ट पद्धति की निंदा की गई और आखिरकार 2017 में इसे रद्द कर दिया गया।

विधि आयोग ने टिप्पणी की है कि पर्सनल लॉज़ के भीतर मतभिन्नता महज समानता और धार्मिक स्वतंत्रता के मौलिक अधिकारों को लेकर ही नहीं है, जैसा कि आमतौर पर प्रस्तुत किया जाता है। दरअसल, यह प्रत्येक पर्सनल लॉ संहिता में मौजूद है। उदाहरण के लिए, जैसा कि शमीम आरा मामले में इंगित किया गया है कि तीन तलाक के संदर्भ, इस बात पर भी मतभिन्नता है कि पर्सनल लॉ के वास्तविक स्रोत क्या प्रचारित करते हैं और जिस तरह आंग्लो-धार्मिक कानूनों को संहिताबद्ध किया गया है।

विधि आयोग ने सिफारिश की है कि जो भी व्यक्ति एकतरफा तलाक ले रहा हो, उसे दंडित किया जाना चाहिए, उस पर जुर्माना लगाया जाना चाहिए और/या घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम, 2005 तथा भारतीय दंड संहिता के क्रूरता-विरोधी प्रावधान, 1860, विशेषकर धारा 489 (किसी विवाहित महिला को लालच देना या साथ ले जाना या आपराधिक मंशा से उसे हिरासत में रखना) के मुताबिक सज़ा दी जानी चाहिए। आयोग के अनुसार, इससे निकाह हलाला के मामलों में कमी आएगी।

उच्चतम न्यायालय ने 2017 में एक ही बार में तीन तलाक, यानी तत्क्षण तीन तलाक को रद्द कर दिया था। इस्लाम में तलाक की मानक प्रक्रिया या तलाक को तलाक-उल-सुन्नत कहा जाता है, जो मुसलमानों के ​बीच विवाह विच्छेद का आदर्श स्वरूप है। तीन चांद महीनों के चक्र में फैले तीन तलाक के अंतर्गत, पति के एक बार तलाक देने पर उसे समझाया-बुझाया जा सकता है और पत्नी से उसकी सुलह हो सकती है। इन तीन महीनों के दौरान पति-पत्नी में सहवास की स्थिति में तलाक रद्द हो जाता है। हालांकि जब यह तीन महीनों की अवधि समाप्त हो जाती है और पति जाहिर करके या सहवास के जरिए तलाक रद्द नहीं करता, तो तलाक रद्द नहीं हो सकता और वह अंतिम होता है। इस्लाम के अनुसार, तीन तलाक (मानक प्रक्रिया होने के बावजूद) सबसे घृणित और निंदनीय कार्य है। कुरान में कहा गया है कि यदि तलाक दो बार दिया गया हो, तो पति को या तो अपनी पत्नी को सम्मान से साथ रखना चाहिए या फिर दयालुता से मुक्त कर ​देना चाहिए। यदि वह तीन बार तलाक दे देता है, तो पत्नी उसके लिए नाजायज हो जाती हैं, जब तक कि वह किसी अन्य पुरुष से शादी न कर ले (और दूसरा पति भी जानबूझकर उसको तलाक दे)।

यदि तीन चांद मास बीत जाते हैं, और पति एक बार भी उससे सम्पर्क नहीं करता, तो मुस्लिम कानून के अनुसार तलाक की प्रक्रिया पूरी हो जाती है और यह तलाक अंतिम होता है। पुनर्मिलन के विषय में संप्रदायों में मतभेद हैं। ज्यादातर संप्रदाय तलाकशुदा पति और पत्नी के बीच पुनर्विवाह को नापसन्द करते हैं। हालांकि हनीफी संप्रदाय के अनुसार, (भारत में अधिकांश सुन्नी मुसलमान इमाम अबु हनीफा के नाम पर स्थापित संप्रदाय हनीफी पंथ का अनुसरण करते हैं।)पति और तलाकशुदा पत्नी दोबारा शादी कर सकते हैं, अगर पत्नी किसी अन्य व्यक्ति से किसी शर्त के तौर पर नहीं बल्कि इत्तेफाक से शादी करे। लेकिन व्यवहार में, दोबारा शादी, जिसको हलाला नाम से भी जाना हाता है, का इस्तेमाल दोबारा उसी महिला से शादी करने के भ्रष्ट तरीके के तौर पर किया जाता है। इसके बावजूद, पहले पति के साथ दोबारा शादी करने से पहले उसे इंतजार करना पड़ता है। यदि वह महिला गर्भवती हो जाए, तो उसको बच्चे का जन्म होने तक इंतजार करना पड़ता है। यदि वह गर्भवती न हो, तो फिर उसको तीन मासिक चक्र पूरे करने पड़ते हैं। यदि निकाह को हलाला की शर्त पर अंजाम दिया गया हो, तो वह संगीन गुनाह और नाजायज़ होता है। पैगम्बर ने कहा था, “जो हलाला के लिए समझौता या करार करते हैं। हलाला करने वाले तथा जिसके लिए वह किया गया हो, दोनों पर अल्लाह का कहर बरसता है।”

