Published on Nov 08, 2017 Updated 0 Hours ago

बैंकिंग, कृषि और अब बिजली आपूर्ति के क्षेत्र में वादों और जमीनी हकीकत के बीच फर्क घ रहा है यां बढ़ रहा है?

मोदी सरकार के वादों पर गिर रही बिजली!

वैसे तो यह कटु सत्‍य है कि देश में आर्थिक हालात अच्‍छे नहीं हैं, लेकिन इसके लिए सारा दोष नरेंद्र मोदी सरकार पर नहीं मढ़ा जाना चाहिए। कई आर्थिक समस्याओं की शुरुआत तो काफी पहले ही हो गई थी और आलम यह था कि पिछली सरकारों ने उनसे निजात पाने के लिए कोई खास जहमत नहीं उठाई। इसकी बानगी आपके सामने है। कृषि क्षेत्र की दुर्दशा दशकों पहले ही शुरू हो गई थी और अपनी आजीविका के लिए कृषि पर निर्भर आबादी में भारी वृद्धि होने तथा वैकल्पिक ग्रामीण रोजगारों का सख्‍त अभाव होने के चलते पिछले कुछ वर्षों में इस क्षेत्र की हालत बद से बदतर हो गई है। कृषि क्षेत्र में छोटी जोत की समस्या एवं क्षमता से कम उत्पादकता एक बड़ी पुरानी समस्‍या है और आज इसने विकराल रूप धारण कर लिया है।

कृषि विशेषज्ञ आए दिन कृषि क्षेत्र में बुनियादी ढांचागत सुविधाओं के अपर्याप्‍त होने की ओर सरकार का ध्‍यान दिलाते रहते हैं। तैयार फसलों के भंडारण, बाजार के बुनियादी ढांचे, उपज का वाजिब मूल्‍य न मिलने और बिचौलियों की भूमिका से जुड़ी ढेर सारी समस्‍याएं हैं। सस्ते ऋण की उपलब्धता किसानों के लिए खास मायने रखती है, लेकिन पिछले कई वर्षों से विशेषकर छोटे किसानों को यह नसीब नहीं हो पा रहा है। छोटे किसानों के पास बैंकों से ऋण लेने के लिए बतौर गारंटी या जमानत कुछ भी खास नहीं होता है। ऐसे में वे सूदखोर महाजनों के जाल में फंस जाते हैं जो धीरे-धीरे उनकी थोड़ी-बहुत बची निजी संपत्ति, पशु, भूमि एवं उपज सब कुछ अपने नाम कर लेते हैं और फि‍र उनके पास आत्महत्‍या करने के अलावा और कोई चारा नहीं रह जाता है।


पिछले कुछ समय से ‘रोजगारविहीन विकास’ की भी स्थिति देखी जा रही है क्‍योंकि विनिर्माण उद्योग खुद को प्रतिस्पर्धी बनाए रखने के लिए ऐसी उत्पादन तकनीकों को अपनाने पर अपना ध्‍यान केंद्रित कर रहा है जिनमें ज्‍यादा श्रमबल के बजाय ज्‍यादा पूंजी की जरूरत पड़ती है।


अत्‍यंत विकसित ‘आईटीसी’ उद्योग विशेषकर प्रौद्योगिकी पर ही फोकस करता रहता है जिस वजह से वहां अर्ध कुशल कामगारों को समायोजित करने की गुंजाइश नहीं रहती है। हालांकि, हाल ही में कई और समस्याएं नोटबंदी (विमुद्रीकरण) के कारण उत्पन्न हुई हैं। नोटबंदी ने अनौपचारिक क्षेत्र को तगड़ा झटका दिया है जिसमें लगभग 90 प्रतिशत श्रम बल कार्यरत हैं। इसी तरह वस्‍तु एवं सेवा कर (जीएसटी) को लंबे समय तक गहन विचार-विमर्श के बाद आखिरकार भारत के खंडित बाजारों को एकल बाजार में तब्‍दील करने के उद्देश्‍य से बाकायदा लागू तो कर दिया गया है, लेकिन इसमें तरह-तरह की अड़चनें आ रही हैं। इसमें सुगमता या आसानी सुनिश्चित करने में अभी और वक्‍त लगेगा।

बैंकिंग क्षेत्र में एनपीए (फंसे कर्ज) की विकराल समस्‍या भी अतीत की विरासत है। कारोबारियों और नेताओं की आपसी सांठगांठ वाली भ्रष्‍ट आर्थिक प्रणाली यूपीए सरकार के समय भी फलती-फूलती रही, जिसका नतीजा जानबूझकर कर्ज अदा न करने वाले जाने-माने लोगों की लंबी सूची के रूप में सामने आया है। कारखानों में जरूरत से ज्‍यादा तैयार माल होने के कारण निजी निवेश नई गति नहीं पकड़ पा रहा है, जिसके लिए वैश्विक व्यापार में सुस्‍ती और चीन से कड़ी प्रतिस्पर्धा जैसे वैश्विक कारक आंशिक रूप से जिम्‍मेदार हैं। निजी निवेश में एकदम से तेज वृद्धि सुनिश्चित करने के लिए बैंकिंग क्षेत्र, विशेषकर सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों की माली हालत फि‍र से दुरुस्‍त करनी होगी।


मोदी सरकार के सामने पेश आ रही मुख्‍य समस्‍या संभवत: यह है कि इसने वादों की झड़ी लगा दी है जिन्‍हें वह पूरा नहीं कर पा रही है। मोदी सरकार ने भारत के सभी युवाओं को नौकरी देने का वादा किया, लेकिन ऐसा नहीं हुआ।


मोदी सरकार ने विदेश में सुरक्षित पनाहगाह में रखे काले धन को स्‍वदेश वापस लाने और हर गरीब व्यक्ति के बैंक खाते में 15 लाख रुपये जमा करके उन्‍हें समृद्ध करने का वादा किया, लेकिन ऐसा करने में वह विफल रही है। मोदी सरकार ने हाल ही में घोषि‍त ‘सौभाग्य’ योजना के तहत ‘सभी को बिजली’ देने का वादा किया है, जो वर्ष 2016 में अपने स्वतंत्रता दिवस भाषण में मोदी द्वारा किया गया पुराना वादा है। हालांकि, सच्‍चाई यही है कि आजादी के 70 साल बाद भी 40 मिलियन घरों में बिजली मयस्‍सर नहीं है, जो वास्तव में शर्मनाक है। 21वीं सदी में बिजली की सुविधा न होना चाहकर भी अच्‍छा जीवन न जी पाने और गरिमा एवं आराम के बिना जीवन जीने की बेबशी को दर्शाता है।

मोदी ने मार्च 2019 की अपनी पिछली समयसीमा के बजाय उससे पहले ही दिसंबर 2018 तक ‘सभी को बिजली’ देने का वादा किया है। बेशक यह उनके लिए एक और दुष्‍कर कार्य होगा, लेकिन यह एक वादा है जिसे उन्हें पूरा करना होगा। बिजली की केबलों और मीटरों के जरिए घरों में बिजली कनेक्शन देना समस्या नहीं है, बल्कि राज्य सरकारों द्वारा अपनी डिस्‍कॉम (बिजली वितरण कंपनियों) के जरिए इन घरों में बिजली सुलभ कराने में उनकी असमर्थता असली समस्‍या है। ज्‍यादातर डिस्‍कॉम भारी कर्ज बोझ से लदी हुई हैं क्‍योंकि उन्‍हें राज्य सरकारों द्वारा अतीत में किए गए चुनावी वादों को पूरा करने के लिए रियायती (सब्सिडी) दरों पर बिजली वितरित करनी पड़ रही है।


‘उदय’ योजना ने डिस्‍कॉम के 75 प्रतिशत कर्जों का अधिग्रहण कर लिया है और इसके साथ ही इस योजना के तहत बैंकों एवं अन्य वित्तीय संस्थानों को बांड जारी किए गए हैं, ताकि इसे अदा करने के लिए आवश्‍यक धनराशि जुटाई जा सके। शेष 25 फीसदी ऋण विद्युत वितरण कंपनियों (डिस्‍कॉम) को दिया गया कर्ज माना जाएगा जिसके लिए ब्‍याज दरों की एक सीमा तय होगी। मोदी ने इस साल 21 जुलाई को ‘उदय’ योजना की प्रगति का जायजा लिया और यह पाया कि डिस्‍कॉम की औसत लागत एवं अर्जित राजस्व में अंतर को कम करने में प्रति यूनिट 0.07 रुपये का सुधार हुआ है। हालांकि, यह बेहतरी कोई खास नहीं है।