पुनर्मिलन के विषय में संप्रदायों में मतभेद हैं। ज्यादातर संप्रदाय तलाकशुदा पति और पत्नी के बीच पुनर्विवाह को नापसन्द करते हैं। हालांकि हनीफी संप्रदाय के अनुसार, (भारत में अधिकांश सुन्नी मुसलमान इमाम अबु हनीफा के नाम पर स्थापित संप्रदाय हनीफी पंथ का अनुसरण करते हैं।)पति और तलाकशुदा पत्नी दोबारा शादी कर सकते हैं, अगर पत्नी किसी अन्य व्यक्ति से किसी शर्त के तौर पर नहीं बल्कि इत्तेफाक से शादी करे।

विधि आयोग के परामर्श पत्र में स्वीकार किया गया है कि यूं तो इस्लाम में बहुविवाह की इजाजत है, लेकिन भारतीय मुसलमानों में ऐसे मामले विरले ही देखने को मिलते हैं, जबकि अन्य धर्मों के लोग इसका आए ​दिन इस्तेमाल करते हैं। वे एक और शादी करने के मकसद से वे मुसलमान बन जाते हैं। ​तुलनात्मक कानूनों से पता चलता है कि केवल चंद मुसलमान देश ही बहुविवाह की इजाजत देते हैं, वह भी कड़े नियमों के साथ। उदाहरण के लिए, पाकिस्तान कड़ी कानूनी प्रक्रियाओं की वजह से दूसरे विवाह की घटनाएं रोकने में सफल रहा है। लाहौर की ​निचली अदालत ने 2017 में दो शादियों के बारे में 2015 के पारिवारिक कानून के प्रावधानों की प्रगतिशील व्याख्या प्रस्तुत की और कहा कि पहली बीवी की इजाजत के बगैर की गई दूसरी शादी ‘कानून तोड़ने के समान होगी।’ लाहौर की अदालत ने आदेश दिया कि उस व्यक्ति को छह महीने की कैद तथा 200,000 पाकिस्तानी रुपये का जुर्माना अदा करना होगा।

दरअसल, पाकिस्तान में कानून पहली शादी के अस्तित्व में रहने के दौरान दूसरी शादी करने पर रोक लगाता है। यदि असाधारण परिस्थितियों में ऐसी शादी करनी भी पढ़ती है, तो मध्यस्थता परिषद को लिखित आवेदन देना पड़ता है। इस आवेदन में मौजूदा पत्नी/पत्नियों की ओर से इजाजत भी होनी चाहिए। परिषद उस आवेदन पर अपना फैसला लिखित में देगी कि उसे इजाजत दी जाए या नहीं और उसका निर्णय अंतिम होगा।​हालांकि यदि पति मध्यस्थता परिषद की इजाजत के बिना ही दूसरी शादी कर लेता है, तो उसे फौरन अपनी मौजूदा बीवी/बीवियों को दहेज की पूरी रकम लौटानी होती है। इतना ही नहीं शिकायत होने पर वह दोषी भी ठहराया जा सकता है।

भारतीय विधि आयोग ने अपनी 18वीं रिपोर्ट में संभवत: पहली बार भारत में इस्लामिक कानूनों के अंतर्राष्ट्रीय संदर्भों को स्वीकार किया है। रिपोर्ट में इंगित किया गया है कि मोरक्को, अल्जीरिया, ट्यूनिशिया, लीबिया, मिस्र, सीरिया, लेबनान और पाकिस्तान जैसे दुनिया के विविध देशों में मुस्लिम पर्सनल लॉ से संबंधित सुधार जैसे बहुविवाह के लिए कड़ी शर्ते लगाते हुए एकल विवाह लागू किया गया है। हालांकि सऊदी अरब, ईरान, इंडोनेशिया और भारत में यह चलन जारी है।

इसलिए, धर्म और संविधानवाद के बीच इस तरह का तालमेल बनाने की आवश्यकता है, ताकि किसी भी नागरिक को अपने धर्म के कारण नुकसान न उठाना पड़े।

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