केन्द्रीय विद्युत प्राधिकरण के अनुसार, डिस्‍कॉम द्वारा वितरित प्रति यूनिट बिजली पर उनके द्वारा अर्जित औसत राजस्व 3.76 रुपये है, जबकि विद्युत आपूर्ति की लागत 5.01 रुपये प्रति यूनिट है। यह स्थिति बिजली आपूर्ति पाने वाले ग्रामीण परिवारों की संख्‍या में वृद्धि के कारण देखी जा रही है क्‍योंकि यह अत्‍यधिक रियायती है। बड़े पैमाने पर बिजली चोरी और पारेषण के दौरान विद्युत नुकसान भी इसके लिए जिम्‍मेदार हैं। तमिलनाडु, महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश की डिस्‍कॉम ने बिजली उत्‍पादकों के साथ हुए अपने विद्युत खरीद समझौतों के तहत तय दायित्वों में चूक (डिफॉल्‍ट) की है। इसके परिणामस्‍वरूप वे अपनी आधी क्षमता के साथ ही काम कर पा रहे हैं क्‍योंकि राज्यों की डिस्‍कॉम की ओर से बिजली की पर्याप्त मांग नहीं है। अत: नकदी की तंगी और एटीएंडसी (कुल तकनीकी एवं वाणिज्यिक) नुकसान के कारण डिस्‍कॉम कुशलतापूर्वक काम करने में असमर्थ हैं। भले ही मोदी ने अपनी समीक्षा में यह पाया हो कि ‘उदय’ की बदौलत एटीएंडसी नुकसान घटकर 20.2 प्रतिशत के स्‍तर पर आ गया है और 16 राज्यों की सरकारों ने डिस्‍कॉम के 2.1 ट्रिलियन रुपये के कर्जों का अध्रिग्रहण कर लिया है, लेकिन कटु सच्‍चाई तो यही है।

कागज पर यह दिखाया जा रहा है कि 99.5 प्रतिशत गांवों में बिजली कनेक्शन सुनिश्चित कर दिए गए हैं। ऐसे में सवाल यह उठता है कि यदि वास्‍तव में ऐसी स्थिति है तो 77 प्रतिशत घरों में बिजली की आपूर्ति नियमित रूप से क्‍यों नहीं हो पा रही है? यह नौबत विद्युतीकृत गांव की अतिरंजित परिभाषा के कारण आई है, जिसके तहत किसी गांव के महज 10 प्रतिशत घरों में बिजली कनेक्शन सुलभ होने पर भी उसे विद्युतीकृत गांव घोषित कर दिया जाता है। इसके मद्देनजर बहस का मुद्दा यह है कि क्‍या संकटग्रस्‍त डिस्‍कॉम को लागत वसूलने के लिए अपेक्षाकृत ज्‍यादा शुल्‍क लगाने की अनुमति होगी क्योंकि केवल तभी वे सभी को बिजली दे सकती हैं और दक्ष एवं आधुनिक बन सकती हैं।

इसमें कोई शक नहीं है कि गांवों में बिजली की उपलब्धता से वहां के निवासियों की कमाई क्षमता बढ़ जाएगी क्योंकि वे अपनी उत्पादकता और आय बढ़ाने के लिए सरल उपकरणों का उपयोग करने में सक्षम होंगे। रेफ्रिजरेटर भोजन, फलों एवं सब्जियों को संरक्षित कर सकते हैं और जैव ईंधन के बजाय खाना पकाने के विद्युत उपकरणों का इस्‍तेमाल होने से महिलाएं स्वच्छ हवा में सांस लेने में सक्षम हो जाएंगी। इसी तरह बड़ी संख्‍या में लोगों को इलेक्ट्रिक ग्राइंडर और स्टोव का इस्तेमाल करते हुए खाद्य प्रसंस्करण और स्नैक्स बनाने के कार्य में शामिल किया जा सकता है, ताकि इसकी बदौलत शहरी इलाकों में बिक्री करने में आसानी हो सके। यही नहीं, इससे प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों और शिक्षण संस्थानों में स्वास्थ्य की देखभाल बेहतर हो पाएगी। गांवों में बिजली मयस्‍सर होने से महिलाओं की सुरक्षा सुनिश्चित हो पाएगी और इसके साथ ही सड़कों पर दुर्घटनाएं भी कम होंगी। अत: वर्ष 2019 में एनडीए की वापसी के लिए ‘सौभाग्य’ को सफल बनाना ही होगा।

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